फ़िल्म समीक्षा:द्रोण
४०० वीं पोस्ट
बड़े पर्दे पर तिलिस्म
-अजय ब्रह्मात्मज
स्पेशल इफेक्ट और एक्शन की चर्चा के कारण द्रोण को अलग नजरिए से देखने जा रहे दर्शकों को निराशा होगी। यह शुद्ध भारतीय कथा परंपरा की फिल्म है, जिसे निर्माता-निर्देशक सही तरीके से पेश नहीं कर सके। यह न तो सुपरहीरो फिल्म है और न ही इसे भारत की मैट्रिक्स कहना उचित होगा।
यह ऐयारी और तिलिस्म परंपरा की कहानी है, जो अधिकांश हिंदी दर्शकों के मानस में है। दूरदर्शन पर प्रसारित हो चुके चंद्रकांता की लोकप्रियता से जाहिर है कि दर्शक ऐसे विषय में रुचि लेते हैं। शायद निर्देशक गोल्डी बहल को भारतीय परंपरा के तिलिस्मी उपन्यासों की जानकारी नहीं है। यह एक तिलिस्मी कहानी है, जिसे व्यर्थ ही आधुनिक परिवेश देने की कोशिश की गई।
द्रोण एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके कंधे पर सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक विश्व को सर्वनाश से बचाने की जिम्मेदारी है। उसका नाम आदित्य है। वह राजस्थान के राजघराने की संतान है। उसकी मदद सोनिया करती है, क्योंकि सोनिया के परिवार पर द्रोण को बचाने की जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की भूमिका में आते ही दोनों वर्तमान से एक तिलिस्मी दुनिया में चले जाते हैं। वहां उन्हें असुरों के समकालीन वंशज रिज रायजदा से मुकाबला करना है और उसके इरादों को नाकामयाब करना है।
हालीवुड में ऐसी फिल्में आ रही हैं। उन्होंने मनोरंजन की यह नई विधा खोज ली है। तकनीक और स्पेशल इफेक्ट से वे आकर्षक और प्रभावशाली फिल्में बना रहे हैं। द्रोण निश्चित ही भारत में नई कोशिश है। लेकिन, यहां प्रचलित फार्मूले के दर्शकों को इस फिल्म से तालमेल बिठाने में दिक्कत हो सकती है।
फिल्म में जया बच्चन का रोल छोटा है लेकिन उनकी मौजूदगी से मां-बेटे का रिश्ता स्थापित करने में निर्देशक को समय और दृश्य नहीं खर्च करने पड़ते। कह सकते हैं कि गोल्डी ने उनका सटीक उपयोग किया है। अभिषेक बच्चन के लिए ही यह फिल्म लिखी और बनाई गई है। उनके किरदार से निर्देशक का लगाव साफ दिखता है। अभिषेक ने किरदार के अनुरूप मेहनत की है। अंगरक्षक की भूमिका में प्रियंका चोपड़ा आकर्षक लगी हैं। उन्होंने अपने किरदार को पूरी ऊर्जा से निभाया है। रिज रायजदा की भूमिका के के मेनन के लिए आसान नहीं रही होगी। कई फिल्मों के बाद वे कुछ अलग करते दिखे।
द्रोण का सबसे कमजोर पक्ष इसका गीत-संगीत है। संगीतकार ध्रुव घनेकर ने निराश किया है। गीत के बोल भी याद नहीं रहते। संवादों में भी अधिक दम नहीं है। समझ में नहीं आया कि फिल्म के एक दृश्य में संस्कृत में लिखी पंक्तियां प्रियंका चोपड़ा हिंदी में क्यों पढ़ती हैं?
यह ऐयारी और तिलिस्म परंपरा की कहानी है, जो अधिकांश हिंदी दर्शकों के मानस में है। दूरदर्शन पर प्रसारित हो चुके चंद्रकांता की लोकप्रियता से जाहिर है कि दर्शक ऐसे विषय में रुचि लेते हैं। शायद निर्देशक गोल्डी बहल को भारतीय परंपरा के तिलिस्मी उपन्यासों की जानकारी नहीं है। यह एक तिलिस्मी कहानी है, जिसे व्यर्थ ही आधुनिक परिवेश देने की कोशिश की गई।
द्रोण एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके कंधे पर सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक विश्व को सर्वनाश से बचाने की जिम्मेदारी है। उसका नाम आदित्य है। वह राजस्थान के राजघराने की संतान है। उसकी मदद सोनिया करती है, क्योंकि सोनिया के परिवार पर द्रोण को बचाने की जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की भूमिका में आते ही दोनों वर्तमान से एक तिलिस्मी दुनिया में चले जाते हैं। वहां उन्हें असुरों के समकालीन वंशज रिज रायजदा से मुकाबला करना है और उसके इरादों को नाकामयाब करना है।
हालीवुड में ऐसी फिल्में आ रही हैं। उन्होंने मनोरंजन की यह नई विधा खोज ली है। तकनीक और स्पेशल इफेक्ट से वे आकर्षक और प्रभावशाली फिल्में बना रहे हैं। द्रोण निश्चित ही भारत में नई कोशिश है। लेकिन, यहां प्रचलित फार्मूले के दर्शकों को इस फिल्म से तालमेल बिठाने में दिक्कत हो सकती है।
फिल्म में जया बच्चन का रोल छोटा है लेकिन उनकी मौजूदगी से मां-बेटे का रिश्ता स्थापित करने में निर्देशक को समय और दृश्य नहीं खर्च करने पड़ते। कह सकते हैं कि गोल्डी ने उनका सटीक उपयोग किया है। अभिषेक बच्चन के लिए ही यह फिल्म लिखी और बनाई गई है। उनके किरदार से निर्देशक का लगाव साफ दिखता है। अभिषेक ने किरदार के अनुरूप मेहनत की है। अंगरक्षक की भूमिका में प्रियंका चोपड़ा आकर्षक लगी हैं। उन्होंने अपने किरदार को पूरी ऊर्जा से निभाया है। रिज रायजदा की भूमिका के के मेनन के लिए आसान नहीं रही होगी। कई फिल्मों के बाद वे कुछ अलग करते दिखे।
द्रोण का सबसे कमजोर पक्ष इसका गीत-संगीत है। संगीतकार ध्रुव घनेकर ने निराश किया है। गीत के बोल भी याद नहीं रहते। संवादों में भी अधिक दम नहीं है। समझ में नहीं आया कि फिल्म के एक दृश्य में संस्कृत में लिखी पंक्तियां प्रियंका चोपड़ा हिंदी में क्यों पढ़ती हैं?
Comments
आपके रीव्यू एकदम खरे-खरे होते हैं. बहुत सी फ़िल्मों को देखने व न देखने का विचार आपके रिव्यू से ही लेता हूं, और आमतौर पर उन्हें सही ही पाता हूं.
समीक्षा पढ़ी-अब सोचना पड़ेगा कि देखे कि नहीं.