बिट्टू के बंधन
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म 'दिल्ली 6' में सपनों के पीछे भाग रही बिट्टू बहकावे में आकर घर छोड़ देती है। संयोग से रोशन उसे बचा लेता है। अगर बिट्टू चांदनी चौक के फोटोग्राफर के साथ भाग गयी होती हो कहानी कुछ और हो जाती।
हम आए दिन ऐसी बिट्टुओं के किस्से पढ़ते रहते हैं। उजाले की तलाश में वर्तमान जिंदगी के अंधेरे से निकलते समय सही दिशा-निर्देश के अभाव में गांव, कस्बे, छोटे शहरों और महानगरों की बिट्टुएं अंतहीन सुरंगों में प्रवेश कर जाती हैं। उनके अपने छूट जाते हैं और सपने पूरे नहीं होते। घर-समाज में हमारे आस पास ऐसी बिट्टुओं की भरमार है। अगर समाज उन्हें बंधनों से मुक्त करे, उन्हें आजादी दे, उन्हें साधिकार निर्भीक ढंग से घूमने-फिरने और अपना कॅरियर चुनने की स्वतंत्रता दे, तो अपना देश विकास की राह पर छलांगें लगाता हुआ काफी आगे बढ़ सकता है।
शर्म की बात है कि आजादी के साठ सालों के बाद भी देश की बिट्टुएं बंधन में हैं। शिक्षा और कथित स्वतंत्रता के बावजूद वे दिन-रात सहमी सी रहती हैं। बगैर बीमारी के उनकी सांसें घुटती रहती हैं। उत्तर भारत के किसी भी शहर के मध्यवर्गीय परिवार का उदाहरण ले लें। उस परिवार की बिट्टू दस-बारह की उम्र तक आते-आते अपने भाइयों से अलग कर दी जाती है। सबसे पहले मां कहती है, 'अब तू बच्ची नहीं रही।' आशय यह होता है कि अब तू समाज के बनाए अघोषित नियमों का पालन शुरू कर दे। पहनने, खाने, खेलने-कूदने और कई बार पढ़ने तक पर पाबंदियां लगने लगती हैं। बस एक ही तर्क होता है कि तू लड़की है। तू बिट्टू है।
बिट्टू घर से निकलती है। सबसे पहले घर के बड़े-बूढ़े उसे निहारते हैं। चाचा, मामा, भईया या कोई और पुरुष सदस्य बिट्टू का निरीक्षण करता है। उनकी नजर बुरी नहीं होती। वे जाच रहे होते हैं कि बिट्टू सड़क पर चलते हुए अनावश्यक ध्यान तो नहीं खींचेगी। वे आगामी असुरक्षा या खतरे को लेकर सशंकित रहते हैं। उन्हें मालूम नहीं रहता कि इस आशंका में वे खुद शामिल होते हैं। वे अपने घर की बिट्टू का लिहाज कर लें, लेकिन दूसरे परिवारों की बिट्टुओं को मापने से नहीं चूकते। बिट्टू घर से बाहर निकलती है। चौराहे तक जाने और रिक्शा पकड़ने के लिए उसे कुछ दूरी पैदल ही तय करनी होती है। बिट्टू को लगता है कि उसकी पीठ पर कुछ रेंग रहा है। लड़कियां अपनी पीठ पर पुरुषों की नजरों का रेंगना महसूस कर लेती हैं। उनका बदन सिकुड़ जाता है। बिट्टू सहम जाती है। वह कोशिश करती है कि कपड़ों और दुपट्टे के बीच उसका शरीर ढक जाए। बिट्टू की आधी ऊर्जा खुद को दबाने, छिपाने और संभालने में निकल जाती है। बिट्टू थोड़ी और बड़ी होती है, तो उसका अकेले बाहर निकलना बंद होने लगता है। उसे हमेशा परिवार के पुरुष सदस्य के साथ या मां-दीदी के साथ या सहेलियों के साथ झुंड में ही निकलने की इजाजत मिलती है। उसे बताना पड़ता है कि वह कहा-कहां जाएगी और उन जगहों पर जाना क्यों जरूरी है? अगर घर से बाहर निकलने पर कार्यक्रम परिवर्तन हुआ या देर हुई, तो वह स्वाभाविक रूप से शक के घेरे में आ जाती है। परिवार के पुरुष सदस्य और मां को डर सताने लगता है कि कहीं किसी लड़के से तो दोस्ती नहीं हो गयी। बिट्टू बदचलन तो नहीं हो रही है। चौदह से अठारह साल की लड़की का किसी लड़के से बात करना तो चाल-चलन खराब होना ही है।
बिट्टू कालेज जाने की उम्र तक आ जाती है। तब सबसे पहली कोशिश होती है कि किसी महिला कालेज में एडमिशन मिल जाए। अगर शहर से बाहर भेजना हो, तो लड़कियों का बोर्डिग कालेज मिले। पढ़ाई के विषय भी ऐसे चुने जाएं कि नौकरी की इच्छा होने पर वह सुरक्षित पेशे में जाए। सुरक्षित पेशों से मतलब ऐसी नौकरियों से होता है, जहां पुरुषों के साथ लंबा समय न बिताना पड़े। ज्यादातर परिवारों में कोशिश रहती है कि ग्रेजुएट होने के बाद बिट्टू पापा या परिवार की पसंद के किसी लड़के से शादी कर ले। शादी के बाद ससुराल वाले या जमाई राजा जानें। बिट्टू अब उनके घर की इज्जत है। बिट्टू का ससुराल बिट्टू के मायके से बहुत अलग नहीं होता। बहू के दायित्व और कर्तव्य का बोध कराने के साथ यही कोशिश रहती है कि बिट्टू घर की दहलीज न पार कर सके। उसे यह एहसास दिलाया जाता है कि वह घर की दहलीज के अंदर ही महफूज है। घर के बाहर खतरा है।
दबी-सहमी बिट्टू की घबराहट शादी के बाद भी कम नहीं होती। इसके अलावा पिता और पति की इज्जत का ठेका भी उसके हाथों में रहता है। उसे कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए कि परिवार की इज्जत को बट्टा लगे। बिट्टू को पता चलता है कि उसके पंख कतरे जा रहे हैं, लेकिन वह खामोश रहती है। बिट्टू के अरमान और सपने तिल-तिल कर बुझ जाते हैं। वह अनजाने ही एक ऐसी मां बन जाती है, जो अपनी बेटी बिट्टू को बताती है, 'बिट्टू , तू अब बच्ची नहीं रही।'
हम आए दिन ऐसी बिट्टुओं के किस्से पढ़ते रहते हैं। उजाले की तलाश में वर्तमान जिंदगी के अंधेरे से निकलते समय सही दिशा-निर्देश के अभाव में गांव, कस्बे, छोटे शहरों और महानगरों की बिट्टुएं अंतहीन सुरंगों में प्रवेश कर जाती हैं। उनके अपने छूट जाते हैं और सपने पूरे नहीं होते। घर-समाज में हमारे आस पास ऐसी बिट्टुओं की भरमार है। अगर समाज उन्हें बंधनों से मुक्त करे, उन्हें आजादी दे, उन्हें साधिकार निर्भीक ढंग से घूमने-फिरने और अपना कॅरियर चुनने की स्वतंत्रता दे, तो अपना देश विकास की राह पर छलांगें लगाता हुआ काफी आगे बढ़ सकता है।
शर्म की बात है कि आजादी के साठ सालों के बाद भी देश की बिट्टुएं बंधन में हैं। शिक्षा और कथित स्वतंत्रता के बावजूद वे दिन-रात सहमी सी रहती हैं। बगैर बीमारी के उनकी सांसें घुटती रहती हैं। उत्तर भारत के किसी भी शहर के मध्यवर्गीय परिवार का उदाहरण ले लें। उस परिवार की बिट्टू दस-बारह की उम्र तक आते-आते अपने भाइयों से अलग कर दी जाती है। सबसे पहले मां कहती है, 'अब तू बच्ची नहीं रही।' आशय यह होता है कि अब तू समाज के बनाए अघोषित नियमों का पालन शुरू कर दे। पहनने, खाने, खेलने-कूदने और कई बार पढ़ने तक पर पाबंदियां लगने लगती हैं। बस एक ही तर्क होता है कि तू लड़की है। तू बिट्टू है।
बिट्टू घर से निकलती है। सबसे पहले घर के बड़े-बूढ़े उसे निहारते हैं। चाचा, मामा, भईया या कोई और पुरुष सदस्य बिट्टू का निरीक्षण करता है। उनकी नजर बुरी नहीं होती। वे जाच रहे होते हैं कि बिट्टू सड़क पर चलते हुए अनावश्यक ध्यान तो नहीं खींचेगी। वे आगामी असुरक्षा या खतरे को लेकर सशंकित रहते हैं। उन्हें मालूम नहीं रहता कि इस आशंका में वे खुद शामिल होते हैं। वे अपने घर की बिट्टू का लिहाज कर लें, लेकिन दूसरे परिवारों की बिट्टुओं को मापने से नहीं चूकते। बिट्टू घर से बाहर निकलती है। चौराहे तक जाने और रिक्शा पकड़ने के लिए उसे कुछ दूरी पैदल ही तय करनी होती है। बिट्टू को लगता है कि उसकी पीठ पर कुछ रेंग रहा है। लड़कियां अपनी पीठ पर पुरुषों की नजरों का रेंगना महसूस कर लेती हैं। उनका बदन सिकुड़ जाता है। बिट्टू सहम जाती है। वह कोशिश करती है कि कपड़ों और दुपट्टे के बीच उसका शरीर ढक जाए। बिट्टू की आधी ऊर्जा खुद को दबाने, छिपाने और संभालने में निकल जाती है। बिट्टू थोड़ी और बड़ी होती है, तो उसका अकेले बाहर निकलना बंद होने लगता है। उसे हमेशा परिवार के पुरुष सदस्य के साथ या मां-दीदी के साथ या सहेलियों के साथ झुंड में ही निकलने की इजाजत मिलती है। उसे बताना पड़ता है कि वह कहा-कहां जाएगी और उन जगहों पर जाना क्यों जरूरी है? अगर घर से बाहर निकलने पर कार्यक्रम परिवर्तन हुआ या देर हुई, तो वह स्वाभाविक रूप से शक के घेरे में आ जाती है। परिवार के पुरुष सदस्य और मां को डर सताने लगता है कि कहीं किसी लड़के से तो दोस्ती नहीं हो गयी। बिट्टू बदचलन तो नहीं हो रही है। चौदह से अठारह साल की लड़की का किसी लड़के से बात करना तो चाल-चलन खराब होना ही है।
बिट्टू कालेज जाने की उम्र तक आ जाती है। तब सबसे पहली कोशिश होती है कि किसी महिला कालेज में एडमिशन मिल जाए। अगर शहर से बाहर भेजना हो, तो लड़कियों का बोर्डिग कालेज मिले। पढ़ाई के विषय भी ऐसे चुने जाएं कि नौकरी की इच्छा होने पर वह सुरक्षित पेशे में जाए। सुरक्षित पेशों से मतलब ऐसी नौकरियों से होता है, जहां पुरुषों के साथ लंबा समय न बिताना पड़े। ज्यादातर परिवारों में कोशिश रहती है कि ग्रेजुएट होने के बाद बिट्टू पापा या परिवार की पसंद के किसी लड़के से शादी कर ले। शादी के बाद ससुराल वाले या जमाई राजा जानें। बिट्टू अब उनके घर की इज्जत है। बिट्टू का ससुराल बिट्टू के मायके से बहुत अलग नहीं होता। बहू के दायित्व और कर्तव्य का बोध कराने के साथ यही कोशिश रहती है कि बिट्टू घर की दहलीज न पार कर सके। उसे यह एहसास दिलाया जाता है कि वह घर की दहलीज के अंदर ही महफूज है। घर के बाहर खतरा है।
दबी-सहमी बिट्टू की घबराहट शादी के बाद भी कम नहीं होती। इसके अलावा पिता और पति की इज्जत का ठेका भी उसके हाथों में रहता है। उसे कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए कि परिवार की इज्जत को बट्टा लगे। बिट्टू को पता चलता है कि उसके पंख कतरे जा रहे हैं, लेकिन वह खामोश रहती है। बिट्टू के अरमान और सपने तिल-तिल कर बुझ जाते हैं। वह अनजाने ही एक ऐसी मां बन जाती है, जो अपनी बेटी बिट्टू को बताती है, 'बिट्टू , तू अब बच्ची नहीं रही।'
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