हिन्दी टाकीज: धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं-नीरज गोस्वामी
हिन्दी टाकीज-१८
इस बार नीरज गोस्वामी.यहाँ बचपन या किशोरावस्था की यादें तो नहीं हैं,लेकिन नीरज गोस्वामी ने बड़े मन से इसे लिखा है.वे अपने नाम से एक ब्लॉग भी लिखते हैं।उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है....अपनी जिन्दगी से संतुष्ट,संवेदनशील किंतु हर स्थिति में हास्य देखने की प्रवृत्ति।जीवन के अधिकांश वर्ष जयपुर में गुजारने के बाद फिलहाल भूषण स्टील मुंबई में कार्यरत,कल का पता नहीं।लेखन स्वान्त सुखाय के लिए।
बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी.
खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."धरम पाजी दा जवाब नहीं" वाक्य आप वहां खड़े हर दूसरे सरदार जी से सुन सकते थे.
बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी टिकट के लिए...इसकी कोई सम्भावना नहीं थी की लाइन में खड़े हो कर टिकट मिल सकेगा. मेरे परिचित हार मानने वाले कहाँ थे मुझसे बोले एक काम करते हैं मनेजर से मिलते हैं, आप सिर्फ़ उसके सामने इंग्लिश बोलना और कहना की जयपुर से आया हूँ और धर्मेन्द्र पाजी का बहुत बड़ा फेन हूँ...बस, काम हो जाएगा. मैनेजर तक पहुँचने की एक अलग कहानी है. सबसे पहले तो गेट कीपर को दस का नोट दिया जिसने हमें थिएटर में जाने दिया मिलने को.
मैनेजर साहेब एक ऊंचे तगडे सरदारजी थे और फोन पर किसी से बातों में व्यस्त थे, जिसमें बातें कम थीं और गालियाँ ज्यादा थीं...पंजाब में बात करने का एक एक खास स्टाइल है...आप जिसके जितने आत्मीय होंगे उस के साथ उतनी ही गालियाँ बातचीत में प्रयोग करेंगे. हम करीब दस मिनट खड़े रहे. फोन ख़तम करके वो हमारी तरफ़ देख कर बोले हाँ जी दस्सो...(बताओ). मेरे मित्र ने मेरे बारे में बताना शुरू किया की ये जनाब जयपुर से आए हुए हैं और "धरमिंदर पाजी" के बहुत बड़े फेन हैं अभी ये फ़िल्म वहां लगी नहीं है और ये इसे पहले देख कर इसका प्रचार वहां करेंगे...लेकिन समस्या टिकट की है इसलिए आप के पास आए हैं.
मैनेजर साहेब ने मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा...पूछा "अच्छा जी तुसी जयपुर तों आए हो? वा जी वा...लेकिन टिकट ते है नहीं..." मैंने अंग्रेजी में कहा की अगर मुझे ये फ़िल्म देखने को नहीं मिली तो बहुत अफ़सोस होगा और जयपुर में धर्मेन्द्र जी के फेन क्लब वाले निराश हो जायेंगे...आप कुछ कीजिये प्लीज" ...मेरी बात उन्हें कितनी समझ आयी कह नहीं सकता लेकिन "प्लीज" जरूर समझ में आ गया, इसलिए वो बोले " ओजी प्लीज की क्या बात है,चलो देखता हूँ तुवाडे लयी क्या कर सकता हूँ ". वे ये बोल कर चल दिए...और दस मिनट में दो टिकट लेकर लौटे..और...टिकट की कीमत धर्मेन्द्र जी के नाम पर दुगनी वसूल कर ली.
टिकट लेकर हम लोग इतने खुश हुए जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो...बाहर निकले तो देखा की अब लाइन टिकट विंडो की जगह थिएटर के गेट के सामने लग चुकी थी...धक्का मुक्का और गालियाँ अनवरत जारी थीं..लोग अन्दर घुसने को बेताब थे...गेट कीपर जंगले वाला गेट बंद कर के आराम से खड़ा था. मैंने अपने परिचित से पूछा की की ये इतनी लम्बी लाइन क्यूँ लगा रखी है और भीड़ अन्दर जाने को बेताब क्यूँ है...उसने कहा की टिकट पर सीट नंबर नहीं है इसलिए जो पहले घुसेगा उसे अच्छी सीट मिलेगी. " मर गए" मैंने मन में सोचा.
हम भी लाइन में जा खड़े हुए...अचानक जोर का शोर हुआ और एक धक्का लगा एक रेला सा आया जो मुझे और मेरे मित्र को लगभग हवा में लहराते हुए अपने आप थिएटर में पहुँचा दिया...अपने आप को संभल पाते तब तक हम थिएटर के अन्दर पहुँच चुके थे...थोड़ा अँधेरा था...परदे पर वाशिंग पौडर निरमा चल रहा था...सीट दिखाई नहीं दे रही थी...धक्के यथावत जारी थे...मेरे परिचित ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा हुआ था...हम किसी तरह पास पास सीट पर बैठ गए.
बैठने के बाद मैंने देखा की लगभग हर दूसरा सरदार अपनी पगड़ी खोल कर फेहराता और पाँच छे सीटों को ढक लेता...जिसकी पगड़ी के नीचे जितनी सीटें दब गयीं वो उसकी..." ओये मल लई मल लई सीट असां" ( हमने सीट रोक ली है) का शोर मचा हुआ था. लोग सीट के ऊपर से इधर उधर से याने हर किधर से कूद फांद कर बैठने की कोशिश कर रहे थे. रात के इस शो में महिलाएं कम नहीं थीं बल्कि वे भी इस युद्ध का हिस्सां थीं...कुछ कद्दावर महिलाएं पुरुषों को धक्का देकर सीट पे बैठ चिल्लाती नजर आ रहीं थीं की " दार जी आ जाओ...सीट मल लई है मैं...मुंडे नू वी ले आओ...तुसी ते किसी काज जोगे नहीं.."( सरदार जी आ जायीये सीट रोक ली है मैंने, लड़के को भी ले आओ, आप तो किसी काम के नहीं हो). कोने में खड़ी चार पाँच लड़कियां जो शायद इंग्लैंड से आयीं हुई थीं( उस ज़माने में अधिकतर लोग पंजाब से इंग्लैंड जा बसे थे और कभी कभी अपने वतन लौटते थे )अपनी पंजाबी युक्त इंग्लिश जबान में गुहार लगा रहीं थी " एय टॉर्च मैन हेल्लो टॉर्च मैन...तुम कहाँ हो टॉर्च मैन...सानू सीट पे बिठाओ प्लीज" . उनकी ये अजीब जबान सुनकर अधिकतर लोग हंस भी रहे थे...टॉर्च मैन ने ना आना था ना आया...आता भी क्या करने?
फ़िल्म शुरू हुई...धर्म पाजी के आते ही " जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल" के नारे से पूरा हाल गूँज उठा. तालियाँ उनके हर एक्शन और संवाद पर जो बजनी शुरू होतीं तो रूकती ही नहीं. फ़िल्म भारी शोर शराबे के बीच अनवरत चलती रही. जब लोग चुप होते तो हाल में चल रहे पंखों की आवाज सुनी देने लगती.
इंटरवल हुआ...आगे पीछे देखा की सारी सीटें भरी हुई हैं...कुछ लोग दीवार के साथ खड़े भी हैं...मित्र को कहा की चलो काफी पी कर आते हैं...हम लोग उठने की सोच ही रहे थे की अचानक पन्द्रह बीस लोग सर पर टोकरियाँ लेकर अन्दर आ गए...ध्वाने ले लो जी ध्वाने...(तरबूज ले लो जी तरबूज)...तिरछी फांकों में कटे लाल तरबूज जिन पर मख्खियाँ आराम से बिराज मान थीं देखते ही देखते बिक गए...इसके बाद खरबूजे, चना जोर गरम, समोसे, जलेबी, मुरमरे, पकोडे और तली मछली का नंबर भी इसी तरह आया...
मैंने सोचा जो लोग फ़िल्म के इंटरवल में आधी रात के बाद इतना कुछ खा सकते हैं वो लोग खाने के समय कितना खाते होंगे? लगता था की लोग शायद इंटरवल में खाने अधिक आए हैं और फ़िल्म देखने कम...या फ़िल्म के बहाने खाने आए हैं. खाने पीने का ये दौर फ़िल्म शुरू होने के बाद तक चलता रहा, लोगों के मुहं से निकली चपड़ चपड़ की आवाजें फ़िल्म से आ रही आवाज से अधिक थी.
एक दृश्य जिसमें धर्मेन्द्र एक गुंडे की ठुकाई कर रहा था परदे पर आया...गुंडा कुछ अधिक ही पिट रहा था...तभी एक आवाज आयी..."ओये यार बस कर दे मर जाएगा"...दूसरी तरफ़ से आवाज आयी " क्यूँ बस कर दे गुंडा तेरा प्यो लगदा ऐ?( क्यूँ बस कर दे गुंडा क्या तेरा पिता लगता है). पैसे दित्ते ने असां...मारो पाजी तुसी ते मारो..." अब पहली तरफ़ से दूसरी तरफ़ लहराती हुई चप्पल फेंकी गयी...येही कार्यक्रम दूसरी तरफ़ से चला...चप्पलों का आवागमन तेज हो गया....अब चप्पलों के साथ गालियाँ भी चलने लगीं...तभी एक कद्दावर सरदार ऊंची आवाज में बोला..." ओये ऐ खेड ख़तम करो फिलम देखन देयो...जिन्नू लड़ना है बाहर जा के लड़े...हुन किसी ने गड़बड़ कित्ती ते देखियो फेर सर पाड़ देयांगा..."( ओ ये खेल ख़त्म करो फ़िल्म देखने दो ...जिसने लड़ना है बाहर जा कर लड़े...अब किसी ने गड़बड़ की तो सर फोड़ दूँगा) सरदार जी की बात का असर हुआ...जो बोले सो निहाल का नारा फ़िर से लगा और फ़िल्म अंत तक बिना रूकावट के चलती रही....
बाहर निकल कर रिक्शा किया तो रिक्शा वाला बोला "साब जी मैं पिछले तिन दिना विच ऐ फ़िल्म तिन वारि देख चुक्या हाँ...धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं....जी करदा है तिन वारि होर वेखां..."
लुधियाना में देखी ये फ़िल्म और माहौल मैं कभी नहीं भूल पाता.
खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."धरम पाजी दा जवाब नहीं" वाक्य आप वहां खड़े हर दूसरे सरदार जी से सुन सकते थे.
बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी टिकट के लिए...इसकी कोई सम्भावना नहीं थी की लाइन में खड़े हो कर टिकट मिल सकेगा. मेरे परिचित हार मानने वाले कहाँ थे मुझसे बोले एक काम करते हैं मनेजर से मिलते हैं, आप सिर्फ़ उसके सामने इंग्लिश बोलना और कहना की जयपुर से आया हूँ और धर्मेन्द्र पाजी का बहुत बड़ा फेन हूँ...बस, काम हो जाएगा. मैनेजर तक पहुँचने की एक अलग कहानी है. सबसे पहले तो गेट कीपर को दस का नोट दिया जिसने हमें थिएटर में जाने दिया मिलने को.
मैनेजर साहेब एक ऊंचे तगडे सरदारजी थे और फोन पर किसी से बातों में व्यस्त थे, जिसमें बातें कम थीं और गालियाँ ज्यादा थीं...पंजाब में बात करने का एक एक खास स्टाइल है...आप जिसके जितने आत्मीय होंगे उस के साथ उतनी ही गालियाँ बातचीत में प्रयोग करेंगे. हम करीब दस मिनट खड़े रहे. फोन ख़तम करके वो हमारी तरफ़ देख कर बोले हाँ जी दस्सो...(बताओ). मेरे मित्र ने मेरे बारे में बताना शुरू किया की ये जनाब जयपुर से आए हुए हैं और "धरमिंदर पाजी" के बहुत बड़े फेन हैं अभी ये फ़िल्म वहां लगी नहीं है और ये इसे पहले देख कर इसका प्रचार वहां करेंगे...लेकिन समस्या टिकट की है इसलिए आप के पास आए हैं.
मैनेजर साहेब ने मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा...पूछा "अच्छा जी तुसी जयपुर तों आए हो? वा जी वा...लेकिन टिकट ते है नहीं..." मैंने अंग्रेजी में कहा की अगर मुझे ये फ़िल्म देखने को नहीं मिली तो बहुत अफ़सोस होगा और जयपुर में धर्मेन्द्र जी के फेन क्लब वाले निराश हो जायेंगे...आप कुछ कीजिये प्लीज" ...मेरी बात उन्हें कितनी समझ आयी कह नहीं सकता लेकिन "प्लीज" जरूर समझ में आ गया, इसलिए वो बोले " ओजी प्लीज की क्या बात है,चलो देखता हूँ तुवाडे लयी क्या कर सकता हूँ ". वे ये बोल कर चल दिए...और दस मिनट में दो टिकट लेकर लौटे..और...टिकट की कीमत धर्मेन्द्र जी के नाम पर दुगनी वसूल कर ली.
टिकट लेकर हम लोग इतने खुश हुए जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो...बाहर निकले तो देखा की अब लाइन टिकट विंडो की जगह थिएटर के गेट के सामने लग चुकी थी...धक्का मुक्का और गालियाँ अनवरत जारी थीं..लोग अन्दर घुसने को बेताब थे...गेट कीपर जंगले वाला गेट बंद कर के आराम से खड़ा था. मैंने अपने परिचित से पूछा की की ये इतनी लम्बी लाइन क्यूँ लगा रखी है और भीड़ अन्दर जाने को बेताब क्यूँ है...उसने कहा की टिकट पर सीट नंबर नहीं है इसलिए जो पहले घुसेगा उसे अच्छी सीट मिलेगी. " मर गए" मैंने मन में सोचा.
हम भी लाइन में जा खड़े हुए...अचानक जोर का शोर हुआ और एक धक्का लगा एक रेला सा आया जो मुझे और मेरे मित्र को लगभग हवा में लहराते हुए अपने आप थिएटर में पहुँचा दिया...अपने आप को संभल पाते तब तक हम थिएटर के अन्दर पहुँच चुके थे...थोड़ा अँधेरा था...परदे पर वाशिंग पौडर निरमा चल रहा था...सीट दिखाई नहीं दे रही थी...धक्के यथावत जारी थे...मेरे परिचित ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा हुआ था...हम किसी तरह पास पास सीट पर बैठ गए.
बैठने के बाद मैंने देखा की लगभग हर दूसरा सरदार अपनी पगड़ी खोल कर फेहराता और पाँच छे सीटों को ढक लेता...जिसकी पगड़ी के नीचे जितनी सीटें दब गयीं वो उसकी..." ओये मल लई मल लई सीट असां" ( हमने सीट रोक ली है) का शोर मचा हुआ था. लोग सीट के ऊपर से इधर उधर से याने हर किधर से कूद फांद कर बैठने की कोशिश कर रहे थे. रात के इस शो में महिलाएं कम नहीं थीं बल्कि वे भी इस युद्ध का हिस्सां थीं...कुछ कद्दावर महिलाएं पुरुषों को धक्का देकर सीट पे बैठ चिल्लाती नजर आ रहीं थीं की " दार जी आ जाओ...सीट मल लई है मैं...मुंडे नू वी ले आओ...तुसी ते किसी काज जोगे नहीं.."( सरदार जी आ जायीये सीट रोक ली है मैंने, लड़के को भी ले आओ, आप तो किसी काम के नहीं हो). कोने में खड़ी चार पाँच लड़कियां जो शायद इंग्लैंड से आयीं हुई थीं( उस ज़माने में अधिकतर लोग पंजाब से इंग्लैंड जा बसे थे और कभी कभी अपने वतन लौटते थे )अपनी पंजाबी युक्त इंग्लिश जबान में गुहार लगा रहीं थी " एय टॉर्च मैन हेल्लो टॉर्च मैन...तुम कहाँ हो टॉर्च मैन...सानू सीट पे बिठाओ प्लीज" . उनकी ये अजीब जबान सुनकर अधिकतर लोग हंस भी रहे थे...टॉर्च मैन ने ना आना था ना आया...आता भी क्या करने?
फ़िल्म शुरू हुई...धर्म पाजी के आते ही " जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल" के नारे से पूरा हाल गूँज उठा. तालियाँ उनके हर एक्शन और संवाद पर जो बजनी शुरू होतीं तो रूकती ही नहीं. फ़िल्म भारी शोर शराबे के बीच अनवरत चलती रही. जब लोग चुप होते तो हाल में चल रहे पंखों की आवाज सुनी देने लगती.
इंटरवल हुआ...आगे पीछे देखा की सारी सीटें भरी हुई हैं...कुछ लोग दीवार के साथ खड़े भी हैं...मित्र को कहा की चलो काफी पी कर आते हैं...हम लोग उठने की सोच ही रहे थे की अचानक पन्द्रह बीस लोग सर पर टोकरियाँ लेकर अन्दर आ गए...ध्वाने ले लो जी ध्वाने...(तरबूज ले लो जी तरबूज)...तिरछी फांकों में कटे लाल तरबूज जिन पर मख्खियाँ आराम से बिराज मान थीं देखते ही देखते बिक गए...इसके बाद खरबूजे, चना जोर गरम, समोसे, जलेबी, मुरमरे, पकोडे और तली मछली का नंबर भी इसी तरह आया...
मैंने सोचा जो लोग फ़िल्म के इंटरवल में आधी रात के बाद इतना कुछ खा सकते हैं वो लोग खाने के समय कितना खाते होंगे? लगता था की लोग शायद इंटरवल में खाने अधिक आए हैं और फ़िल्म देखने कम...या फ़िल्म के बहाने खाने आए हैं. खाने पीने का ये दौर फ़िल्म शुरू होने के बाद तक चलता रहा, लोगों के मुहं से निकली चपड़ चपड़ की आवाजें फ़िल्म से आ रही आवाज से अधिक थी.
एक दृश्य जिसमें धर्मेन्द्र एक गुंडे की ठुकाई कर रहा था परदे पर आया...गुंडा कुछ अधिक ही पिट रहा था...तभी एक आवाज आयी..."ओये यार बस कर दे मर जाएगा"...दूसरी तरफ़ से आवाज आयी " क्यूँ बस कर दे गुंडा तेरा प्यो लगदा ऐ?( क्यूँ बस कर दे गुंडा क्या तेरा पिता लगता है). पैसे दित्ते ने असां...मारो पाजी तुसी ते मारो..." अब पहली तरफ़ से दूसरी तरफ़ लहराती हुई चप्पल फेंकी गयी...येही कार्यक्रम दूसरी तरफ़ से चला...चप्पलों का आवागमन तेज हो गया....अब चप्पलों के साथ गालियाँ भी चलने लगीं...तभी एक कद्दावर सरदार ऊंची आवाज में बोला..." ओये ऐ खेड ख़तम करो फिलम देखन देयो...जिन्नू लड़ना है बाहर जा के लड़े...हुन किसी ने गड़बड़ कित्ती ते देखियो फेर सर पाड़ देयांगा..."( ओ ये खेल ख़त्म करो फ़िल्म देखने दो ...जिसने लड़ना है बाहर जा कर लड़े...अब किसी ने गड़बड़ की तो सर फोड़ दूँगा) सरदार जी की बात का असर हुआ...जो बोले सो निहाल का नारा फ़िर से लगा और फ़िल्म अंत तक बिना रूकावट के चलती रही....
बाहर निकल कर रिक्शा किया तो रिक्शा वाला बोला "साब जी मैं पिछले तिन दिना विच ऐ फ़िल्म तिन वारि देख चुक्या हाँ...धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं....जी करदा है तिन वारि होर वेखां..."
लुधियाना में देखी ये फ़िल्म और माहौल मैं कभी नहीं भूल पाता.
Comments
tussi chha gaye..
kya sama bandha hai ji..
tussi to dharam pa ji jitta hi great ho.. :)
नीरज गोस्वामी जी को बधाई एक बेहतरीन संस्मरण के लिए।
अगर आप मुम्बई मे हैं तो रोज ही एक मशहूर एफ एम स्टेशन पे धरम जी का मजाक बनते हुए सुन सकते हैं. "बिग एफ एम पे ये सनसनी नहीं है ये सन सनी है". लानत है इन बिग एफ एम वालो पे.
वैसे नीरज जी थियेटर के अन्दर चप्पल बाजी का ये द्र्श्य पंजाब क्या किसी भी प्रांत मे मिलेगा आपको. यूपी और महाराश्ट्र में तो मै चश्मदीद रहा हूं.
अच्छा लेख.
भारत को सजीव कर गया
वाकई मेँ,
बहुत खूब रहा जी :)
और धरम जी जैसा
अन्य कोई हिन्दी फिल्म का हीरो
देखा नहीँ -
हर बात मेँ खरे रहे हैँ वो -
- लावण्या
मुझे याद है जब मैं नीरज जी से मिला था. तो उन्होने कहा था की मैं आज भी हिन्दी फ़िल्मे देखना अपना कर्तव्य समझता हू...
आख़िर में नीरज जी से गुजारिश ऐसे कई किस्से बताये ......आप में कहने की एक कला है........ओर बहुत खूब है
hall ke baare me padhs kar hi maja aagya,utnaa hi maja jitna bhartiye plateform par,train me aata hai.
धर्मेंद्र और
आपका स्टाइल
नीरज जी