फ़िल्म समीक्षा:१३ बी,ढूंढते रह जाओगे,कर्मा और होली
-अजय ब्रह्मात्मज
ठहरता नहीं है डर 13 बी
डरावनी फिल्मों के लिए जरूरी है कि वे दर्शकों को जिज्ञासु बना दें। अब क्या होगा? यह सवाल दर्शकों के दिमाग में मंडराने लगे तो रोमांच पैदा होता है। फिर जब अगला दृश्य आए तो वह अपने प्रभाव से सिहरन और डर पैदा करे। यह प्रभाव दृश्य विधान, पाश्र्र्व संगीत और अभिनय से पैदा किया जाता है। 13बी देखते हुए जिज्ञासा तो बढ़ती है, लेकिन डर नहीं लगता।
फिल्म का नायक मनोहर (आर माधवन) कर्ज लेकर नया अपार्टमेंट खरीदता है और पूरे परिवार के साथ वहां शिफ्ट करता है। मनोहर का हंसता-खेलता परिवार है। इसमें उसकी बीवी के साथ बड़े भाई, भाभी, भतीजे और मां हैं। शिफ्ट होने के दिन से ही कुछ गड़बड़ शुरू हो जाती है। मनोहर पढ़ा-लिखा और तार्किक व्यक्ति है। वह संभावित दुर्घटना से परिवार को बचाने की युक्ति में ऐसे सच को छू लेता है, जो पारलौकिक शक्तियों से संचालित है। लेखक और निर्देशक विक्रम के कुमार ने हारर फिल्म में नए तत्व इस्तेमाल किए हैं। उन्होंने अनोखे ढंग से हैरतअंगेज घटनाओं को कहानी का रूप दिया है। आरंभ के कुछ मिनटों की शिथिलता के बाद फिल्म के नायक मनोहर की तरह यह जिज्ञासा बढ़ने लगती है कि आगे क्या होगा? या फिर वे संभावित दुर्घटनाओं से कैसे बचेंगे? अगर विक्रम स्क्रिप्ट को चुस्त व कसा रख पाते और डर के दृश्यों को प्रभावशाली बनाया होता तो फिल्म अधिक डरावनी होती। लंबे दृश्यों और धीमी गति की वजह से डर जगता तो है, लेकिन ठहर नहीं पाता।
फिल्म मुख्य रूप से माधवन पर केंद्रित है। उन्होंने अपनी भूमिका जिम्मेदारी के साथ निभाई है। उनके पुलिस इंस्पेक्टर दोस्त की भूमिका में मुरली शर्मा ने राहत के क्षण दिए हैं और रोमांच भी बढ़ाया है। नीतू चंद्रा घरेलू बीवी के रूप में जंचती हैं। बाकी कलाकारों का उपयोग दृश्य भरने के लिए है। तमिल और हिंदी में एक साथ बनी इस फिल्म पर द्विभाषी दबाव दिखता है।
फिल्म का नायक मनोहर (आर माधवन) कर्ज लेकर नया अपार्टमेंट खरीदता है और पूरे परिवार के साथ वहां शिफ्ट करता है। मनोहर का हंसता-खेलता परिवार है। इसमें उसकी बीवी के साथ बड़े भाई, भाभी, भतीजे और मां हैं। शिफ्ट होने के दिन से ही कुछ गड़बड़ शुरू हो जाती है। मनोहर पढ़ा-लिखा और तार्किक व्यक्ति है। वह संभावित दुर्घटना से परिवार को बचाने की युक्ति में ऐसे सच को छू लेता है, जो पारलौकिक शक्तियों से संचालित है। लेखक और निर्देशक विक्रम के कुमार ने हारर फिल्म में नए तत्व इस्तेमाल किए हैं। उन्होंने अनोखे ढंग से हैरतअंगेज घटनाओं को कहानी का रूप दिया है। आरंभ के कुछ मिनटों की शिथिलता के बाद फिल्म के नायक मनोहर की तरह यह जिज्ञासा बढ़ने लगती है कि आगे क्या होगा? या फिर वे संभावित दुर्घटनाओं से कैसे बचेंगे? अगर विक्रम स्क्रिप्ट को चुस्त व कसा रख पाते और डर के दृश्यों को प्रभावशाली बनाया होता तो फिल्म अधिक डरावनी होती। लंबे दृश्यों और धीमी गति की वजह से डर जगता तो है, लेकिन ठहर नहीं पाता।
फिल्म मुख्य रूप से माधवन पर केंद्रित है। उन्होंने अपनी भूमिका जिम्मेदारी के साथ निभाई है। उनके पुलिस इंस्पेक्टर दोस्त की भूमिका में मुरली शर्मा ने राहत के क्षण दिए हैं और रोमांच भी बढ़ाया है। नीतू चंद्रा घरेलू बीवी के रूप में जंचती हैं। बाकी कलाकारों का उपयोग दृश्य भरने के लिए है। तमिल और हिंदी में एक साथ बनी इस फिल्म पर द्विभाषी दबाव दिखता है।
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सुस्त पटकथा की फिल्म ढूंढते रह जाओगे
शीर्षक में ही निर्माता-निर्देशक ने सचेत कर दिया है। फिर भी परेश रावल और कुणाल केमू की जोड़ी को पर्दे पर देखना रोचक लगता है। यह कॉमेडी फिल्म है। लेखक और निर्देशक ने खुद ही अपने किरदारों को कार्टून कह दिया है, इसलिए शिकायत की संभावना खत्म हो जाती है।
किस्मत के मारे फिल्म निर्माता राज और चार्टर्ड एकाउंटेंट आनंद अपनी बदहाल स्थितियों से बाहर निकलने के लिए एक ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं, जो सबसे घटिया और फ्लाप हो। चार फिल्मों के प्रसंगों को जोड़कर वे कहानी तैयार करते हैं और फिर शूटिंग शुरू होती है। इंटरवल के बाद का हिस्सा इसी में निकलता है। आखिर में ट्विस्ट यह आता है कि उनकी फिल्म हिट हो जाती है। वे अपने इरादों में नाकाम होते हैं। उन्हें जेल भी जाना पड़ता है। घटिया और फ्लाप फिल्म बनाने की अवधारणा ही हास्यास्पद हैं। फिर लेखक-निर्देशक अपनी अवधारणा को सही ढंग से विकसित भी नहीं कर पाए हैं। परेश रावल, कुणाल केमू और दिलीप जोशी की कोशिशों के बावजूद फिल्म संभल नहीं पाती। इन्हें पटकथा का ठोस सहारा नहीं मिल पाया। सोहा अली खान और सोनू सूद का औसत अभिनय भी फिल्म को कमजोर करता है।
किस्मत के मारे फिल्म निर्माता राज और चार्टर्ड एकाउंटेंट आनंद अपनी बदहाल स्थितियों से बाहर निकलने के लिए एक ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं, जो सबसे घटिया और फ्लाप हो। चार फिल्मों के प्रसंगों को जोड़कर वे कहानी तैयार करते हैं और फिर शूटिंग शुरू होती है। इंटरवल के बाद का हिस्सा इसी में निकलता है। आखिर में ट्विस्ट यह आता है कि उनकी फिल्म हिट हो जाती है। वे अपने इरादों में नाकाम होते हैं। उन्हें जेल भी जाना पड़ता है। घटिया और फ्लाप फिल्म बनाने की अवधारणा ही हास्यास्पद हैं। फिर लेखक-निर्देशक अपनी अवधारणा को सही ढंग से विकसित भी नहीं कर पाए हैं। परेश रावल, कुणाल केमू और दिलीप जोशी की कोशिशों के बावजूद फिल्म संभल नहीं पाती। इन्हें पटकथा का ठोस सहारा नहीं मिल पाया। सोहा अली खान और सोनू सूद का औसत अभिनय भी फिल्म को कमजोर करता है।
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पश्चिमी शैली में बनी कर्मा और होली
देश-विदेश के कलाकारों और हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित भाषा में बनी होली एंड कर्मा एक मायने में अनोखी फिल्म है। विभिन्न देशों और संस्कृतियों की पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के सम्मिलन में हम उनके पूर्वाग्रहों, संस्कारों और मान्यताओं से परिचित होते हैं। वे एक रोचक खेल खेलते हैं, जिसमें सभी अपनी जिंदगी की कोई घटना बताते हैं। इस क्रम में उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलू सामने आते हैं। फिल्म का नैरेटिव पश्चिमी शैली का है। ट्रीटमेंट में भी हिंदी फिल्मों का असर नहीं है।
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Comments
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