हिन्दी टाकीज:जैसे चॉकलेट के लिए पानी, जैसे केक पर आइसिंग- आर अनुराधा
हिन्दी टाकीज-२६
इस बार अनुराधा...जब चवन्नी ने अनुराधा से आग्रह किया तो विश्वास था की संस्मरण ज़रूर मिलेगा.क्यों होता है आस-विश्वास?मालूम नहीं...अनुराधा अपने बारे में लिखती हैं...मेरे बारे में कुछ खास कहने लायक नहीं है। बस, एक आत्मकथात्मक किताब - इंद्रधनुष के पीछे-पीछे: एक कैंसर विजेता की डायरी लिखी है जिसका रिस्पॉन्स काफी अच्छा रहा। किताब हिंदी के असाहित्यकारों की दुर्लभ बेस्टसेलर्स में गिनी जाती है। हां,मेरा जीवन लगातार सुखद संयोगों की श्रृंखला रहा है, ऐसा मुझे लगता है।
कैंसर जैसी बीमारी ने यह किताब लिखवा दी, और मशहूरी दे दी। जब किताब बाजार में आई, उसी हफ्ते दोबारा कैंसर होने का पता चला और पूरे इलाज के दौरान किताब की समीक्षाएं, मीडिया में चर्चा, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव और विष्णु नागर और.. जैसे साहित्यकारों द्वारा अपने कॉलमों में किताब का नोटिस लेना, किताब पर डॉक्युमेंटरी फिल्म की शूटिंग और उस फिल्म की सराहना, आउटलुक (अंग्रेजी) पत्रिका द्वारा 15 अगस्त के विशेषांक में वर्ष के 10 यंग हीरोज़ में शामिल किया जाना जैसे संयोग जुड़ते गए और मैं मुझे यह समझने का वक्त ही नहीं मिला कि उसे जीवन का तकलीफदेह वक्त मानूं या सुखद।
जबलपुर, (म. प्र) जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर में बचपन और कॉलेज, फिर भी वहां की हवा नहीं लग पाई। फिर नौकरी के लिए दिल्ली पहुंचने के बाद ही दिमाग की ज्ञान पाने की खिड़की खुली। फ्रोफेशन की कहूं तो भारतीय सूचना सेवा में हूं और फिलहाल प्रकाशन विभाग (सूचना और प्रसारण मंत्रालय) में संपादक।पिल्में देखना हमेशा अच्छा लगा, गाने सुनना और भी ज्यादा। काफी बड़े होने तक भी रेडियो या टीवी पर गाने सुनकर उनके बोल पास उपलब्ध किसी भी कागज पर झट से नोट कर लेने की आदत रही।
साथ में अपना ताजा फोटो भेज रही हूं। जब आप इस लेख को ब्लॉग पर डालें तो सूचना के लिए एक मेल मुझे भी भेज दें। कारण- मैं रेगुलर ब्लॉगर नहीं हूं।
कैंसर जैसी बीमारी ने यह किताब लिखवा दी, और मशहूरी दे दी। जब किताब बाजार में आई, उसी हफ्ते दोबारा कैंसर होने का पता चला और पूरे इलाज के दौरान किताब की समीक्षाएं, मीडिया में चर्चा, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव और विष्णु नागर और.. जैसे साहित्यकारों द्वारा अपने कॉलमों में किताब का नोटिस लेना, किताब पर डॉक्युमेंटरी फिल्म की शूटिंग और उस फिल्म की सराहना, आउटलुक (अंग्रेजी) पत्रिका द्वारा 15 अगस्त के विशेषांक में वर्ष के 10 यंग हीरोज़ में शामिल किया जाना जैसे संयोग जुड़ते गए और मैं मुझे यह समझने का वक्त ही नहीं मिला कि उसे जीवन का तकलीफदेह वक्त मानूं या सुखद।
जबलपुर, (म. प्र) जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर में बचपन और कॉलेज, फिर भी वहां की हवा नहीं लग पाई। फिर नौकरी के लिए दिल्ली पहुंचने के बाद ही दिमाग की ज्ञान पाने की खिड़की खुली। फ्रोफेशन की कहूं तो भारतीय सूचना सेवा में हूं और फिलहाल प्रकाशन विभाग (सूचना और प्रसारण मंत्रालय) में संपादक।पिल्में देखना हमेशा अच्छा लगा, गाने सुनना और भी ज्यादा। काफी बड़े होने तक भी रेडियो या टीवी पर गाने सुनकर उनके बोल पास उपलब्ध किसी भी कागज पर झट से नोट कर लेने की आदत रही।
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जैसे चॉकलेट के लिए पानी, जैसे केक पर आइसिंग, वैसे ही है, हिंदुस्तानी फिल्मों में गाने। पानी में चॉकलेट की तरह गीत-संगीत हिंदुस्तानी फिल्मों में इस कदर मिला हुआ है कि उन्हें अलग करना मुश्किल है। यह आइसिंग की तरह फिल्मों में सजावट और उसका आकर्षण बढ़ाने का काम करता है तो साथ ही पानी मिले चॉकलेट की तरह कभी-कभी स्वाद बिगाड़ भी देता है, मजा किरकिरा कर देता है। फिर भी गानों के बिना फिल्म की कल्पना करना मुश्किल है। कई बार तो ऐसा होता है कि बस गाने ही रह जाते हैं, फिल्में जाने कब हमारी याद के दायरे से हमेशा के लिए गायब हो जाती हैं।
मैं शायद आठ बरस की रही होऊंगी, जब अपनी याद में पहली फिल्म देखी- घर-घर की कहानी। उस समय फिल्में देखने में मैं ऐसा डूबती थी कि उसमें की कहानी का तारतम्य बिठा पाना मेरे बस का नहीं होता था। फिर मेरी मित्र या कोई बड़ा उसी फिल्म की ‘स्टोरी’ बताता तो मैं ऐसी तल्लीनता से सुनती कि लगता कि मैंने ये फिल्म कभी देखी ही नहीं। हां, तो ‘घर-घर की कहानी’ की कहानी उस समय क्या ही समझ में आती, बस एक गाना- ‘ऐसा बनूंगा ऐक्टर मैं यारों रंग जमाके छोड़ूंगा, चूना लगाने वालों को मैं चूना लगाके छोड़ूंगा‘ दिमाग में दर्ज हो गया जो अब तक उसी गहराई से दर्ज है। गाते समय जूनियर महमूद का दाहिनी तर्जनी से बायीं हथेली को रगड़ना और फिर दोनों हाथों को हवा में उछालना- ‘चूना लगाके छोड़ूंगा‘। घर आने के बाद बहुत समय तक हमारा यह गाना गाते रहना और उसके साथ अपने खाली हाथों पर ‘चूना लगाना’ जारी रहा।
जिंदगी की दूसरी फिल्म थी- परिचय। हम तीन बहनें और दो पड़ोसी मित्र बहनें ‘अकेले-अकेले’ यह फिल्म देख आए। साथ में दीदी थी, फिर डर किस बात का? सिनेमा हॉल कॉलोनी के पास ही था, पैदल ही गए और एक रुपए साठ पैसे की ‘लेडीज’ (सेक्शन) की टिकट खरीदी। इस फिल्म को देखने के बाद भी फिल्म की कहानी तो कुछ याद न रही पर उन बच्चों का हाथ पकड़ कर बड़े से मैदान में दौड़ते हुए ‘सारे के सारे गामा को लेकर॥’ गाना सदियों तक दोहराते रहे, जब भी मौका मिला, जब भी किसी के साथ कॉलोनी के खुले मैदान में दौड़ने का मौका मिला।
उसके बाद याद नहीं बरसो तक कोई फिल्म देखी हो। लेकिन गाने कई याद आते हैं। भाभी की चूड़ियां फिल्म का बच्चा अपनी भाभी का पल्लू पकड़े पीछे-पीछे घर भर में घूमता है और भाभी बड़े प्यार से उसे लेकर तुलसी चौरे की परिक्रमा करते हुए गाती है- ज्योति कलश छलके...। फिर ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ उसी कॉलोनी के मैदान में बड़े प्रोजेक्टर पर देखी और ‘चुन चुन करती आई चिड़िया’ मन में बस गया। पास के बाजार से गुजरते हुए लाउडस्पीकरों पर गाने सुनाई पड़ जाते थे। तब अक्सर एक गाना ‘समझौता गमों से कर लो ‘ सुनाई तो ठीक ही पड़ता था, पर लगता था, यह गलत है। समोसे का मतलब तो समझ में आता है, ये गमोसे क्या होता है। सो गाना खुद ही सुधार कर गाने लगे- समझौता समोसे करलो...। उसके बाद शोर फिल्म का गाना याद आता है जिसे हीरो साइकिल लगातार चलाता हुआ गाता है- ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो-शाम’। ‘एक प्यार का नगमा’ भी बड़ा मीठा गाना लगता।
उसके बाद राधा-कृष्ण थीम के कई गाने रट लिए जिन पर हम स्कूल में, मोहल्ले के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नाच भी करते। ‘नींद चुराए चैन चुराए डाका डाले तेरी बंसी’, ‘दरशन दो घनश्याम’, ‘वृंदावन का कृष्ण कन्हैया’, ‘जैसे राधा ने माला जपी श्याम की’.... । सूची अनंत है। फिर जाने किस फिल्म का एक गाना सीखा था- ‘बाय बाय मिस गुडनाइट, कल फिर मिलेंगे’। ये तो हमें ऐसा जंचा कि यही रोजाना शाम के खेल के बाद का विदा गीत हो गया, लंबे समय तक के लिए।
घर में पिताजी के अनुशासित जीवन में फिल्मों वगैरह के लिए शायद ही कोई जगह थी। सो हमें भी उनसे इजाजत लेने की कभी हिम्मत न पड़ी। नौवीं कक्षा तक हम साइकिल से स्कूल जाने लगे। स्कूल से छुट्टी होती डेढ़ बजे और साइकिल चलाकर घर पहुंचते कोई 2।10 तक। रास्ते में पड़ने वाले इलाके के एकमात्र सिनेमा हॉल का हाल मिल ही जाता- कौनसी फिल्म है, कितनी भीड़ है, टिकट मिल पाएगा या नहीं आदि। और सब उपयुक्त होता तो हम तीन परिवारों की पांच लड़कियां तय कर लेते कि 3 बजे का शो जाना है। हमारे घर से मैं और छोटी बहन गीता, कोई 300 मीटर दूर रहने वाली नताशा और उसकी छोटी बहन रश्मि और उसकी पड़ोसन दीप्ति। मैं, नताशा और दीप्ति एक ही कक्षा में थे।
शुरुआत मुझसे होती। मैं मां से कहती कि नताशा लोग फलां फिल्म देखने जा रहे हैं, उसकी मां ने उन्हें जाने की इजाजत दे दी है। हम भी जाएं क्या? उधर नताशा अपने घर में कहती कि अनुराधा लोग को उसकी मां ने फिल्म देखने की इजाजत दे दी है, हम भी जाएं? और इस तरह हम दोनों परिवारों की लड़कियों को इजाजत मिल जाती और हम दीप्ति के घर पहुंचतीं। पांच-सात मिनट की मशक्कत के बाद उसे भी इजाजत मिल ही जाती। सिनेमा हॉल तक पैदल ही जाते क्योंकि वहां अपनी प्यारी साइकिलों की सुरक्षा को लेकर हम कभी आश्वस्त नहीं हो पाए। फिल्म देखने वाले दिन हम खाना भले ही हड़बड़ी में खाते कि कहीं देर न हो जाए, पर घर में बना नमकीन और नताशा के घर से चने रखना न भूलते, क्योंकि पॉपकॉर्न खाने को अतिरिक्त पैसा कतई नहीं मिलता था। यहां तक कि कभी ‘लेडीज’ की 1।60 रुपए की टिकट न मिल पाए तो दो रुपए की बालकनी के पैसे नहीं जुटते थे। ऐसे में मन मसोस कर वापस आना पड़ता।
सामने आई हर किताब पढ़ जाने की तरह हर फिल्म देखने में रुचि दसवीं कक्षा के बाद खुद ही खत्म हो गई। दरअसल हुआ ये कि दसवीं की परीक्षा के बाद गर्मियों की लंबी दोपहरी की ऊब काटने का एक सुलभ जरिया दिखा- फिल्में। तो हर शुक्रवार की दोपहर नई लगी फिल्म को देखने जाने लगे। दुर्योग कहें कि उस डेढ़ेक महीने के शुक्रवारों में जो फिल्में मिलीं, सभी नापसंद गुजरीं- मिथुन की ‘सुरक्षा’, सुनील दत्त की ‘जियो और जीने दो’, ‘जानी दुश्मन’ और ‘चंबल की रानी’ वगैरह। और एक फिल्म ‘उपकार’ देखने गए तो टिकट ही नहीं मिली। उसके बाद से मेरा सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्म देखना छूट गया।
फिर ‘अनुराग’, ‘आनंद’, ‘श्री 420’ जैसी सुंदर फिल्में मिलीं तो ‘चेतना’, ‘दो आंखें बारह हाथ’ और ‘दो बीघा जमीन’ जैसी गंभीर फिल्में भी। दरअसल अब हम इतने बड़े हो गए थे कि साल में एकाध बार कॉलोनी से दूर शहर आकर फिल्में देख सकें। ऐसे मौके ज्यादातर तभी मिलते जब नताशा की मां को शहर में कोई काम होता और हम सब पूरे दिन का कार्यक्रम बनाकर निकलते। पहले खरीददारी या दूसरा जो भी काम नताशा की मां का होता, उसके बाद फिल्म और फिर वापस आने के पहले सिटी के कॉफी हाउस में वेज कटलेट या दोसा।
सभी गाने सबको अच्छे लगते हैं, ऐसा नहीं होता। शायद गानों की भी संवेदना-प्रीक्वेंसी होती है, इंसानों की तरह, जो मैच न करे तो पटना मुश्किल होता है। जैसे चॉकलेट के लिए पानी। उसी दौर में एक फिल्म देखी थी- कुदरत। एक तो इसका पुनर्जन्म का चीप-सा थीम, फिर हेमा के कराहते हुए से डायलॉग। उसकी शुरुआत में ही स्टेज पर पर्फॉर्म करते हुए बुजुर्ग-सी अरुणा इरानी गाती हैं- ‘हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते, तुम्हारे बिना’। जाने क्यों, उस एक बार सुनने के बाद वह गीत कभी सुनने लायक भी नहीं लगा। शायद मेरी फ्रीक्वेंसी के उपयुक्त नहीं पड़ता।
काफी समय एक शुद्धतावादी सोच के साथ बीता कि फिल्म और गाने मर्म को छूने चाहिए, वरना बकवास है। अस्सी के दशक के वक्तव्यनुमा गाने काफी समय तक अनदेखे किए और उनकी पूर्ति के लिए पुराने से पुराने गाने और फिल्में देखने का जुगाड़ करती रही। ऐसे में विविध-भारती, आकाशवाणी का उर्दू चैनल और रेडियो सीलोन का पसंदीदा हो जाना स्वाभाविक ही था। हम स्कूल से लौटते तो सबसे पहले रेडियो चलाते। फिर दोपहर भर गाने सुनते रहते, जब तक प्रोफेसर पिताजी का कॉलेज से लौटने का वक्त न हो जाए। गानों के बीच ही खाना, पढ़ना, खेलना सब चलता।
फिर टेलीविजन पर पुरस्कृत और दूसरी नई-पुरानी नायाब फिल्में दिखाने का दौर चला जो सिनेमाहॉल में आम तौर पर नहीं देख पाते। मेरे लिए तो जैसे खजाना ही बरस पड़ा। दनादन वो खूबसूरत फिल्में देखते साल-दर-साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला।
हाल के दिनों में कोई नौ माह लंबे एक बुरे वक्त में गानों और एफ एम ने गहरे मित्र की तरह फिर मेरा साथ दिया। मेरी सारी चिंताओं को दूर कर दिमाग को अपनी मिठास से भर दिया। हर गाना, लगता कि बस, मेरे लिए ही बना है, मैं यही तो सोचती या कहना चाहती थी!
फिर भी, वो पुराने गाने...। कोई शब्द नहीं हैं उनकी खूबसूरती और अपनी जिंदगी में उनके महत्व का बयान करने के लिए। शायद इसीलिए मेरा 12 साल का बेटा कहता है, - “अम्मा, पुराने गाने आपके कानों में पड़ गए तो फिर आपको कुछ सुनाई नहीं देता।”
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धन्यवाद.