फ़िल्म समीक्षा:ओए लकी! लकी ओए!
हंसी तो आती है
***
-अजय ब्रह्मात्मज
सब से पहले इस फिल्म के संगीत का उल्लेख जरूरी है। स्नेहा खानवलकर ने फिल्म की कहानी और निर्देशक की चाहत के हिसाब से संगीत रचा है। इधर की फिल्मों में संगीत का पैकेज रहता है। निर्माता, निर्देशक और संगीत निर्देशक की कोशिश रहती है कि उनकी फिल्मों का संगीत अलग से पॉपुलर हो जाए। इस कोशिश में संगीत का फिल्म से संबंध टूट जाता है। स्नेहा खानवलकर पर ऐसा कोई दबाव नहीं था। उनकी मेहनत झलकती है। उन्होंने फिल्म में लोकसंगीत और लोक स्वर का मधुर उपयोग किया है। मांगेराम और अनाम बच्चों की आवाज में गाए गीत फिल्म का हिस्सा बन गए हैं। बधाई स्नेहा और बधाई दिबाकर बनर्जी।
दिबाकर बनर्जी की पिछली फिल्म 'खोसला का घोसलाÓ की तरह 'ओए लकी।़ लकी ओए।़Ó भी दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बनी है। पिछली बार मध्यवर्गीय विसंगति और त्रासदी के बीच हास्य था। इस बार निम्नमध्यवर्गीय विसंगति है। उस परविार का एक होशियार बच्चा लकी (अभय देओल)दुनिया की बेहतरीन चीजें और सुविधाएं देखकर लालयित होता है और उन्हें हासिल करने का आसान तरीका अपनाता है। वह चोर बन जाता है। चोरी में उसकी चतुराई देख कर हंसी आती है। फिल्म के नायक लकी को रत्ती भर भी अफसोस या अपराध बोध नहीं है कि वह चोर क्यों बना? समाज के निचले तबके की विषम परिस्थितियां ऐसे भटकाव को सहज बना देती हैं। चोर की प्रेमिका सोनल (नीतू चंद्रा) भले ही उसके हाथ से पैसे न ले, लेकिन उसे चोर की प्रेमिका होने में शर्म महसूस नहीं होती। संभव है, उसके पास तर्क हो कि बड़ी बहन की तरह देह का धंधा करने से तो यह बेहतर स्थिति है। अगर आप संवेदनशील हैं तो निम्नमध्यवर्गीय परिवार के विषाद से दुखी हो सकते हैं। अन्यथा यह फिल्म हंसने को भरपूर प्रसंग देती है। आप इसे एक कामेडी फिल्म की तरह भी देख सकते हैं।
अभय देओल गैरपारंपरिक फिल्में अवश्य चुनते हैं, लेकिन अभिनेता के तौर पर वे अभी तक उच्चवर्गीय संस्कारों और व्यवहारों से जकड़े हुए हैं। अभिनय अनुभव और जीवन को करीब से देखने से समृद्ध होता है। अभय मानसिक तौर पर तो लकी को जी लेते हैं, लेकिन उनका बॉडी लैंग्वेज कई बार धोखा देता है। जैसे गांव-देहात और गरीब परिवेश से आए एक्टर संभ्रांत और राजसी भूमिकाओं में उपयुक्त नहीं लगते, वैसे ही निचले तबके के किरदारों को निभाने में हाई सोसायटी से आए एक्टर नकली लगने लगते हैं। अभय की तारीफ करनी होगी कि वे कोशिश करते हैं। इस कोशिश में उनका विश्वास की भी झलक आनी चाहिए। सोनल के किरदार को नीतू चंद्रा परिवेश की इसी पूंजी की वजह से सहजता से निभा ले जाती हैं। नयी अभिनेत्रियों में नीतू चंद्रा का आत्मविश्वास उल्लेखनीय है। यह फिल्म परेश रावल की तिहरी भूमिका के लिए भी याद रखी जाएगी। परेश ने तीनों भूमिकाओं को अलग रूप और स्वर दिया है।
दिबाकर बनर्जी नयी पीढ़ी के सशक्त निर्देशक के तौर पर उभर रहे हैं। उम्मीद रहेगी कि वे हिंदी फिल्मों की लोकप्रिय शैली के चपेट में नहीं आएंगे और अपनी विशिष्टता बनाए रखेंगे।
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-अजय ब्रह्मात्मज
सब से पहले इस फिल्म के संगीत का उल्लेख जरूरी है। स्नेहा खानवलकर ने फिल्म की कहानी और निर्देशक की चाहत के हिसाब से संगीत रचा है। इधर की फिल्मों में संगीत का पैकेज रहता है। निर्माता, निर्देशक और संगीत निर्देशक की कोशिश रहती है कि उनकी फिल्मों का संगीत अलग से पॉपुलर हो जाए। इस कोशिश में संगीत का फिल्म से संबंध टूट जाता है। स्नेहा खानवलकर पर ऐसा कोई दबाव नहीं था। उनकी मेहनत झलकती है। उन्होंने फिल्म में लोकसंगीत और लोक स्वर का मधुर उपयोग किया है। मांगेराम और अनाम बच्चों की आवाज में गाए गीत फिल्म का हिस्सा बन गए हैं। बधाई स्नेहा और बधाई दिबाकर बनर्जी।
दिबाकर बनर्जी की पिछली फिल्म 'खोसला का घोसलाÓ की तरह 'ओए लकी।़ लकी ओए।़Ó भी दिल्ली की पृष्ठभूमि पर बनी है। पिछली बार मध्यवर्गीय विसंगति और त्रासदी के बीच हास्य था। इस बार निम्नमध्यवर्गीय विसंगति है। उस परविार का एक होशियार बच्चा लकी (अभय देओल)दुनिया की बेहतरीन चीजें और सुविधाएं देखकर लालयित होता है और उन्हें हासिल करने का आसान तरीका अपनाता है। वह चोर बन जाता है। चोरी में उसकी चतुराई देख कर हंसी आती है। फिल्म के नायक लकी को रत्ती भर भी अफसोस या अपराध बोध नहीं है कि वह चोर क्यों बना? समाज के निचले तबके की विषम परिस्थितियां ऐसे भटकाव को सहज बना देती हैं। चोर की प्रेमिका सोनल (नीतू चंद्रा) भले ही उसके हाथ से पैसे न ले, लेकिन उसे चोर की प्रेमिका होने में शर्म महसूस नहीं होती। संभव है, उसके पास तर्क हो कि बड़ी बहन की तरह देह का धंधा करने से तो यह बेहतर स्थिति है। अगर आप संवेदनशील हैं तो निम्नमध्यवर्गीय परिवार के विषाद से दुखी हो सकते हैं। अन्यथा यह फिल्म हंसने को भरपूर प्रसंग देती है। आप इसे एक कामेडी फिल्म की तरह भी देख सकते हैं।
अभय देओल गैरपारंपरिक फिल्में अवश्य चुनते हैं, लेकिन अभिनेता के तौर पर वे अभी तक उच्चवर्गीय संस्कारों और व्यवहारों से जकड़े हुए हैं। अभिनय अनुभव और जीवन को करीब से देखने से समृद्ध होता है। अभय मानसिक तौर पर तो लकी को जी लेते हैं, लेकिन उनका बॉडी लैंग्वेज कई बार धोखा देता है। जैसे गांव-देहात और गरीब परिवेश से आए एक्टर संभ्रांत और राजसी भूमिकाओं में उपयुक्त नहीं लगते, वैसे ही निचले तबके के किरदारों को निभाने में हाई सोसायटी से आए एक्टर नकली लगने लगते हैं। अभय की तारीफ करनी होगी कि वे कोशिश करते हैं। इस कोशिश में उनका विश्वास की भी झलक आनी चाहिए। सोनल के किरदार को नीतू चंद्रा परिवेश की इसी पूंजी की वजह से सहजता से निभा ले जाती हैं। नयी अभिनेत्रियों में नीतू चंद्रा का आत्मविश्वास उल्लेखनीय है। यह फिल्म परेश रावल की तिहरी भूमिका के लिए भी याद रखी जाएगी। परेश ने तीनों भूमिकाओं को अलग रूप और स्वर दिया है।
दिबाकर बनर्जी नयी पीढ़ी के सशक्त निर्देशक के तौर पर उभर रहे हैं। उम्मीद रहेगी कि वे हिंदी फिल्मों की लोकप्रिय शैली के चपेट में नहीं आएंगे और अपनी विशिष्टता बनाए रखेंगे।
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