फ़िल्म समीक्षा:विक्ट्री

पुरानी शैली में नई कोशिश
-अजय ब्रह्मात्मज

अजीतपाल मंगत ने क्रिकेट के बैकग्राउंड पर महेंद्र सिंह धौनी और युवराज सिंह जैसे क्रिकेटर विजय शेखावत की जिंदगी के जरिए एक सामान्य युवक के क्रिकेट स्टार बनने में आई मुश्किलों, अड़चनों, भटकावों और पश्चाताप के प्रसंग रखे हैं। विक्ट्री की पृष्ठभूमि नई है, लेकिन मुख्य किरदार, घटनाएं और निर्वाह पुराना और परिचित है। इसी कारण इरादों और मेकिंग में अच्छी होने के बावजूद फिल्म अंतिम प्रभाव में थोड़ी कमजोर पड़ जाती है।
विजय (हरमन बावेजा) की आंखों में एक सपना है। यह सपना उसके पिता ने बोया है। जैसलमेर जैसे छोटे शहर में रहने के बावजूद वह टीम इंडिया का खिलाड़ी बनना चाहता है। संयोग और कोशिश से वह स्टार बन जाता है, लेकिन स्टारडम का काकटेल उसे भटका देता है। अपनी गलती का एहसास होने पर उसे पश्चाताप होता है। वह फिर से कोशिश करता है और एक बार फिर बुलंदियों को छूता है।
विजय के संघर्ष, भटकाव और सुधार के प्रसंगों में नयापन नहीं है। अजीतपाल के दृश्य विधानों में मौलिकता की कमी हैं। नैरेशन की पुरानी शैली पर चलने के कारण वे अधिक प्रभावित नहीं कर पाते। अमृता राव का चरित्र अच्छी तरह से विकसित नहीं किया गया है। फिर भी उन्होंने निराश नहीं किया है। अनुपम खेर ने पिता की भूमिका में कस्बाई नैतिकता के गुणों को अच्छी तरह प्रदर्शित किया है। गुलशन ग्रोवर, अरुण बख्शी और दिलीप ताहिल सामान्य हैं। फिल्म में क्रिकेट खिलाडि़यों का सुंदर उपयोग किया गया है। चुस्त पटकथा में अजीतपाल सभी क्रिकेटरों को फिल्म का हिस्सा बना देते हैं। ब्रैट ली और हरभजन सिंह फिल्म के किरदार ही लगते हैं। हरमन बावेजा क्रिकेटर की भूमिका में पक्के खिलाड़ी लगते हैं। लेकिन नाटकीय दृश्यों में थोड़े कमजोर हैं।
फिल्म कस्बे, छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों के दर्शकों को पंसद आ सकती है, क्योंकि उनकी आकांक्षाओं को समेटती यह फिल्म नैतिकता के सबक देती है।
रेटिंग : **1/2

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