दरअसल:साल की समाप्ति
-अजय ब्रह्मात्मज
आज गजनी की रिलीज के साथ 2008 की फिल्मों की रिलीज की कहानी खत्म हो गई। तमाम प्रचार, जिज्ञासा और उम्मीदों के बावजूद कहना मुश्किल है कि गजनी दर्शकों को कितनी पसंद आएगी! निर्माता कुछ अमूर्त्त आकलनों के आधार पर अपनी फिल्म को रिलीज के पहले ही हिट मान बैठते हैं। कई बार वे सही होते हैं, लेकिन ज्यादातर दर्शक उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देते हैं। आदित्य चोपड़ा की रब ने बना दी जोड़ी का उदाहरण ताजा है। यशराज फिल्म्स के इस दावे में कोई दम नहीं है कि फिल्म ने पहले सप्ताहांत में 60 करोड़ का बिजनेस कर लिया है। इस स्तंभ केपाठकों को अच्छी तरह आंकड़ों का यह झांसा मालूम है। सच है कि रिलीज के अगले सोमवार से रब.. के दर्शक नदारद होते गए। हां, अनुष्का शर्मा के रूप में एक नई और कॉन्फिडेंट हीरोइन जरूर मिल गई।
2008 हमें अनुष्का के साथ ही इमरान खान, हरमन बावेजा, निखिल द्विवेदी, राजीव खंडेलवाल और असिन की ठोस शुरुआत की वजह से याद रहेगा। ये कलाकार आने वाले सालों में पर्दे पर जगमगाएंगे। हम इनके भावपूर्ण अभिनय के जरिए मुस्कराएंगे, रोएंगे, हंसेंगे और राहत भी महसूस करेंगे। आम धारणा है कि हिंदी फिल्मों में इंडस्ट्री के बाहर से आए कलाकारों को जगह नहीं मिलती। इसमें आंशिक सच्चाई है, क्योंकि यहां जगह केवल जिद्दी कलाकारों को ही मिलती है। यदि धैर्य और लगन हो, तो इंडस्ट्री ज्यादा देर तक धकिया नहीं पाती। उसे जगह देनी पड़ती है। उसके बाद कलाकार के दम-खम पर निर्भर करता है कि वह कब तक अपनी जगह पर टिका रहता है। इस साल के नवोदित कलाकारों को ही देखें, तो कई फिल्मी परिवारों के नहीं हैं। फिल्मी परिवारों से आने पर पहले-दूसरे मौके के समय इंडस्ट्री थोड़ी उदारता जरूर दिखाती है, लेकिन दर्शकों के नकारने पर इंडस्ट्री भी किनारा कर लेती है। यह शो बिजनेस है। यहां सिर्फ लोकप्रियता की रिश्तेदारी चलती है।
इस साल कुछ नए डायरेक्टर भी आए हैं। हिंदी फिल्मों की परंपरा के निर्वाह और विस्तार में उनका योगदान उल्लेखनीय रहेगा। जाने तू या जाने ना से अब्बास टायरवाला जैसे निर्देशक मिले, जो फार्मूले और पॉपुलर ग्रामर का इस्तेमाल करते हैं, वहीं नीरज पांडे, राज कुमार गुप्ता और सुहैल ततारी जैसे निर्देशक भी आए। इन तीनों ने अलग ढंग से फिल्मों के जरिए कुछ कहने और दिखाने की कोशिश की। उन्हें भी सराहना मिली। देखा गया कि फार्मूलेबाज निर्देशकों को दर्शकों ने नकार दिया। वही सफल हुए, जो नए विषय और नई प्रस्तुति के साथ आए। आदि को युवा दर्शकों का चितेरा समझा जाता है, लेकिन उनकी असफलता से जाहिर है कि दर्शक दिग्गजों के नाम से सम्मोहित नहीं होते। उन्हें ताजा किस्म का मनोरंजन चाहिए।
2008 की उल्लेखनीय फिल्म जोधा अकबर मानी जा सकती है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह फिल्म कुछ सालों के बाद अपनी मेकिंग, ऐक्टिंग और सब्जेक्ट की वजह से याद की जाएगी। लोग यकीन करें कि इस फिल्म के डीवीडी दर्शक बढ़ते ही जाएंगे। यह सुखद सिनेमाई अनुभव देती है। फिल्म देखते समय एपिक अंदाज में कुछ देखने का अहसास होता है। इधर की बड़ी फिल्मों से यह अहसास गायब होता जा रहा है। हिंदी फिल्मों में गहराई खत्म होती जा रही है। सब कुछ उथला और सतह पर ही रहता है। हंसी, नाराजगी और कॉमेडी भी सतह पर तैरती नजर आती है। न लेखक और न निर्देशक कहानियों में गोते लगाते नजर आते हैं और न ही कलाकार अपने चरित्रों को गहरा और पक्का रंग देते हैं। सब कुछ चटकीला और भड़काऊ तो होता है, लेकिन वह देर तक नहीं टिक पाता। आश्चर्य की बात तो यह है कि कई बार थिएटर से निकलने के बाद किरदारों के नाम तक याद नहीं रहते! उम्मीद करते हैं कि 2009 दर्शकों को आनंदित करने वाला होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि कुछ बड़ी और संवेदनशील फिल्में बन रही हैं।
आज गजनी की रिलीज के साथ 2008 की फिल्मों की रिलीज की कहानी खत्म हो गई। तमाम प्रचार, जिज्ञासा और उम्मीदों के बावजूद कहना मुश्किल है कि गजनी दर्शकों को कितनी पसंद आएगी! निर्माता कुछ अमूर्त्त आकलनों के आधार पर अपनी फिल्म को रिलीज के पहले ही हिट मान बैठते हैं। कई बार वे सही होते हैं, लेकिन ज्यादातर दर्शक उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देते हैं। आदित्य चोपड़ा की रब ने बना दी जोड़ी का उदाहरण ताजा है। यशराज फिल्म्स के इस दावे में कोई दम नहीं है कि फिल्म ने पहले सप्ताहांत में 60 करोड़ का बिजनेस कर लिया है। इस स्तंभ केपाठकों को अच्छी तरह आंकड़ों का यह झांसा मालूम है। सच है कि रिलीज के अगले सोमवार से रब.. के दर्शक नदारद होते गए। हां, अनुष्का शर्मा के रूप में एक नई और कॉन्फिडेंट हीरोइन जरूर मिल गई।
2008 हमें अनुष्का के साथ ही इमरान खान, हरमन बावेजा, निखिल द्विवेदी, राजीव खंडेलवाल और असिन की ठोस शुरुआत की वजह से याद रहेगा। ये कलाकार आने वाले सालों में पर्दे पर जगमगाएंगे। हम इनके भावपूर्ण अभिनय के जरिए मुस्कराएंगे, रोएंगे, हंसेंगे और राहत भी महसूस करेंगे। आम धारणा है कि हिंदी फिल्मों में इंडस्ट्री के बाहर से आए कलाकारों को जगह नहीं मिलती। इसमें आंशिक सच्चाई है, क्योंकि यहां जगह केवल जिद्दी कलाकारों को ही मिलती है। यदि धैर्य और लगन हो, तो इंडस्ट्री ज्यादा देर तक धकिया नहीं पाती। उसे जगह देनी पड़ती है। उसके बाद कलाकार के दम-खम पर निर्भर करता है कि वह कब तक अपनी जगह पर टिका रहता है। इस साल के नवोदित कलाकारों को ही देखें, तो कई फिल्मी परिवारों के नहीं हैं। फिल्मी परिवारों से आने पर पहले-दूसरे मौके के समय इंडस्ट्री थोड़ी उदारता जरूर दिखाती है, लेकिन दर्शकों के नकारने पर इंडस्ट्री भी किनारा कर लेती है। यह शो बिजनेस है। यहां सिर्फ लोकप्रियता की रिश्तेदारी चलती है।
इस साल कुछ नए डायरेक्टर भी आए हैं। हिंदी फिल्मों की परंपरा के निर्वाह और विस्तार में उनका योगदान उल्लेखनीय रहेगा। जाने तू या जाने ना से अब्बास टायरवाला जैसे निर्देशक मिले, जो फार्मूले और पॉपुलर ग्रामर का इस्तेमाल करते हैं, वहीं नीरज पांडे, राज कुमार गुप्ता और सुहैल ततारी जैसे निर्देशक भी आए। इन तीनों ने अलग ढंग से फिल्मों के जरिए कुछ कहने और दिखाने की कोशिश की। उन्हें भी सराहना मिली। देखा गया कि फार्मूलेबाज निर्देशकों को दर्शकों ने नकार दिया। वही सफल हुए, जो नए विषय और नई प्रस्तुति के साथ आए। आदि को युवा दर्शकों का चितेरा समझा जाता है, लेकिन उनकी असफलता से जाहिर है कि दर्शक दिग्गजों के नाम से सम्मोहित नहीं होते। उन्हें ताजा किस्म का मनोरंजन चाहिए।
2008 की उल्लेखनीय फिल्म जोधा अकबर मानी जा सकती है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह फिल्म कुछ सालों के बाद अपनी मेकिंग, ऐक्टिंग और सब्जेक्ट की वजह से याद की जाएगी। लोग यकीन करें कि इस फिल्म के डीवीडी दर्शक बढ़ते ही जाएंगे। यह सुखद सिनेमाई अनुभव देती है। फिल्म देखते समय एपिक अंदाज में कुछ देखने का अहसास होता है। इधर की बड़ी फिल्मों से यह अहसास गायब होता जा रहा है। हिंदी फिल्मों में गहराई खत्म होती जा रही है। सब कुछ उथला और सतह पर ही रहता है। हंसी, नाराजगी और कॉमेडी भी सतह पर तैरती नजर आती है। न लेखक और न निर्देशक कहानियों में गोते लगाते नजर आते हैं और न ही कलाकार अपने चरित्रों को गहरा और पक्का रंग देते हैं। सब कुछ चटकीला और भड़काऊ तो होता है, लेकिन वह देर तक नहीं टिक पाता। आश्चर्य की बात तो यह है कि कई बार थिएटर से निकलने के बाद किरदारों के नाम तक याद नहीं रहते! उम्मीद करते हैं कि 2009 दर्शकों को आनंदित करने वाला होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि कुछ बड़ी और संवेदनशील फिल्में बन रही हैं।
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हम तो कम से कम चार पोस्टों की उम्मीद में बैठे हैं