प्रेम,अश्लीलता और युवा दर्शकों की पसंद-महेश भट्ट
बडे होने की उम्र में मैं अश्लील शब्द से अच्छी तरह परिचित था। अश्लील शब्द होते थे, अश्लील फिल्में होती थीं, लतीफे होते थे, गीत और नृत्य होते थे, अश्लील भाव मुद्राएं होती थीं और कपडे भी होते थे। उन दिनों हमारे शिक्षक स्कूल में तंग पैंट पहन कर आने पर डांटते थे और उन्हें बदलने के लिए वापस घर भेज देते थे। अगर आप स्कूल में कमीज के बटन खोलकर घूमते दिख गए तो प्रिंसिपल आपके मां-बाप को बुला कर बताते थे कि आप अनुशासित नहीं हैं। उन दिनों गुमनाम फिल्म में महमूद का गाया अति लोकप्रिय गीत हम काले हैं तो क्या हुआ अश्लील माना गया था, जबकि वह गीत युवकों के बीच बेहद प्रचलित था। यानी युवा वर्ग को जो भी पसंद हो, वह बुजुर्गो के हिसाब से अश्लील होता था।
बदलीं परिभाषाएं
अब मैं उम्र के छठे दशक में हूं। मैं बच्चों को उंगली दिखाते हुए डांटता हूं कि तुम्हें वह फिल्म कैसे पसंद आ गई? वह तो अश्लील है। मुझे याद आता है कि मेरे माता-पिता मुझे भी ऐसे ही उंगली दिखा कर डांटते थे।
क्या अश्लील है उसमें? कुछ भी तो नहीं? आजकल के बच्चे पलट कर जवाब देते हैं। हम लोग अपने समय में अभिभावकों की ऐसी डांट-फटकार सुनने के बाद चुप हो जाते थे। यह सच है कि हम जिसे अश्लील समझते हैं, उन्हें वे ऐसा नहीं मानते। मैं उन्हें एमटीवी पर चल रहे किसी म्यूजिक वीडियो के बारे में बताता हूं कि वह अश्लील है तो उनका जवाब होता है-बिल्कुल नहीं। वे मुसकरा कर कहते हैं, पापा, आप तो हर मजेदार चीज को अश्लील कहते हैं। मुझे लगता है कि वे सही कह रहे हैं। मुझे खुद में सुधार करना चाहिए। चीजों को देखने का अपना नजरिया बदलना चाहिए। आज देश की आबादी में 35 साल से कम उम्र के नागरिकों की संख्या 65 प्रतिशत है। भारत युवकों का देश है। वे तय कर रहे हैं कि क्या अश्लील है और क्या नहीं? पिछले दो दशकों में सौंदर्य बोध तेजी से बदला है। यह बदलाव पिछली सदी के बदलाव से अधिक नाटकीय है। आज की दुनिया में हम दिन-रात सिनेमा और टीवी पर दिख रही छवियों का उपभोग कर रहे हैं। उन छवियों का वास्तविक निर्धारण आज के युवक कर रहे हैं, क्योंकि वे ही इसके उपभोक्ता हैं। वे ही इन छवियों को खरीद रहे हैं। इन युवकों ने ही अश्लील समझे जाने वाले हिमेश रेशमिया, राखी सावंत और राजू श्रीवास्तव को 21वीं सदी में अपार सफलता दिला दी है।
युवाओं के लिए बन रहे हैं कार्यक्रम
चालीस से अधिक की उम्र के लोग शिकायत करते रहे हैं कि टीवी पर कुछ भी देखने लायक नहीं है और इसमें किसी परिवर्तन की उम्मीद भी नहीं दिखती। टीवी कार्यक्रमों की तैयारी ही तीस साल से कम उम्र के दर्शकों को ध्यान में रख कर की जा रही है। इन दिनों हर टीवी नेटवर्क इस बात पर जोर दे रहा है कि प्राइम टाइम के कार्यक्रमों में यूथ अपील हो। इसकी वजह यही है कि प्राइम टाइम के दर्शकों में सबसे ज्यादा युवक हैं और इन युवकों को अपने चैनलों से जोडकर वे टीआरपी बढाना चाहते हैं। अगर आप टीवी के नियमित दर्शक हैं तो आपने महसूस किया होगा कि सारी विज्ञापन फिल्में युवकों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही हैं। डेली सोप में मां और दादी-नानी की भूमिकाओं में युवा अभिनेत्रियों को ही चुना जाता है। सिर्फ उनके बालों पर सफेद धारी लगा दी जाती है। एक टीवी प्रोड्यूसर ने स्वीकार किया कि युवा दर्शक चाहते हैं कि टीवी सीरियलों में बुजुर्गो की भूमिकाएं भी जवान हों। 35 साल से कम उम्र की पीढी बाजार के लिए सोने की खान हो गई है। मुझे नहीं लगता कि मेरी बेटी को यह एहसास होगा कि लालची उद्यमी उसकी निजी जिंदगी और मिथकों को ढाल रहे हैं ताकि पैसे कमा सकें। मुझे नहीं लगता कि विज्ञापनों में झूठ को वह पकड पाती होगी। मुझे नहीं लगता कि उसे इसका रत्ती भर भी एहसास होगा कि वह बाजार बन चुकी है, जिसका कुछ लालची उद्यमी इस्तेमाल कर रहे हैं।
नए मूल्यों का आरंभ
फिल्म और टीवी के जरिये दिखाई जा रही युवकों की छवि से देश के एटीट्यूड और मूल्यों का उद्घाटन होता है। हमें उस संस्कृति की भी जानकारी मिलती है, जिसमें ऐसी छवियां गढी जा रही हैं। आप अंतरराष्ट्रीय ख्याति के सिरीज हैरी पॉटर की बात करें। इस सिरीज से युवकों की मनोभावना और जादुई सच के प्रति आज के दर्शकों की भूख को समझा जा सकता है। गुरिंदर चड्ढा की फिल्म बेंड इट लाइक बेकहम में ब्रिटेन में बसे एशियाइयों के आंतरिक सांस्कृतिक संघर्ष को समझा जा सकता है। जाने तू या जाने ना युवा पीढी के एटीट्यूड, स्टाइल, मनोविज्ञान, सेक्स की समझ और विचारों के चित्रण के कारण हिट हुई। हमारी फिल्मों में जिस रूप में युवकों का चित्रण होता है, उससे अपनी संस्कृति में युवकों के प्रति बनी धारणा भी व्यक्त होती है।
सिनेमा में विपरीत सेक्स के प्रति दुनिया भर के युवाओं की जिज्ञासा और समझ को चित्रित किया जाता है। अपनी युवावस्था में हमने जो फिल्में देखीं और बाद में जो फिल्में बनाते रहे, उन सभी में जीवन के इसी दौर का चित्रण रहा है। फिल्मकारों को युवाओं की कहानी हमेशा आकर्षित करती रही है। जवान हो रही पीढी की भावनाएं और जिज्ञासाएं सभी देशों और संस्कृतियों में लगभग एक सी रहती हैं। हमारे आरंभिक जीवन में ज्यादातर फिल्मों का विषय स्त्री या पुरुष द्वारा प्रेमी या प्रेमिका की खोज और फिर सभी प्रतिकूल स्थितियों का सामना करते हुए अपनी इच्छाओं की पूर्ति रहा है। इसकी एक साफ वजह यही हो सकती है कि सिनेमा देखने वाले युवकों के लिए प्रेम ही जिंदगी की पहली और आखिरी चाहत होती है। यहां तक कि बुजुर्ग भी ऐसी फिल्में देखना पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें मां-बाप के संघर्ष में अपनी झलक दिखती है या फिर हीरो-हीरोइन के प्रेम में उन्हें निजी रोमांस की परछाइयां नजर आती हैं। छठे और सातवें दशक के हमारे श्रेष्ठ फिल्मकारों ने इस प्रेम कहानी में वर्ग संघर्ष को भी जोड दिया था।
प्रेम की प्रधानता वाली फिल्में
मुगले आजम उल्लेखनीय प्रेम कहानी है। इसमें राजकुमार और सामान्य नाचने वाली लडकी के प्रेम का चित्रण किया गया था। सदाबहार गीत प्यार किया तो डरना क्या उस समय के युवकों के विद्रोह और मां-पिता की राह पर चलने से इंकार करने की मनोदशा को खूबसूरत तरीके से रेखांकित करती है। संक्षेप में इस फिल्म ने जाहिर किया था कि कैसे युवा भारत अपने पूर्वजों के मूल्यों को छोडकर आगे बढ रहा है।
उन दिनों रॉक एन रोल बहुत लोकप्रिय था। छठे दशक की पीढी रॉक एन रोल को अपने मां-पिता के खिलाफ विद्रोह के रूप में लेती थी। रॉक एन रोल छठे दशक के अंत में भारत आया और सातवें दशक के आरंभ में बहुत लोकप्रिय हुआ।
संगीत-नृत्य की इस शैली का ही असर था कि मजरूह सुल्तानपुरी जैसे गंभीर गीतकार भी सी ए टी कैट, कैट माने बिल्ली, आर ए टी रैट, रैट माने चूहा लिखने से खुद को नहीं रोक सके। लिखने की जरूरत नहीं कि यह गीत युवकों के बीच काफी मशहूर हुआ। दूसरी तरफ शुद्धतावादियों ने बांहें चढा लीं और गंभीर गीतकार के पतन पर विलाप करते रहे। विडंबना देखिए कि उसी गंभीर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने सालों बाद मेरी फिल्म गुलाम के गीत आती क्या खंडाला की निंदा की। उसे भद्दा और अश्लील कहा।
रॉक एन रोल के बाद बीटल्स का दौर आया। उन्होंने दुनिया के संगीत परिदृश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। हिंदी फिल्मों की बात करें तो सातवें दशक में विद्रोही स्टार शम्मी कपूर का आगमन हुआ। जंगली के एक गीत में कश्मीर की बर्फीली वादियों के बीच पहाड से फिसलते हुए शम्मी कपूर की याहू की पुकार ने भारतीय फिल्मों के हीरो की छवि बदल दी। जंगली के पहले फिल्मों के हीरो बडे ही सभ्य और शालीन तरीके से प्रेम का इजहार करते थे। हीरोइनें नाचती थीं, लेकिन हीरो शायद ही कभी कमर मटकाते थे। उनके नृत्य में वैसा खुलापन और कामोद्दीपन नहीं होता था।
भारतीय सिनेमा में शम्मी कपूर का आगमन एक विभाजक रेखा है। कह सकते हैं कि वे उस पीढी के युवकों के प्रवक्ता थे। जिन्न बोतल से बाहर आ गया और फिर कभी युवकों ने बुजुर्गो की पसंद को अपनी पसंद के तौर पर स्वीकार नहीं किया।
हिंदी फिल्मों में समस्याएं गायब
21वीं सदी में हम जो देख रहे हैं, वह और कुछ नहीं केवल शम्मी कपूर द्वारा लाए परिवर्तन का ही नया रूप है। इतना ही अंतर है कि जिन्हें शम्मी कपूर पसंद आए थे, उन्हें ही गोविंदा, सलमान खान और शाहरुख खान के नृत्य अश्लील लगने लगे, जबकि देश के युवक उनके दीवाने बन गए। हिंदी फिल्में इन दिनों सिर्फ और सिर्फ युवा दर्शकों का ही खयाल रख रही है। बहरहाल, हिंदी फिल्मों में नए भारत की आत्मा और चेहरे के दर्शन नहीं होते। अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में जिस तरह युवकों को प्रभावित कर रही राजनीति, धार्मिकता और सांस्कृतिक तनाव के विषयों का चित्रण किया जा रहा है या राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल उठाया जा रहा है, वह हिंदी फिल्मों में नदारद है। भारत के युवा जोश को व्यक्त करने वाली फिल्म रंग दे बसंती एक अपवाद है। राकेश मेहरा ने इस फिल्म में युवकों की मनोदशा को दिखाने की हिम्मत की।
मुझे नहीं मालूम कि हम कब इतने साहसी होंगे कि युवकों को ज्यादा इज्जत दे पाएंगे। रंग दे बसंती जैसी कुछ और साहसी फिल्में बना पाएंगे। मल्टीप्लेक्स के अंधेरे हॉल में देश के युवक अपनी जिंदगी की समस्याओं के हल देखने के लिए बेचैन हैं। आज के युवक मनोरंजन के साथ आवश्यक ज्ञान भी चाहते हैं। अगर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को इस पर यकीन नहीं है तो उन्हें आज के बदलते भारत के युवा नेता राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला के भाषण सुनने चाहिए। हमारे युवा राजनीतिज्ञों को एहसास हो गया है कि भारत बदल रहा है। यह एहसास हम फिल्मकारों में भी पैदा होना चाहिए। हम पर्दे पर युवकों के चित्रण की कहानी लडका-लडकी के मिलन से आगे ले जाएं। यानी प्रेम कहानियों से इतर जिंदगी की आम समस्याओं को चित्रित करें। यही पर्दे पर देखना चाहते हैं आज के युवा। हमें जितनी जल्दी इस सच का एहसास होगा, फिल्म इंडस्ट्री और देश के लिए वह उतना ही बेहतर और लाभकारी होगा।
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