हिन्दी टाकीज:पर्दे में खो जाने का आनंद अजीब होता है-गिरीन्द्र
इस बार गिरीन्द्र ने अपने संस्मरण लिखे हैं.गिरीन्द्र का एक ब्लॉग है]जिसका नाम उन्होंने अनुभव रखा है। अपने बारे में वे लिखते मैथिली में कहूं तो- 'कहबाक कला सीखे छी'। वैसे हर पल सीखने की चाहत रखता हूं। गांव पसंद है और शहर में इंटरनेट से जुड़ा कंप्यूटर। किताबें,गजलें और गाड़ी के पीछे की सीट पर बैठकर सड़कों को देखना पसंद है। ईमेल है- girindranath@gmail।com और बात करने का नंबर- 09868086126
सिनेमा घर, टॉकिज और न जाने लोग इस लाजबाब घर को क्या से क्या कहते हैं, लेकिन हमारे शहर में लोग इसे कहते हैं- सिलेमा घर। मैं इससे दूर ही रहा, काफी कम जाना होत था। याद करने की कोशिश करता हूं तो शायद 1987 में पहली बार सिनेमा देखने हॉल गया था। उस समय किशनगंज के एक हॉस्टल में पढाई करता था। छुट्टी में अपने शहर पूर्णिया आया था और सिनेमा देखने हॉल गया,लेकिन छह वर्ष की अवस्था में सिनेमा को सिलेमा हॉल में समझ नहीं पा रहा था। फिर नंबे के दशक में फिल्मों से मोहब्बत शुरू हुई और फिल्म महबूबा बन गई। छु्ट्टी में शहर आने का मतलब एक-दो सिनेमा देखना था। दोस्तों के साथ हम सिनेमा हॉल पहुंचते थे। पहली बार ज्ञान से कयामत से कयामत तक फिल्म देखी। पापा कहते हैं, गीत का क्रेज था, हम तो जैसे खुद को ही पर्दे पर देखने लगे थे। पूर्णिया में एक हॉल है-फॉर स्टार। हम वहीं पहली बार सिनेमा के साथ जवान हुए थे।
पूर्णिया में कुळ तीन सिनेमा हॉल है। लेकिन सभी की दुनिया एक सी है। फोर स्टार तीनों में सीटों के एरेजमेंट को लेकर अव्वल है। यहां कभी कभार एसी भी चल उठता है। लेकिन अन्य दो चित्रवाणी और रुपवाणी एक आम सिनेमा हॉल है। आप इन हॉलों में सिनेमा को महसूस भी कर सकते हैं, जिसकी कमी महानगरों में खलती है। इन सिनेमघरों से अब हिंदी फिल्में दूर होती जा रही है। भोजपुरी फिल्मों ने यहां पैठ बना ली है।
वैसे सिनेमा हॉल जाकर सिनेमा देखना लगातार जारी नहीं रह सका। हम छुट्टियों में घर कम आने लगे थे। जब याद करता हूं कि कौन सी फिल्म अपने घर वालों के साथ देखी तो गदर की याद आती है। बहनों के साथ पहली बार सिनेमा हॉल जाकर मैंने फिल्म देखी थी। हालांकि सन्नी देओल के एक्शन पर हॉल में इतनी सीटियां बज रही थी कि मैं खुद को असहज महसूस करने लगा था। खैर, सिनेमा हॉल में सपरिवार फिल्म देखने का एक अलग ही आनंद होता है।
सिनेमा के साथ जवानी का रंग चढ़ा दिल्ली आकर। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान हम मुखर्जी नगर में रहा करते थे। वहां है एक बतरा सिनेमा। हम उसे मक्का कहा करते थे। हर शुक्रवार नई फिल्मों को देखना, इसे हम अपना धर्म समझते थे। कोई भी फिल्म हो, उसे छोड़ेन का सवाल ही नहीं होता था। घर से आए पैसों को असल सदुपयोग हम बतरा के कॉउंटर पर ही करते थे। उत्तरी दिल्ली के अधिकतर सिनेमा हॉलों में आना-जाना लगा रहा। दिल्ली में सिनेमा हॉल को मल्टीप्लेक्स बनते हमने देखा है। सच कहूं, दिल्ली और एनसीआर के तकरीबन सभी मल्टीप्लेक्सों में फिल्में देखी है, लेकिन जो मजा मुझे बतरा में देखने में आता है वह कहीं नहीं है। बतरा का क्रेज यह था कि रोड जैसी फिल्म को भी हम छोड़ते नहीं थे। फिल्म देखना और वो भी सिनेमा घर में, इसका जो आनंद है न उसे आप या हम शब्दों में बयां नहीं कर सकते हैं।
घुप्प अंधेर में तीन घंटे सिनेमा घर में चुपचाप पर्दे में खो जाने का आनंद अजीब होता है, जिसे हम केवल महसूस कर सकते हैं। यह अहसास जगह बदलने से नहीं बदलता है। मुंबई हो या दिल्ली या फिर कानपुर या पूर्णिया। इन जगहों के अलग-अलग सिनेमा घरों में सिने प्रेमियों को सिनेमा देखना का एक ही आनंद प्राप्त होगा। भले ही कहीं सीट पतली हो तो कहीं मोटी लेकिन जनाब पर्दे पर सिनेमा तो वही रहेगा न।
Comments
कभी फूर्सत से बतियाया जाएगा इस पर.
Ashish Shivam