अनुराग कश्यप से अंतरंग बातचीत
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'पहली सीढ़ी' की बातचीत के लिए वे सहज तैयार हो गए। इस बातचीत में प्रश्न पूछने की मुख्य जिम्मेदारी प्रवेश भारद्वाज ने निभायी। इसे दो निर्देशकों की बातचीत भी कहा जा सकता है। मैंने इस इंटरव्यू में मुश्किल से एक चौथाई सवाल पूछे। अनुराग जितना तेज बोलते हैं, उससे ज्यादा तेज सोचते हैं, इसलिए कई बार मूल वाक्य और विचार खत्म किए बिना वे कुछ और बताने लगते हैं। इस अनौपचारिक और मुक्त बातचीत को क्रम देना मुश्किल काम था। क्रम और तारतम्य बिठाने में कुछ शब्द, वाक्य और विचारांश भी काटने पड़े। अमूमन मेरी कोशिश रहती है कि हर बातचीत इंटरव्यू देने वाले की भाषा में जस की तस ही प्रस्तुत हो … उसमें मौलिकता के साथ भिन्नता भी बनी रहती है। मैं इंटरव्यू लेनेवाले की भाषा में बातचीत पेश करने का पक्षधर नहीं हूं। ऐसे इंटरव्यू में एकरसता और दोहराव की संभावना बढ़ जाती है।
बहरहाल, अनुराग कश्यप से हुई बातचीत के कई रोचक पहलू हैं। हम यहां पूरी बातचीत नहीं दे रहे हैं। पूरी बातचीत आप अंतिका प्रकाशन की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक 'मेरी पहली फिल्म' में पढ़ सकेंगे।
- कहां से फिल्म बनाना चाहता हूं की यात्रा शुरू हुई?
0 1993 में दिल्ली के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से यह यात्रा शुरू होती है। उसमें मैंने विटोरियो डिसिका जैसे फिल्मकारों की फिल्में देखी थीं। चिल्ड्रेन्स आर वाचिंग,बाइसिकल थीफ और दूसरी कई फिल्में दिखाई गई थीं। उनका रेट्रोस्पेक्टिव रखा गया था। उन फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया था। उसी साल 'मैच फैक्ट्री गर्ल' भी आई थी। इन फिल्मों को देखने का बहुत असर हुआ था।
-दिल्ली में आप क्या कर रहे थे?0 मैं जन नाटय मंच में था। स्ट्रीट थिएटर करता था। कंफ्यूज था उस समय… हद से ज्यादा कंफ्यूज था। गंजेरी था और मुझे पता नहीं था कि क्या करना है। कह लें कि दिशाहीन था। मुझे लगा कि फिल्म में ही कुछ करना चाहिए। जूलोजी की पढ़ाई कर रहा था। जो प्लान थे, उन्हें थर्ड इयर तक आते-आते धरासायी कर चुका था। पिताजी से बात हुई। उनसे मैंने कहा कि बंबई जाकर कुछ करना चाहता हूं। पिता जी भी बेहद नाराज… वे बोले बंबई जाकर क्या करोगे? मैं बहाना बना कर, लड़ाई-झगड़ा कर… घर से पांच हजार रूपया लेकर मुंबई भाग कर आ गया। यह सोच रखा था कि फिल्म में ही कुछ करना है, लेकिन क्या करना है? कुछ पता नहीं था कि क्या करना है? पिक्चर कैसे बनती है, क्या प्रोसेस है, कुछ नहीं मालूम था। सिर्फ डिसिका देखा था। उसके अलावा मेरा एक्सपोजर नहीं था। उसके पहले सिनेमा का मेरा एक्सपोजर बहुत लिमिटेड था। बचपन में जो था, हमारे कल्ब में हफ्ते में दो बार फिल्में दिखाते थे। छह साल की उम्र तक वह देखता था भाग-भागकर।
- कौन सा क्लब है?
0 मैं ओबरा में रहता था, ओबरा है यू पी में रेणूपुर में… रेणुसागर तालाब के पास, बिजली का जो गढ़ है। वहां मेरा बचपन गुजरा। वहां पर एक थिएटर था। वह भी मेरे सामने बना था। चलचित्र… ग़र्वमेंट का सरकारी थिएटर चालू हुआ था चलचित्र। उसके अलावा क्लब में ओपन एयर में फिल्में दिखाते थे। मैं बचपन में वहां जाकर 'आंधी' और 'कोरा कागज' देखता था। चार-पांच साल की उम्र रही होगी। मुझे खुद नहीं मालूम क्यों देखता था? मैं आंख खोले, मुंह बाए चुपचाप देखता रहता था। पिता जी भगा
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-मुंबई के आरंभिक जीवन के बारे में बताएं,कैसे शुरूआत हुई?
0 सिंधिया स्कूल ग्वालियर में था। उसके पहले देहरादून में पढ़ा। बिखरी हुई सी जर्नी रही है। बीच में बारह-तेरह साल फिल्मों से नाता टूट गया। फिर दिल्ली आए तो बदले की भावना के साथ फिल्म देखना चालू किया। वो भी मल्कागंज इलाके में… यूनिवर्सिटी के आस-पास के अंबा, कल्पना, बत्रा… वहां हिंदी फिल्में जो लगती थीं, बस वही देख पाता था। फिर एक अनटचेबल देखी थी तो इंग्लिश फिल्मों का शौक चर्राया तो 'डाय हार्ड' आदि देखी। तीन साल वैसी फिल्में देखीं। फिर 1993 के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सिनेमा से सही परिचय हुआ। सिनेमा एक्सपोजर वहां से चालू हुआ। लेकिन सिनेमा में एक्सेस नहीं था । उसके बाद मैं मुंबई आ गया । मुंबई में मेरी असली जर्नी शुरू हुई है। बाकी सब करता रहता था। थिएटर करता था , एक्टिंग करता था… समझ में नहीं आ रहा था कि एक्टिंग कर रहा हूं कि क्या कर रहा हूं। कंफ्यूजन तो था ही, दिशाहीन भी था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि किसके पास जाऊं? किसी-किसी के पास काम कर रहा था। सडक़ पर रह रहा था। मैंने एक दिन फ्रस्ट्रेशन में नाटक लिखा 'मैं … तो वह नाटक गोविंद जी निहलानी और सईद साहब मिर्जा जैसे लोगों को पसंद आया। उन सब से मिला लेकिन मुझे कुछ समझ में नहीं आया। मुझे लगा कि गोविंद जी मु
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- वो क्या चीजें और बातें हैं?
0 मैंने लिखना चालू किया था। मैंने पांच लिखना शुरू किया था। तब पांच का नाम पांच नहीं था। मिराज नाम से मैंने स्क्रिप्ट चालू की थी। 1995 में 'सत्या' के पहले नागराजन और ऑटो नारायण के फेज में। मैंने एक फिल्म लिखी थी 'मिराज'। फिल्म क्या लिखी थी, चालीस पन्ने लिखे थे। मैंने ल्यूक केमी को जाकर सुनाया। ल्यूक केमी एक्टर था। उसको मैंने विक्रम कपाडिय़ा के एक नाटक में देखा था। एक फिल्म थी 'फन'… जो आज है मेरे पास। मैंने उसे बहुत सालों तक ढूंढा । क्या था इस फिल्म में जिसने मुझे प्रेरित किया मुझे? 'फन' में एक स्ट्रकचरिंग थी। जिसको आप पांच के पास जाओगे तो एक जैसी दिखेगी। 'फन' में कुछ ऐसा था। मैंने जब ट्रेस करना चालू किया था कि कहां है? हमको एक पैटर्न दिखा था 'लास्ट ट्रेन टू महाकाली' में। मेरी खुद की फिल्में हैं, 'पांच' में। और 'ऑटो शंकर' जो मैंने ड्राफ्ट लिखा था। एक फोर्मुलेशन था उसमें। तीनों में एक सिमलर फार्मूला था। मैं एनालाइज कर सकता हूं क्योंकि मैंने खुद किया है।
- अनुराग कश्यप का हस्ताक्षर यहां से गढ़ा गया?
0 वहां से गढ़ा गया। वहां से मेरी नयी जर्नी आरंभ हुई। यह रियलाइजेशन हुआ कि मेरे तीनों लेखन में एक समानता है। एक पैटर्न है।
- जब आप के अंदर का लेखक जागा तो वे क्या एहसास थे, जिनसे लगा कि आप सही दिशा में हैं?
0 अंदर से एहसास हुआ। जब पहली बार लिखा था 'मिराज' तो उस समय फर्स्ट हॉफ ही लिखा था। कोई मर्डर और किलिंग नहीं था। एक जर्नी थी एक आदमी की, जिसके पास पैसा नहीं है। सडक़ छाप है। गांजा के चक्कर में घूमता रहता है। बस वाला सीन लिखा था। सारी चीजें लिखी थी। कई कैरेक्टर थे। मैं उस समय कुछ उस तरह की जिंदगी जी रहा था।
- कहीं कुछ ऐसा तो नहीं था कि मेरी आवाज कुछ अलग हो, इसलिए सचेत रूप से कुछ अलग करने की कोशिश रही हो?0 नहीं, जो चीज थी वो ये थी कि जब मैंने 'टैक्सी ड्रायवर' देखी,जब मैंने 'फन' देखी, जब डिसिका की फिल्में देखी तो मुझे आयडेंटीफिकेशन मिला अंदर से। बाकी हिंदी फिल्में जब देखता था तो मुझे लगता था कि कोई ऐसी कहानी कही जा रही है,जो किसी और के बारे में है। शायद सिनेमा यही होता है। डिसिका ने, 'फन' ने, स्कॉरसेस ने एक चीज मेरे साथ की वो यह कि सिनेमा मेरे बारे में भी है। मुझे जो कांफीडेंस आया। न्वॉयर से जो मेरा आकर्षण हुआ वो इसलिए कि वह मेरे बारे में भी है। लोगों के हिसाब से न्वॉयर बहुत कुछ होता होगा। मेरे लिए मेरा अपना खुद का मिनिंग है। मेरे लिए वह एक ऐसा माहौल है। मेरे लिए वह अंडरडॉग की कहानी है। मेरे लिए वहे गोल है। जिंदगी में हम सडक़ पर आते-जाते देखते हैं लेकिन गौर नहीं करते हैं। सब की अपनी-अपनी कहानियां है। मुझे लगा कि सिनेमा उसके बारे में भी हो सकता है। जब यह लगा मुझे तो मेरे अंदर कांफीडेंस आ गया कि हां यही मेरा सिनेमा है। मुझे यही कहना है। मुझे यही करना है। फिर जो मैं खुद को असहज महसूस करता था। उस एहसास के बाद वह खत्म हो गया। मुझे पहले लगता था कि मैं कुछ नहीं कर सकता हूं। मुझे लगता था कि मैं जो सोचता हूं वो बेवकूफी है, अगर किसी को बोलूं तो वह हंस न पड़े। मुझे उर्दू नहीं आती थी। हिंदी सिनेमा लेखन वास्तव में उर्दू है। मेरी हिंदी अच्छी थी, तब जब मैं लिखता था। लेकिन मैं बोल नहीं पाता था।
- बोलते अंग्रेजी में थे?
0 नहीं अंग्रेजी भी नहीं बोलता था। खिचड़ी भाषा थी। मतलब, आप बोर्डिंग स्कूल में पढ़े हुए हैं, जहां पर सब अंग्रेजी बोलते हैं और आपको अंग्रेजी नहीं आती है। आप हिंदी बोलते हैं। आपकी खासियत क्या है कि आप हिंदी में निबंध प्रतियोगिता जीत जाते हैं। नौवीं में आप बारहवीं के लडक़े को हिंदी में पछाड़ देते हो। हिंदी में आपका कोई सानी नहीं है और जब हिस्ट्री में आप लिखते हैं तो अपनी कहानियां बना-बनाकर लिखते हैं। टीचर पास कर देता है, तब पता चलता है कि टीचर कितना उल्लू का पट्ठा है। मेरा खेल सिर्फ वहां था। मैं अच्छा लिखता था, लेकिन मैं पब्लिक स्पीकर नहीं था।
- एक लडका अनुराग कश्यप… उसमें अपना कंफीडेंस नहीं था। उस लडक़े में आत्मविश्वास कैसे आया? उसे यहां तक लाने की यात्रा किस तरह से आरंभ हुई?0 उसके लिए एक चीज बताना चाहूंगा । बचपन से मुझे कहानियां बनाने की आ
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- अपराध की कहानियां पढ़ते थे। आप ने जिन पत्रिकाओं के नाम लिए, उनसे लगता है कि क्राइम और सेक्स की कहानियों से आप का लगाव थ। उधर झुकाव था।0 हां क्राइम के साथ था। मैं आ रहा हूं उस बात पर। मेरा जर्नी का जो सबसे बड़ा महत्वपूर्ण पाइंट है। मेरी जिंदगी में सबसे बड़ी चीज जो रही, वह आज समझ में आता है कि क्यों है? मेरे अंदर काम्पलेक्स कब आया था? सीनियर स्कूल से पहले छुट्टियों में गांव जाता था या लखनऊ जाता था या अपने ननिहाल बलिया जाता था तो वहां पर एक किताब की दुकान थी मैं वहां पर जाकर बैठता था। मैं वहां वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, रानू आदि के हिंदी उपन्यास पढ़ता था। पिता जी को देखता था तो हार्डी ब्वॉयज उठा लेता था। उन्हें लगता था कि बेटा इंग्लिश पढ़ रहा है। उनके इधर-उधर होते ही उसे बंद कर सीधा वहां पहुंच जाता था। मेरी एक मौसी की लडक़ी थी हैदराबाद की,जो इस तरह के उपन्यास पढ़ती थी। वह मुझे पढऩे के लिए देती थी। बेबी दीदी। उन उपन्यासों को मैं पढ़ता था और कोने में घुसा रहता था। पढऩे का शौक था, लेकिन मेरे अंदर कहीं अपराध बोध पलने लगा। छुट्टियों के बाद जब स्कूल पहुंचा तो स्कूल की मैग्जीन देख कर वहां लिखने का मन किया। स्कूल में साहित्य सभा नाम की सोसायटी थी। मैं सोसायटी का मेम्बर बनने के लिए गया। मैंने कहानी लिखी। मैंने सातवीं क्लास में कहानी लिखी। लडक़ा है जो उत्पीड़ित ग्रंथि में जी रहा है और एक लड़का उसको बहुत तंग कर रहा है। कहानी का नाम था बिग शिफ्ट। जो मैं फील करता था स्कूल में,वही मैंने लिख दिया था। सिंधिया स्कूल बड़े लोगों का स्कूल था। जहां पर मैं एक ऐसा स्टूडेंट था जो दिवाली के दिन भी जब सभी रंगीन कपड़े पहनते थे तो मैं स्कूल का ड्रेस पहनता था। मेरे पास स्कूल के दिए हुए बाटा के जूते होते थे। एकमे का जूता था ब्लैक कलर का। स्कूल का जो सबसे गरीब तबका हो सकता था, मैं उसमें था। लिखा रहता था चेहरे पर। घड़ी तक नहीं थी। तो बहुत कॉम्पलेक्स फील करता था। सब अंग्रेजी में बात करते थे। मैं तड़ातड़ हिंदी में बात करता था। पिताजी कहते थे पढ़ाई करनी है तो उन्होंने सिंधिया स्कूल भेज दिया। उस कॉम्पलेक्स पर मैंने एक कहानी लिखी थी। मेरे एक टीचर थे पंडित आत्माराम शर्मा। उन्होंने मुझ से पूछा कि बेटा कहानी कहां से चुराई है? मैंने कहा कि कहीं से नहीं चुराई है। उन्होंने मुझे इतना लताड़ा। सच्चे नहीं हो। तुम लोग सच्चा होना सीखो। उन्होंने अंग्रेजी में जेन्युन शब्द कहा था। मुझे जेन्युन का मतलब नहीं मालूम था। उस रात डिक्शनरी में जेन्युन मतलब ढूंढ़ा। फिर मैंने कविता लिखी। मुझे अभी भी याद है। बहुत ही अजीब सी कविता थी। एक होता है न शायरी करें । कविता में एक लडक़ा आत्महत्या करना चाहता है। मैंने ऐसी कविता लिख दी आठवीं कक्षा में। एक लडक़ा जो आत्महत्या करना चाहता है। टीचर उसे देख के परेशान हो गए। पिताजी को फोन चला गया। यह लड़का ऐसा क्यों लिख रहा है। मैंने कहा कि मैंने लिखी है। शायरी की ऐसी फीलिंग आती है मेरे अंदर, ये लोग हमें ऐसा फील कराते हैं और मैं लिखना चाहता हूं। तो उन्होंने मेरा ट्रीटमेंट चालू कर दिया। काउंसलिंग करना चालू कर दिया। मैं कह रहा था मुझे लिखना है। पिताजी परेशान हो गए। प्रिंसिपल ने स्पेशल अटेंशन देना शुरू कर दिया। और फिर मेरा लिखा उन्होंने कुछ छापा ही नहीं। उन्होंने मुझे बोला कि तुम्हें लिखना नहीं आता है। गुस्से में मैंने नौवीं कक्षा में निबंध प्रतियोगिता में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। वहां लगातार जीतता था। उन्होंने कहा कि किसी भी टॉपिक को लिखो। मैंने बाद में जब ध्यान दिया तो समझ में आया कि मेरी सोचने की प्रक्रिया चलती रहती थी। चीजें पढऩे पर अंदर जमा हो जाती थीं, लेकिन याद नहीं रहता था कि कहां पढ़ी थी, कब पढ़ी थी? 1982 में एशियाड हुआ था। उसके ऊपर एक निबंध प्रतियोगिता थी। मैंने इतना लंबा-चौड़ा लिख दिया। पता नहीं कहां से क्या-क्या लिख दिया? कहीं न कहीं जानकारी रहती थी, वह सब स्टोर हो जाता है, फिर एक बार निकलता है तो उमड़ कर निकलता था। जैसे आप ने उल्टी कर दी है। उस तरह की लेखन प्रक्रिया का एहसास हुआ। इतना कॉम्पलेक्स आ गया था अंदर… टीचरों ने बोल-बोल कर भर दिया था कि तुम्हें नहीं लिखना चाहिए। तुम क्या लिखते हो सारा सब कुछ। इस माहौल में आप अलग हो जाते हैं। इसके अलावा भी आप हंसी-मजाक के पात्र बन जाते हैं सब लोगों के लिए, इसको इंग्लिश नहीं आती। पिताजी ने नौवीं कक्षा में पहली बार टाइटन की घड़ी दी। उस समय टाइटन नई-नई आई थी। स्कूल में सब पूछते किसकी घड़ी है? मैं कहता था टाइटन। वे लोग चिढ़ाते थे टिटन बोलो तुम तो। ये सारी चीजें घर कर गई थीं। इन वजहों से मैं मिलता नहीं था किसी से और लाइब्रेरी में घुसा रहता था। सीनियर स्कूल में सबसे बड़ी चीज थी लाइब्रेरी। सीनियर स्कूल से अच्छी लाइब्रेरी मैंने कहीं नहीं देखी। मैंने उस समय लाइब्रेरी में छुप-छुप कर लोगों से बचने के लिए … मैंने मानसरोवर से शुरूआत की थी। सबसे आसान वही होता है। छोटी-छोटी कहानियां … पूरा मानसरोवर पढ़ा। फिर जीप में सवार इल्लियां पढ़ी। वहां से एक नयी जर्नी चालू हुई। मेरे लाइब्रेरी से अधिक प्रिय कोई जगह ही नहीं थी। फिर मैंने पल्प लिटरेचर पढऩा आरंभ किया। फिर यहां पहुंचा और मैंने डिस्कवर करना चालू किया। कैसे गुलशन नंदा, कर्नल रणजीत आदि कहानियां चुराया करते थे। कैसे सुरेन्द्र मोहन पाठक चुराया करते थे। मैंने उनकी कहानियां पढ़ रखी थी। मैंने बाद में ओरिजनल पढऩा चालू किया। पता चलना चालू हो गया कि सब चोरी से भरे परे हैं और लोग मुझे बोलते हैं कि मैं जेन्युन नहीं हूं।
- वह लडक़ा है, जो कहीं अपना जगह बनाना चाहता था या प्रोग्रेस करना चाहता था। उसके अंदर वह चाहत अभी तक है या… ?0 है, कहीं न कहीं है।
- आपने पहली एक स्क्रिप्ट लिखी और फिर तय किया कि मैं इसे डायरेक्ट करूंगा?
0 वो एक प्रोसेस में इवाल्व हुआ। मतलब स्क्रिप्ट कुछ छह साल में इवॉल्व हुआ है। आयडिया कुछ चेंज हुआ है। मतलब पांच वही फिल्म नहीं है, जो मैं बनाने निकला था, जब लिखना चालू किया था। वह अधूरी फिल्म थी, जिसे मैं कभी पूरा नहीं कर पाया। जब मैंने स्क्रिप्ट पूरी कर ली और लोगों के पास ले गया तो लोगों ने कहा यार ऐसी फिल्म बनेगी नहीं। मैंने बहुत कोशिश की। मैंने कहा भांड़ में जाए। नहीं ब
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- ये लगभग कुछ वैसी ही बात है, जैसे टीचर आपको जेन्युन होना सीखा रहे थे। हम थोड़ा आगे बढ़ें। आप के पास चालीस पेज की एक स्क्रिप्ट थी। उसके बाद आप ने तय किया कि मैं फिल्म बनाऊंगा। यह चाहे अपने-आप में एक लड़ाई थी। चाहे पूरा अपना इवोल्यूशन था। फिर भी फिल्म डायरेक्ट करना एक पहला कदम होता है। उस दिशा में कदम उठा तो फिर आपने किया क्या? अनुराग कश्यप जो खुद को एसर्ट नहीं कर पा रहा था,जब वो कहता है कि मैं डायरेक्ट हूं तो क्या बात हुई थी? क्यों कि पहले अपने-आप को आप डायरेक्टर नहीं मान पाए थे। फिर आप ने खुद को डायरेक्टर माना। अब बात ये है कि सिनेमा में किसी का धन लगता है। कुछ लोग जोड़े जाते हैं। आप में उनका विश्वास होना चाहिए। इस संबंध में बताएं?0 बहुत इंटरनल जर्नी रही है। मेरी बहुत सारी चीजें रही हैं, जो मेरे मोहभंग की वजह से आई हैं। अब जैसे कि जिस तरह के मेरे पिताजी थे, जब मैं बड़ा हो रहा था। तो मैं कुछ आदर्शवादी टाइप का था। वो अंदर आदर्शवाद है सिनेमा को लेकर । मैं जिंदगी कैसे जीता हूं या बाकी क्या करता हूं? उस पर कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन सिनेमा को लेकर, लिटरेचर को लेकर के, जो चीजें पसंद हैं उनको लेकर के वह आइडिसलिज्म है। वो कहीं न कहीं है अभी भी है। थोड़ा -बहुत है अभी भी, कुछ साल में हो सकता है चला जाए। लेकिन अभी तक तो है। उस समय ये सारे मोहभंग चल रहे थे,लेकिन मुझे जो चीज ड्राइव करती थी, वो ये है कि मुझे अपने तरह से काम करना है। और लोग समझ क्यों नहीं रहे हैं कि मैं किस तरह का काम करना चाहता हूं। वह ड्राइव आज भी है। मुझे लगता है लोग अभी भी नहीं समझ पा रह हैं। फिल्में रूकी हुई हैं। फिल्में बाहर नहीं आईं। मुझे लगता है कि क्यों नहीं मुझे एक्सप्रेस करने दिया जा रहा है। देखता हूं तो लगता है कि जब-जब मेरी आवाज दबाई गई है, जब-जब ठुकराया गया है तब मैंने और ज्यादा आतरिक दृढ़ता के साथ काम किया है। मेरी शुरूआत हुई 'लास्ट ट्रेन टू महाकाली' से। 'लास्ट ट्रेन टू महाकाली' मैंने निराशा में बनायी। गुस्सा भी था कि यार मुझे कोई बनाने नहीं दे रहा है। एक बात मुझे समझ में आ गई थी कि यहां का जो निर्माता है, जो पैसे वाला आदमी है, जो पूंजीवादी है, उसको लगता है कि निर्देशक का काम है कैमरा लगाना। बाकी कोई इसका काम नहीं है। तो मैंने इसी चीज के लिए तय किया कि मैं कैमरा लगा कर दिखाऊंगा। मेरे पास कोई ज्ञान नहीं था। उस समय सबसे बड़ी मदद मिली स्टार बेस्ट सेलर से। स्टार टीवी पर तब यह सीरिज चल रहा था। उस समय मेरा भाई अभिनव 'डर' नाम का सीरियल बना रहा था। उसमें उसने मेरे नाम का इस्तेमाल किया था। जब उसने मेरा नाम का इस्तेमाल किया तो मुझे पता चला कि कुछ तो है स्टैंडिंग है मेरी। मैंने कहा था भाई से कि क्या जरूरत है? भाई ने बोला कि नहीं अपना नाम दे दो तो सीरियल हो जाएगा। मैंने बोला कि अच्छा… उसने बताया कि बदले में पैसे मिलेंगे। कितने चाहिए? मैंने बड़े जोश मे आकर दस हजार रुपए मांग लिए। उन्होंने बड़ी आसानी से दे दिए। जब सीरियल चालू हुआ तो उन्होंने सीरियल का प्रोमोशन चालू किया । 'सत्या', 'शूल' और 'कौन' के लेखक का सीरियल… मुझे बहुत तकलीफ होती थी। मैं भाई को डांटता था कि तुम मेरा नाम ऐसे क्यों डाल रहे हो। मेरा भाई बोलता था कि आपके अंदर कांफीडेंस नहीं है। मैंने खुद फोन कर-कर के स्टार बेस्ट सेलर को बोला कि मेरा नाम हटाओ। लेकिन उस प्रक्रिया में मुझे रियलाइज हुआ कि मैं कुछ हूं। सब हमको बोले तुम बेवकूफ है। तेरे नाम पर प्रोमोट हो रही है चीज। तू मना क्यों कर रहा है? मैंने बोला कि शर्म आती है। उन्होंने बोला कि चूतिया आदमी है। इससे तुम्हें मालूम है कि तुम्हारी कितनी स्टैंडिंग है। मैंने कहा अच्छा। उन्होंने समझाया कि तुम जाओ स्टार प्लस । तुम जो बोलेगे, वे करने के लिए दे देंगे। मैंने कहा अच्छा। उन्हें जाकर मैंने एक कहानी सुनाई। उन्होंने तुरंत स्वीकृत कर दिया। बिना जाने और देखे कि डायरेक्टर के तौर पर मेरे अंदर क्या संभावनाएं हैं? मैंने लिखी है तीन फिल्में। तब मुझे लगा यार किया जा सकता है। फिर मेरे समझ में आने लगा कि पूरा ध्यान लगा के कुछ किया जाए। इसमें कैमरा लगा के दिखाया। नटी का काम मुझे बहुत अच्छा लगा था। उसने 'अब के सावन झूम के बरसो… धूम पिचक वीडियो मैंने देखा। नटी से मेरी बात हुई दिल्ली में। नटी 'सत्या' का फैन था। नटी मुंबई आ गया। मैंने कहा करते हैं कुछ, लेकिन शूटिंग के एक दिन पहले मेरी जान निकल गई। मैंने कहा करूंगा कैसे? मैंने आज तक किया नहीं। मैंने शिवम को रात के बारह बजे फोन किया। मैंने कहा सर कल शूटिंग है। उन्होंने बोला कि हां कर। शिवम ने कहा कि पागल है, तेरा दिमाग खराब है। जो तुम ने तय किया वही जाकर कर। उन्होंने मुझे रात भर समझाया, जा कर, डर मत। तुमने हाथ डाल दिया। अगले दिन सेट पर गया तो, सुबह-सुबह शिवम ने कहा कि मैं भी आता हूं। मैं वेट कर रहा हूं कि शिवम कब आएंगे। नौ बजे का शिफ्ट था। राजेश टिबरीवाल मेरा दोस्त मेरे साथ था। डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी के सहयोगी यशवंत शेखावत मेरे साथ थे। यशवंत मेरे को बोल रहा है कि ऐसे करते हैं। राजेश ने भी एक सीरियल बनाया हुआ था। उसने भी कहा कि ऐसे करते हैं। मैं कंफ्यूज… मैं उन दोनों की तरह से नहीं सोच रहा था। फिर नटी ने पूछा कि करना क्या है। मैंने कहा,नटी सीन तो ये है। अब इसको कैसे करना है। मैंने बोला कि मैं इतना बता देता हूं कि कौन कहां बैठा है और क्या कर रहा है। मैंने सीन स्टेज करना चालू किया। नटी ने कहा कहां से शुरू करेंगे। पहला सीन था लडक़ी से बात हो रही है। उसको लेकर आया जा रहा है। मैंने कहा इसको लेकर आते हैं। मैंने कहा कि नटी ऐसा नहीं हो सकता है कि यहां से ये भी दिखे और वो भी दिखे। नटी ने कहा क्यों नहीं हो सकता है। तो नटी ने कैमरा लगाया। फिर धीरे-धीरे जो मेरा पहला सीन था… उसे शूट करने में मैंने फिगर आउट किया अपने-आप। पहला सीन करने में मुझे साढ़ सात घंटे लगे। उस समय मैंने फिगर आउट किया कि फिल्म बनाने का कोई मेथड नहीं है । जो मेथड है, वो आपका मेथड है। आप जैसे फिल्म को अपने दिमाग में देख रहे हो, वैसे ही बना दो। मेरा यह था कि मैं अपने-आप को एक्सप्रेस कर पाता हूं। मेरा विजुअल माइंड है। मैं विजुअली देखता हूं इन चीजों को। उसको आप कैसे एक्सप्रेस कर पाते हो अपनी टीम को।
- आप फिल्म निर्देशन में आना चाहते थे। जब निर्देशन की दिक्कतों का सामना कर रहे थे तो क्या कहीं ये लगा नहीं कि काश मैं फिल्म स्कूल गया होता। कम से कम शॉट लेने की तमीज तो होती। क्या उस समय आप के मन में यह सवाल उभरा था?
0 ये सवाल मेरे दिमाग में बहुत पहले आया था। मैंने शुरू में फिल्म स्कूल जाने की कोशिश की थी। हमेशा लेट हो गया मैं। हर जगह लेट हो जाता था। मैं जा नहीं पाया। लेकिन धीरे-धीरे जब फिल्म स्कूलवालों के साथ बैठना-उठना चालू किया, तो मुझे लगा कि फिल्म स्कूल आदमी को लिमिट कर देते हैं। मैंने अपने प्वाइंट ऑफ व्यू से यह सोच लिया था। जब मैंने डायरेक्ट करना शुरू किया तो उस समय लगता था कि काश किसी ने मुझे सिखाया होता। लेकिन करते-करते वह सब दिमाग से निकल गया। पहली चीज मेरे समझ में यही आई कि बतौर निर्देशक आपको अपने-आपको एक्सप्रेस करना है। पहले दिन मैं सीख गया कि सबसे बड़ा काम निर्देशक का ये है कि लोगों को मैनेज करना, और जो लोग अलग-अलग दिशा में सोचते हैं, उन सब की दिशा को मोड़ कर एक दिशा में लाना। सबसे बड़ा काम निर्देशक का वो मुझे पहले दिन समझ में आया। विजुअली या किसी एक चीज को जिस तरह देखते हो, मन में, मूड में, उसमें कोई गलत नहीं है, आप उसको एक्सप्रेस कितना कर पाते हो और कैमरा मैन कितना समझ पाता है। वो रिश्ता, वो रिलेशनशिप बहुत महत्वपूर्ण है। पहले दिन से ही मैंने कागज लेकर बैठना चालू किया। नटी को बोला ये फ्रेम है। उस फ्रेम में कुछ ठहरा हुआ दिखता था। फ्रेम में जब अपने माइंड में देखता हूं तो स्टैटिक देखता हूं। मूवमेंडट के साथ देखता ही नहीं। मेरा एक वो लिमिटेशन है। मूवमेंट जो आया वो नटी लेकर आया। मैं फ्रेम को हमेशा स्टैटिक देखता था। मूड में देखता था। मुझे लाइट दिखती थी। इस तरह की लाइट गिर रही है उसके चहरे पर। मुझे लगता था कि इस तरह का एक विजुअल होना चाहिए। मैं ढूंढता रहता था कि कहां पर कैमरा लगना चाहिए और मैं उसको बैठ कर स्केच करता था। मैं जो स्केच करता था, नटी वैसा लगाता था कैमरा। और नटी अपनी तरफ से मूवमेंट एड करता था। अनुराग मैं ऐसा कर रहा हूं, बोल कैसा है? और मुझे अच्छा लगता था। एक मेथड इवॉल्व हुआ। वासिक था, आरती थी… हमारी वो टीम है जो चलती आ रही है। तो हमलोगों का बेसिकली तीन या चार दिन का शूट था। फिर हमने कहा कि ये सब करना है। मेरे दिमाग में था कि अब ट्रेन के अंदर शूट करना है। सडक़ पर शूट करना है। कैसे करना है। फिर दिमाग काम करने लगा कि फिल्म ज्यादा इंपोर्टेंट है। फिल्म बनाने के लिए कुछ भी करना है। मेरा एक दोस्त था जो चैनल वी में काम करता था। चैनल वी में नया-नया डीवी कैमरा आया था। मैंने अपने दोस्त को रोल दिया। मैंने कहा तुमको रोल देता हूं। वो प्रोड्यूसर था चैनल वी में। मैंने कहा कि मुझे वह कैमरा चाहिए। रात को जब चैनल वी बंद होता था तो वह कैमरा उठाकर ले आता था। और डीवी कैमरा - मेरे दिमाग में डीवी कैमरा की यह समझ थी कि इसमें आप बिना लाइट के शूट कर सकते हो। आपको लाइट की जरूरत नहीं है। मैंने कहा कि अगर ऐसा कैमरा हाथ में आ जाए तो मैं ट्रेन में शूट कर सकता हूं। मैंने कहा ट्रेन में घूस कर शूट करूंगा। हम लोगों ने लास्ट ट्रेन पकड़ी और उसमें घुस कर के एक कंपाटमेंट हाईजैक किया। हमलोगों ने उसमें शूट किया। बैठे-बैठे यहां से विरार तक गए, विरार से बांद्रा तक की जर्नी में हमने ट्रेन का पूरा हिस्सा बिना लाइट के शूट किया। एडवांटेज मेरे साथ था कि एक कैमरा मैन ऐसा था जो रिस्क लेने को तैयार था। जिसके अंदर कीड़ा था। नटी का न्यूज रीडर बैकग्राउंड था। वो भी तैयार था एक्सपेरीमेंट करने को। हमलोग सब कुछ लगातार ऑन द स्पॉट करते रहे। यह सब करते-करते 'लास्ट ट्रेन टू महाकाली' खत्म होने और उसके टेलीकास्ट होने से पहले मैंने स्क्रिप्ट खतम कर दी 'पांच' की। तब उसका नाम 'मीराज' था। मैंने बीस पन्ने खतम किए, वो एक जर्नी अपने-आप हो गयी। चार दिन बैठा रहा। पांचवें दिन वो सीन दिमाग में आया किडनैपिंग वाला। और किडनैपिंग के बाद अपने-आप एक रास्ता पकड़ लिया। पांचवें दिन मैं सुबह बैठा शाम आठ बजे तक स्क्रिप्ट पूरी हो गयी। और ये नहीं था कि कुछ सोच कर बनाया था। एक दिशा में चली गई। उस समय जो स्क्रिप्ट थी उसमें पुलिस स्टेशन नहीं था। एक सीधी लीनियर कहानी इन लोगों की, जो खत्म होती थी ल्यूक के मर्डर से। स्क्रिप्ट लेकर जब मैंने लोगों सुनाना चालू किया, घूमना चालू किया… लोगों ने कहा कि कठोर अंत है, फिल्म नहीं बनेगी। उस समय फिल्म के फस्र्ट हाफ की वजह से फिल्म बनाने की इच्छा थी। ये था कि कहानी मेरी है। बनाने की इच्छा सिर्फ उसके लिए थी। अब मुझे डेस्परेशन आ गया था। उसी दौरान 'मिशन कश्मीर' का भी हादसा हुआ था। फिर 'वाटर' के लिए मैं चला गया। 'लास्ट ट्रेन टू महाकाली' एयर हो गया। बहुत तारीफ हुई उसकी। लोगों ने बात की । तारीफ भी उसी कारण से हुई, जिस कारण से बनाया था। लोगों ने कहा कि - क्या शूट करता है। कहानी लोगों को नहीं पसंद आई। कुछ नहीं, लोगों ने कहा कि क्या शूट करता है? मेरी ये जर्नी थी कि कभी इस स्टेज पर आऊंगा, जो कहानी कहनी है, वो कहानी भी कह सकूं। 'वाटर' रूक गई तो उस समय बहुत एंगर था , बहुत गुस्सा था। मैंने 'वाटर' लेकर जो प्रोटेस्ट हुआ था बनारस में, उस से फिल्म रूक गई थी, उसकी वजह से मेरे अंदर बहुत गुस्सा था। मैं लोगों से गुस्सा था, चीजों से गुस्सा था। उस समय मोहभंग हो गया था। विधु विनोद चोपड़ा से मोहभंग हो गया था, राम गोपाल वर्मा से मोहभंग हो गया था। 'वाटर' के पॉलिटिक्स से मेरा भ्रम टूटा था। अपने खुद के लोगों से मैं दुखी था। एक बात हमने तय की कि हमलोग प्रोटेस्ट करेंगे। हमने परचे बांटे। सबने एग्री किया। अगले दिन सब पलट गए। लोगों ने बोला कि आप कैसे बोल सकते हैं कि काशी में यह होता है। मैंने कहा कि शिल्पी थिएटर में ट्रिपल एक्स फिल्में मैंने देखी हैं। लोगों ने कहा कि झूठ बोल रहे हैं आप। मैंने कहा कि जो देखा है वह देखा है। सब मेरे खिलाफ हो गए। कहा गया कि तेरी वजह से फिल्म नहीं बनेगी। मुझे बंद कर दिया गया। शबाना आजमी से मेरा मोहभंग हो गया। यहां-वहां सब लोगों से मैं दुखी हो गया। मुझे लगा कि पिक्चर किसी को नहीं बनानी है, सब लोग खामखां हल्ला करना चाहते हैं। मेरे उपर अलग से नाराज थे सभी, क्योंकि कोई बोले नहीं अपने मन की बात। मैं जाकर बोल देता था। फिर क्या हुआ कि मीडिया वाले भी मुझे ढूंढने लग गए। सब लोग मुझे ढूंढने लगे। बहुत सालों के बाद मुझे धीरे-धीरे पता चला कि मैं एक माउथपीस बनता जा रहा था कि बाइट देना है तो बुलाओ। इसलिए मैं बचने लगा। इतना ज्यादा डिसइलूजन हो गया कि क्या कहूं? फिर मैंने कहा कि फिल्म बनाता हूं। मैंने 'शूल' में मनोज और रवीना के साथ काम किया था। जब 'पांच' की नींव गढ़ी गई तो उन दोनों को सुनाया था। मनोज को बोला था,ये करना है। कहानी सुनाई थी रवीना को और बोला था कि करना है। दोनों करने के लिए रेडी थे। 'शूल' में जब उधर से गया तो अचानक उन्हें लगने लगा कि मैं अभी काम का नहीं हूं। मनोज ने बोला कि 17 लाख रूपये चाहिए। रवीना बोला 17 लाख चाहिए। जामू जी तैयार थे फिल्म करने को। उन्होंने बोला कि 1 करोड़ 80 लाख के अंदर बना कर दो। बाद में जब फिल्म बनी तो 1 करोड़ 11 लाख में बनी थी। लेकिन 1 करोड़ 80 लाख में भी उस समय भारी लग रही थी। मैं इतना ज्यादा डिसइलूजन हो गया कि एक दिन गुस्से में मैंने तय किया कि मैं उनके साथ फिल्म बनाऊंगा, जिन्होंने कभी फिल्म नहीं की हो। हर नए आदमी के साथ फिल्म बनाऊंगा। जितने पैसे चालीस लाख-पचास लाख में फिल्म बनाऊंगा। और स्टार सिस्टम पर निर्भर नहीं रहूंगा। बड़े लोगों से दूर रहूंगा। मैंने अपने लिए नियम बनाया। सारे नियम गुस्से
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- आप तीन फिल्मों में बतौर लेखक जुड़े हुए थे। एक टेली फिल्म बना चुके थे। स्टार बेस्ट सेलर के रूप में। उसको बाद इनाम भी मिला था। ये सारी चीजें करने के बाद भी आपको फिल्म मेकिंग का कह लें नटस एंड बोल्टस या क्रिएटिव एनर्जी ऑफ फिल्मस है… स्क्रिप्ट के बाद की जो फिल्ममेकिंग है, क्योंकि कागज पर तो फिल्म लिखी या सोची जा सकती है। बनती है वो ऐसे ही मौकों से है। इसका ज्ञान तब तक नहीं था इस पर मुझे ताज्जुब हो रहा है। इस संबंध में आप थोड़ा बताएंगे क्या?
0 मैं एक चीज मानता हूं। आज जब मैं पीछे देखता हूं न? मैं बीच में बहुत परेशान रहा हूं। पहली बार यह परेशानी तब हुई थी, जब 'पांच' रूक गई थी। कुछ आठ महीने मैंने शराब ही शराब पिया। बहत्तर किलो छरहरा था मैं, जो मोटा होकर नब्बे किलो का हो गया था। तब से आज तक वह वजन गया नहीं है। अपनी आठ महीने की उस जर्नी रही में मैंने बहुत चीजें सोची थीं। आप सफल होते हैं तो माइथोलोजी क्रिएट हो जाती। अपनी फिल्म के लिए ही नहीं ,मैं 'वाटर' के लिए भी लड़ा था। जिस चीज पर मुझे फेथ था, उसके लिए लड़ा था। मुझे लगता था जो सच है उसके लिए लडऩा है। लोगों ने मुझे एक स्थान दे दिया था। ऐसी फिल्में लिखता है। 'सत्या' के बाद कुछ नहीं मिला था। 'शूल' के बाद, राम गोपाल वर्मा को छोडऩे के बाद, 'मिशन कश्मीर' छोडऩे और 'वाटर' के लिए लडऩे के बाद लोगों मुझे एक नाम दे दिया था। एक आदमी है, जो ऐसा बोलता है,साफ बोलता है। लेकिन मैं वो चीज नहीं ढूंढ रहा था। 'पांच' के बाद भी क्या हुआ? लड़ाई के बाद लोगों ने मुझे पेडेस्टल पर चढ़ा दिया । मैं किसी से नार्मल बात नहीं करता था। मैं कहीं भी जाऊं, लोग एक्सपेक्ट करते थे कि मेरे मुंह से अभी कुछ ज्ञान निकलेगा। किसी से बात करने बैठूं तो ज्ञान निकलेगा। और मैं उस तरह आदमी हूं, जो आज तक बकचोदी करता है। मैं बैठूंगा बरिस्ता पर, सिनेमा पर बातें करूंगा और दोस्तों को डीवीडी दिखा कर जलाऊंगा। सिनेमा के बारे में बात करूंगा। ऐसी बहसों से सीखने को मिलता है। मुझे आधी फिल्में प्रवेश भारद्वाज ने बतायी हैं। मेरी जर्नी अभी तक चल रही है। मैं धीरे-धीरे डिस्कवर कर रहा हूं। 'मिल विल' मैंने 2005 में डिस्कवर किया है। नयी फिल्में देखता हूं। नए फिल्ममेकर मुझे वापस रीसेट कर रहे हैं। मेरी जर्नी चलती रहती है। लेकिन लोगों ने मुझे एक अजीब से पेडेस्टल पर बैठा रखा है। मैं विचारों से प्रेरित होकर बहस करता हूं। है। ये फिल्म इस तरह से बननी चाहिए। मेरी बातों में एक तरह का आइडियलिज्म आ जाता है । लोगों ने जब मुझे पेडेस्टलपर चढ़ाया। मैंने हर चीज निर्दोष भाव से किया। मेरी यही ताकत रही। इसका भी मुझे मुझे बाद में एहसास हुआ। क्योंकि मुझे नहीं मालूम, अगर मुझे मालूम होता तो शायद मैं नहीं करता। क्योंकि मुझे नहीं मालूम था, इसलिए मैं कर गया। मुझे पहली बार वर्कशॉप पर बुलाया गया तो मेरा रिएक्शन था, मैं क्या बताऊंगा किसी को, मुझे खुद नहीं लिखना आता। उनको मेरी यह बात अच्छी लगी। मैं जब वर्कशॉप के लिए गया तो उन्होंने कहा कि आपका क्या प्रोसेस है। मैंने कहा कि 'सत्या' मैंने नहीं लिखी, 'सत्या' लिख दी गई। 'सत्या' बन गई। 'सत्या' बनी तो मैंने उसमें सीखा। मैंने अपनी गलतियां बताना चालू कीं। उसका रिएक्शन क्या हुआ कि लोगों को वह बात पसंद आई। लोगों ने कहा कि इस तरह से कोई बात नहीं करता है। लोग आकर हमको सिखाते हैं ऐसे करो, वैसे करो। एक ईमानदारी होती है निर्दोषिता में, नहीं जानने में और मैं एडमिट करता रहा कि मुझे नहीं आता था, ये हो गया था। सबको लगा कि मैं बहुत विनम्र हूं। मैं विनम्र नहीं था। मैं सच बोल रहा हूं। हां, उसका रिजल्ट आया। रिजल्ट तब आया, जब मैं एफटीआई में वर्कशॉप करने गया और मैंने बोला, यार राइटिंग-वाइटिंग कुछ नहीं फिल्म देखते हैं साथ में। मैंने तीस फिल्में देखी साथ में। मैंने कहा लिखो, राइटिंग का प्रोसेस यही है, बस लिखते रहो। पहले जानो कि तुम क्या कहना चाह रहे हो। क्या कहानी है, कहानी के माध्यम से कहो। मैं बैठता था और कहता था कि लिख-लिख के दिखाओ। लिखते थे फिर बोलते थे, इसमें ऐसा कुछ हो सकता है? तो आयडिया लेवल पर वर्कशॉप की मैंने। अ'छा ये सीन ऐसा करें तो कैसा होगा? ऐसा करें तो कैसा होगा? उसका रिजल्ट यह हुआ कि उस वर्कशॉप में 17 स्क्रिप्ट सबमिट हुई। उसके पहले जो राइटिंग वकशॉप हर साल होती है, उसमें दो ही स्क्रिप्ट सबमिडट होती थी। मैंने दो का रिकार्ड 15 स्क्रिप्ट से तोड़ा था। हर आदमी ने स्क्रिप्ट लिखी थी। सोलह स्टूडेंट थे, एक ने दो स्क्रिप्ट लिख दी थी। मैं आधे लोगों से मिलता हूं, उन्होंने ना 'पांच' देखी है और ना 'ब्लैक फ्राइडे' देखी है। और वो मुझसे मिलना चाहते हैं। प्रोड्यूसर से मिलता हू तो वे
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- पांच पर वापस आते हैं।?
0 'पांच' बनाने के बाद मैंने ये सब महसूस किया। मुझे मालूम था कि मैं क्या कर रहा हूं। मुझे सिर्फ इतना मालूम था कि मैं क्या कर रहा हूं। ना मैं किसी ग्रेटनेस के लिए कर रहा था। ना कुछ और साबित कर रहा था 'पांच' से। मेरे सामने रोड़े आते गए और कहीं न कहीं होता है न कि आपके सामने दीवार आ गयी और दीवार तोडऩे में आपकी पर्सनालिटी थोड़ी बदल गयी। फिर दीवार आई, आज तक दीवार तोड़ रहा हूं। स्कूल से जो मेरा जर्नी चालू हुआ, वह अभी खम्त नहीं हुआ है। मेरा आत्माराम शर्मा आज भी है। या तो वह सेंसर बोर्ड के रूप में है या वह आत्माराम शर्मा सुप्रीम कोर्ट के रूप में है। और वही आत्माराम शर्मा 'पांच' बनाते समय इस रूप में था कि सीन कैसे शूट करूं? 'पांच' में जो मैंने पहला सीन शूट किया, उसे आज भी कोई फिल्ममेकर देख कर बता सकता है कि ये पहला है। क्योंकि वह इकलौता सीन है, जिसमें समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं? तो मैंने सबकुछ शूट किया। हर एंगल से शूट किया। हर कैरेक्टर के क्लोजअप भी लिए। दोनों एक्सेस से भी शूट किया, जो किडनैपिंग का प्लान हो रहा है। तो उसमें एक्सेस भी जम्प हो रहा है। उसमें पचास चीजें हो रही हैं। धीरे-धीरे जब वह सीन एंड हो रहा है, उसे एक फिल्ममेकर समझ सकता है। पहले दिन और पहले सीन में मेरी समझ में आ गया कि पिक्चर कैसे बननी चाहिए। सीन का आरंभ अनगढ़ है। और सीन खत्म होते-होते एक रीदम आ गया उसमें। वहां से मेरी जर्नी शुरू हो गई। मेरे सामने जब चैलेंज आता है तो मैं ज्यादा अच्छा काम करता हूं। शिवम नायर भी बोलते हैं कि लास्ट मिनट क्राइसिस होता है न कि दो दिन में स्क्रिप्ट चाहिए तो तू लिखता है। तेरे को दो साल दे दें तो तू कुछ भी नहीं लिखेगा। मैं अपने-आप को लगातार प्रेशर में रखता हूं। शूटिंग करने की जगह पर व्यावहारिक समस्याएं रहती हैं। लाइट कहां लगाएं? इतनी पुरानी बिल्डिंग है। आप बाहर लाइट लगा नहीं सकते। छज्जा गिर जाएगा। सेंटर में लाइट ले लो। क्योंकि समस्याएं थी, लाइट और कहीं लग नहीं सकती थी। सेंटर में लगी तो टॉप लाइट हो गयी। टॉप लाइट डिसाइड कर के नहीं गया था। उससे एक अलग मूड क्रिएट हुआ। बहुत ज्यादा ब्राइट हो गया। मुझे लगा ज्यादा ब्राइट है। मैंने कहा नटी बहुत रोशनी है। उसने पूछा कि कितनी चाहिए। मैंने कहा कि विजुअली स्क्रीन पर इतना दिखना चाहिए। तू कितनी इस्तेमाल करता है, वह तेरे ऊपर। उस तरह से अपने प्रोसेस इवॉल्व किया। फिल्म स्टॉक से पहली बार डील कर रहा था। बार-बार नटी डांटता था। मैं जिद्द करता था कि 'लास्ट ट्रेन टू महाकाली' में तो हो गया था। नटी समझाता था, बाबा ये फिल्म स्टॉक है। ये सब फर्क मुझे नहीं मालूम था। नटी संभावना बतलाता था और मैं प्रयोग करने घुस जाता था। लाइटिंग में हमलोगों ने कई प्रयोग किए। उस तरह से एक प्रोसेस इवॉल्व होता रहा और मैं सीखता रहा। हमलोग क्लाइमेक्स शूट कर रहे थे। किसी को स्विमिंग नहीं आती थी। मैंने कहा कि चलो मैं सिखाता हूं। अठारह घंटों तक मैं सभी को पुल में सबको स्विमिंग सिखा रहा हूं। आप यहां से यहां तक का शॉट दे दो, बाकी मैं मैनेज कर लूंगा। फिर केके डाइव नहीं कर रहा था। वह फिल्म का ऑपनिंग शॉट था। कैसे करूं? मैंने कहा सेट पर आओ, शॉट इवॉल्व हुए और मजबूरी में हमने प्रयोग किया। मैंने केके को कहा कि आप जरा सा झुकना। फिर कैमरा आपसे दूर चला जाएगा और मैं डाइव करूंगा। मैं आपके पीछे रेडी खड़ा हूं। कैमरा आया वहां। मैंने डाइव किया। मैं तो डाइव कर रहा हूं। मैं डुप्लीकेट हूं। किसी को नहीं मालूम कि मैं क्या शूट कर रहा हूं। मैंने अंडरवाटर कभी शूट नहीं किया। हर चीज को क्रॉस चेक भी कर रहा हूं। करते-करते हमलोगों ने कुल अड़तीस घंटे शूट किया। जॉय का भी प्रोब्लम था। उसने कहा कि मैं बहुत मोटा हूं, मैं शर्ट नहीं उतार सकता। तो मैं खुद जॉय की शर्ट पहन कर कैमरे के सामने चला गया। हमारे पास इतना वक्त नहीं था कि वहां क्लाइमेक्स शूट कर लें। क्लाइमेक्स पर जब हमलोग पहुंचे तो बीच पर गए। वहां पानी उतरते-उतरते तीन बजा। मुझे वही लोकेशन चाहिए था। बैकग्राऊंड में फोर्ट दिख रहा था। मुझे लोकेशन की समझ है। मुझे मालूम है कि यहां शूट करूंगा तो अच्छा दिखेगा। मैंने वह लोकेशन फोर्ट के लिए ही चुना था। पानी उतरेगा नहीं तो हमलोग लाइट आगे कैसे लाएंगे। लाइट आगे नहीं लाऐंगे तो फोर्ट दिखेगा नहीं। फोर्ट पर लाइट पडऩी चाहिए। तीन बजे के बाद थोड़ा सा पानी उतरा। पांच बजे सुबह के पहले खत्म करना था, क्योंकि उसके बाद की अनुमति नहीं है। दो घंटे में ही सब करना है। नटी ने कहा, बाबा अभी टाइम नहीं है। उसने छह एच एम आई खड़ा कर के लाइट मार दिया। वहां मेरा एक दोस्त विक्रम मोटवानी पोलराइड कैमरा लेकर आया था। उसले फोटो खींच कर दिखाया। ये देख मस्त फोटो आया। फोटो कैसा? बैकग्राउंड में छह लाइट है और लाइट पीछे आ रही पीठ पर, सामने तो आ नहीं रही है। मैंने पाया कि इधर से तो चेहरा दिखता ही नहीं है। मैंने कहा कि मैं ऐसे ही शूट करूंगा इसमें आधा चेहरा दिखे आधा न दिखे तो मैजिक हो जाएगा। नटी बोला चल शूट करते हैं। हो जाएगा सीन। उसके पहले हमलोग क्या-क्या ट्राय कर चुके थे। मैंने कहा कि बारह फ्रेम पर शूट करते हैं। बारह फ्रेम पर शूट करने का मतलब है कि थो
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(बहुत मुश्किल से यह अपलोड हो पाया है.)
Comments
मन तो हो रहा है एक बैठक में ही पढ़ जाने को... मगर साक्षात्कार लंबा बहुत है। रस भी बहुत है... शब्दों के बीच भी कहानियां हैं... जो एक बार में अधुरी रह जायेंगी। किश्तों में पढ़ूंगा... जरूर पढ़ूंगा... खुद से वादा है। आठ साल से बम्बई में हूं, तब अनुराग के बारे सुनता आ रहा हूं... कहानियां लिखते-लिखते खुद भी तो कहानी बन गया है अनुराग।
नीरज
Satya bahut achchhi film thi...yani bahut maza aaya tha dekh kar... pahla scene abhi tak jeevant hai!
मुझे खुशी है कि आप सोनभद्र (उप्र)से हैं। काफी कुछ जानना चाहता हूँ आपके बारे में! यदि संभव हो/ यदि हमारी यह बात आप तक पहुँचे, तो एक और इंटरव्यू के लिए सम्पर्क साधें,प्लीज़!
interview janna chaye.mai cinema pe research ker rahi hu aur chati hu ki anuraag sir se in sabhi vishyo per vistaar se baat ki jaye.ummid hai is comment ke bad interview kerta is disha me koi thosh kadam uthyege.
smriti suman
research scholar (cinema)
political science department
university of delhi
साक्षात्कार पढ़ते हुए कब रात बीत गयी, रोचकता में पता ही न चला,
साधुवाद स्वीकारें!
इस प्रकार के साक्षात्कार न केवल मेरे लिए, बल्कि प्रत्येक सिने-शोधार्थी एवं सिने-समीक्षक के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे....
भविष्य में और भी साक्षात्कार पढ़ने को मिलेंगे, ऐसी आशा और अपेक्षा करता हूँ,
कृपया, संपूर्ण साक्षात्कार को पुस्तक रूप में प्रकाशित करने वाले प्रकाशक का पता संपर्क-सूत्र के साथ प्रदान करें, ताकि पुस्तक सबके लिए सुलभ हो सके...
आभार...
(2) राज्य:
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(4) शहर:
(5) सेक्स:
(6) वैवाहिक स्थिति:
(7) काम:
(8) मोबाइल फोन नंबर:
(9) मासिक आय:
(10) ऋण राशि की आवश्यकता:
(11) ऋण की अवधि:
(12) ऋण उद्देश्य:
हम तुम से जल्द सुनवाई के लिए तत्पर हैं के रूप में अपनी समझ के लिए धन्यवाद।
ई-मेल: jenniferdawsonloanfirm20@gmail.com
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Journey continues...
Niraashaajanak Sangeet Jaari Hai...