एक आगाज है आस्कर
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स्लमडाग मिलिनेयर भारतीय फिल्मकारों के लिए इस संदर्भ में प्रेरणा बन सकती है कि वे वास्तविक किस्म की फिल्मों के लिए प्रेरित हों। पुरस्कारों के लिए फिल्म के महंगा होने से ज्यादा जरूरी है कि वह मानवीय संवेदनाओं को छूती हो। उसका विषय गहरा और व्यापक हो। इस पर बहस चलती रहेगी कि स्लमडाग मिलिनेयर भारत की गरीबी का प्रदर्शन कर पुरस्कार बटोर रही है या मामला कुछ और है। इस फिल्म का बारीकी से अध्ययन करें तो यह भारतीय मानस की फिल्म है, जिसमें आस-विश्वास, भाग्य और कर्म का अनोखा मेल है। निश्चित ही स्लमडाग मिलिनेयर पश्चिमी नजरिए से बनी फिल्म है, लेकिन इसमें भारतीय मूल्यों और भावनाओं को समेटने और रेखांकित करने की कोशिश है। फिल्म अपने निहितार्थ में उम्मीद, जीत और प्रेम पर टिकी है। हां, पश्चिमी उदारता और वर्चस्व की अंतर्धारा भी फिल्म में मौजूद है, जो ढेर सारे राष्ट्रवादी दर्शकों को खल सकती है। पश्चिम की वर्चस्व ग्रंथि उनकी फिल्मों, साहित्य, संभाषण और नीतियों में साफ झलकती है। स्लमडाग मिलिनेयर में भी वर्चस्व ग्रंथि है।
इंटरनेशनल मार्केट, अवार्ड या दर्शकों को थोड़ी देर के लिए दरकिनार कर हम आत्मावलोकन करें। क्या हमारे फिल्मकार विकास स्वरूप के इस उपन्यास पर फिल्म बनाने की हिम्मत करते? अगर कोई निर्देशक साहस दिखाता तो क्या उसे किसी प्रोडक्शन हाउस से सहयोग मिलता? उत्तार होगा, नहीं। हमारे निर्माता और प्रोडक्शन हाउस दकियानूस और लकीर के फकीर हैं। यही कारण है कि कोई भारतीय निर्देशक 'क्यू एंड ए' पर फिल्म बनाने की पहल नहीं करता। हमारे बहुविध समाज में अनेक विषय हैं, जिन्हें तराश कर सेल्युलाइड पर उतारा जा सकता है। स्लमडाग मिलिनेयर जैसी अनेक कहानियां रूपहले पर्दे पर आ सकती हैं, लेकिन हम अपनी पारंपरिक सोच और लाभ-हानि की चिंता के कारण इस दिशा में पहल नहीं कर पाते। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री चंद लोभी और मुनाफाखोर निर्माताओं के चंगुल में फंसी है। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे निर्माताओं और संबंधित व्यक्तियों का एक वर्ग नए प्रयोग की सफलता को अपवाद, आर्ट या आकस्मिक घटना बताकर ट्रेंड बनने से रोकता है। उसकी बड़ी वजह यह है कि अगर अपारंपरिक विषयों के नए प्रयोग ट्रेंड बन गए तो कल्पनाहीन निर्देशकों का वर्चस्व टूटेगा और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री उनके हाथों से निकल जाएगी। स्लमडाग मिलिनेयर भारतीय फिल्मों के लिए एक प्रस्थान बिंदु हो सकता है। हम युवा निर्देशकों, लेखकों और तकनीशियनों को सृजनात्मक आजादी देकर इसकी सफलता भारतीय फिल्मों में दोहरा सकते हैं।
Comments
well said.