बड़ा फासला है जीत और सफलता -महेश भट्ट
हाल ही में मुंबई के एक पंचतारा होटल में मेरी डॉक्यूमेंट्री दि टॉर्च बियरर्स की लॉन्च पार्टी हुई। इस होटल में ज्यादातर फिल्मी पार्टियां ही होती हैं, लेकिन उस शाम मेरी दो खोजों अनुपम और इमरान हाशमी ने असम के एक नब्बे वर्षीय किसान हाजी अजमल का सम्मान किया। हाजी अजमल ने इत्र का बिजनेस किया। वे चैरिटी के काम करते हैं। उन्होंने असम के ग्रामीण इलाके में बेहतरीन अस्पताल खोला। अस्पताल खोलने का इरादा हाजी अजमल के मन में तब आया, जब उन्होंने देखा कि ग्रामीण इलाकों में प्रसव के समय कई औरतों का निधन अस्पताल के रास्ते में ही हो जाता है। उन्होंने सोचा कि क्यों न वह अपने इलाके में ही एक अस्पताल खोलें? इस तरह अस्पताल उनके जीवन का मिशन बन गया।
सफलता और जीत का फर्क
अनुपम खेर और इमरान हाशमी के साथ खडे हाजी अजमल तेज रोशनी की चकाचौंध में थोडे घबराए हुए थे। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मनोरंजन उत्पादों में खुद को डुबो रही नई पीढी को यह समझाना बहुत जरूरी है कि वे रील हीरो एवं रियल हीरो में फर्क कर सकें। अपनी बातचीत में उस शाम मैंने कहा, महात्मा गांधी वास्तविक जीत के प्रतीक हैं, जबकि अमिताभ बच्चन प्रसिद्धि के प्रतीक हैं।
मैं जो बात कहना चाह रहा था, उसके मर्म को अधिकतर लोगों ने समझा था। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की एक महिला पत्रकार को लगा कि शायद मैं अमिताभ बच्चन के खिलाफ कुछ कह रहा हूं। उसने विवाद खडा करने के उद्देश्य से पूछा, क्या आप मेगा स्टार अमिताभ बच्चन के योगदान को नकारते हैं? उसके होंठों पर शरारती मुसकान थी। उसे उम्मीद थी कि मेरा अगला बयान ज्यादा रसदार होगा और वह अपने उद्देश्य में सफल रहेगी। मैंने कहा, अमिताभ बच्चन के अप्रतिम योगदान के बिना भारत में मनोरंजन की दुनिया निर्धन होती। फिर भी गौर करें तो अपने योगदान से उन्होंने खुद का और अपने आस-पास के छोटे समूह का भला किया। आप इसे सफलता कह सकते हैं। यह व्यक्तिगत है। दूसरी तरफ महात्मा गांधी ने असाधारण हिम्मत और सोच के साथ नए भारत का निर्माण किया, जिसमें करोडों भारतीय आजादी में सांस ले सकें। मुझे लगता है कि यही असली जीत है।
रियैलिटी शो और जीत
सदियों से अपने व्यक्तिगत हित के दायरे से बाहर निकल कर नि:स्वार्थ भाव से दुनिया को प्रेरित करने वाले व्यक्तियों ने लाखों-करोडों लोगों को प्रभावित किया। लोग उनके साथ लामबंद हुए। वे अंतरंगता पैदा करते हैं। आप उन्हें अपने करीब पाते हैं। इसके विपरीत आप एक स्टार की ओर आकर्षित होते हैं, उसकी प्रशंसा करते हैं, उससे प्रभावित होते हैं, लेकिन स्वप्नदर्शी आपके अंदर की ऊर्जा को जाग्रत करते हैं और प्रेरित करते हैं कि आप खुद से प्रेम करें और स्वयं को मूल्यहीन और बेकार होने के एहसास से बचा सकें।
21वीं सदी के सांस्कृतिक परिदृश्य को देखें तो आप पाएंगे कि समाज में सभी स्तरों पर सभी उम्र के लोगों के बीच प्रतियोगिता की भावना भरी जा रही है। टीवी पर चल रहे म्यूजिकल रियैलिटी शो ही देख लें। लोग छोटे उस्ताद, बुगी वुगी, इंडियन आइडल जैसे शो में शामिल होने के लिए स्टूडियो के बाहर कतार लगाए खडे रहते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी प्रतिभा के दम पर वे शो में जीत हासिल कर सकते हैं। सारे रियैलिटी शो में प्रतियोगियों के बीच घनघोर प्रतियोगिता होती है और अंत में विजेता को अलंकृत किया जाता है।
जीतने की कामना
हालांकि उन अज्ञात और अनजान बच्चों-गृहिणियों को प्राइम टाइम पर पांच मिनट की ग्लोरी मिल जाती है, लेकिन रोशनी बुझते ही वे गुमनाम हो जाते हैं और हमेशा के लिए उनके दिल में एक जख्म रह जाता है। मैं ऐसे कई पूर्व विजेताओं से मिल चुका हूं। लोकप्रियता के दौर से बाहर आने पर उनका जीवन और कठिन हो जाता है। उन्हें पहले लगता है कि वे सुपर स्टार हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि वे कुछ भी नहीं हैं। उनकी जीत बेमानी है, क्योंकि उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा। महावीर को महावीर इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अंतर्मन का युद्ध जीता था। उन्होंने जीत की कामना पर विजय पा ली थी। दूसरे मनुष्यों को मारकर जीतने की आकांक्षा को उन्होंने मार दिया था। क्या ऐसा नहीं लगता किइस पागल समय में भारत को उनसे कुछ सीखना चाहिए?
विजय का खास एहसास
अगर मैं अपनी अस्त-व्यस्त जिंदगी पर नजर डालूं, जिसमें सफलता और विफलताएं हैं तो मुझे लगता है कि एक ही जीत का एहसास अभी तक मेरे साथ है और वह जीत थी शराब पीने की आदत छोडना। बडी सफलताओं की सीढियों पर मेरे कदम पडे ही थे कि इस भयंकर महामारी ने मुझे ग्रस लिया। एक रात लौटने पर मैंने अपनी बेटी शाहीन को गोद में लिया तो उसने मेरे मुंह से आए शराब के भभके के कारण मुंह फेर लिया। उस एक घटना की वजह से मैंने शराब छोड दी। वह मेरी जिंदगी की सबसे बडी जीत थी। मुझे किसी डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पडी और न ही मैंने मनोचिकित्सक की मदद ली। मैं शराब छोडने के बाद की तकलीफों से भी बचा रहा। टीवी पर अपने शराब पीने के दिनों की चर्चा करते समय अपने गर्त का साक्षात्कार होने पर मुझे मुक्ति का एहसास हुआ। मुझे लगा कि मेरी कहानी उन लाखों लोगों को छू रही है, जो अपने-अपने स्तर पर इस महामारी से मुक्त होने की कोशिश में लगे हैं। शराब पीने के दिनों का चित्रण मैंने अपनी फिल्म डैडी में किया था, जो मेरी बेटी पूजा भट्ट की पहली फिल्म थी। जब ममता, सफर और खामोशी जैसी फिल्मों के निर्देशक असित सेन ने मुझे डैडी के लिए बधाई दी और कहा कि यह उनकी जिंदगी में देखी महानतम फिल्म है तो मैंने महसूस किया किहमारी कमजोरी और असफलता ही हमें जोडती है। हम उसकी वजह से ही दूसरे लोगों से जुडते हैं। हमारी व्यक्तिगत उपलब्धियां साधारण लोगों को नाकामी और मूल्यहीनता के एहसास से भर देती हैं। असित सेन को भी शराब की आदत थी और वे लीवर की बीमारी से मरे। उन्हें मेरी फिल्म इसलिए अच्छी लगी कि फिल्म का नायक उस जानलेवा आदत पर विजय पाता है। जबकि वास्तविक जिंदगी में असित दा वैसा नहीं कर पा रहे थे।
अकेले खडे होने की ताकत
मेरी दूसरी फिल्म अर्थ है, जिसमें भावनात्मक रूप से अशक्त हो गई औरत आखिरकार अपने पांव पर खडे होने की हिम्मत कर पाती है। अर्थ ऐसी शहरी औरत की कहानी है, जिसकी परवरिश इस परिकथा पर आश्रित है कि पति ही उसका सर्वस्व है। पति की छांव में ही उसे भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक सुरक्षा मिल सकती है। जब फिल्म की नायिका का विश्वास अपने पति की करतूतों से टूट जाता है और वह भावना की आग से गुजरती है तो वह पति से भीख मांगती है कि वह दूसरी औरत के लिए उसे न छोडे। पति की तरफ से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर वह खुद से सहानुभूति रख रहे प्रेमी की बांहों में शरण लेने को तैयार होती है। इस बीच उसके अंदर कुछ होता है और आखिरकार वह तय करती है कि वह न तो पति को स्वीकार करेगी और न प्रेमी के साथ जाएगी। अकेले खडे होने की हिम्मत सबसे बडी हिम्मत है और वही सबसे बडी जीत है।
मैंने कहा था कि आत्महत्या करने के लिए साहस चाहिए। मैं गलत था। जिंदा रहने के लिए ज्यादा साहस की जरूरत पडती है एक वृद्ध बेटे की मौत से टूट चुकी आत्महत्या करने जा रही बीवी को समझाता है। मेरी फिल्म सारांश केमहत्वपूर्ण दृश्य में बुजुर्ग दंपती की दर्दनाक यात्रा का सार है। वे क्षत-विक्षत जिंदगी को अर्थ देते हैं, जीत हासिल करते हैं। वे मौत नहीं, जिंदगी का वरण करते हैं। जिंदगी की चुनौतियों-अनिश्चितताओं से जूझते हैं, पुनर्जन्म को नकारते हैं। धर्माधिकारियों के सुझाव पर अमल नहीं करते। फैंटेसी का सहारा लेने के बजाय बुढापे को स्वीकार कर लेते हैं।
जो दे रोशनी वही सच्ची जीत
वास्तविक जीत तो माहिम के हिजडे टिकू ने हासिल की थी, जिसकी जिंदगी पर मैंने फिल्म तमन्ना बनाई थी। समाज से बहिष्कृत उस बहादुर हिजडे ने अपने काम से लडकियों की भू्रण हत्या करने वाले समाज को शर्मिदा कर दिया था। टिकू जैसे हिजडों को समाज नीची नजरों से देखता है। उस टिकू ने रमजान के पवित्र महीने में सहरी के बाद नमाज के लिए मसजिद जाते समय रास्ते में कूडे के ढेर में पडी एक मासूम लडकी की आवाज सुनी। उसे चूहों ने कुतर रखा था। पैगंबर की सदा उस हिजडे के दिल में गूंजी और उसने उस लडकी को गोद लिया। उसे पाला-पोसा, पढाया-लिखाया और इज्जत की जिंदगी दी। गैर मुसलिम शायद न जानते हों कि पैगंबर ने 1400 साल पहले लडकियों की हत्या पर पाबंदी लगाई थी। एक हिजडे के अदम्य साहस ने उसे मानवता के स्वघोषित दावेदारों से कहीं बडा बना दिया।
सच यह है कि समाज के ठेकेदार तो सिर्फ उपलब्धियां बढाते रहते हैं। कोई भी जीत तभी वास्तविक और सच्ची मानी सकती है, जबकि वह सूरज की धूप की तरह खुद को प्रकाशित करने केबजाय औरों को प्रकाशित करे।
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