हिन्दी टाकीज:चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों..-जी के संतोष



हिन्दी टाकीज-१६


हिदी टाकीज में इस बार जी के संतोष .संतोष जी बनारस के हैं.क्रिकेट खेलते थे और फोटोग्राफी और फिल्मों का शौक था.फोटो जर्नलिज्म से आरम्भ किया और फिर खेल पत्रकार बन गए.इन दिनों दैनिक जागरण में कार्यरत हैं.मन हुआ तो साइकिल से काठमांडू और चम्बल की भी सैर कर आए.चवन्नी के आग्रह को संतोष ने स्वीकार किया और अपने अंदाज में सिनेमा से जुड़े संस्मरण लिखे.


बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी जिसने पूरे शो के दौरान हिलने तक हीं दिया। नीरज पांडेय ने कमाल की फिल्म बनाई है-ए वेन्सडे। इस फिल्म में इंटरवल की भी कोई जरूरत नहीं थी। तेजी से भागती इस फिल्म में भारतीय सिनेमा के दो बेहतरीन अदाकार अनुपम खेर और नसीरूद्दीन शाह अपने बेहतरीन रंग में दिखाई दिए-जवाबी कव्वाली सुनाते हुए। कहानी दर्शकों को अच्छी तरह बांधे रखती है क्योंकि आज लगभग आधी दुनिया आतंकवाद से प्रभावित है। आज के बाजारवाद के दौर से परहेज रखते हुए इस तरह की फिल्म बनाकर नीरज पांडेय ने जोखिम उठाया है।

महानगरों में इन दिनों फिल्में बहुधा मल्टीप्लेक्सेज में लगती है। यहां फिल्में देखना ज्यादा मजेदार होता हैं। एक तो फिल्में वैसे भी तकनीक में हालीवुड को टक्कर देने वाली होती हैं, दूसरे आधुनिक साज-सज्जा वाले थिएटर में उन्हें देखना सोने में सुहागा है।

-----पर हमें तो याद है अपना ज़माना! यों तो फिल्मों से हमारा रोमांस लगभग चार दशक पुराना है पर उससे पहले की भी एक घटना हमें आज भी याद है। मुझे ठीक-ठीक तो नहीं याद पर शायद तब मैं सात-आठ साल बच्चा था। उस शाम मैं अपनी बुआजी के पास खाना खाकर सोने की तैयारी कर रहा था जब मां ने बुआ से कहा कि वो मुझे तैयार कर दें। पापा -मम्मी के साथ नाइट शो देखने जाना है। नियत समय से जब घर से निकले तो फिल्म देखने जाने से ज्यादा खुशी मुझे पहनाए गए नये कपड़ों से हो रही थी।

हमारा घर बनारस की परम्परागत गलियों में था, जहां रिक्शा नहीं पहुंचता था। रिक्शा पकड़ने के लिए हमें लगभग चार सौ मीटर दूर पैदल चलना पड़ता था। घर से निकलने के बाद रास्ते में हम कल्लन की दुकान पर पान लेने के लिए रूके। हमारे घर पर इसी पान वाले से पान आता था। कल्लन ने मुस्कराकर पापा का स्वागत किया और खिलाने के साथ ही पान का एक ठोंगा भी पकड़ा दिया।

भैरोनाथ चौराहे पर पहुंचते ही एक रिक्शे वाले ने पापा को दूर से ही देखकर सलाम ठोका और गमछे से सीट पोंछकर हमें बिठाया। मैं मां की गोद में बैठ गया। रिक्शे वाला अभी हमें लेकर थोड़ी दूर ही आगे बढ़ा था, तभी पापा ने देखा कि रिक्शे की बत्ती नहीं जल रही है। उन्होंने रिक्शे वाले को डांट लगाई। यह देख कई रिक्शे वाले वहां पहुंच गए। फिर हम दूसरे रिक्शे पर सवार होकर चौक स्थित चित्रा सिनेमा पहुंचे।

जब हॉल पर पहुंचे तो सिनेमा शुरू हो चुका था जिससे पापा का मूड खराब हो गया। उन्होंने मां को डांट लगाई। हालांकि हमारा एक नौकर हॉल के बाहर टिकट लेकर पापा का इंतजार कर रहा था पर तीसरी मंजिल पर जब हम ने गेट से अंदर जाने कोशिश की तो गेट कीपर ने हमें रोक दिया। मुझे कुछ खास मालूम नहीं पर मुझे मैनेजर के कमरे में ले जाया गया। वहां पापा से गर्मागर्म बहस के बाद मुझे एक स्केल से नापा गया। बाद में मुझे मैनेजर ने इस शर्त के साथ सिनेमा देखने की अनुमति दी कि आगे से मेरे लिए भी हॉफ टिकट लेना पड़ेगा।

अंत में हम हॉल के अंदर गए तो गाना चल रहा था-‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों---- ----‘। गाना समाप्त होने के बाद कब मेरी आंख लगी, मुझे याद नहीं। पर यह जरूर याद है कि इस घटना के बाद पापा ने मुझे अपने साथ ले जाना बंद कर दिया था।

कायदे से मेरी पहली फिल्म थी बादल जो बुलानाला स्थित गणेश टाकीज़ में लगी थी। बात 1970 की है जब मैं छठवीं दर्जे में पढ़ता था और अपनी क्लास का मॉनीटर था। मेरे सहपाठी ने मेरे सामने फिल्म देखने का प्रस्ताव रखा। मुझे पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। मेरे सामने कई मुश्किलें थीं-उसमें एक टिकट के लिए पैसे थे। उन दिनों दूसरे दर्जे की टिकट भी दस आने की होती थी। हालांकि मेरे पापा एक बिजनेसमैन थे पर मेरे पास तो पैसे बिल्कुल नहीं होते। फिर क्लास से भाग कर चोरी से फिल्म जाने का साहस कतई नहीं था। मुझे सबसे ज्यादा डर अपने स्कूल के वाइस प्रिंसिपल से था नाटे कद के परशुराम जी बड़े मरकहा थे, पर सहपाठी अपनी धुन का पक्का था। वह मेरा टिकट भी खरीदने को राजी था फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हुई। वो रोज-रोज मुझे साथ चलने के लिए पटाता और एक दिन वह अपने इरादे में सफल भी हो गया।

तयशुदा दिन हमें दो पीरियड पढने के बाद चुपके से निकल पड़ना था। उस रोज हाजिरी होने के बाद ही साथी क्लास से खिसक गया। मेरे दिल की धड़कन सुबह से ही तेज हो रही थी। दूसरी घंटी बजते ही मेरे मन में अज्ञात डर और कहरा गया। यह अंग्रेजी की क्लास थी। टीचर ने थोड़ी देर पढ़ाने के बाद ही आगे आकर जोर-जोर से लेसन पढ़ने की जिम्मेदारी मेरे उपर सौंप दी और खुद धूप में शर्मा जी के पास जा पहुचे गप्पे मारने। मैं क्लास का सबसे अच्छा स्टूडेंट था लेकिन उस दिन मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। पढ़ने में भी गलतियां हो रहीं थीं। आवाज भी नहीं निकल रही थी। किसी ने मेरी शिकायत की तो टीचर ने आकर मुझसे पूछताझ की। मेरा सफेद पड़ता चेहरा देखकर वह घबरा गए। सिर पर हाथ रखा और कहा कि मुझे तो बुखार है। उन्होंने मुझसे घर जाने को कहा।

बस्ता लेकर मैं स्कूल से निकला और बाहर आते ही मेरे कदम तेजी से सिनेमा हॉल की तरफ बढ़ते चले गए। लगभग आधा किलोमीटर दूर गणेश टाकीज पहुंचने से पहले ही साथी मिल गया। वो छिपकर मेरी राह देख रहा था। दूसरे दर्जे की टिकट खिड़की सड़क से लगी थी जहां से ट्राफिक गुजरता था। मैंने खिड़की पर लगी लाइन में खड़े होने से मना कर दिया क्योंकि वहां पर पहचाने जाने का डर था। मैं दूसरी ओर पीपल के पेड़ के पीछे छुप कर खड़ा हो गया।

मैं चाह रहा था कि जल्दी से टिकट लेकर हम सिनेमा के अंदर चले जाएं जिससे हमें कोई जान पहचान वाला न देख ले। पर उस समय तो दर्शकों को आकर्षित करने वाला लाउडस्पीकर भी बजना शुरू नहीं हुआ था। इधर, खिड़की पर भीड़ बढ़ती जा रही थी। थोड़ी देर में पहले दर्जे और बालकनी की टिकट खिड़की खुल गयी और लाउडस्पीकर भी बजने लगा। लोग हॉल के अंदर भी जाने लगे पर हमारी खिड़की फिर भी नहीं खुली। हमारा डर बढ़ता ही जा रहा था। मैंने मन ही मन गणेश जी को प्रणाम किया और वर मांगा कि फिल्म देखने का हमारा संकल्प आसान करे। साथ ही वादा किया कि हम फिर कभी चोरी से फिल्म नहीं देखेंगे।

काफी देर के बाद टिकट खिड़की खुली और दोस्त ने काफी जद्दोजहद कर दो टिकटें निकाली। हम तुरंत अपने बस्तों के साथ पर्दे के सामने वाली क्लास में खाली पड़ी कुर्सियों में दुबक गए। यह श्वेत -श्याम फिल्म थी-बादल जिसके हीरो थे अजित। वही अजित, जिन्हें बाद में शहर लायन के नाम से जानता है।

क्लास बंक कर फिल्म देखने में सहपाठी उस्ताद था। उसने सिनेमा शुरू होने से पहले ही बताया कि उसने मेरा टिकट इसलिए कटाया है ताकि पूछताछ हो तो मैं उसका बचाव करूं। उसके पिता पहले भी कई मौकों पर मुझसे उसके स्कूल में उपस्थिति की जानकारी ले चुके थे। फिर उसने खुद ही मियां मिट्‌ठू बनते हुए बताया कि वह अपने पापा की पान की दुकान पर बैठता है जब वे खाना खाने के लिए आधे घंटे के लिए घर जाते हैं। उसी दौरान चवन्नी-अठन्नी चुराते हुए उसने दो रूपये इकट्‌ठा किए थे।

सिनेमा खत्म होने पर जब हम चोरी छिपे हॉल से बाहर निकले और वापस गलियों में सुरक्षित पहुंच गए तो सिनेमा का गीत बरबस जुबान पर आ गया-‘अपने लिए जीयें, जीयें तो क्या जीयें--- ----।‘ उसके बाद हम दोनों ने पास के गणेश मंदिर में जाकर सिर नवाया।

थोड़ी देर तक गलियों में इधर-उधर घूमने के बाद जब छुट्‌टी का टाइम हुआ तो हम अलग हुए। घर पहुंचने के एकाध घंटे बाद ही जाकर मैं आवस्त हुआ। रात को दादी से मैंने पूछा कि क्या भगवान की पूजा करने से सभी मुश्किल आसान होती है तो दादी ने हां कहा और इसके लिए एक कथा भी सुनाई। मैंने उन्हें बताया कि मैं आज पूजा करने के लिए गणेश मंदिर गया था। उस दिन मैं बहुत खुश था। उस रात मैंने सपने में भी बादल देखी।

अगले दिन स्कूल में भी सब कुछ सामान्य था। इंटरवल में मैंने साथी को बताया कि जो लोग भगवान की पूजा करते हैं उनका ख्याल भगवान भी रखते हैं तो उसने भी सिर हिलाया।

दो दिन बाद प्रेयर के तुरंत बाद चपरासी मुझे बुलाने आ पहुंचा। जब मैं चपरासी के साथ वाइस प्रिसिपल के कमरे में पहुंचा तो सहपाठी और उसके पिता पहले से ही वहां थे। एक ग्राहक सहपाठी के पिता को ‘बादल की कहानी‘ बता चुका था। दो बेंत पड़ते ही सहपाठी ने मेरा नाम भी उगल दिया था।

मुझे पड़ी बेंत की मार का गम नहीं, पर मुझे कई सालों तक यह बात नहीं समझ आयी कि हमारी गणेश पूजा में कहां विघ्न पड़ गई थी!

Comments

Alpana Verma said…
bahut hi rochak kissa raha aap ke bachpan ka--
us key baad aap ne phir kabhi classes miss kar ke film nahin dekhi hogi.
SHASHI SINGH said…
संतोष जी,

अभी-अभी जोर का ठहाका लगाया। बेहद रोचक रहा आपका अनुभव।

ग़लती की न आपने, बाप (भोले बाबा) के पास न जाकर बेटे (गणपति) के पास माथा टेकने गये इसलिये धरे गये। दरअसल हुआ ये होगा कि आपकी ही तरह गणेशजी भी मंदिर से बंक करके अपने गणेश टाकीज में हाजिर रहे होगे इसलिये मामला बना नहीं।
Ravi Shekhar said…
bahut khoob santosh!
likh hi maara tumne- ye achchha hua.
Anonymous said…
lekh padh kar maja aa gaya. hamare aur aap me antar yahi raha ki aap pakde gaye aur main bilkul bach nikla. tabhee to duusree bar film dekhne gaya tha.

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