लोगों को 'एक विवाह ऐसा भी' वास्तविक लगेगी-कौशिक घटक
राजश्री की फिल्म एक विवाह ऐसा भी के निर्देशक हैं कौशिक घटक। उन्होंने अनुराग बसु के सहायक के रूप में निर्देशन यात्रा आरंभ की। उनकी तरह ही कौशिक ने भी पहले टीवी सीरियलों का निर्देशन किया। उन्हें जब एक विवाह ऐसा भी के निर्देशन की जिम्मेदारी दी गई, तब वे राजश्री के ही एक सीरियल का निर्देशन कर रहे थे। बातचीत कौशिक घटक से..
सबसे पहले यह बताएं कि फिल्म के नाम में ऐसा भी लगाने की क्या वजह है? क्या आप किसी नए प्रकार के विवाह की बात कर रहे हैं?
देश में हर समुदाय और समाज में विवाह की अपनी-अपनी पद्धतियां होती हैं। हम इसमें एक खास किस्म के रिश्ते की बात कर रहे हैं, जो बाद में विवाह में बदलता है। न मिलने की कसमें, न साथ का वादा, न कोई बंधन.., बंधन तो है ही नहीं! हम इस प्रकार के एक विवाह की बात कर रहे हैं। इसमें लिव इन रिलेशनशिप भी नहीं है। यह लड़का-लड़की की एक कहानी है, जिनकी जिंदगी में ऐसा कुछ होता है कि वे साथ नहीं हो पाते। एक-दूसरे को छूना तो दूर, उनकी नजरें तक नहीं मिलती हैं। शारीरिक संबंध का तो सवाल ही नहीं उठता! इस रिश्ते में वे बारह सालों तक रहते हैं। उस रिश्ते की गहराई को व्यक्त करने के लिए ऐसा भी इस्तेमाल किया गया है।
पहली फिल्म के रूप में आपने ऐसी फिल्म क्यों स्वीकार की और क्या अभी के माहौल में दर्शक इस कहानी को स्वीकारेंगे? दरअसल, मैं इस तरह की कहानी और पृष्ठभूमि में ही पला-बढ़ा हूं। मैं अपनी फिल्म में किरदारों को बहुत अच्छी तरह जानता हूं। इन किरदारों के सुख-दुख को मैंने जिया है। यह कहानी उन गलियों की है, जिन गलियों से मेरी जिंदगी का सफर शुरू हुआ। इस कहानी के आंगन में मैं खेल चुका हूं। इस कहानी के साथ अपने निजी संबंधों के कारण ही पहली फिल्म के रूप में मैंने इसे स्वीकार किया। दर्शकों के बीच एक समूह ऐसा भी है, जो कि इस तरह की फिल्में चाहता है। पारिवारिक मूल्यों की फिल्मों को पसंद करता है। आप महानगरों की सीमाओं से बाहर निकलें, तो ऐसे दर्शक जरूर मिलेंगे और मैंने तो महानगरों में भी ऐसे दर्शक देखे हैं। चूंकि उन्हें अपनी पसंद की फिल्में नहीं मिलतीं, इसलिए वे मन मारकर रह जाते हैं। एक विवाह ऐसा भी उन दर्शकों की जरूरत पूरी करेगी। इसमें जिन भावनाओं की बात है, वे दर्शकों को छूएंगी।
आपकी फिल्म की पृष्ठभूमि भोपाल की है?
बिल्कुल, लेकिन यह सभी शहरों के दर्शकों की है! इसीलिए उन्हें भोपाल से अपनापन महसूस होगा। पहले प्रेम की गुदगुदी और उसे व्यक्त न कर पाने की छटपटाहट एक जैसी होती है। आप भले ही आज के क्षणभंगुर रिश्तों को जी रहे हों, लेकिन जब प्यार जागता है, तो आप ठहर जाते हैं। महानगरों में प्यार की तलाश में ही रिश्ते बदलते रहते हैं। यहां समय की कमी, दूसरी जरूरतें और मन की बेचैनी से रिश्तों को पनपने में समय लगता है। वैसे भी छोटे शहरों, कस्बों और गांव में यह प्यार थोड़े अलग अंदाज में नजर आता है। माना जा रहा है कि इन दिनों किशोरावस्था में ही शारीरिक संबंध बन जाते हैं। इस माहौल में बारह सालों का इंतजार कितना वास्तविक लगेगा? आप शहरी किशोरों की बातें कर रहे हैं। देश की अस्सी प्रतिशत आबादी शहरों के बाहर रहती है। वहां आज भी शादी के पहले लड़के-लड़कियों के बीच शारीरिक संबंध नहीं बन पाते। उन सभी को मेरी फिल्म वास्तविक लगेगी और महानगरों के दर्शक अपने ही देश में प्रचलित रिश्तों की अलग स्थिति से परिचित होंगे। वे प्यार की भावनाओं को समझेंगे।
राजश्री के साथ मिले इस अवसर पर अपनी खुशी किस रूप में जाहिर करेंगे?
राजश्री से अच्छा मंच क्या हो सकता था? सिर्फ इसलिए ऐसा नहीं कह रहा हूं कि राजश्री बड़ा प्रोडक्शन हाउस है। मैं उन्हीं मूल्यों में विश्वास करता हूं, जो राजश्री के हैं। मुझे यहां काम करने के लिए अपने आप को किसी भी रूप में बदलना नहीं पड़ा। यहां के लोगों से पूरा सहयोग और मार्गदर्शन मिला।
भोपाल में शूटिंग का अनुभव कैसा रहा?
आम धारणा है कि इन शहरों में शूटिंग देखने आई भीड़ काम में बाधा डालती है। मेरा अनुभव इसके विपरीत रहा। फिल्मी कलाकारों को देखने की इच्छा स्वाभाविक है। भीड़ होती थी, लेकिन जब हम उनसे आग्रह करते थे कि थोड़ा पीछे हट जाएं, तो वे सहयोग करते थे। हमने वहां गली, बाजार, बस वगैरह यानी हर जगह शूटिंग की। वहां के लोग बहुत प्यारे हैं। हमें भी शुरू में घबराहट थी, लेकिन कहीं पुलिस बुलाने की जरूरत नहीं पड़ी। हां, ठंड की वजह से थोड़ी दिक्कत जरूर हुई, लेकिन उसमें भोपाल के लोगों का कोई दोष नहीं है।
खल्लास गर्ल यानी ईशा कोप्पिकर को चांदनी बनाने में कितना वक्त लगा?
कोई वक्त नहीं लगा। मानसिक रूप से मैं तैयार था कि चांदनी में ढलने में ईशा को थोड़ा समय लग सकता है। यकीन मानिए, कहानी सुनने के बाद से ही ईशा ने चांदनी की तैयारी शुरू कर दी थी। उन्होंने जिस तरह से फिल्म के बारे में जिज्ञासाएं रखीं, उससे लगा कि मुझे पूरी सहूलियत मिलेगी। मैं प्रेम के बारे में भी यही कहूंगा। सोनू सूद ने इस किरदार को सही तरीके से निभाया है।
सबसे पहले यह बताएं कि फिल्म के नाम में ऐसा भी लगाने की क्या वजह है? क्या आप किसी नए प्रकार के विवाह की बात कर रहे हैं?
देश में हर समुदाय और समाज में विवाह की अपनी-अपनी पद्धतियां होती हैं। हम इसमें एक खास किस्म के रिश्ते की बात कर रहे हैं, जो बाद में विवाह में बदलता है। न मिलने की कसमें, न साथ का वादा, न कोई बंधन.., बंधन तो है ही नहीं! हम इस प्रकार के एक विवाह की बात कर रहे हैं। इसमें लिव इन रिलेशनशिप भी नहीं है। यह लड़का-लड़की की एक कहानी है, जिनकी जिंदगी में ऐसा कुछ होता है कि वे साथ नहीं हो पाते। एक-दूसरे को छूना तो दूर, उनकी नजरें तक नहीं मिलती हैं। शारीरिक संबंध का तो सवाल ही नहीं उठता! इस रिश्ते में वे बारह सालों तक रहते हैं। उस रिश्ते की गहराई को व्यक्त करने के लिए ऐसा भी इस्तेमाल किया गया है।
पहली फिल्म के रूप में आपने ऐसी फिल्म क्यों स्वीकार की और क्या अभी के माहौल में दर्शक इस कहानी को स्वीकारेंगे? दरअसल, मैं इस तरह की कहानी और पृष्ठभूमि में ही पला-बढ़ा हूं। मैं अपनी फिल्म में किरदारों को बहुत अच्छी तरह जानता हूं। इन किरदारों के सुख-दुख को मैंने जिया है। यह कहानी उन गलियों की है, जिन गलियों से मेरी जिंदगी का सफर शुरू हुआ। इस कहानी के आंगन में मैं खेल चुका हूं। इस कहानी के साथ अपने निजी संबंधों के कारण ही पहली फिल्म के रूप में मैंने इसे स्वीकार किया। दर्शकों के बीच एक समूह ऐसा भी है, जो कि इस तरह की फिल्में चाहता है। पारिवारिक मूल्यों की फिल्मों को पसंद करता है। आप महानगरों की सीमाओं से बाहर निकलें, तो ऐसे दर्शक जरूर मिलेंगे और मैंने तो महानगरों में भी ऐसे दर्शक देखे हैं। चूंकि उन्हें अपनी पसंद की फिल्में नहीं मिलतीं, इसलिए वे मन मारकर रह जाते हैं। एक विवाह ऐसा भी उन दर्शकों की जरूरत पूरी करेगी। इसमें जिन भावनाओं की बात है, वे दर्शकों को छूएंगी।
आपकी फिल्म की पृष्ठभूमि भोपाल की है?
बिल्कुल, लेकिन यह सभी शहरों के दर्शकों की है! इसीलिए उन्हें भोपाल से अपनापन महसूस होगा। पहले प्रेम की गुदगुदी और उसे व्यक्त न कर पाने की छटपटाहट एक जैसी होती है। आप भले ही आज के क्षणभंगुर रिश्तों को जी रहे हों, लेकिन जब प्यार जागता है, तो आप ठहर जाते हैं। महानगरों में प्यार की तलाश में ही रिश्ते बदलते रहते हैं। यहां समय की कमी, दूसरी जरूरतें और मन की बेचैनी से रिश्तों को पनपने में समय लगता है। वैसे भी छोटे शहरों, कस्बों और गांव में यह प्यार थोड़े अलग अंदाज में नजर आता है। माना जा रहा है कि इन दिनों किशोरावस्था में ही शारीरिक संबंध बन जाते हैं। इस माहौल में बारह सालों का इंतजार कितना वास्तविक लगेगा? आप शहरी किशोरों की बातें कर रहे हैं। देश की अस्सी प्रतिशत आबादी शहरों के बाहर रहती है। वहां आज भी शादी के पहले लड़के-लड़कियों के बीच शारीरिक संबंध नहीं बन पाते। उन सभी को मेरी फिल्म वास्तविक लगेगी और महानगरों के दर्शक अपने ही देश में प्रचलित रिश्तों की अलग स्थिति से परिचित होंगे। वे प्यार की भावनाओं को समझेंगे।
राजश्री के साथ मिले इस अवसर पर अपनी खुशी किस रूप में जाहिर करेंगे?
राजश्री से अच्छा मंच क्या हो सकता था? सिर्फ इसलिए ऐसा नहीं कह रहा हूं कि राजश्री बड़ा प्रोडक्शन हाउस है। मैं उन्हीं मूल्यों में विश्वास करता हूं, जो राजश्री के हैं। मुझे यहां काम करने के लिए अपने आप को किसी भी रूप में बदलना नहीं पड़ा। यहां के लोगों से पूरा सहयोग और मार्गदर्शन मिला।
भोपाल में शूटिंग का अनुभव कैसा रहा?
आम धारणा है कि इन शहरों में शूटिंग देखने आई भीड़ काम में बाधा डालती है। मेरा अनुभव इसके विपरीत रहा। फिल्मी कलाकारों को देखने की इच्छा स्वाभाविक है। भीड़ होती थी, लेकिन जब हम उनसे आग्रह करते थे कि थोड़ा पीछे हट जाएं, तो वे सहयोग करते थे। हमने वहां गली, बाजार, बस वगैरह यानी हर जगह शूटिंग की। वहां के लोग बहुत प्यारे हैं। हमें भी शुरू में घबराहट थी, लेकिन कहीं पुलिस बुलाने की जरूरत नहीं पड़ी। हां, ठंड की वजह से थोड़ी दिक्कत जरूर हुई, लेकिन उसमें भोपाल के लोगों का कोई दोष नहीं है।
खल्लास गर्ल यानी ईशा कोप्पिकर को चांदनी बनाने में कितना वक्त लगा?
कोई वक्त नहीं लगा। मानसिक रूप से मैं तैयार था कि चांदनी में ढलने में ईशा को थोड़ा समय लग सकता है। यकीन मानिए, कहानी सुनने के बाद से ही ईशा ने चांदनी की तैयारी शुरू कर दी थी। उन्होंने जिस तरह से फिल्म के बारे में जिज्ञासाएं रखीं, उससे लगा कि मुझे पूरी सहूलियत मिलेगी। मैं प्रेम के बारे में भी यही कहूंगा। सोनू सूद ने इस किरदार को सही तरीके से निभाया है।
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समीर लाल
http://udantashtari.blogspot.com/