फ़िल्म समीक्षा: हैलो
दर्शकों को बांधने में विफल
-अजय ब्रह्मात्मज
दावा है कि वन नाइट एट काल सेंटर को एक करोड़ से अधिक पाठकों ने पढ़ा होगा। निश्चित ही यह हाल-फिलहाल में प्रकाशित सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास रहा है। इसी उपन्यास पर अतुल अग्निहोत्री ने हैलो बनाई है। इस फिल्म के लेखन में मूल उपन्यास के लेखक चेतन भगत शामिल रहे हैं, इसलिए वे शिकायत भी नहीं कर सकते कि निर्देशक ने उनकी कहानी का सत्यानाश कर दिया। फिल्म लगभग उपन्यास की घटनाओं तक ही सीमित है, फिर भी यह दर्शकों को उपन्यास की तरह बांधे नहीं रखती।
अतुल अग्निहोत्री किरदारों के उपयुक्त कलाकार नहीं चुन पाए। सोहेल खान की चुहलबाजी उनके हर किरदार की गंभीरता को खत्म कर देती है। हैलो में भी यही हुआ। शरमन जोशी पिछले दिनों फार्म में दिख रहे थे। इस फिल्म में या तो उनका दिल नहीं लगा या वे किरदार को समझ नहीं पाए। अभिनेत्रियों के चुनाव और उनकी स्टाइलिंग में समस्या रही। गुल पनाग, ईशा कोप्पिकर और अमृता अरोड़ा तीनों से ही कुछ दृश्यों के बाद ऊब लगने लगती है। उनकेलिबास पर ध्यान नहीं दिया गया। ले-देकर दिलीप ताहिल और शरत सक्सेना ही थोड़ी रुचि बनाए रखते हैं। जाहिर सी बात है कि दो प्रौढ़ कलाकार किसी फिल्म से दर्शकों को जोड़े नहीं रख सकते। इस फिल्म की समस्या यह है कि एक ही आफिस में सारे किरदारों को दिखाना है। लोकेशन की सीमाबद्धता के कारण निश्चित ही निर्देशक फिल्म को दृश्यात्मक तरीके से बहुत आकर्षक नहीं बना पाता। यहां उसकी कल्पनाशीलता की परीक्षा होती है। पढ़ते समय हम शब्दों में उलझे रहते हैं लेकिन देखते समय नाटकीयता और विविधता आवश्यक हो जाती है। बार-बार वही दीवारें, मेज, पैसेज और एक ही वेशभूषा में किरदार दिखते हैं। ऐसे में फ्लैशबैक और दृश्यांतरण बहुत जरूरी हो जाता है। निर्देशक अतुल अग्निहोत्री इस लिहाज से चूक गए हैं। उपन्यास का क्लाइमेक्स बेहद रोमांचक है। फिल्म में इसे और भी रोमांचक बनाया जा सकता था लेकिन निर्देशक ने किसी हड़बड़ी या मजबूरी में उस दृश्य को जल्दी समेट दिया। सलमान खान और कैटरीना कैफ की मौजूदगी भी फिल्म को रोचक नहीं बना पाती।
-अजय ब्रह्मात्मज
दावा है कि वन नाइट एट काल सेंटर को एक करोड़ से अधिक पाठकों ने पढ़ा होगा। निश्चित ही यह हाल-फिलहाल में प्रकाशित सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास रहा है। इसी उपन्यास पर अतुल अग्निहोत्री ने हैलो बनाई है। इस फिल्म के लेखन में मूल उपन्यास के लेखक चेतन भगत शामिल रहे हैं, इसलिए वे शिकायत भी नहीं कर सकते कि निर्देशक ने उनकी कहानी का सत्यानाश कर दिया। फिल्म लगभग उपन्यास की घटनाओं तक ही सीमित है, फिर भी यह दर्शकों को उपन्यास की तरह बांधे नहीं रखती।
अतुल अग्निहोत्री किरदारों के उपयुक्त कलाकार नहीं चुन पाए। सोहेल खान की चुहलबाजी उनके हर किरदार की गंभीरता को खत्म कर देती है। हैलो में भी यही हुआ। शरमन जोशी पिछले दिनों फार्म में दिख रहे थे। इस फिल्म में या तो उनका दिल नहीं लगा या वे किरदार को समझ नहीं पाए। अभिनेत्रियों के चुनाव और उनकी स्टाइलिंग में समस्या रही। गुल पनाग, ईशा कोप्पिकर और अमृता अरोड़ा तीनों से ही कुछ दृश्यों के बाद ऊब लगने लगती है। उनकेलिबास पर ध्यान नहीं दिया गया। ले-देकर दिलीप ताहिल और शरत सक्सेना ही थोड़ी रुचि बनाए रखते हैं। जाहिर सी बात है कि दो प्रौढ़ कलाकार किसी फिल्म से दर्शकों को जोड़े नहीं रख सकते। इस फिल्म की समस्या यह है कि एक ही आफिस में सारे किरदारों को दिखाना है। लोकेशन की सीमाबद्धता के कारण निश्चित ही निर्देशक फिल्म को दृश्यात्मक तरीके से बहुत आकर्षक नहीं बना पाता। यहां उसकी कल्पनाशीलता की परीक्षा होती है। पढ़ते समय हम शब्दों में उलझे रहते हैं लेकिन देखते समय नाटकीयता और विविधता आवश्यक हो जाती है। बार-बार वही दीवारें, मेज, पैसेज और एक ही वेशभूषा में किरदार दिखते हैं। ऐसे में फ्लैशबैक और दृश्यांतरण बहुत जरूरी हो जाता है। निर्देशक अतुल अग्निहोत्री इस लिहाज से चूक गए हैं। उपन्यास का क्लाइमेक्स बेहद रोमांचक है। फिल्म में इसे और भी रोमांचक बनाया जा सकता था लेकिन निर्देशक ने किसी हड़बड़ी या मजबूरी में उस दृश्य को जल्दी समेट दिया। सलमान खान और कैटरीना कैफ की मौजूदगी भी फिल्म को रोचक नहीं बना पाती।
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