सिनेमा का तिलस्म...-युनूस खान
हिन्दी टाकीज-२०
इस बार हिन्दी टाकीज की अगली कड़ी युनूस खान लेकर आए हैं.युनूस मुंबई में रहते हैं और अपनी मीठी बोली से सभी की ज़िन्दगी में मिठास घोलते हैं.हाँ,उसके लिए ज़रूरी नहीं है कि आप का उनसे संपर्क हुआ हो। ऐसे मीठे लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। शायद यह छोटे शहर का संस्कार हो या फिर युनूस का आत्मज्ञान। हिन्दी टाकीज के लिए लिखने का आग्रह उन्होंने बहुत पहले स्वीकार कर लिया था,लेकिन लेख भेजने में थोड़ी देर हो गई।युनूस खान का ब्लॉग संगीतप्रेमियों के बीच बहुत पॉपुलर है. उनके परिचय की बात करें तो...मध्यप्रदेश के दमोह शहर में जन्म । शिक्षा दीक्षा मध्यप्रदेश के अलग अलग शहरों में । कविताएं लिखता हूं । सिनेमा-संगीत पर दैनिक भास्कर में साप्ताहिक कॉलम 'स्वरपंचमी' । विविध भारती मुंबई में पिछले बारह वर्षों से उदघोषक । दुनिया भर की फिल्मों में रूचि । उनके बाकी ब्लॉग पर आप जन चाहते हों तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें...
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http://www.batkahi-mamta.blogspot.कॉम
आज भले सिनेमा देखना शगल है और सिनेमाहॉल से लेकर लैपटॉप तक, दफ्तर से लेकर कार तक, ऑडिटोरियम से लेकर इंटरनेट तक, सब जगह फिल्में देख लेने में हमें कोई संकोच नहीं होता..........पर सबसे सुनहरी यादें तो वो हैं जब फिल्में देखना इतना ‘सुलभ’ नहीं हुआ करता था । बचपन की जो सबसे पहली स्मृति धुंधली-तस्वीरों की तरह है—वो फिल्म ‘शोले’ की है । पापा बताते हैं कि ये इंदौर की बात है, जाने किस छबिगृह की । बस इतना याद आता है कि कुछ ‘लोग’ ट्रेन पर खूब ‘फाइटिंग’ करते हैं । आगे चलकर जब ‘शोले’ बहुत-बहुत बार देखी तो इन ‘लोगों’ की पहचान दिमाग़ पर छप गई । पता चला के ये अपने ज़माने के सबसे बड़े नायक हैं ।
ना जाने क्यों फिल्में और फिल्मों के विज्ञापन हमेशा से ही मुझे बहुत आकर्षित करते रहे । ये भोपाल शहर की बात है, जहां दीवारों पर नई रिलीज़ फिल्मों के पोस्टर छाये रहते थे । तब vkt आज की तरह होर्डिंग लगाने का रिवाज नहीं था । क़ातिलों के क़ातिल, पुराना मंदिर, डिस्को डान्सर, अपना बना लो, सुहाग, कालिया, मशाल, सिलसिला, होटल, क़सम पैदा करने वाले की, प्यार झुकता नहीं ...देखिए याद करने चला हूं तो कुछ मशहूर फिल्मों के साथ साथ कुछ ऐसी फिल्मों के पोस्टर याद आ रहे हैं जिन्हें हम ‘फ्री’ में भी नहीं देखना चाहेंगे । लेकिन एक के ऊपर एक चढ़े इन पोस्टरों की बात ही निराली होती थी । अख़बारों के विज्ञापनों में टॉकीज़ को शुद्ध हिंदी में छबिगृह लिखा जाता था । वक्त के साथ ये शब्द जाने कहां बिला गया ।
विज्ञापनों की बात चली तो ‘रेडियो विज्ञापन’ याद आ गये । साथ में याद आ गये फिल्मों के प्रायोजित कार्यक्रम । चूंकि टी.वी. उतना प्रचलित नहीं था इसलिए फिल्म वाले प्रचार में विविध-भारती पर ही सारी ताक़त झोंकते थे । ‘ख़तरों के खिलाड़ी’ फिल्म के रेडियो-प्रोमो में अमीन सायानी ख़ूब ज़ोर से चिल्ला-चिल्लाकर ‘कास्ट’ के नाम बोलते थे—‘अमजद शक्ति कादर अरूणा, सितारों की पूरी फ़ौज’ ‘ख़तरों के खिलाड़ी’ । राजकुमार कोहली का शाहकार । अपने नज़दीकी सिनेमाघर में ज़रूर देखिए—‘ख़तरों के खिलाड़ी’ ।
फिल्मों के प्रायोजित कार्यक्रम तो और भी मज़ेदार होते थे । फिल्म की ज़रा-सी कहानी बताई और ‘सस्पेन्स’ पर ले जाकर छोड़ दिया । इन विज्ञापनों में अमीन सायानी, बृज, हरीश भिमाणी और विष्णु शर्मा जैसे लोगों की आवाज़ें होती थीं । आधे घंटे या पंद्रह मिनिट के ये प्रायोजित कार्यक्रम खूब सुने जाते । मज़ेदार बात ये है कि इनमें से ज्यादातर फिल्में हम देखते नहीं थे ।
फिर विज्ञापन का एक और तरीक़ा भोपाल वाले दिनों में था इश्तिहार बांटने वाला । एक ‘ऑटो’ पर माईक और चोगा लेकर एक तथाकथित उद्घोषक बैठ जाता और अपनी ख़ास शैली में बांग देता, हर शब्द ‘अकार’ पर खत्म करता ।—‘गूंजबहादुर्र सिनेमा के आलीशान्न परदे परए, देखिए भव्य चलचित्रए ‘अंगूर्रअ’ । ये खाने के अंगूर्र नहींए, हंसा हंसा कर्र, लोटपोटए कर देगाए, अंगूर्र !!!!!’ ऐसे कलाबाज़ों की हम बहुत नकल करते । उनके ऑटो के पीछे भाग-भागकर गुलाबी, पीले, हरे और सफ़ेद रंगों वाले इश्तिहार जमा करते । जिन पर एकाध चित्र भी होता और इबारत वही होती जो ‘बंदा’ अपनी ‘बांग’ में पढ़ रहा होता था ।
उस दौर में पूरा परिवार फिल्में देखने जाता था । मां, पिताजी, भाई, बहन और मैं । ज़ाहिर है कि फिल्म देखना एक उत्सव होता था । अपने बचपन के दिनों में हमने अमर अकबर एंथनी से लेकर कुली और आखिरी रास्ता तक अमिताभ की सारी फिल्में पारिवारिक आयोजन के तहत देखीं । कई बार ऐसा होता था कि फिल्म देखने का ‘प्लान’ तो बनता लेकिन ऐन वक्त पर ‘रद्द’ कर दिया जाता । और हम निराशा में डूब जाते । ये निराशा इंजीनियरिंग में सिलेक्ट ना होने की निराशा से कम नहीं होती थी ।
वैसे बचपन में भोपाल में हमारे ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ जहांगीराबाद की एक बात बड़ी ख़ास थी । हमें साल में एक या दो फिल्में देखने ले जाया जाता । स्कूली-बसों में सवार होकर हम ‘गूंज बहादुर’ या ‘लिली’ टॉकीज़ में जाते और मज़े से फिल्में देखते । इस दौर की फिल्मों में ‘अनमोल मोती’ और ‘नानी मां’, ‘छोटा जादूगर’ जैसे नाम फ़ौरन याद आ रहे हैं । इस दौर की एक और रोचक घटना याद आती है । घर के पास एक टॉकीज़ थी ‘पंचशील’ जो उसी दौर में बंद भी हो गई थी । वहां हर रविवार को सुबह आठ नौ बजे से कार्टून फिल्में और बच्चों की फिल्में दिखानी शुरू कर दी गईं । मुहल्ले भर में खबर फैल जाती । हर हफ्ते तो नहीं जाने मिलता पर हां कुछ हफ्ते हमने वहां जाकर बेहद ‘औसत’ दरजे की कार्टून फिल्में देखीं और अचंभित हुए ।
उन दिनों की एक और बात ख़ूब-ख़ूब याद आती है । गणेशोत्सव के उपलक्ष्य में खुले मैदानों में प्रोजेक्टर लगाकर फिल्में दिखाने का रिवाज था । अमिताभ बच्चन वाली ‘डॉन’ उसी दौरान भोपाल की ‘कृषि उपज मंडी’ के गणेशोत्सव में देखी थी । सामान्य रूप से ऐसी फिल्में रात दस ग्यारह बजे शुरू होतीं और इतनी देर से खत्म होतीं कि घर लौटने पर कान-खिंचाई होनी पक्की रहती । पता नहीं क्यों गणेशोत्सव के दौरान इस तरह से फिल्में देखने का मज़ा ही और होता था । सर्द रात, प्रोजेक्टर की किर्र-किर्र आवाज़, अच्छा-सा मजमा और बहुत सारा रोमांच ।
टेलीविजन आने के बाद दूरदर्शन पर रविवार की शाम आने वाली लगभग हर फिल्म ‘रिलीजियसली’ देखी जाती थी । उन फिल्मों का सबसे बड़ा रोमांच होता है हीरो का दौड़ते दौड़ते ‘बड़ा’ हो जाना । सुनील दत्त ‘काला आदमी’ में पुलिस से भागते-भागते बड़े हो जाते हैं । इसी तरह कई फिल्मों में मास्टर मयूर भागते-भागते अमिताभ बच्चन में बदल जाते हैं । ऐसे चमत्कारों पर मुदित होकर तालियां बजाना हमारा ‘कर्त्तव्य‘ होता था । फिर आया वी.सी.आर. का युग । जो हमें ज्यादा लुभावना नहीं लगा क्योंकि इसमें फिल्मों का ‘अपच’ हो जाने का पूरा इंतज़ाम होता था । एक घटना याद है, जब पास-पड़ोस के लोगों ने मिलकर एक घर के आंगन में तीन फिल्मों का इंतज़ाम किया—‘अलग-अलग’ ‘फ़ासले’ और तीसरी फिल्म का नाम ही याद नहीं है अब । वैसे वी.सी.आर. पर हमने पहली फिल्म देखी थी ‘बेताब’ । जो इंदौर में मामा के घर जाने पर देखी गई थी । आमतौर पर वी.सी.आर. पर फिल्में देखते समय ऊल-जलूल कॉम्बीनेशन मंगाए जाते । जो मुझे रूचते नहीं थे ।
ननिहाल मध्यप्रदेश के एक छोटे-से शहर दमोह में है । हर साल गर्मियों की छुट्टियों में वहां जाते । पता नहीं क्यों ऐसा चलन हो गया था छोटे मामा हमारे वहां जाने पर अपने स्कूल की लाइब्रेरी से नियमित रूप से किताबें लेकर आते । और हमारी उस ‘ट्रिप’ में एकाध फिल्म ज़रूर दिखाते थे । ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हमने दमोह में ऐसे ही किसी आयोजन में देखी थी । अब तो उस दौरान देखी फिल्मों के नाम तक याद नहीं हैं । वी.सी.आर. के ज़माने में ज़बर्दस्ती मेहबूब खान की ‘आन’ लगाई गई । ज़रा भी समझ में नहीं आई और हम ऊंघते रहे ।
कुछ ही सालों में पापा का ट्रान्सफर हो जाता था । हर बार हम एक नये शहर में पहुंच जाते । जब सागर पहुंचे तो हाई स्कूल वाला दौर आ गया था । यहां भी पूरे परिवार का फिल्में देखना जारी रहा । लेकिन अब तक हमने चोरी से फिल्में देखना भी शुरू कर दिया था । फर्स्ट ईयर के दौरान राजकुमार संतोषी की ‘घायल’ रिलीज़ हुई थी । यूनीवर्सिटी से भागकर ये फिल्म हमने सात आठ बार देखी । यही वो दौर था जब ‘मैंने प्यार किया’ और ‘क़यामत से क़यामत तक’ जैसी फिल्में आई थीं । ‘तेज़ाब’ और ‘परिन्दा’ भी सागर वाले दौर में ही देखी गईं । चूंकि फिल्में देखने की ‘समझ’ अब बढ़ रही थी । और दूरदर्शन पर ‘वर्ल्ड क्लासिक सिनेमा’ शुक्रवार की रात दिखाया जाने लगा था । इस दौर में हमने ‘थर्टी नाइन स्टेप्स’ जैसी फिल्में देखीं । और लगा कि सिनेमा ऐसा भी हो सकता है । सत्यजीत रे की कई फिल्में दूरदर्शन के प्रताप से ही देखने मिलीं ।
इस दौर में हम ‘लाइब्रेरी-जीवी’ हो गए थे । मुंबई और दिल्ली से आने वाले अख़बारों में ताज़ा अंग्रेज़ी फिल्मों के विज्ञापन होते । नामी और क्लासिक फिल्मकारों पर लेख होते । तब पता चला कि हिचकॉक, कुरोसावा, फ्रेदरिको फेलिनी, फ्रैंक कापरा जैसे फिल्मकार भी होते हैं । तब मन में यही ख्याल होता था कि जब बड़े होकर इन बड़े शहरों में जाने मिलेगा तो हम भी फिल्म-समारोहों का हिस्सा बनेंगे और खूब फिल्में देखेंगे ।
सिनेमा का तिलस्म ऐसा था, कि हर बार इसकी कुछ नई परतें खुल जाती थीं । एक नई दुनिया सामने आ जाती थी । एक तेलुगु मित्र सागर में था, पी.राजेश्वर राव । वो कहीं से दक्षिण की फिल्में जुटा कर लाता था । ऐसे दौर में हमने ‘अंजली’ ‘पुष्पक’ ‘शिवा’ जैसी फिल्में वी.सी.आर. पर देखीं थीं । ये फिल्में तेलुगु और तमिल में थीं लेकिन भाषा की कोई असुविधा महसूस नहीं हुई क्योंकि मित्र बतौर दुभाषिया मौजूद रहता था और चीज़ें स्पष्ट करता चलता था ।
ऐसे ही दिनों में फिर से शहर बदला और हम जा पहुंचे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में । जो नागपुर से सटा हुआ है । यहां गिनती के थियेटर थे । इन्हीं थियेटरों में हमने अजय देवगन को दो मोटरसायकिलों पर बैलेन्स बनाकर एन्ट्री लेते हुए देखा । और दिल्ली से आये जनसत्ता में विष्णु खरे की अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की फिल्मों पर लिखी टिप्पणियां पढ़ीं । उन्हें बाक़ायदा संजोया । उस वक्त अंदाजा भी नहीं था कि आगे चलकर डी.वी.डी.युग आयेगा और क्लासिक फिल्में देखना इसलिए आसान हो जायेगा क्योंकि वक्त हमें समंदर किनारे वाली इस मायानगरी में ला देगा ।
विविध-भारती में आने के बाद जैसे ‘ख़ज़ाना’ ही हाथ लग गया । जिस साल मैं मुंबई आया संभवत: उसके फौरन बाद ही मुंबई अकादमी ऑफ मूविंग इमेजेज़ (मामी) ने मुंबई में बिना सरकारी मदद के इस शहर के अपने फिल्म-समारोह की शुरूआत की । फिल्मों का हमारा जुनून और ‘बड़े’ शहर में रहकर फिल्म-समारोह में ‘जीने’ का शौक़ पूरा हो रहा था । ज़ाहिर है कि ‘मामी’ से हमारा भावनात्मक लगाव रहा है । पहले ही आयोजन में नागेश कुकनूर की हैदराबाद ब्लूज़, गोविंद निहलानी की ‘हज़ार चौरासी की मां’ और कई देसी-विदेशी फिल्मकारों की बहुत ही उत्कृष्ट फिल्में देखने मिलीं । कई देशी-विदेशी फिल्मकारों से आमने-सामने बातचीत करने का मौक़ा मिला । तब से हम ‘मामी’ के इस सालाना जश्न के लगातार हिस्सेदार हैं । अब तो डी.वी.डी. सर्किट पर भी तमाम महत्वपूर्ण फिल्में उपलब्ध हो रही हैं । और मुंबई के मल्टीप्लेक्सेज़ में भी प्रदर्शित होती रहती हैं । ज़ाहिर है कि सिनेमा की दुनिया में अपनी ‘मौजा ही मौजा है ।
इस बार हिन्दी टाकीज की अगली कड़ी युनूस खान लेकर आए हैं.युनूस मुंबई में रहते हैं और अपनी मीठी बोली से सभी की ज़िन्दगी में मिठास घोलते हैं.हाँ,उसके लिए ज़रूरी नहीं है कि आप का उनसे संपर्क हुआ हो। ऐसे मीठे लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। शायद यह छोटे शहर का संस्कार हो या फिर युनूस का आत्मज्ञान। हिन्दी टाकीज के लिए लिखने का आग्रह उन्होंने बहुत पहले स्वीकार कर लिया था,लेकिन लेख भेजने में थोड़ी देर हो गई।युनूस खान का ब्लॉग संगीतप्रेमियों के बीच बहुत पॉपुलर है. उनके परिचय की बात करें तो...मध्यप्रदेश के दमोह शहर में जन्म । शिक्षा दीक्षा मध्यप्रदेश के अलग अलग शहरों में । कविताएं लिखता हूं । सिनेमा-संगीत पर दैनिक भास्कर में साप्ताहिक कॉलम 'स्वरपंचमी' । विविध भारती मुंबई में पिछले बारह वर्षों से उदघोषक । दुनिया भर की फिल्मों में रूचि । उनके बाकी ब्लॉग पर आप जन चाहते हों तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें...
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आज भले सिनेमा देखना शगल है और सिनेमाहॉल से लेकर लैपटॉप तक, दफ्तर से लेकर कार तक, ऑडिटोरियम से लेकर इंटरनेट तक, सब जगह फिल्में देख लेने में हमें कोई संकोच नहीं होता..........पर सबसे सुनहरी यादें तो वो हैं जब फिल्में देखना इतना ‘सुलभ’ नहीं हुआ करता था । बचपन की जो सबसे पहली स्मृति धुंधली-तस्वीरों की तरह है—वो फिल्म ‘शोले’ की है । पापा बताते हैं कि ये इंदौर की बात है, जाने किस छबिगृह की । बस इतना याद आता है कि कुछ ‘लोग’ ट्रेन पर खूब ‘फाइटिंग’ करते हैं । आगे चलकर जब ‘शोले’ बहुत-बहुत बार देखी तो इन ‘लोगों’ की पहचान दिमाग़ पर छप गई । पता चला के ये अपने ज़माने के सबसे बड़े नायक हैं ।
ना जाने क्यों फिल्में और फिल्मों के विज्ञापन हमेशा से ही मुझे बहुत आकर्षित करते रहे । ये भोपाल शहर की बात है, जहां दीवारों पर नई रिलीज़ फिल्मों के पोस्टर छाये रहते थे । तब vkt आज की तरह होर्डिंग लगाने का रिवाज नहीं था । क़ातिलों के क़ातिल, पुराना मंदिर, डिस्को डान्सर, अपना बना लो, सुहाग, कालिया, मशाल, सिलसिला, होटल, क़सम पैदा करने वाले की, प्यार झुकता नहीं ...देखिए याद करने चला हूं तो कुछ मशहूर फिल्मों के साथ साथ कुछ ऐसी फिल्मों के पोस्टर याद आ रहे हैं जिन्हें हम ‘फ्री’ में भी नहीं देखना चाहेंगे । लेकिन एक के ऊपर एक चढ़े इन पोस्टरों की बात ही निराली होती थी । अख़बारों के विज्ञापनों में टॉकीज़ को शुद्ध हिंदी में छबिगृह लिखा जाता था । वक्त के साथ ये शब्द जाने कहां बिला गया ।
विज्ञापनों की बात चली तो ‘रेडियो विज्ञापन’ याद आ गये । साथ में याद आ गये फिल्मों के प्रायोजित कार्यक्रम । चूंकि टी.वी. उतना प्रचलित नहीं था इसलिए फिल्म वाले प्रचार में विविध-भारती पर ही सारी ताक़त झोंकते थे । ‘ख़तरों के खिलाड़ी’ फिल्म के रेडियो-प्रोमो में अमीन सायानी ख़ूब ज़ोर से चिल्ला-चिल्लाकर ‘कास्ट’ के नाम बोलते थे—‘अमजद शक्ति कादर अरूणा, सितारों की पूरी फ़ौज’ ‘ख़तरों के खिलाड़ी’ । राजकुमार कोहली का शाहकार । अपने नज़दीकी सिनेमाघर में ज़रूर देखिए—‘ख़तरों के खिलाड़ी’ ।
फिल्मों के प्रायोजित कार्यक्रम तो और भी मज़ेदार होते थे । फिल्म की ज़रा-सी कहानी बताई और ‘सस्पेन्स’ पर ले जाकर छोड़ दिया । इन विज्ञापनों में अमीन सायानी, बृज, हरीश भिमाणी और विष्णु शर्मा जैसे लोगों की आवाज़ें होती थीं । आधे घंटे या पंद्रह मिनिट के ये प्रायोजित कार्यक्रम खूब सुने जाते । मज़ेदार बात ये है कि इनमें से ज्यादातर फिल्में हम देखते नहीं थे ।
फिर विज्ञापन का एक और तरीक़ा भोपाल वाले दिनों में था इश्तिहार बांटने वाला । एक ‘ऑटो’ पर माईक और चोगा लेकर एक तथाकथित उद्घोषक बैठ जाता और अपनी ख़ास शैली में बांग देता, हर शब्द ‘अकार’ पर खत्म करता ।—‘गूंजबहादुर्र सिनेमा के आलीशान्न परदे परए, देखिए भव्य चलचित्रए ‘अंगूर्रअ’ । ये खाने के अंगूर्र नहींए, हंसा हंसा कर्र, लोटपोटए कर देगाए, अंगूर्र !!!!!’ ऐसे कलाबाज़ों की हम बहुत नकल करते । उनके ऑटो के पीछे भाग-भागकर गुलाबी, पीले, हरे और सफ़ेद रंगों वाले इश्तिहार जमा करते । जिन पर एकाध चित्र भी होता और इबारत वही होती जो ‘बंदा’ अपनी ‘बांग’ में पढ़ रहा होता था ।
उस दौर में पूरा परिवार फिल्में देखने जाता था । मां, पिताजी, भाई, बहन और मैं । ज़ाहिर है कि फिल्म देखना एक उत्सव होता था । अपने बचपन के दिनों में हमने अमर अकबर एंथनी से लेकर कुली और आखिरी रास्ता तक अमिताभ की सारी फिल्में पारिवारिक आयोजन के तहत देखीं । कई बार ऐसा होता था कि फिल्म देखने का ‘प्लान’ तो बनता लेकिन ऐन वक्त पर ‘रद्द’ कर दिया जाता । और हम निराशा में डूब जाते । ये निराशा इंजीनियरिंग में सिलेक्ट ना होने की निराशा से कम नहीं होती थी ।
वैसे बचपन में भोपाल में हमारे ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ जहांगीराबाद की एक बात बड़ी ख़ास थी । हमें साल में एक या दो फिल्में देखने ले जाया जाता । स्कूली-बसों में सवार होकर हम ‘गूंज बहादुर’ या ‘लिली’ टॉकीज़ में जाते और मज़े से फिल्में देखते । इस दौर की फिल्मों में ‘अनमोल मोती’ और ‘नानी मां’, ‘छोटा जादूगर’ जैसे नाम फ़ौरन याद आ रहे हैं । इस दौर की एक और रोचक घटना याद आती है । घर के पास एक टॉकीज़ थी ‘पंचशील’ जो उसी दौर में बंद भी हो गई थी । वहां हर रविवार को सुबह आठ नौ बजे से कार्टून फिल्में और बच्चों की फिल्में दिखानी शुरू कर दी गईं । मुहल्ले भर में खबर फैल जाती । हर हफ्ते तो नहीं जाने मिलता पर हां कुछ हफ्ते हमने वहां जाकर बेहद ‘औसत’ दरजे की कार्टून फिल्में देखीं और अचंभित हुए ।
उन दिनों की एक और बात ख़ूब-ख़ूब याद आती है । गणेशोत्सव के उपलक्ष्य में खुले मैदानों में प्रोजेक्टर लगाकर फिल्में दिखाने का रिवाज था । अमिताभ बच्चन वाली ‘डॉन’ उसी दौरान भोपाल की ‘कृषि उपज मंडी’ के गणेशोत्सव में देखी थी । सामान्य रूप से ऐसी फिल्में रात दस ग्यारह बजे शुरू होतीं और इतनी देर से खत्म होतीं कि घर लौटने पर कान-खिंचाई होनी पक्की रहती । पता नहीं क्यों गणेशोत्सव के दौरान इस तरह से फिल्में देखने का मज़ा ही और होता था । सर्द रात, प्रोजेक्टर की किर्र-किर्र आवाज़, अच्छा-सा मजमा और बहुत सारा रोमांच ।
टेलीविजन आने के बाद दूरदर्शन पर रविवार की शाम आने वाली लगभग हर फिल्म ‘रिलीजियसली’ देखी जाती थी । उन फिल्मों का सबसे बड़ा रोमांच होता है हीरो का दौड़ते दौड़ते ‘बड़ा’ हो जाना । सुनील दत्त ‘काला आदमी’ में पुलिस से भागते-भागते बड़े हो जाते हैं । इसी तरह कई फिल्मों में मास्टर मयूर भागते-भागते अमिताभ बच्चन में बदल जाते हैं । ऐसे चमत्कारों पर मुदित होकर तालियां बजाना हमारा ‘कर्त्तव्य‘ होता था । फिर आया वी.सी.आर. का युग । जो हमें ज्यादा लुभावना नहीं लगा क्योंकि इसमें फिल्मों का ‘अपच’ हो जाने का पूरा इंतज़ाम होता था । एक घटना याद है, जब पास-पड़ोस के लोगों ने मिलकर एक घर के आंगन में तीन फिल्मों का इंतज़ाम किया—‘अलग-अलग’ ‘फ़ासले’ और तीसरी फिल्म का नाम ही याद नहीं है अब । वैसे वी.सी.आर. पर हमने पहली फिल्म देखी थी ‘बेताब’ । जो इंदौर में मामा के घर जाने पर देखी गई थी । आमतौर पर वी.सी.आर. पर फिल्में देखते समय ऊल-जलूल कॉम्बीनेशन मंगाए जाते । जो मुझे रूचते नहीं थे ।
ननिहाल मध्यप्रदेश के एक छोटे-से शहर दमोह में है । हर साल गर्मियों की छुट्टियों में वहां जाते । पता नहीं क्यों ऐसा चलन हो गया था छोटे मामा हमारे वहां जाने पर अपने स्कूल की लाइब्रेरी से नियमित रूप से किताबें लेकर आते । और हमारी उस ‘ट्रिप’ में एकाध फिल्म ज़रूर दिखाते थे । ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हमने दमोह में ऐसे ही किसी आयोजन में देखी थी । अब तो उस दौरान देखी फिल्मों के नाम तक याद नहीं हैं । वी.सी.आर. के ज़माने में ज़बर्दस्ती मेहबूब खान की ‘आन’ लगाई गई । ज़रा भी समझ में नहीं आई और हम ऊंघते रहे ।
कुछ ही सालों में पापा का ट्रान्सफर हो जाता था । हर बार हम एक नये शहर में पहुंच जाते । जब सागर पहुंचे तो हाई स्कूल वाला दौर आ गया था । यहां भी पूरे परिवार का फिल्में देखना जारी रहा । लेकिन अब तक हमने चोरी से फिल्में देखना भी शुरू कर दिया था । फर्स्ट ईयर के दौरान राजकुमार संतोषी की ‘घायल’ रिलीज़ हुई थी । यूनीवर्सिटी से भागकर ये फिल्म हमने सात आठ बार देखी । यही वो दौर था जब ‘मैंने प्यार किया’ और ‘क़यामत से क़यामत तक’ जैसी फिल्में आई थीं । ‘तेज़ाब’ और ‘परिन्दा’ भी सागर वाले दौर में ही देखी गईं । चूंकि फिल्में देखने की ‘समझ’ अब बढ़ रही थी । और दूरदर्शन पर ‘वर्ल्ड क्लासिक सिनेमा’ शुक्रवार की रात दिखाया जाने लगा था । इस दौर में हमने ‘थर्टी नाइन स्टेप्स’ जैसी फिल्में देखीं । और लगा कि सिनेमा ऐसा भी हो सकता है । सत्यजीत रे की कई फिल्में दूरदर्शन के प्रताप से ही देखने मिलीं ।
इस दौर में हम ‘लाइब्रेरी-जीवी’ हो गए थे । मुंबई और दिल्ली से आने वाले अख़बारों में ताज़ा अंग्रेज़ी फिल्मों के विज्ञापन होते । नामी और क्लासिक फिल्मकारों पर लेख होते । तब पता चला कि हिचकॉक, कुरोसावा, फ्रेदरिको फेलिनी, फ्रैंक कापरा जैसे फिल्मकार भी होते हैं । तब मन में यही ख्याल होता था कि जब बड़े होकर इन बड़े शहरों में जाने मिलेगा तो हम भी फिल्म-समारोहों का हिस्सा बनेंगे और खूब फिल्में देखेंगे ।
सिनेमा का तिलस्म ऐसा था, कि हर बार इसकी कुछ नई परतें खुल जाती थीं । एक नई दुनिया सामने आ जाती थी । एक तेलुगु मित्र सागर में था, पी.राजेश्वर राव । वो कहीं से दक्षिण की फिल्में जुटा कर लाता था । ऐसे दौर में हमने ‘अंजली’ ‘पुष्पक’ ‘शिवा’ जैसी फिल्में वी.सी.आर. पर देखीं थीं । ये फिल्में तेलुगु और तमिल में थीं लेकिन भाषा की कोई असुविधा महसूस नहीं हुई क्योंकि मित्र बतौर दुभाषिया मौजूद रहता था और चीज़ें स्पष्ट करता चलता था ।
ऐसे ही दिनों में फिर से शहर बदला और हम जा पहुंचे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में । जो नागपुर से सटा हुआ है । यहां गिनती के थियेटर थे । इन्हीं थियेटरों में हमने अजय देवगन को दो मोटरसायकिलों पर बैलेन्स बनाकर एन्ट्री लेते हुए देखा । और दिल्ली से आये जनसत्ता में विष्णु खरे की अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की फिल्मों पर लिखी टिप्पणियां पढ़ीं । उन्हें बाक़ायदा संजोया । उस वक्त अंदाजा भी नहीं था कि आगे चलकर डी.वी.डी.युग आयेगा और क्लासिक फिल्में देखना इसलिए आसान हो जायेगा क्योंकि वक्त हमें समंदर किनारे वाली इस मायानगरी में ला देगा ।
विविध-भारती में आने के बाद जैसे ‘ख़ज़ाना’ ही हाथ लग गया । जिस साल मैं मुंबई आया संभवत: उसके फौरन बाद ही मुंबई अकादमी ऑफ मूविंग इमेजेज़ (मामी) ने मुंबई में बिना सरकारी मदद के इस शहर के अपने फिल्म-समारोह की शुरूआत की । फिल्मों का हमारा जुनून और ‘बड़े’ शहर में रहकर फिल्म-समारोह में ‘जीने’ का शौक़ पूरा हो रहा था । ज़ाहिर है कि ‘मामी’ से हमारा भावनात्मक लगाव रहा है । पहले ही आयोजन में नागेश कुकनूर की हैदराबाद ब्लूज़, गोविंद निहलानी की ‘हज़ार चौरासी की मां’ और कई देसी-विदेशी फिल्मकारों की बहुत ही उत्कृष्ट फिल्में देखने मिलीं । कई देशी-विदेशी फिल्मकारों से आमने-सामने बातचीत करने का मौक़ा मिला । तब से हम ‘मामी’ के इस सालाना जश्न के लगातार हिस्सेदार हैं । अब तो डी.वी.डी. सर्किट पर भी तमाम महत्वपूर्ण फिल्में उपलब्ध हो रही हैं । और मुंबई के मल्टीप्लेक्सेज़ में भी प्रदर्शित होती रहती हैं । ज़ाहिर है कि सिनेमा की दुनिया में अपनी ‘मौजा ही मौजा है ।
Comments
अजय जी से माफी भी चाहूंगा कि उन्होंने मुझे कहा था कुछ दक्षिण भारतिय सिनेमा पर लिखने को, और मैं अभी तक ना भेज सका.. मैंने कुछ लिखा है मगर बहुत लम्बा हो गया है.. एक अपने बचपन के सिनेमा संस्कार के बारे में और दूसरा दक्षिण के सिनेमा संस्कारों के बारे में.. 1-2 दिनों में आपको मेल कर दूंगा..