हिन्दी टाकीज:वो ख्वाबों के दिन, वो फिल्मों के दिन-ज़ेब अख्तर
हिन्दी टाकीज-३३
ज़ेब अख्तर रांची में रहते हैं.वे पत्रकारिता से जुड़े हैं और फिलहाल प्रभात ख़बर में फीचर संपादक हैं। व्यवसाय छोड़ कर पत्रकारिता में आए ज़ेब अख्तर साफ़ दिल और सोच के लेखक हैं.चवन्नी ने इधर किसी पत्रकार की ऐसी खनकती हँसी नहीं सुनी। हिन्दी और उर्दू में सामान रूप से लिखते हैं.उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। एक शोध पुस्तक भी प्रकाशित है। ज़ेब अख्तर फिल्मों के लिए लिखना चाहते हैं। वे लीक से हट कर कुछ फिल्में लिखना चाहते हैं।
जब होश संभाला तब टीवी भी नहीं था, छोटे शहर में होने के कारण सिनेमा ही मनोरंजन का एक मात्र साधन हुआ करता था। पिताजी थे तो सख्त लेकिन इतना जानते थे कि जरूरत से ज्यादा कड़ा होना नुकसान पहुंचा सकता है। सो इस मामले में उन्होंने थोड़ी छूट दे रखी थी। गोया गीत गाता चल, हम किसी से कम नहीं, आलम आरा, नहले पे दहला, शोले, मुगल- ए- आजम जैसी फिल्में देखने के लिए हमें इजाजत मिल जाती थीं। लेकिन मन इतने से कहां मानने वाला था। हम तो सभी फिल्में देखना चाहते थे। इसलिए स्कूल से गैरहाजिर होना जरूरी था। क्योंकि रविवार के दिन हम उर्दू पढ़ने मदरसा जाते थे। वहां से गैरहाजिर होने का मतलब था मौलवी साहब जैसी कयामत का सामना। इस मामले में स्कूल के शिक्षक हमें कुछ उदार मालूम पड़ते थे जो कुछ दो- चार छड़ियां लगाकर ही मुक्ति दे दिया करते थे। स्कूल से गायब होकर सिनेमा देखने का रोमांच इस कदर हावी रहता कि यह सजा हमें बहुत मामूली लगती। और उन दिनों सिनेमा हॉल के दरबान की नौकरी हमें सबसे कीमती जान पड़ती थी। हम उसे लालायित होकर देखते। सोचा करते बड़े होने पर दरबान बनना है और सिनेमा हॉल का ही दरबान बनना है। भला ऐसा रोब और किस नौकरी में था। और गेट पर खड़ा रहने वाला टिकट चेकर तो हमारे लिए इतनी ॐची चीज था कि हम उसका स्थान लेने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। बस उसे देखते और उसकी किस्मत पर रश्क करते। हमें उन दिनों सबसे बुरा यह लगता था कि हमारे शहर में एक ही सिनेमा हॉल था। जब भी हमारे यहां कोई रिश्तेदार आते, हमारा पहला सवाल उनसे यही होता कि उनके शहर में कितने सिनेमा हॉल हैं।
खैर इस दौरान सिनेमा से जुड़े कई रोचक घटनाएं घटीं। दो का ही जिक्र करना चाहूंगा।
होता यह था कि एक तरफ हमारी दुकान और दूसरी तरफ स्कूल। जहां मैंने छठी तक की पढ़ाई की। यह तीनों चीजें अपनी- अपनी जगह पर आज भी मौजूद हैं। सिनेमा हॉल में दाखिल नहीं हो सकता। लेकिन हमने इसकी तरकीब निकाल रखी थी। सिनेमा हॉल से बाहर निकलने का दरवाजा पीछे था और वह शो खत्म होने के समय ही खुलता था। हम शो खत्म होने के समय ही उसी दरवाजे से सिनेमा हाल में दाखिल हो जाते थे। लेकिन एक दिन हम पकड़े गये। पिताजी ने मुझे पकड़ लिया। कान पकड़कर सीधे स्कूल। सभी के सामने मास्टर साहब ने पीटना शुरू किया। दरअसल उन्हें भी अपने अनुशासन प्रिय होने और अपनी छड़ी पर पूरा आत्मविश्वास था। पिटाई करते हुए वह पूछते भी जा रहे थे कि अभी कुछ मिनट पहले मैं क्लास में ही था। तो फिर सिनेमा हॉल में पहुंचा कैसे ... जबकि वह किसी शो मैटिनी या नून शो के शुरू होने का भी नहीं था। अब उन्हें क्या पता कि इस चक्कर से बचने के लिए भी हमने एक ऐसी तरकीब निकाल रखी थी। जिसकी कल्पना भी उन जैसे कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक के मस्तिष्क में नहीं आ सकती थी। दरअसल हम तीन यार थे। योजना यह बनती थी कि एक फिल्म को तीन लड़के तीन दिन में देखते थे। बारी- बारी से एक- एक घंटा। यानी एक फिल्म को हम तीन दिन में पूरी देख पाते थे, तीन किश्तों में। इस तरह क्लास में एक घंटे से अधिक की अनुपस्थिति से बचा जाता था। और किसी को शक भी नहीं होता था।
एक-एक टिकट तीन दिन ली जाती थी। यानी लागत भी उतना ही। सो मास्टर साहब हमें पीट कम और झुंझला अधिक रहे थे। लेकिन जब तक इस स्कूल में रहे यह राज, राज ही बना रहा। बता देने पर बाकी दोनों साथी भी फिल्म देखने से महरूम हो जाते। सो यह सजा मुझे उस दिन अकेले ही भुगतनी पड़ी। दूसरी घटना शोले फिल्म से जुड़ी है। हालांकि पिताजी के कोटे से यह फिल्म हम तीनों भाई पहले ही देख चुके थे। लेकिन एक वर्ष होली के मौके पर यह फिल्म हमारे शहर में आयी। हमने स्कूल की अनुपस्थिति से बचने का फैसला करते हुए शोले को होली के दिन देखने का प्रोग्राम बनाया। नून शो यानी 12 से तीन वाले शो में। लेकिन हम लोगों को इस दरम्यान होनेवाली दुगर्ति का जरा भी गुमान नहीं था। जितने बेतुके तरह से होली खेली जा सकती है, हमारे शहर में खेली जाती है। इसका हमें डर भी था। सो हमने सिनेमा हाल जाने के लिए मुख्य सड़क का रास्ता न चुनकर एक लंबा रास्ता चुना था। जिधर किसान रहते थे और वह गांव से होकर गुजरता था। हमने साफ सुथरे कपड़े पहने और चल पड़े शोले देखने। लेकिन गांव के मुहाने पर ही हम तीनों भाइयों को ग्वालों ने दबोच लिया। उनके होली खेलने का अंदाज बड़ा ही निराला था। उन्हों एक बड़े ड्रम में गोबर का घोल बना रखा था। वे हम तीनों को बारी-बारी से गोद में उठाकर ड्रम में डुबोते और निकालते। जब हमारे पूरे कपड़े और शरीर गोबरमय हो गये तो हमें छोड़। हमने पास के तालाब में स्नान किया और कपड़े किसी तरह सुखाये। लेकिन इतना होने पर भी शोले का नशा दिमाग से उतरा नहीं था। नून शो तो अभी भी नहीं देखा जा सकता था। हमने कहा चलो मैटिनी शो में देखेंगे। किसी तरह हम सिनेमा हॉल के निकट सड़क पर पहुंचे। अब सड़क पर होली खेलनेवालों की टोली ने हमें पकड़ लिया। वह लोग होली का आनंद नगरपालिका की नाली के साथ ले रहे थे। यानी एक दूसरे को नाली के कीचड़ में भिगोया जा रहा था। हमें भी नाली में डाला और फिर निकाला गया। हमें अपने आप से ही घिन आने लगी। लेकिन इसकी परवाह बिल्कुल न करते हुए हम सिनेमा हॉल की तरफ लपके। क्योंकि मैटिनी के शो समय पार हुआ जा रहा था। लेकिन हाय री किस्मत। वहां पहुंचने पर पता चला कि होली की वजह से आज का शो बंद है। हमारी जो हालत हुई उसका अंदाजा आज भी सिर्फ हम ही लगा सकते हैं। और इस घटना को याद करके जो ठहाके आते हैं, उसे भी सिर्फ हम ही लगा सकते हैं।
खैर इस दौरान सिनेमा से जुड़े कई रोचक घटनाएं घटीं। दो का ही जिक्र करना चाहूंगा।
होता यह था कि एक तरफ हमारी दुकान और दूसरी तरफ स्कूल। जहां मैंने छठी तक की पढ़ाई की। यह तीनों चीजें अपनी- अपनी जगह पर आज भी मौजूद हैं। सिनेमा हॉल में दाखिल नहीं हो सकता। लेकिन हमने इसकी तरकीब निकाल रखी थी। सिनेमा हॉल से बाहर निकलने का दरवाजा पीछे था और वह शो खत्म होने के समय ही खुलता था। हम शो खत्म होने के समय ही उसी दरवाजे से सिनेमा हाल में दाखिल हो जाते थे। लेकिन एक दिन हम पकड़े गये। पिताजी ने मुझे पकड़ लिया। कान पकड़कर सीधे स्कूल। सभी के सामने मास्टर साहब ने पीटना शुरू किया। दरअसल उन्हें भी अपने अनुशासन प्रिय होने और अपनी छड़ी पर पूरा आत्मविश्वास था। पिटाई करते हुए वह पूछते भी जा रहे थे कि अभी कुछ मिनट पहले मैं क्लास में ही था। तो फिर सिनेमा हॉल में पहुंचा कैसे ... जबकि वह किसी शो मैटिनी या नून शो के शुरू होने का भी नहीं था। अब उन्हें क्या पता कि इस चक्कर से बचने के लिए भी हमने एक ऐसी तरकीब निकाल रखी थी। जिसकी कल्पना भी उन जैसे कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक के मस्तिष्क में नहीं आ सकती थी। दरअसल हम तीन यार थे। योजना यह बनती थी कि एक फिल्म को तीन लड़के तीन दिन में देखते थे। बारी- बारी से एक- एक घंटा। यानी एक फिल्म को हम तीन दिन में पूरी देख पाते थे, तीन किश्तों में। इस तरह क्लास में एक घंटे से अधिक की अनुपस्थिति से बचा जाता था। और किसी को शक भी नहीं होता था।
एक-एक टिकट तीन दिन ली जाती थी। यानी लागत भी उतना ही। सो मास्टर साहब हमें पीट कम और झुंझला अधिक रहे थे। लेकिन जब तक इस स्कूल में रहे यह राज, राज ही बना रहा। बता देने पर बाकी दोनों साथी भी फिल्म देखने से महरूम हो जाते। सो यह सजा मुझे उस दिन अकेले ही भुगतनी पड़ी। दूसरी घटना शोले फिल्म से जुड़ी है। हालांकि पिताजी के कोटे से यह फिल्म हम तीनों भाई पहले ही देख चुके थे। लेकिन एक वर्ष होली के मौके पर यह फिल्म हमारे शहर में आयी। हमने स्कूल की अनुपस्थिति से बचने का फैसला करते हुए शोले को होली के दिन देखने का प्रोग्राम बनाया। नून शो यानी 12 से तीन वाले शो में। लेकिन हम लोगों को इस दरम्यान होनेवाली दुगर्ति का जरा भी गुमान नहीं था। जितने बेतुके तरह से होली खेली जा सकती है, हमारे शहर में खेली जाती है। इसका हमें डर भी था। सो हमने सिनेमा हाल जाने के लिए मुख्य सड़क का रास्ता न चुनकर एक लंबा रास्ता चुना था। जिधर किसान रहते थे और वह गांव से होकर गुजरता था। हमने साफ सुथरे कपड़े पहने और चल पड़े शोले देखने। लेकिन गांव के मुहाने पर ही हम तीनों भाइयों को ग्वालों ने दबोच लिया। उनके होली खेलने का अंदाज बड़ा ही निराला था। उन्हों एक बड़े ड्रम में गोबर का घोल बना रखा था। वे हम तीनों को बारी-बारी से गोद में उठाकर ड्रम में डुबोते और निकालते। जब हमारे पूरे कपड़े और शरीर गोबरमय हो गये तो हमें छोड़। हमने पास के तालाब में स्नान किया और कपड़े किसी तरह सुखाये। लेकिन इतना होने पर भी शोले का नशा दिमाग से उतरा नहीं था। नून शो तो अभी भी नहीं देखा जा सकता था। हमने कहा चलो मैटिनी शो में देखेंगे। किसी तरह हम सिनेमा हॉल के निकट सड़क पर पहुंचे। अब सड़क पर होली खेलनेवालों की टोली ने हमें पकड़ लिया। वह लोग होली का आनंद नगरपालिका की नाली के साथ ले रहे थे। यानी एक दूसरे को नाली के कीचड़ में भिगोया जा रहा था। हमें भी नाली में डाला और फिर निकाला गया। हमें अपने आप से ही घिन आने लगी। लेकिन इसकी परवाह बिल्कुल न करते हुए हम सिनेमा हॉल की तरफ लपके। क्योंकि मैटिनी के शो समय पार हुआ जा रहा था। लेकिन हाय री किस्मत। वहां पहुंचने पर पता चला कि होली की वजह से आज का शो बंद है। हमारी जो हालत हुई उसका अंदाजा आज भी सिर्फ हम ही लगा सकते हैं। और इस घटना को याद करके जो ठहाके आते हैं, उसे भी सिर्फ हम ही लगा सकते हैं।
पसंद की दस फिल्में...
मदर इंडिया
पाथेर पांचाली
शोले
दीवार
उमराव जान(मुज़फ्फर अली)
कब्ज़ा(महेश भट्ट)
त्रिशूल(यश चोपड़ा)
पेज ३
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