हिन्दी टाकीज:फिल्में देखने का मज़ा तो दोस्तों के साथ ही आता है-निशांत मिश्रा
लगभग ३4 साल का हो गया हूँ और सिनेमाहाल में सैंकडों फिल्में देख चुका हूँ। चवन्नी-चैप पर बहुतों की यादें पढ़कर मैंने भी सोचा कि फिल्मों के बारे में कुछ लिखा जाए।
मेमोरी मेरी पहले काफी अच्छी थी। अब पुराना तो याद रहता है लेकिन हाल का भूल जाता हूँ। याद आता है कि अंबिकापुर जिले के एक कस्बे मनेन्द्रगढ़ में खटारा सी एक टाकीज थी जिसका नाम 'खेडिया' था। मेरी समझ से यह 'केडिया' समूह की टाकीज थी। उसमें देखी एक फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' मुझे अभी तक याद है। यह १९८० की बात होगी। उस सिनेमाहाल के नीचे का तो मुझे कुछ याद नहीं। ऊपर बालकनी थी जिसमें लकडी की बेंचें थीं। अच्छे घरवालों के लिए २-३ सोफे रखे गए थे लेकिन उनमें बहुत खटमल थे। बाद में वहां एक और नई टाकीज खुली, जिसे लोग शायद 'नई खेडिया' कहते थे। वहां से निकले हुए २६-२७ साल हो चुके हैं। हर साल सोचता हूँ छूटी हुई जगहों को देखने जाऊं लेकिन सोचा हुआ कहाँ हो पाता है!
१९८२ में मैं भोपाल आ गया। मुझे अभी भी याद है जब मैं मम्मी-पापा के साथ रेलवे स्टेशन से बस से आ रहा था तब संगम टाकीज में 'गजब', लिली टाकीज में 'रेशमा और शेरा' लगी थी। मेरी पुरानी याददाश्त कमाल की है न! अरे हाँ, जब मैं तीसरी क्लास में नए स्कूल में दाखिला लेने गया तब सामनेवाली गूँजबहादुर टाकीज में 'दूल्हा बिकता है' लगी थी। मुझे याद आता है कि उस ज़माने में चवन्नी-क्लास का टिकट १ रूपये ६० पैसे का आता था। बालकनी का रेट लगभग ३ रूपये था। अपने स्कूल से लौटते समय हम पेंटरों को बड़े-बड़े होर्डिंग बनाते देखते थे। मेरे फुफेरे भाई का बिलासपुर में पोस्टर लगवाने का काम था। उसके घर की दुछत्ती पर पोस्टरों के बण्डल भरे रहते थे। कुछ पोस्टर ६ या ८ के टुकडों में होते थे, जिनको सफाई से चिपकाना पड़ता था। आज तो वे पोस्टर मिलते ही नहीं हैं, मिलते भी हैं तो उनको क्लासिक मानकर उनके ऊंचे दाम लगते हैं। पिछले दिनों भोपाल में किसी घर कि दीवार, जो कि दशकों से पुताई से बची रह गयी थी, मैं स्याही से लिखा बहु-बेगम फ़िल्म का इश्तेहार देखा, उसमें टिकटों के दाम २ से ४ आना लिखे हुए थे। उस दीवार को तो किसी म्यूज़ियम में होना चाहिए। पीवीसी में छपने वाले विज्ञापनों ने कारीगरों और कला दोनों का नुकसान किया।
वहां बिलासपुर में ठेले पर फिल्मों का इश्तेहार होता था। बाद में रिक्शा और ऑटो में भी होने लगा। उनके पीछे बच्चे भागते थे। अखबारों में दिया जाता था ' रोजाना चार खेल', तब मैं समझ नहीं पता था कि ये लोग इसे 'खेल' क्यों कहते है! विज्ञापनों में यह भी लिखा होता था की अमुक टाकीज एयरकूल्ड है। मेरे फुफेरे भाई और उनका एक दोस्त हर गुरूवार को ये शर्त लगाते थे कि किसने ज्यादा फिल्में देखीं हैं। कुछ विज्ञापनों में जनता से विनती करते थे कि 'कृपया इस फ़िल्म का अंत किसी को न बताएं'। लेकिन पहले दिन ही लोगों को पता चल जाता था की मर्डरर कौन है। ऐसे में फ़िल्म देखने का रोमांच कम नहीं हो जाता था। जिसको भी सिनेमाघर में फ़िल्म देखना है वो तो देखेगा ही।
सिनेमाघर में फिल्में देखने का मज़ा तो दोस्तों के साथ ही आता है। एक बार अकेले 'तेज़ाब' देखने गया था लेकिन मज़ा नहीं आने पर इंटरवल में ही वापस आ गया। जब बच्चा था तब इंटरवल का इंतज़ार रहता था। पापा समोसे और पेस्ट्री लेकर आते थे। अंधेरे में पोपकोर्न चबाते हुए फ़िल्म देखना बड़ा मजेदार था। एक अच्छी बात यह है की उन दिनों बेहद पुरानी फिल्में जैसे औरत, पड़ोसी, गुमराह, गुमनाम, नीलकमल आदि बार-बार सिनेमाहालों में लगा करती थीं। नई फिल्में भी कम-से-कम एक महीना चलती थीं। मुझे याद है कि भोपाल की लिली टाकीज में 'तवायफ' और 'निकाह' ६ महीनों तक लगी रहीं। 'प्यार झुकता नहीं' तो और लंबे समय तक चलती रही। उनकी सिल्वर जुबली में फ़िल्म में काम करनेवाला कोई छोटा-मोटा कलाकार आता था। भोपाल जैसे शहर के लिए यह उस समय बड़ी बात थी। सिनेमाघर में बात-बात पर होने वाली चवन्नियों की खनक को कौन भूल सकता है!? याद आता है कि घरवालों के साथ 'गंगा-जमुना' देखने गया था। जैसे ही परदे पर वैजयंतीमाला का गाना 'दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे' आया, पूरा हाल रसिक लोगों की कराहों और चवन्नियों की खनक से गूँज उठा।
भोपाल के कई सिनेमाघर जैसे 'नटराज', 'कृष्णा', 'पंचशील', 'किशोर' बाद में बंद हो गए। कुछ नई शानशौकत से दोबारा खुले पर चल नहीं पाए। अब 'लिली' और गूँजबहादुर' भी टूट चुके हैं। उनकी जमीन पर शायद बड़े माल या काम्प्लेक्स बनेंगे। भोपाल के ही सिनेमाघर' अप्सरा' के कई किस्से याद आते हैं जहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ एडल्ट फिल्में कभी-कभार देखने चला जाता था। हमेशा यह धुकधुकी लगी रहती थी की कभी पुलिस का छापा न पड़ जाए। सिनेमाघर वाले घटिया हिन्दी एडल्ट फिल्मों के बीच में अंग्रेजी पॉर्न फिल्मों के सीन लगा देते थे। ज्यादातर मौकों पर यह पता नहीं चलता था कि हम देख क्या रहे हैं।
घरवालों के साथ फ़िल्म देखने जाना बहुत बड़ा रोमांच था। जब मैं छोटा था तब मार-धाड़ के सीन आने पर कुर्सी से उछल जाता था और ख़ुद हाथ-पैर चलाने लगता था। आजू-बाजूवाले मेरी मम्मी को मुझे बिठाने के लिए कहते थे। फिल्मों के पहले न्यूज़ रील चलाई जाती थी जिनमें भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी देते थे। कभी-कभी संगीत की कोई बड़ी शख्सियत पर फ़िल्म दिखाते थे। मुझे गंगूबाई हंगल पर देखी फ़िल्म याद है। जब न्यूज़ रील लम्बी हो जाती थी तब लोग चिल्लाने लगते थे। लाईट जाने पर भी सब चिल्लाने लगते थे। सिनेमाहाल में लोग सिगरेट पी सकते थे। सामनेवाली कुर्सी पर पैर रखकर बैठने के कारण बहुत गाली-गलौच हुआ करती थी। फ़िल्म के ख़तम होने पर राष्ट्रगीत होता था जिसके लिए कोई नहीं रुकता था। हम सुनते थे की भोपाल की 'लक्ष्मी' टाकीज बहुत बदनाम थी। हमें लगता था की वहां 'गन्दी' फिल्में लगती हैं। बाद में पता चला की पुराने ज़माने में वहां पर शायद कोठे हुआ करते थे इसीलिए उस जगह को लोग अच्छा नहीं मानते थे। वहां ऐसी फिल्में लगती थीं - 'दिलरुबा ', डाकूरानी तलवारवाली', 'नया गुप्तज्ञान', 'बदन', 'जियाला'। मैंने वहां एक ही फ़िल्म देखी - जियाला। इंटरवल होने पर देखा कि जो आदमी हमें बाहर टिकट बेच रहा था वही अब हाल के भीतर समोसे बेच रहा है। अपने दोस्त के साथ मैं इस फ़िल्म को देखने के बहने लक्ष्मी टाकीज देखने गया था। फ़िल्म देखने के दौरान पूरे समय हम फ़िल्म के घटियापन और साथ बैठे लोगों के कमेंट्स पर हँसते रहे।
इंटरवल होने पर लंबे-लंबे विज्ञापन भी दिखाए जाते थे। लिप्टन टाईगर के विज्ञापन में शेरदिल नौजवान शेर के सामने चाय बनाकर पीता था। एक आदिवासी को वह पेड़ के नीचे दबने से बचाता और उस गाँव की एक रूपसी उसे लिप्टन टाईगर चाय बनाकर पिलाती थी।
उन दिनों टिकट पाना भी बहुत मुश्किल था। भोपाल में 'राम-बलराम' की टिकट पाने के चक्कर में तीन बेचारे कुचलकर मारे जा चुके थे। मुझे आज भी यह समझ नहीं आता की फर्स्ट डे-फर्स्ट शो के लिए लोग इतने पागल क्यों रहते थे। अभी भी कुछ लोगों को यदि पहले दिन पहला शो देखने को न मिले तो वे फ़िल्म नहीं देखते लेकिन तब से अब तक बहुत बदलाव आ गया है। गिने-चुने सिनेमाघरों में सिर्फ़ नई फिल्में लगती हैं, वो भी २ या ३ हफ्तों के लिए। अगर पुराने दिनों में मेरे पिता फिल्में देखने को बुरी बात मानते तो मैं शायद बेहतरीन फिल्मे टाकीज में देखने से वंचित रह जाता। अपने पिता के साथ मैं 'राम तेरी गंगा मैली' भी देखने गया था जिसका मेरी माँ ने बहुत बुरा माना। मुझे लगता है की मेरी उम्र के हर सिनेमाप्रेमी व्यक्ति के पास 'राम तेरी गंगा मैली' फ़िल्म से जुड़ी कोई-न-कोई याद ज़रूर है। उन दिनों तो फिल्मों को लेकर होनेवाले हंगामे कुछ संयत हुआ करते थे। लिली टाकीज में मनोज कुमार की 'कलयुग की रामायण' पर बड़ा हंगामा हुआ था। तभी दादा कोंडके की फिल्मों के टाइटल पर भी लोग नाराज़ हुए। मैं तो उस समय ६-७ में पढता था और समझ नहीं पता था की टाइटल 'अँधेरी रात में दिया तेरे हाथ में' में प्रॉब्लम क्या है।
अब यहाँ दिल्ली में ५ सालों से पड़ा हुआ हूँ। पिछले सालों में मैंने कुल ५ फिल्में सिनेमाघर में देखीं, आखरी फ़िल्म थी 'सलाम-नमस्ते', वाहियात! दिल्ली में फ़िल्म देखना मुश्किल है, मंहगे टिकट के कारण वही फ़िल्म मैं भोपाल में ५० रूपये में देख सकता हूँ जो यहाँ २०० में मिलती है। फ़िल्म रिलीज होने के दूसरे दिन डीवीडी पर और तीसरे दिन केबल पर आ जाती है। फिल्में देखने में अब रस नहीं रह गया है। या फ़िर, अब कहाँ वो दोस्ती-यारी और पारिवारिक मेलमिलाप जो घटिया फ़िल्म देखने को भी बहुत मनोरंजक बना देता था।
आजकल तो मैं किसी फ़िल्म को इन्टरनेट से डाउनलोड कर सकता हूँ, क्वालिटी बेशक बेहतर नहीं होती पर बिना कोई दाम खर्च किए पुरानी-से-पुरानी और नई-से-नई फ़िल्म देखने को मिल जाती है। बहरहाल, सिनेमाघरों में फिल्में देखने से जुड़ी यादें इतनी हैं कि इस सीरीज़ का शायद दूसरा पार्ट लिखना पड़े। तब तक के लिए, पढ़ते रहें।
Comments
अब बड़े जो हो गए है । :(
>>>>>>>>>>>hun to aap 'wo' filme bhi dekhte thae