दरअसल:पॉलिटिक्स और पॉपुलर कल्चर का रिश्ता
-अजय ब्रह्मात्मज
एक मशहूर अभिनेता ने अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि अगर आप फिल्म स्टार हैं, तो अंडरवर्ल्ड और पॉलिटिक्स से नहीं बच सकते।
माफिया डॉन और पॉलिटिशियन आपसे संपर्क करते हैं और संबंध बनाने की कोशिश करते हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उनके साथ कैसे पेश आते हैं या कैसे इस्तेमाल होते हैं? अंडरवर्ल्ड और फिल्म स्टारों की नजदीकियों के बारे में हमेशा कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है। उस संदर्भ में एक ही चीज महत्वपूर्ण है कि मुंबई दंगों के बाद अंडरवर्ल्ड से किसी प्रकार का संबंध राष्ट्रविरोधी माना गया। उसके पहले अंडरवर्ल्ड सरगनाओं की पार्टियों में जाने में किसी स्टार को परहेज नहीं होता था और न ही उनके संबंध पर कोई आपत्ति की जाती थी। रही बात पॉलिटिक्स की, तो फिल्मी हस्तियों और राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश संबंध परस्पर लाभ से निर्देशित होते हैं। फिल्मी हस्तियों और उनकी राजनीतिक सक्रियता को तीन चरणों में देखा जा सकता है। हालांकि दक्षिण भारत की स्थिति अलग रही है।
आजादी के बाद से राजनीतिक गलियारे में फिल्मी हस्तियों की पूछ बढ़ी। नेहरू फिल्म कलाकारों से मिलने में रुचि दिखाते थे। उसकी एक वजह यह भी कही जाती है कि नरगिस से उनके करीबी संबंध थे। उन्होंने नरगिस को राज्य सभा का सदस्य बनाया था। वैसे, नरगिस से पहले पृथ्वीराज कपूर को यह सम्मान मिला था। दिल्ली की राजनयिक और राजनीतिक बैठकों और पार्टियों में फिल्मी हस्तियों की मौजूदगी से रौनक बढ़ जाती थी। यह सिलसिला लगभग दो दशकों तक चलता रहा। तब तक नेताओं को प्रचार के लिए फिल्मी कलाकारों की जरूरत नहीं पड़ती थी। राजनीतिक पार्टियों के पास इतने सामाजिक मुद्दे रहते थे कि वे मतदाताओं से सीधे संपर्क बना लेते थे। चीन और पाकिस्तान से हुए युद्ध के समय अवश्य फिल्म इंडस्ट्री ने वक्त की जरूरत को समझते हुए सक्रियता दिखाई। पॉपुलर कल्चर और पॉलिटिक्स का यह पहला उपयोगी मिलन था। सुनील दत्त अपने ग्रुप के कलाकारों को लेकर सीमांत क्षेत्रों में जाते थे और मोर्चे पर तैनात सैनिकों का मनोरंजन भी करते थे। इस दौर में पॉपुलर कल्चर और राजनीति की परस्पर सहायक भूमिका सामने आई।
देश में इमरजेंसी की घोषणा हुई, तो समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह ही फिल्म इंडस्ट्री में भी कुछ जागरूक व्यक्तियों ने रोष दिखाया। उनमें देव आनंद सबसे आगे रहे। उन्होंने नेशनल पार्टी तक की स्थापना कर ली और फिल्म इंडस्ट्री को लामबंद करने की कोशिश की। इसी दौर में राज बब्बर और शत्रुघ्न सिन्हा राजनीति में सक्रिय हुए। देव आनंद तो फिर से अपनी ठहरी दुनिया में मशगूल हो गए, लेकिन शत्रुध्न सिन्हा और राज बब्बर फुलटाइम राजनीतिज्ञ के रूप में सामने आए। इस बार फिर से दोनों चुनाव के मैदान में खड़े हैं। उनके साथ कई और फिल्मी हस्तियां चुनावी दंगल में शामिल हैं। कृपया उन्हें किसी पार्टी विशेष के साथ जोड़ कर न देखें। दो साल पहले ही हमने उन्हें किसी और पार्टी के मंच पर देखा था। मुमकिन है, चुनाव में हार या जीत के बाद वे फिर से किसी अन्य मंच पर दिखें!
तीसरा दौर अत्यंत अलग है। भगवा राजनीति के उभार और उत्कर्ष के दिनों में भाजपा ने रावण, सीता और कृष्ण समेत पॉपुलर भूमिकाओं में आ चुके अनेक कलाकारों को चुनाव के टिकट दिए और उनके जरिए लोकसभा में अपनी संख्या भी बढ़ाई। कहना मुश्किल है कि उन कलाकारों में से कितने भाजपा की विचारधारा से सहमत थे, क्योंकि उनमें से अधिकांश अभी परिदृश्य से गायब हैं। इसी दौर में महसूस किया गया कि पॉपुलर स्टार और कलाकार मतदाताओं को लुभाने के काम आ सकते हैं। चुनावी सभाओं में अपनी उपस्थिति से समां बांध सकते हैं। लगभग सभी पार्टियों ने अपनी पहुंच और रसूख के मुताबिक फिल्मी हस्तियों को अपने साथ जोड़ा।
उल्लेखनीय है कि पॉपुलर स्टार अपनी लोकप्रियता से चुनावी सभा में भीड़ बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं है कि उनकी अपील का असर जनता पर होता है! मतदाता आखिरकार अपने विवेक से ही वोट देता है, इसीलिए कई पॉपुलर स्टार चुनाव हार जाते हैं। देखना है कि इस चुनाव में पॉलिटिक्स और पॉपुलर कल्चर का कौन-सा रूप नजर आता है!
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