सजग पत्रकार की चेतना के फिल्मकार बीआर चोपड़ा

-अजय ब्रह्मात्मज

पिछले कुछ सालों से वह स्वस्थ नहीं थे। ह्वील चेयर पर ही कार्यक्रमों में आते-जाते थे। लोगों से बात न कर पाने की बेबसी उनके चेहरे पर झलकती थी। लेकिन दूसरों की बातें सुन कर उनकी आंखों में चमक आ जाती थी। वे आंखें बहुत कुछ बयां कर देती थीं। बेटे रवि चोपड़ा उनकी भावनाओं को शब्द देते थे।
मुझे याद है बीआर फिल्म्स के 50 साल पूरे होने पर उन्होंने अपनी फिल्मों की खास स्क्रीनिंग रखी थी। चार दिनों तक चली उस स्क्रीनिंग में दिलीप कुमार से लेकर उनके साथ जुड़े कई कलाकार आए थे। सभी ने उस दौर की फिल्म मेकिंग, डायरेक्टर के साथ रिश्तों और काम के माहौल पर अपने संस्मरण सुनाए। बीआर यानी बलदेव राज को करीब से समझने का वह पहला मौका था।
'सिने हेराल्ड जर्नल' के लिए फिल्म पत्रकार के तौर पर करियर शुरू करने वाले बलदेवराज चोपड़ा आजादी के पहले लाहौर की फिल्म सर्किल में काफी सक्रिय थे। उन्होंने गोवर्धन दास अग्रवाल की फिल्म 'डाक बंगला' की समीक्षा में फिल्म की धज्जियां उड़ा दी थीं। फिल्म फ्लाप हो गई तो अग्रवाल ने कहा कि बीआर ने बदले की भावना से समीक्षा लिखी थी। स्थितियां जो भी रही हों, आजादी के बाद मुंबई में गोवर्धन दास अग्रवाल ने ही बीआर चोपड़ा को फाइनेंस किया। बीआर तो पहली फिल्म 'करवट' के असफल हो जाने के बाद फिर से पत्रकारिता में लौट जाना चाहते थे। तब उनके मित्र महबूब खान ने समझाया था, 'फिल्में असफल हो सकती हैं, लेकिन तुम्हें कोशिश करते रहनी चाहिए।' लाहौर के दोस्त आईएस जौहर ने बीआर को एक कहानी सुनाई। वह कहानी मैरी कोरेली की 'वेंडेटा' से प्रेरित थी। उन्होंने तुरंत वह कहानी 500 रुपए में खरीद ली। वह निर्माता की तलाश में थे तभी ोवर्धन दास अग्रवाल उनसे मिले। उन्होंने फौरन बीआर को इस शर्त पर 50 हजार का चेक दे दिया कि फिल्म का निर्देशन उन्हें ही करना होगा।
बीआर ने निर्देशन में उतरने का साहस किया और फिल्म के लिए अशोक कुमार से संपर्क किया। अशोक कुमार का पहला सवाल था, 'आप कैसे फिल्म निर्देशित कर सकते हो? अनुभवहीन निर्देशक के साथ काम करने का जोखिम मैं नहीं उठा सकता।' बीआर ने हार नहीं मानी। उन्होंने दबाव डाला तो अशोक कुमार ने उन्हें मुंबई टाकीज में कहानी सुनाने के लिए बुला लिया। कहानी सुनने के बाद अशोक कुमार का जवाब था, 'मैं प्रभावित हुआ। तुमने जैसे कहानी सुनाई है, वैसी फिल्म बना दो तो सफल होगी।' अशोक कुमार का अनुमान सही निकला। 'अफसाना' चली और खूब चली। इसके बाद बीआर ने 'शोले' और 'चांदनी चौक' फिल्में निर्देशित कीं।
आरंभिक सफलता के बाद ही उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी स्थापित कर ली। उन्होंने 'एक ही रास्ता', 'नया दौर' और 'साधना' का निर्माण और निर्देशन किया। इन फिल्मों की कामयाबी ने बीआर बैनर को स्थापित कर दिया।
बीआर की खासियत रही है कि वह सुनिश्चित टीम के साथ ही काम करते थे। उनके प्रिय गीतकार साहिर लुधियानवी और गायक महेंद्र कपूर थे। बीआर फिल्म्स में लेखकों की एक टीम हाल-फिलहाल तक रोज मिलती थी। स्क्रिप्ट लेवल पर लंबी बहस और विमर्श के बाद ही आखिरी ड्राफ्ट तैयार किया जाता था। बीआर की फिल्मों में मनोरंजन के साथ सामाजिक संदेश भी रहता था। चूंकि मूलत: वह सजग पत्रकार थे, इसलिए समाज के प्रति सचेत थे। लेखकों की उनकी टीम में कामिल राशिद, एफए मिर्जा, सीजे पावरी, अख्तर-उल-ईमान, डाक्टर राही मासूम रजा, सतीश भटनागर, राम गोविंद और अचला नागर आदि शुमार रहे हैं।
बीआर की फिल्मों में हमेशा क्राफ्ट से अधिक कथ्य पर ध्यान दिया जाता था। लेकिन प्रयोग करने में भी वह पीछे नहीं हटते थे। उन्होंने 'कानून' जैसी फिल्म बनाने का साहस किया, जिसमें कोई गाना नहीं था। यह हिम्मत उन्होंने गीत-संगीत के स्वर्ण काल में की थी। उन्होंने छोटे भाई यश चोपड़ा को भी फिल्मों की सामाजिकता से जोड़े रखा। बड़े भाई से अलग होने के बाद यश चोपड़ा प्रेम के रोमानी संसार में उतरे और कामयाबी की नई इबारत लिखी। कई बार आश्चर्य होता है कि बड़े भाई के बैनर के लिए 'धूल का फूल' और 'वक्त' जैसी फिल्में बनाने वाले यश चोपड़ा के विकास का रास्ता अलग कैसे हो गया? बीआर के बेटे रवि चोपड़ा ने जरूर 'बागवान' और 'बाबूल' में पिता के स्थापित मूल्यों और परंपरा को निभाया। संयोग है कि दोनों फिल्मों की कहानी बीआर चोपड़ा की थी। कैसे हो सकता है कि हम बीआर चोपड़ा को याद करें और 'महाभारत' का उल्लेख न हो। दूरदर्शन के इस धारावाहिक ने लोकप्रियता को ऐसा रिकार्ड स्थापित बनाया, जो आज तक नहीं टूटा है। कहते हैं इस धारावाहिक की टीआरपी 96 प्रतिशत थी। इसके प्रसारण के समय शहर-देहातों की गलियां सूनी हो जाती थीं। लोकप्रियता का यह गौरव किसी और को नहीं मिल सका।
पुराने पत्रकार बताते हैं कि बीआर पत्रकारों का कितना सम्मान करते थे। शाहरुख खान के जन्मदिन पर पकौड़ा-पाव खाकर संतुष्ट हो जाने वाले पत्रकारों को इल्म भी नहीं होगा कि बीआर की पार्टियों में पत्रकारों का विशेष खयाल रखा जाता था। खाना बाहर से नहीं आता था और वह स्वयं सबके खानपान का खयाल रखते थे।
बीआर चोपड़ा
जन्मतिथि - 22 अप्रैल 1914
मृत्यु- 5 नवंबर 2008
पहली फिल्म - 'करवट'
पहला निर्देशन - 'अफसाना'
पहला निर्माण - 'एक ही रास्ता'
पहला धारावाहिक - 'महाभारत'
निर्माता-निर्देशक के तौर पर प्रमुख फिल्में -'नया दौर', 'साधना', 'गुमराह', 'हमराज', 'इत्तेफाक', 'निकाह', 'वक्त', 'धूल का फूल', 'बागवान', 'बाबूल', 'दोस्ताना', 'इंसाफ का तराजू','पति पत्नी और वो' आदि।

Comments

Anonymous said…
बढ़िया लेख अजय जी. बी आर प्रॉडकशन हाउस से हर दशक में बेहतरीन और सामयिक सामाजिक फिल्में बनती रही हैं और प्रशंसित होती रही हैं. वैसे आई एस जौहर लिखित कहानी पर बनी फिल्म का नाम "अफ़साना" था न कि "अफ़सर". बाद में सत्तर के दशक में उन्होने इसे "दास्तान" में रीमेक किया, दिलीप कुमार और शर्मिला टैगोर के साथ, जोकि चली नहीं.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को