हिन्दी टाकीज: वो दिन याद करो-विपिन चौधरी
हिन्दी टाकीज -३०
हिन्दी टाकीज का सफर तीसवें पड़ाव तक पहुँच गया.इस बार विपिन चौधरी के संस्मरण पढ़ें.विपिन अपने बारे में लिखती हैं, मैं मुख्यतः कवियत्री हूँ। मेरा ब्लाग है http://vipin-choudhary.blogspot.com के अलावा मेरी कहानियाँ और लेख भी विभिन्न पत्रिकाओं प्रकाशित हुयें हैं कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित।फिलहाल मीडिया से सम्बंधित हूँ।
उस वक्त फिल्में को देखा नहीं बल्कि जिया जाता था। बात इतनी पुरानी भी नहीं की समय की धूल उसे अपनी ओट में ले लें। टिक्टों के बैल्क का अच्छा खासा व्यापार चलता था उन दिनों। उन्हीं दिनों कुछ अच्छें सपनों के साथ अच्छी फिल्में भी देखी। तब मनोरंजन इतना मंहगा नहीं हुआ करता था, थोडे खर्च में बडा मनोरंजन हो जाया करता था। उस वक्त सिनेमा देखना अच्छा अनुभव हुआ करता था तब फिल्में इतनी समझ में नहीं आती थी और अब फिल्में देखना बखूबी समझ आता है तब सिनेमा देखना कोई दिल को छूने वाला अनुभव नहीं रह गया है। मलटीप्लैक्स सिनेमा वह जादू नहीं पैदा करता जो हमारे छोटे शहर का छोटा सा सिनेमा हाल पैदा किया करता था। इस भडकीलें समय ने सहजता की जो साधारण खूबसूरती होती है वह हमसें छीन ली हैं।
कोई लौटा दे मेरे वे बीते हुये दिन
झूले, फूल तितलियाँ, रंग, दोस्ती, मस्ती इन्हीं के आस पास ही घुमती थी हमारी दुनिया उन दिनों। मम्मी के कालेज में जो सिनेमाघर था उसमें पास से प्रवेश मिलता था। सो हमें कोई दिक्कत नहीं थी। पर लाईन इतनी लम्बी होती थी की हमारी बारी आते आते टाँगें जवाब दे जाती थी। उन दिनों पिताजी के घर आने का कोई अता पता नहीं होता था तो अक्सर हम पडोस वाली दो दीदीओं को अपने साथ ले लेते। मम्मी, छोटा भाई, मैं और दोनों दीदी लोगो का टोला साथ चलता। जाते वक्त तो दुनिया जहान की दूसरी बातें चलती पर फिल्म देखकर लौटतें वक्त सिर्फ उसी फिल्म का चर्चा रहता। वहाँ तक जानें का रास्ता बेहद लम्बा होता था। उस आने जानें के लम्बें रास्तें में आधा सफर पैदल ही तय करना पडता। हम फिल्म देखनें के चक्कर में बडी मस्ती के कुदते फाँदते पैदल चलते पर लौटते वक्त हमारी चलने की बिलकुल हिम्मत नहीं होती थी पर फिर भी जैसे तैसे मूवी की बातें करते करते रास्ता कट जाता था। हीरों की बहादुरी, हीरोईन की खूबसूरती और विलेन की बदतमीजी के अनेक किस्से हम आपस में बतातें हुये चलते। उन दिनों महिलाओं का स्कूटर चलाना अचंभे की बात थी, उन्हीं दिनों की बात है, एक बार फिल्म देखनें जाते वक्त, हम दोनों बहन भाई मम्मी के पीछे बैढे थे, तभी राह चलते एक बदमाश ने कुछ कुछ अश्लील सा फिकरा कसा तब मम्मी ने स्कुटर साइड में कर उसे तब तक झाड पिलायी जब तक उसने पैर पकड कर माफी नहीं माँग ली।सिनेमा हाल का बडा सा परदा हम बच्चों को दो ढाई घँटें तक अपनें सम्मोहन में ले लेता। बचपन में जिन फिल्मों ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया उन्में से एक " बूट पालिश" जिसमें डेविड चाचा नन्हें मुन्नें बच्चों से पुछते हैं," नन्हें मुन्नें बच्चें तेरी मुटठी में क्या है" और बच्चें पूरे उत्साह से बोल उठतें हैं "मुठठी में है तकदीर हमारी, किस्मत को हमनें अपनें बस में किया है"। इसके साथ ही बैल्क एंड वाईट ईरा की फिल्म "दोस्ती" जब जब भी देखी आँखों से आँसुओं का लगातार बहना नहीं रुका। परदें का जादू इतना गहरा होता था जो हमें आसानी से अपने काबू में कर लेता था। उस वक्त हम किताबों से दूर भागते थे और फिल्मी परदे पर मधुमखियों की तरह चिपक जाते थे। हरियाणा कृषि विश्विद्यालय,हिसार के उस सिनेमा हाल में सप्ताह के पाँचों दिन केवल स्टूडेंट्स ही फिल्म देख सकते थे और बाकि के दो दिन स्टाफ के लिये मुक़र्रर थे। ऐसे में हमारे लिये दो दिन बचते ही थे और उन दोनों दिन में से किसी एक दिन हमें वहाँ जाना होता था। वो सिनेमाहाल हमारे लिये वरदान बन गया था सो हमने भी उस वरदान का पूरा फायदा ऊठाते हुये लगभग हर शनिवार या फिर रविवार को ढेरों फिल्में देखी और अपने सिनेमा ज्ञान को सम्रद्ध किया।एक बार ऐसा हुआ की सिनेमा हाल की बडी सी खिडकी में एक छोटे से छेद का हमें पता चल गया फिर तो होता यह की हम अपनें शो से काफि पहले ही आ जाते और मैं और मेरा भाई उस छेद से से फिल्म देखकर बाईसकोप जैसा आन्नद उठाते और बडे गर्व से देखी हुई फिल्म के आखिरी हिस्से की कमेंट्री करते रहते, हमारी इस चक्क चक्क से अडोस पडोस के लोग परेशान हो उठते और फिर हमें मम्मी से डाँट पडती। ऐसी छोटी छोटी शरारतों को केवल बचपन ही अपने में समेट सकता है। बाकि के जो सिनेमा घर थे वहाँ हम तब ही जाते थे जब कोई बेहतरीन फिल्म वहाँ लगती। पर मम्मी की युनिवरसिटी के उस सिनेमाघर का कई सालों तक भरपूर फायदा ऊठाया। हमारे हिसार शहर में तब पाँच सिनेमाघर थे नीलम, पुष्पा, ईलाइट, सोहन और पारिजात। 'नीलम' सिनेमा हाल शहर के दूसरे कोने में था पर जब उस हाल में जब "मदर इंडिया" लगी तो पूरा का पूरा शहर फिल्म देखने टूट पडा। ऐसा क्रेज था फिल्मों का उन दिनों जो देखने वालों के सर पर चढ कर बोलता था।उन्हीं दिनों देखी फिल्मों में "नमक हलाल" का असर तो काफी दिनों तक रहा, उसमें अमिताभ की अठखेलियाँ बेहद पसंद आई। घर आकर अपनी सहेलियों के बीच ऐलान कर दिया यदि मेरी सहेली बने रहना है तो पहले नमक हलाल मूवी देख कर आओं। इसी तरह 'शोले' का बुखार जो उसे देखने के बाद चढा वो आज तक नहीं उतर सका है। एक बार की बात है,जब मैं चिकन पोकस के पीडित थी उसी वक्त पता चला कि तलत साहब की बहुत पुरानी फिल्म सिनेमा हाल में लगी है तो बिमारी की हालात में भी गिरते पडते फिल्म देखने गये। वो टीन एज के जल्दी जल्दी फिदा होनें वाले दिन थे, सो हम भी फिदा हो गये तलत की आवाज और उनकें खूबसूरत व्यक्तित्व पर। हिंदी फिल्मों को देख कर कुछ पकड ना आता हो पर प्यार को महसुस करने का जज्बा जरूर पकड में आ गया था। जब देखी "देवदास" तो पूरी दुनिया बदली बदली सी लगने लगी थी। उस पर दिलीप कुमार का लाजवाब अभिनय और सुचित्रा सेन की खूबसूरती ने कमाल ढाया था। "दिल दिया दर्द लिया" और "पाकीजा" देखी तो तो दिलीप साहब और मीना कुमारी के अभिनय के दीवानेपन ने बुरी तरह जकड लिया।उन्हीं दिनों संजीव कुमार, प्रिषित सहनी, उत्तम कुमार के अभिनय और उनके सहज, सरल वयक्तित्व से प्यार हो गया था जो आज भी कायम है। पंजाबी फिल्म "उडीका" और हरियाणवी फिल्म "चंद्रावल", "गुलाबो" देखी उन्हीं दिनों।एक बार ऐसा भी हुआ की हमनें "दिल एक मंदिर" फिल्म देखने का कार्यक्रम बनाया पर किसी कारण से वह रद्द हो गया तो मूड खराब हो गया और इतफाकन उसी वक्त उसी फिल्म का गाना रेडियो पर बजनें लगा तब मेरे आँसू बह निकले। बचपन की ये छोटी मजबूरियाँ तब बेहद बडी और बेहद बुरी लगती थी। ऐसा नहीं था कि हर बार ही हम मजबुर होते, एक बार तो भूगोल के पेपर से पहले दिन मजें से मैं "अनपढ" फिल्म देखने गई और फिर पूरी रात जैसे तैसे थोडी बहुत इम्तेहान की तैयारी की। उस वक्त जब दूर के सिनेमाहाल में जाना होता था तो अपने भाई के रिक्शा वाले को बुला लिया जाता था, कई सालों तक इसी तरह चलता रहा फिर पढाई की व्यस्तता और दुसरे कई कारणों से यह सिलसिला लगातार छुटता चला गया।
सीने में जलन, आँखों में तुफान सा क्यों है
पहला मल्टीप्लेक्स सिनेमा भारत में १९९७ में आया पर उससे पहले टी वी ने सिनेमा हाल को पीछे छोड दिया था पर जिस तरह भूले बिसरे गीत वाकई में वे गीत होते है जो कभी भूलाये नहीं जा सकते उसी तरह हिंदी टाकीज की जो यादें पुरानी होते हुये भी हमारे भीतर सदा ताजी रहेगी।अपने देश में फिल्मों की खुमारी इतनी जबरदस्त है कि आप चाहे किसी भी वर्ग, किसी भी जाति के हों फिल्मों से बच कर नहीं निकल सकते।हिंदी फिल्मों टाकिस ने जो गहरा रंग हम सभी के जीवन में भरा था, वो जीवन भर आसानी से छुटनें वाला नहीं है। रंग अब की फिल्में भी भरती हैं पर पहले जैसी बात अब क्हाँ। अब हमारे शहर के वो सभी पुराने सिनेमा हाल टूट चुके हैं, उन्की जगह बडे बडे मॉल ने ले ली है। पर जब कभी भी वहाँ से गुजरते हैं तो वहाँ की हवा हमें यह जरुर याद दिला देती है कि हमारे कुछ रुपहले सपनों की नींव यहीं पर पडी थी।
Comments
की शैली काफी रोचक लगी .बधाई .
हेमंत कुमार