हिन्दी टाकीज:फिल्में सोच बदल सकती हैं-पूजा उपाध्याय
हिन्दी टाकीज-१९
फ़िल्म का पहला सीन जो याद है मुझे...फ़िल्म जानी दुश्मन का है, उसमें हीरो दुल्हन को देखता है और वापस घूमता है तो कुछ कुछ भालू जैसा विशाल जानवर बन जाता है, फ़िर लड़की के गले पर नाखून से खरोंच लेता है. उस वक्त बहुत छोटी रही होउंगी तो बहुत डर गई थी और sare समय मम्मी की साड़ी में मुंह छुपा के बैठी रही थी.
मेरा सारा बचपन झारखण्ड के एक छोटे से शहर देवघर में गुजरा. वहां पर तीन सिनेमा हॉल थे, बैद्यनाथ, शंकर और भगवान्...देवघर धार्मिक आस्थाओं का शहर है और शंकर भगवान का बहुत प्रसिद्ध मन्दिर है वहां. शायद इसी कारण से तीनो हॉल का नाम कुछ ऐसा ही था. हॉल का भी वर्गीकरण होता है, जैसे बैद्यनाथ और शंकर परिवार के साथ जाने वाले हॉल थे, जबकि भगवान में अक्सर लड़के (लुच्चे, लफंगे, कॉलेज के भागे हुए टाइप) जाते थे. लोगो का कहना था कि ये लड़के बहुत सीटी बजाते थे और हल्ला करते थे, जिससे भले लोग उनके साथ बैठ कर फ़िल्म नहीं देख सकते. और हम लोग भले लोग में आते थे :)
आजकल फ़िल्म रिलीज़ होती है तो उसके कई प्रिंट रिलीज़ होते हैं जिससे छोटे शहरों में भी एक ही दिन फ़िल्म रिलीज़ हो जाती है. हमारे समय ऐसा नहीं होता था, उस वक्त फ़िल्म आई, अखबार में पढ़ लिया और फ़िर इंतज़ार शुरू होता था कि हॉल में कब लगती है. रिलीज़ होनी वाली अधिकतर अच्छी फिल्में हम देख ही लेते थे. प्रोग्राम अक्सर किसी और परिवार के साथ बनता था. पापा के कलीग्स के बच्चे हमउम्र थे तो बड़ा मज़ा आता था. इंटरवल के टाइम हम बच्चों को चिनियाबदाम(मूंगफली) मिलती थी, पापा और बाकी अंकल थम्स अप और मम्मी लोग गोल्ड स्पॉट या लिम्का. फ़िल्म तो खैर समझ से बाहर होती थी और याद भी नहीं रहता था कुछ बाद में, पर सब लोगों के साथ जाने और घूमने में बड़ा मज़ा आता था.
हमारा स्कूल ७ कम दूर था और लड़कों के लिए बस नहीं आती थी, तो वो टेकर से आते थे. इसी बीच पहली बार कुछ लड़के स्कूल से भाग कर फ़िल्म देखने के लिए पकड़े गए थे. हमें बड़ा आश्चर्य हुआ था, उनके दुस्साहस पर, पर बात यहाँ ख़त्म नहीं हुयी...उस साल हिस्ट्री के पेपर में इनमे से ही कुछ लड़कों ने आन्सर के बीच में फिल्मी गाने लिख दिए थे...शायद इस थ्योरी को प्रूव करने के लिए कि पेपर कोई नहीं पढता. खैर उनकी किस्मत ख़राब थी और वो सब पकड़े गए. सबके माता पिता को बुलवाया गया, और बाद में उनकी धुलाई के किस्से हमने काफ़ी दिनों तक सुने.
इन लड़कों से भाग कर फिल्में देखने के बारे में सुनकर बड़ा रोमांच होता था, पर ऐसा करने की बात कभी सपने में भी नहीं सोच पाई, लड़कियां ऐसा नहीं करती. इस सब के बीच हम १०वीं में पहुँच गए और उस वक्त शाहरुख़ की फ़िल्म आई थी, "कुछ कुछ होता है"KKHH. सबकी जुबान पर एक ही सवाल, फ़िल्म देखी? एक ही डायलॉग, कुछ कुछ होता है_______ तुम नहीं समझोगी. उस वक्त प्री-बोअर्ड्स होने वाले थे तो घर में बोलने की हिम्मत नहीं. और जिस दिन आखिरी पेपर था मम्मी और बगल की एक आंटी के साथ हम शान से ३ बजे वाला शो देखने पहुँच गए. जा के क्या देखते हैं की पूरा क्लास वही है, उसपर तुर्रा ये की कुछ लड़कों ने टोक दिया. अब फ़िल्म तो क्या खाक देखूंगी, सारे वक़्त मम्मी ऐसी नज़र से देखती रही की लगे अभी पीट देगी. अब मैं कितना समझाउँ की हम प्लान बना कर नहीं आए थे. हमको नहीं मालूम की वो इस वक्त क्यों आए, और इसी हॉल में क्यों आए(लफंगों वाले में क्यों नहीं गए).
फ़िर हम सब लोग पटना चले आए ९९ में, और जैसा कि उस वक्त होता था, भले घर की लड़कियां फ़िल्म देखने नहीं जाती थी, और अब मैं बच्ची नहीं रही कि जिद पकडूँ तो कुछ भी मिल जाए. ६ साल मैंने बिना हॉल का चेहरा देखे गुजरे. कैसी भी फ़िल्म हो, वही पायरेटेड सीडी देखने के अलावा कोई चारा नहीं, हिली हुयी पिक्चर, इधर उधर खिसके डायलॉग. फिल्मो से सारा जुडाव ख़त्म हो गया था. इस बीच कॉलेज में थर्ड इयर में फ़िल्म अप्प्रेसिअशन(film appreciation) नाम का पेपर था, उसमें फ़िर बहुत सी चीज़ें पढ़ी, क्लास के साथ ऑडिटोरियम में बहुत सी अच्छी फिल्में देखी, और अपनी डॉक्युमेंटरी शूट की.
ऐसी ही क्लास्सेस में हमें Mr.&Mrs Iyer दिखाई गई, इस फ़िल्म को देखकर पहली बार मेरे अन्दर डायरेक्शन का शौक़ जागा. दिल्ली में IIMC में अड्मिशन होना एक दूसरी जिंदगी मिलना था, कई तरह के लोगो से मिली और सबसे महत्वपूर्ण उसकी लाइब्रेरी में फिल्मों से जुड़े हर पहलू को लेकर किताबें देखीं और पढ़ी.
और यहाँ से फिल्मों का सफर शुरू हुआ...पहली बार घर पर बिना बताए फ़िल्म देखने गई, "रंग दे बसंती". हम चार लोग थे, ६-९ का शो था, ६० रुपये की टिकट, आना जाना बस से. फ़िल्म क्या थी, जज्बा उतार दिया था परदे पर...मुझे याद है मैंने फ़िर अपने दोस्तों में कहा था, पॉलिटिक्स में उतरना, मैं तुम्हारा सारा कैम्पेन सम्हालूंगी. उस दिन पहली बार महसूस किया था की फिल्में किस तरह सोच को बदल सकती हैं...और ये मुझे एक बहुत बड़ी शक्ति लगी थी.
फिल्मो के बारे में पढने से ऐसा हो जाता है की कभी भी एक दर्शक की तरह फ़िल्म नहीं देख सकते, हमेशा कभी निर्देशक, तो कभी सिनेमैटोग्राफर तो कभी स्क्रिप्ट के हिसाब से देखने लगते हैं. मेरे साथ भी ऐसा होता है. इस साल की तो तकरीबन सारी फिल्में देख डाली मैंने. कारण ये भी था कि घर के बिल्कुल पास पीवीआर था, टिकेट आसानी से मिल जाती थी और वीकएंड पर कोई काम भी नहीं रहता था.
इस बीच एक दिन सोचा कि अभी तक नाईट शो नहीं देख पाये हैं, टिकेट बुक की, ट्राफिक सिग्नल, गुडगाँव के मॉल में. पिक्चर तो बहुत अच्छी लगी पर जब रात के डेढ़ बजे हॉल से बाहर आए तो सामने के बार से निकलते नशे में धुत्त लड़कों को देख कर सिट्टी पिट्टी गुम हो गई, ठंढ से ज्यादा डर के मारे कंपकपी लगने लगी. फटाफट वहां से निकले और कान पकड़ कर तौबा की कि अब कभी रात का शो नहीं देखेंगे.
बंगलोर में बहुत दिक्कत हो गई है फ़िल्म देखने में, एक तो हॉल घर से बहुत दूर है, उसपर टिकट बहुत महँगी, उसपर हमेशा हाउसफुल. एक हफ्ता पहले टिकट कटाओ तब जा के कुछ हो सकेगा...और इस साल वाकई अच्छी फिल्में बहुत कम आई हैं, इसलिए हम अच्छी फ़िल्म का इंतज़ार करने के बजाये ख़ुद ही बनाने की सोच रहे हैं. काम चालू आहे...अब देखें मायानगरी मुंबई कब हमें बुलाती है.
पूजा उपाध्याय से मुलाक़ात ब्लॉग के जरिए हुई.पहली झलक में ही उन्होंने प्रभावित किया.मैंने आव देखा ना ताव और उनसे आग्रह कर दिया और उन्होंने ने मान भी रखा.अपने अनुभव उन्होंने ने लिख भेजे.उसे जस का तस् प्रस्तुत कर रहा हूँ.उन्होंने अपने परिचय में लिखा है....
मॉस कॉम में पटना विमेंस कॉलेज से स्नातक(प्रतिष्ठा), फ़िर दिल्ली आकर Indian institute of mass communication से पीजी डिप्लोमा लिया. फ़िल्म डायरेक्ट करना चाहती हूँ, पटकथा पर काम कर रही हूँ, कुछ डॉक्युमेंटरी और लघु फिल्में बनाई हैं, कॉलेज में ही. कविता लिखने का शौक़ काफ़ी दिनों से है, आजकल कहानियाँ भी लिख लेती हूँ कभी कभी. प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी संगीत में विशारद हूँ, कॉलेज में किसी भी प्रोग्राम का अभिन्न अंग रही इसी कारण.
दो साल दिल्ली में advertising और इवेंट मैनेजमेंट में कॉपीराईटर रही, फ़िर लगा कि अपनी फ़िल्म पर जितनी जल्दी काम शुरू कर दूँ बेहतर होगा, वैसे भी एक रेगुलर ऑफिस में काम करते हुए अपना कुछ काम करना बहुत मुश्किल होता.
यायावर प्रवृत्ति की हूँ, घूमना फिरना बहुत अच्छा लगता है, दिल्ली में थी तो पुराने किले, मजार, मस्जिद वगैरह में भटकती रहती थी. बातें बहुत करती हूँ, सपने बहुत देखती हूँ...और अपने सपनो और ख़ुद पर यकीन करती हूँ.
मॉस कॉम में पटना विमेंस कॉलेज से स्नातक(प्रतिष्ठा), फ़िर दिल्ली आकर Indian institute of mass communication से पीजी डिप्लोमा लिया. फ़िल्म डायरेक्ट करना चाहती हूँ, पटकथा पर काम कर रही हूँ, कुछ डॉक्युमेंटरी और लघु फिल्में बनाई हैं, कॉलेज में ही. कविता लिखने का शौक़ काफ़ी दिनों से है, आजकल कहानियाँ भी लिख लेती हूँ कभी कभी. प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी संगीत में विशारद हूँ, कॉलेज में किसी भी प्रोग्राम का अभिन्न अंग रही इसी कारण.
दो साल दिल्ली में advertising और इवेंट मैनेजमेंट में कॉपीराईटर रही, फ़िर लगा कि अपनी फ़िल्म पर जितनी जल्दी काम शुरू कर दूँ बेहतर होगा, वैसे भी एक रेगुलर ऑफिस में काम करते हुए अपना कुछ काम करना बहुत मुश्किल होता.
यायावर प्रवृत्ति की हूँ, घूमना फिरना बहुत अच्छा लगता है, दिल्ली में थी तो पुराने किले, मजार, मस्जिद वगैरह में भटकती रहती थी. बातें बहुत करती हूँ, सपने बहुत देखती हूँ...और अपने सपनो और ख़ुद पर यकीन करती हूँ.
अपने ब्लॉग परिचय में उन्होंने जो लिखा है .वह भी गौर करने के काबिल है...
Some people break rules...some make them...i belong to the second category। i love playing with words,they have been my friends for life.this blog is an extension of myself...most of the writings here are mine...and the rest i credit the authors...coz i can never stop adoring gulzar,bashir badr, dushyant kumar... some day i will make a movie...or a couple of them...and write a book...and do so many things... i want to live my life...every moment of it...AND BY MY OWN
फ़िल्म का पहला सीन जो याद है मुझे...फ़िल्म जानी दुश्मन का है, उसमें हीरो दुल्हन को देखता है और वापस घूमता है तो कुछ कुछ भालू जैसा विशाल जानवर बन जाता है, फ़िर लड़की के गले पर नाखून से खरोंच लेता है. उस वक्त बहुत छोटी रही होउंगी तो बहुत डर गई थी और sare समय मम्मी की साड़ी में मुंह छुपा के बैठी रही थी.
मेरा सारा बचपन झारखण्ड के एक छोटे से शहर देवघर में गुजरा. वहां पर तीन सिनेमा हॉल थे, बैद्यनाथ, शंकर और भगवान्...देवघर धार्मिक आस्थाओं का शहर है और शंकर भगवान का बहुत प्रसिद्ध मन्दिर है वहां. शायद इसी कारण से तीनो हॉल का नाम कुछ ऐसा ही था. हॉल का भी वर्गीकरण होता है, जैसे बैद्यनाथ और शंकर परिवार के साथ जाने वाले हॉल थे, जबकि भगवान में अक्सर लड़के (लुच्चे, लफंगे, कॉलेज के भागे हुए टाइप) जाते थे. लोगो का कहना था कि ये लड़के बहुत सीटी बजाते थे और हल्ला करते थे, जिससे भले लोग उनके साथ बैठ कर फ़िल्म नहीं देख सकते. और हम लोग भले लोग में आते थे :)
आजकल फ़िल्म रिलीज़ होती है तो उसके कई प्रिंट रिलीज़ होते हैं जिससे छोटे शहरों में भी एक ही दिन फ़िल्म रिलीज़ हो जाती है. हमारे समय ऐसा नहीं होता था, उस वक्त फ़िल्म आई, अखबार में पढ़ लिया और फ़िर इंतज़ार शुरू होता था कि हॉल में कब लगती है. रिलीज़ होनी वाली अधिकतर अच्छी फिल्में हम देख ही लेते थे. प्रोग्राम अक्सर किसी और परिवार के साथ बनता था. पापा के कलीग्स के बच्चे हमउम्र थे तो बड़ा मज़ा आता था. इंटरवल के टाइम हम बच्चों को चिनियाबदाम(मूंगफली) मिलती थी, पापा और बाकी अंकल थम्स अप और मम्मी लोग गोल्ड स्पॉट या लिम्का. फ़िल्म तो खैर समझ से बाहर होती थी और याद भी नहीं रहता था कुछ बाद में, पर सब लोगों के साथ जाने और घूमने में बड़ा मज़ा आता था.
हमारा स्कूल ७ कम दूर था और लड़कों के लिए बस नहीं आती थी, तो वो टेकर से आते थे. इसी बीच पहली बार कुछ लड़के स्कूल से भाग कर फ़िल्म देखने के लिए पकड़े गए थे. हमें बड़ा आश्चर्य हुआ था, उनके दुस्साहस पर, पर बात यहाँ ख़त्म नहीं हुयी...उस साल हिस्ट्री के पेपर में इनमे से ही कुछ लड़कों ने आन्सर के बीच में फिल्मी गाने लिख दिए थे...शायद इस थ्योरी को प्रूव करने के लिए कि पेपर कोई नहीं पढता. खैर उनकी किस्मत ख़राब थी और वो सब पकड़े गए. सबके माता पिता को बुलवाया गया, और बाद में उनकी धुलाई के किस्से हमने काफ़ी दिनों तक सुने.
इन लड़कों से भाग कर फिल्में देखने के बारे में सुनकर बड़ा रोमांच होता था, पर ऐसा करने की बात कभी सपने में भी नहीं सोच पाई, लड़कियां ऐसा नहीं करती. इस सब के बीच हम १०वीं में पहुँच गए और उस वक्त शाहरुख़ की फ़िल्म आई थी, "कुछ कुछ होता है"KKHH. सबकी जुबान पर एक ही सवाल, फ़िल्म देखी? एक ही डायलॉग, कुछ कुछ होता है_______ तुम नहीं समझोगी. उस वक्त प्री-बोअर्ड्स होने वाले थे तो घर में बोलने की हिम्मत नहीं. और जिस दिन आखिरी पेपर था मम्मी और बगल की एक आंटी के साथ हम शान से ३ बजे वाला शो देखने पहुँच गए. जा के क्या देखते हैं की पूरा क्लास वही है, उसपर तुर्रा ये की कुछ लड़कों ने टोक दिया. अब फ़िल्म तो क्या खाक देखूंगी, सारे वक़्त मम्मी ऐसी नज़र से देखती रही की लगे अभी पीट देगी. अब मैं कितना समझाउँ की हम प्लान बना कर नहीं आए थे. हमको नहीं मालूम की वो इस वक्त क्यों आए, और इसी हॉल में क्यों आए(लफंगों वाले में क्यों नहीं गए).
फ़िर हम सब लोग पटना चले आए ९९ में, और जैसा कि उस वक्त होता था, भले घर की लड़कियां फ़िल्म देखने नहीं जाती थी, और अब मैं बच्ची नहीं रही कि जिद पकडूँ तो कुछ भी मिल जाए. ६ साल मैंने बिना हॉल का चेहरा देखे गुजरे. कैसी भी फ़िल्म हो, वही पायरेटेड सीडी देखने के अलावा कोई चारा नहीं, हिली हुयी पिक्चर, इधर उधर खिसके डायलॉग. फिल्मो से सारा जुडाव ख़त्म हो गया था. इस बीच कॉलेज में थर्ड इयर में फ़िल्म अप्प्रेसिअशन(film appreciation) नाम का पेपर था, उसमें फ़िर बहुत सी चीज़ें पढ़ी, क्लास के साथ ऑडिटोरियम में बहुत सी अच्छी फिल्में देखी, और अपनी डॉक्युमेंटरी शूट की.
ऐसी ही क्लास्सेस में हमें Mr.&Mrs Iyer दिखाई गई, इस फ़िल्म को देखकर पहली बार मेरे अन्दर डायरेक्शन का शौक़ जागा. दिल्ली में IIMC में अड्मिशन होना एक दूसरी जिंदगी मिलना था, कई तरह के लोगो से मिली और सबसे महत्वपूर्ण उसकी लाइब्रेरी में फिल्मों से जुड़े हर पहलू को लेकर किताबें देखीं और पढ़ी.
और यहाँ से फिल्मों का सफर शुरू हुआ...पहली बार घर पर बिना बताए फ़िल्म देखने गई, "रंग दे बसंती". हम चार लोग थे, ६-९ का शो था, ६० रुपये की टिकट, आना जाना बस से. फ़िल्म क्या थी, जज्बा उतार दिया था परदे पर...मुझे याद है मैंने फ़िर अपने दोस्तों में कहा था, पॉलिटिक्स में उतरना, मैं तुम्हारा सारा कैम्पेन सम्हालूंगी. उस दिन पहली बार महसूस किया था की फिल्में किस तरह सोच को बदल सकती हैं...और ये मुझे एक बहुत बड़ी शक्ति लगी थी.
फिल्मो के बारे में पढने से ऐसा हो जाता है की कभी भी एक दर्शक की तरह फ़िल्म नहीं देख सकते, हमेशा कभी निर्देशक, तो कभी सिनेमैटोग्राफर तो कभी स्क्रिप्ट के हिसाब से देखने लगते हैं. मेरे साथ भी ऐसा होता है. इस साल की तो तकरीबन सारी फिल्में देख डाली मैंने. कारण ये भी था कि घर के बिल्कुल पास पीवीआर था, टिकेट आसानी से मिल जाती थी और वीकएंड पर कोई काम भी नहीं रहता था.
इस बीच एक दिन सोचा कि अभी तक नाईट शो नहीं देख पाये हैं, टिकेट बुक की, ट्राफिक सिग्नल, गुडगाँव के मॉल में. पिक्चर तो बहुत अच्छी लगी पर जब रात के डेढ़ बजे हॉल से बाहर आए तो सामने के बार से निकलते नशे में धुत्त लड़कों को देख कर सिट्टी पिट्टी गुम हो गई, ठंढ से ज्यादा डर के मारे कंपकपी लगने लगी. फटाफट वहां से निकले और कान पकड़ कर तौबा की कि अब कभी रात का शो नहीं देखेंगे.
बंगलोर में बहुत दिक्कत हो गई है फ़िल्म देखने में, एक तो हॉल घर से बहुत दूर है, उसपर टिकट बहुत महँगी, उसपर हमेशा हाउसफुल. एक हफ्ता पहले टिकट कटाओ तब जा के कुछ हो सकेगा...और इस साल वाकई अच्छी फिल्में बहुत कम आई हैं, इसलिए हम अच्छी फ़िल्म का इंतज़ार करने के बजाये ख़ुद ही बनाने की सोच रहे हैं. काम चालू आहे...अब देखें मायानगरी मुंबई कब हमें बुलाती है.
Comments
आपने ब्लॉग में २५ पैसे के सिक्के के चित्र के बदले पुराने ४ आने का डालना था, और भी अच्छा लगता.
राम राम !
वैसे एक बात कहूंगा.. कभी यहां नाईट शो देखना, दिल्ली से अलग माहौल मिलेगा.. कोई डर भी नहीं है.. मैं एक बार अपनी एक मित्र के साथ रात के समय 'आयरन मैंन' सिनेमा देखा था और सुबह 3-4 बजे घर लौटा था.. कोई दिक्कत नहीं हुई थी..
आपने स्कूल लाइफ को फ़िर से जिन्दा कर दिया. स्कूल से बंक मार के पिक्चर देखने के लिए क्या क्या नही करना पड़ता था.
अच्छा लिखा है....बधाई
राजीव महेश्वरी