फ़िल्म समीक्षा:बैडलक गोबिंद, काश...मेरे होते और द प्रसिडेंट इज कमिंग की संयुक्त समीक्षा
प्रथमग्रासे मच्छिकापात
हिंदी फिल्मों में बुरी फिल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है। फिर भी अगर दो-तीन फिल्में एक साथ रिलीज हो रही हों तो उम्मीद रहती है कि कम से कम एक थोड़ी ठीक होगी। इस बार वह उम्मीद भी टूट गई। इस हफ्ते दो हिंदी और एक अंग्रेजी फिल्म रिलीज हुई। तीनों साधारण निकलीं और तीनों ने मनोरंजन का स्वाद खराब किया। तीनों फिल्मों का अलग-अलग एक्सरे उचित नहीं होगा, इसलिए कुछ सामान्य बातें..
युवा फिल्मकार फिल्म के नैरेटिव पर विशेष ध्यान नहीं देते। सिर्फ एक विचार, व्यक्ति या विषय लेकर किसी तरह फिल्म लिखने की कोशिश में वे विफल होते हैं। बैडलक गोबिंद का आइडिया अच्छा है, लेकिन उस विचार को फिल्म के लेखक और निर्देशक कहानी में नहीं ढाल पाए। काश ़ ़ ़ मेरे होते का आइडिया नकली है। यश चोपड़ा की डर ने प्रेम की एकतरफा दीवानगी का फार्मूला दिया। इस फार्मूले के तहत कई फिल्में बनी हैं। इसमें शाहरुख खान वाली भूमिका सना खान ने की है। द प्रेसिडेंट इज कमिंग अंग्रेजी में बनी है और इसकी पटकथा भी ढीली है। ऐसा लगता है कि लेखक के दिमाग में जब जो बात आ गई, उसे उसने दृश्य में बदल दिया। इधर के लेखक-निर्देशक हिंदी फिल्मों की नैरेटिव परंपरा से कट रहे हैं। इससे दर्शकों को गहरे झटके लगते हैं। एक व्यक्ति (स्टार, नवोदित कलाकार या नायक) को लेकर जब फिल्म बुनी जाती है तो उसका हश्र बैडलक गोविंद (नायक), काश ़ ़ ़ मेरे होते (नवोदित कलाकार) या द प्रेसिडेंट इज कमिंग (स्टार कोंकणा सेना शर्मा) सा ही होता है। कुमार साहिल को लेकर बनाई गई इस फिल्म में निर्देशक की कोशिश थी कि एक स्टार के तौर पर उन्हें स्थापित किया जाए। लेकिन कैमरा उनके कच्चेपन को जाहिर कर देता है। सना खान ने अलबत्ता ध्यान खींच लिया। बैडलक गोबिंद में गोबिंद की बदकिस्मती उभर नहीं पाई। गौरव चोपड़ा भले ही अच्छे वीजे हों, लेकिन अभिनय के लिए उन्हें लंबा अभ्यास करना होगा। द प्रेसिडेंट इज कमिंग में कोंकणा सेन शर्मा पर निर्देशक का काबू ही नहीं रह गया।
कुछ नया करने की कोशिश की तभी सराहना की जा सकती है, जब वह सार्थक दिशा में हो। ऐसी फिल्मों से किसी का फायदा नहीं होता। काश ़ ़ ़मेरे होते में राजेश खन्ना का देख कर फिर से तकलीफ हुई। क्या जरूरत है उन्हें अपने प्रशंसकों को निराश करने की? 2009 के पहले हफ्ते में कोई फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। दूसरे हफ्ते की तीनों फिल्मों ने निराश किया है। प्रथमग्रासे मच्छिकापात (पहले कौर में ही मक्खी गिर जाना) की इस स्थिति में 2009 का पूरा साल जाने कैसा बीतेगा?
हिंदी फिल्मों में बुरी फिल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है। फिर भी अगर दो-तीन फिल्में एक साथ रिलीज हो रही हों तो उम्मीद रहती है कि कम से कम एक थोड़ी ठीक होगी। इस बार वह उम्मीद भी टूट गई। इस हफ्ते दो हिंदी और एक अंग्रेजी फिल्म रिलीज हुई। तीनों साधारण निकलीं और तीनों ने मनोरंजन का स्वाद खराब किया। तीनों फिल्मों का अलग-अलग एक्सरे उचित नहीं होगा, इसलिए कुछ सामान्य बातें..
युवा फिल्मकार फिल्म के नैरेटिव पर विशेष ध्यान नहीं देते। सिर्फ एक विचार, व्यक्ति या विषय लेकर किसी तरह फिल्म लिखने की कोशिश में वे विफल होते हैं। बैडलक गोबिंद का आइडिया अच्छा है, लेकिन उस विचार को फिल्म के लेखक और निर्देशक कहानी में नहीं ढाल पाए। काश ़ ़ ़ मेरे होते का आइडिया नकली है। यश चोपड़ा की डर ने प्रेम की एकतरफा दीवानगी का फार्मूला दिया। इस फार्मूले के तहत कई फिल्में बनी हैं। इसमें शाहरुख खान वाली भूमिका सना खान ने की है। द प्रेसिडेंट इज कमिंग अंग्रेजी में बनी है और इसकी पटकथा भी ढीली है। ऐसा लगता है कि लेखक के दिमाग में जब जो बात आ गई, उसे उसने दृश्य में बदल दिया। इधर के लेखक-निर्देशक हिंदी फिल्मों की नैरेटिव परंपरा से कट रहे हैं। इससे दर्शकों को गहरे झटके लगते हैं। एक व्यक्ति (स्टार, नवोदित कलाकार या नायक) को लेकर जब फिल्म बुनी जाती है तो उसका हश्र बैडलक गोविंद (नायक), काश ़ ़ ़ मेरे होते (नवोदित कलाकार) या द प्रेसिडेंट इज कमिंग (स्टार कोंकणा सेना शर्मा) सा ही होता है। कुमार साहिल को लेकर बनाई गई इस फिल्म में निर्देशक की कोशिश थी कि एक स्टार के तौर पर उन्हें स्थापित किया जाए। लेकिन कैमरा उनके कच्चेपन को जाहिर कर देता है। सना खान ने अलबत्ता ध्यान खींच लिया। बैडलक गोबिंद में गोबिंद की बदकिस्मती उभर नहीं पाई। गौरव चोपड़ा भले ही अच्छे वीजे हों, लेकिन अभिनय के लिए उन्हें लंबा अभ्यास करना होगा। द प्रेसिडेंट इज कमिंग में कोंकणा सेन शर्मा पर निर्देशक का काबू ही नहीं रह गया।
कुछ नया करने की कोशिश की तभी सराहना की जा सकती है, जब वह सार्थक दिशा में हो। ऐसी फिल्मों से किसी का फायदा नहीं होता। काश ़ ़ ़मेरे होते में राजेश खन्ना का देख कर फिर से तकलीफ हुई। क्या जरूरत है उन्हें अपने प्रशंसकों को निराश करने की? 2009 के पहले हफ्ते में कोई फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। दूसरे हफ्ते की तीनों फिल्मों ने निराश किया है। प्रथमग्रासे मच्छिकापात (पहले कौर में ही मक्खी गिर जाना) की इस स्थिति में 2009 का पूरा साल जाने कैसा बीतेगा?
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