दरअसल:हिन्दी फिल्में और उनकी समीक्षा

पिछले दिनों एक युवा निर्देशक ने मुंबई के अंग्रेजी फिल्म समीक्षकों की समझदारी पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि उन्हें न तो भारतीय फिल्मों की समझ है और न भारतीय समाज की! उन्होंने यह भी बताया कि वे मुंबई में पले-बढ़े और अंग्रेजी फिल्में देखकर ही फिल्म क्रिटिक बने हैं। इतना ही नहीं, अभी सक्रिय फिल्म समीक्षकों में से अधिकांश गॉसिप लिखते रहे हैं। उनकी समीक्षाएं सितारों और निर्माता-निर्देशकों से उनके रिश्ते से भी प्रभावित होती हैं। कई समीक्षक वास्तव में लेखक और निर्देशक बनने का सपना पाले रहते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि शायद किसी दिन मौका मिल जाए! उनके इन हितों, मंशाओं और अज्ञानता से फिल्म समीक्षा प्रभावित होती है। ट्रेड सर्किल और दर्शकों के बीच उनके लिखे शब्दों का असर होता है। कई बार फिल्मों के बारे में गलत धारणाएं बनने के कारण फिल्में ध्वस्त हो जाती हैं।
मुंबई के फिल्म समीक्षकों से इस शिकायत के बावजूद अधिकांश निर्माता-निर्देशक पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं में दिए गए स्टार्स को लेकर व्याकुल रहते हैं। वे अपनी फिल्मों के प्रचार में फिल्म समीक्षाओं से ली गई पंक्तियां और स्टार्स छापते हैं। मकसद यही होता है कि दर्शक ज्यादा से ज्यादा आएं। कुछ दर्शक इस प्रभाव में आ भी जाते हैं कि फलां फिल्म को तीन-चार या पांच स्टार्स मिले हैं। एक तरफ फिल्म समीक्षाओं की निरर्थकता की बातें की जाती हैं, तो दूसरी तरफ समीक्षाओं में मिले स्टार का उपयोग फिल्म के दर्शक बढ़ाने के लिए किया जाता है। दरअसल, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ऐसी ही विडंबनाओं का केंद्र है।
रही बात मुंबई के फिल्म समीक्षकों के महत्व और प्रभाव की, तो उसके ठोस व्यावसायिक कारण हैं। चूंकि हिंदी फिल्मों का व्यवसाय मुख्य रूप से मुंबई से ही निर्देशित और नियमित होता है, इसलिए हर निर्माता-निर्देशक मुंबई के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों पर ज्यादा ध्यान देता है। इस दौरान कोशिश यही होती है कि पहले सप्ताहांत में ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को सिनेमाघरों में खींचा जाए। अमूमन शनिवार को फिल्म के विज्ञापनों के साथ स्टार टांक दिए जाते हैं और बताया जाता है कि फिल्म को अच्छी ओपनिंग मिली है। भारत में अभी इस प्रकार का कोई अध्ययन नहीं हुआ है कि फिल्म समीक्षाओं से कितने प्रतिशत दर्शक प्रभावित होते हैं! फिल्म समीक्षा वास्तव में लेखन और फिल्म अनुभव की वैयक्तिक सृजनात्मक प्रक्रिया है। फिल्म समीक्षक की परवरिश, पढ़ाई-लिखाई और ज्ञान से फिल्म की समझ प्रभावित होती है। कुछ फिल्म समीक्षक फिल्में देखते समय दर्शकों की रुचि, पसंद और समझ का खयाल रखते हैं। वे फिल्में देखते समय अपनी पसंद और रुचि को दरकिनार कर, दर्शकों के नजरिए से फिल्मों की समीक्षा करते हैं। इसके विपरीत कुछ समीक्षकों के लिए फिल्म समीक्षा व्यक्तिगत अभिरुचि की अभिव्यक्ति है। वे फिल्म की चीर-फाड़ करते समय अपना ज्ञान बिखेरते हैं। कुछ समीक्षक अपनी समीक्षा से निर्देशक और दर्शक दोनों को आतंकित करना चाहते हैं। अंग्रेजी समीक्षकों का एक समूह तो इसी फिराक में रहता है कि हर हिंदी फिल्म के मूल स्रोत (किसी अंग्रेजी फिल्म) का उल्लेख कर उसकी धज्जियां उड़ा दी जाएं। केवल यही नहीं, वे हिंदी फिल्मों के प्रति हीन भाव भी रखते हैं।
मुंबई के निर्माता-निर्देशक मुख्य रूप से अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं और ट्रेड मैग्जीन की समीक्षाओं की परवाह करते हैं। उनकी चिंता रहती है कि इन पत्र-पत्रिकाओं में क्या छपा है? अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म समीक्षा और समीक्षकों को विशेष महत्व के साथ प्रमुख स्थान दिया जाता है। हिंदी और अन्य भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में अभी तक फिल्म समीक्षा को सम्मानित स्थान और महत्व नहीं मिला है। कुछ पत्र-पत्रिका तो फिल्म समीक्षा छापना जरूरी भी नहीं मानते। छोटे और मझोले अखबार दूसरे अखबारों की समीक्षाओं को बेधड़क छाप लेते हैं। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म समीक्षा की स्थिति का ही नतीजा है कि मुंबई के निर्माता-निर्देशक उन्हें नजरंदाज करते हैं। फिल्म समीक्षा दरअसल फिल्म और दर्शक के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। संतुलित समीक्षा से दर्शकों को फिल्म को समझने में मदद मिलती है। कई बार वे बुरी फिल्में देखने से बच जाते हैं। हिंदी में फिल्म समीक्षा धीरे-धीरे विकसित हो रही है। उम्मीद है, आने वाले समय में इसे विशेष महत्व और स्थान मिले!

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