इंसानी वजूद का अर्थ तलाशती है ट्रेजडी-महेश भट्ट


ट्रेजडी इन दिनों फैशन में नहीं है। आप हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में किसी को दिल तोडने वाली और आत्मा को झिंझोड देने वाली दुख भरी कहानी सुनाएं तो वह हालिया बरसों में दर्शकों की बदल चुकी रुचि के संबंध में भाषण दे देगा। एक चैनल के सीनियर मार्केटिंग हेड पिछले दिनों मेरी नई फिल्म जन्नत की रिलीज की रणनीति तय करने आए। उन्होंने समझाया, हमारे दर्शकों में बडी संख्या युवकों की है और उनकी रुचि मस्ती में रहती है। कृपया उन्हें उदासी न परोसें। उनसे उम्मीद न करें कि वे ऐसी कहानियों को लपक लेंगे।
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन दिनों मीडिया में हर कोई केवल फील गुड प्रोडक्ट के उत्पादन में लगा है। 2007 में पार्टनर, हे बेबी और वेलकम जैसी निरर्थक फिल्मों की कमाई ने बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड तोड दिए। मुझे तो ट्रेजडी पर लिखने का यह भी एक बडा कारण लगता है।
ट्रेजडी की परिभाषा
मैंने 24 साल के अपने बेटे राहुल से सुबह वर्कआउट के समय पूछा, ट्रेजडी के बारे में सोचने पर तुम्हारे जहन में क्या खयाल आता है? मरने के लंबे आंसू भरे दृश्य, कानफाडू पा‌र्श्व संगीत और कभी-कभी घटिया एक्टिग. कुछ देर सोचकर उसने जवाब दिया। उसके जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। सच यह है कि मैंने कभी अलग से ट्रेजडी पर नहीं सोचा। गंभीरता से सोचा तो पाया कि ट्रेजडी नाटक का वह रूप है, जिसमें सभी गंभीर मानवीय क्रियाओं और मुद्दों की बातें होती हैं। यह नैतिकता पर प्रश्न उठाती है, मानव अस्तित्व का अर्थ तलाशती है, आपसी रिश्तों एवं मनुष्य से ईश्वर के संबंध पर प्रश्न करती है। ट्रेजडी के अंत में या तो मुख्य पात्र की मृत्यु हो जाती है या उसका कोई प्रिय मर जाता है।
ट्रेजडी का प्रभाव
भारत के दोनों महाकाव्य रामायण-महाभारत ट्रेजडी हैं। इसलिए हम भारतीयों की चेतना में ट्रेजडी का गहरा असर है। चूंकि ज्यादातर कहानीकार मानते हैं कि अपने मिथकों की सीमा पार करना उनके लिए असंभव है, इसलिए यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि हिंदी फिल्मों की बडी ट्रेजडी फिल्में अचेतन रूप से लेखकों के दिमाग से रूपायित हुई हैं, संक्षेप में दोनों महाकाव्यों से प्रेरित और प्रभावित हैं। यादों के समंदर में गोते लगाने पर मैं पाता हूं कि मेरी जिंदगी की सबसे बडी ट्रेजडी फिल्म मदर इंडिया रही है। एक ग्रामीण औरत की असाधारण परीक्षा की असाधारण कहानी हमारे पूर्वज और देश की सांस्कृतिक आकांक्षा को व्यक्त करती है। आश्चर्य नहीं कि यह फिल्म गुजरात के नवसारी गांव से आए एक सरल व्यक्ति महबूब खान ने बनाई। उन्होंने न केवल देश के दिल-ओ-दिमाग को झिंझोडा, बल्कि एकेडमी एवार्ड के निर्णायकों को भी प्रभावित किया। एकेडमी अवार्ड के लिए विदेशी भाषा श्रेणी में नामांकित हुई भारत की पहली फिल्म थी मदर इंडिया। अंतिम दृश्यों में नरगिस दत्त गलत राह पर जा रहे अपने बेटे सुनील दत्त को गोली मारती है और फिर उसे सीने से लगाकर चीखती है। वह दृश्य मैं आज भी नहीं भूल पाया। फिल्म का संदेश था कि सामाजिक नियमों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, जिगर के टुकडे ऐसा करें तो उन्हें समुचित सजा मिलनी चाहिए। मदर इंडिया में मां बेटे को यह सजा देती है। मैं इसे ट्रेजडी मानता हूं।
ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार
फिल्म गंगा जमुना में इसी फिल्म की नकल की गई। कहते हैं कि दिलीप कुमार ने ही इसका निर्देशन किया था। फिल्म ने कमाल दिखाया। अंतिम दृश्य में गंगा बने दिलीप कुमार कृष्ण भगवान की मूर्ति के सामने अंतिम सांस लेते हुए हे राम कह रहे हैं और पा‌र्श्व में अंतिम संस्कार के संस्कृत श्लोक पढे जा रहे हैं। इससे ज्यादा हृदयविदारक दृश्य नहीं हो सकता। इन दृश्यों की जडें भारतीय मानस में गहरे तक हैं। दिलीप कुमार भारत के सबसे बडे फिल्म आइकॉन अपनी दुखांत (ट्रैजिक) फिल्मों के कामयाबी से ही बने और संवरे। लगभग हर दूसरी फिल्म में या उनकी प्रेमिका या पत्नी मर जाती थी या वे मर जाते थे। फिल्मों में उनका प्यार कभी पूर्णता तक नहीं पहुंचता था। उन फिल्मों के कारण ही उन्हें ट्रेजडी किंग की उपाधि मिली। बाबुल में उनकी प्रेमिका (मुनव्वर सुल्ताना) की शादी किसी और से होती है और जो औरत (नरगिस) उन्हें प्यार करती है, उसे मौत छीन लेती है। जोगन में भी ऐसा ही है। दीदार में उन्होंने एक अंधे व्यक्ति का किरदार निभाया, जिसकी आंखों की रोशनी लौटती है तो वह अंधा होने का नाटक करता है, क्योंकि उसकी बचपन की प्रेमिका की शादी आंखों के डॉक्टर (अशोक कुमार) से हो चुकी है। दिलीप ऐसी भूमिकाएं पसंद करते थे, जो दर्शकों को भावनात्मक उद्वेलन दे। उनकी निजी जिंदगी पर इन भूमिकाओं का ऐसा असर पडा कि वास्तविक जिंदगी में भी वे दुखी रहने लगे। दो साल पहले ब्रैडफोर्ड के बाइट द मैंगो फिल्म फेस्टिवल के दौरान उन्होंने बताया कि आखिरकार मुझे लंदन के एक साइकेट्रिस्ट की मदद लेनी पडी। उसकी सलाह पर ही मैंने कोहिनूर जैसी हलकी-फुलकी फिल्म स्वीकार की। मैं दुख के जिस भंवर में फंसा था, उससे निकलने का यही एक रास्ता था।
बिग बी की ट्रैजिक भूमिकाएं
हृषिकेष मुखर्जी की सत्यकाम में बेईमान दुनिया में एक ईमानदार व्यक्ति का सही चित्रण किया गया था। फिल्म में धर्मेद्र का दर्दनाक अंत होता है। उन्हें गले का कैंसर हो जाता है और वे अपने दादा अशोक कुमार से कोई बात नहीं कर पा रहे हैं, जो उनसे अपनी गलती की माफी मांगने आए हैं। सातवें दशक के अंतिम वर्षो में बनी वह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली, लेकिन यह हृषि दा की श्रेष्ठ फिल्म है। आठवें दशक में यश चोपडा और सलीम-जावेद ने दीवार से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था। इसका ढांचा गंगा जमुना से लिया गया था। दीवार के अंतिम दृश्य में भी दर्शक रोते हैं और फिल्म के अभिनेता अमिताभ बच्चन को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का नया सुपर स्टार बना देते हैं। इस ट्रेजडी ने ही उन्हें बडे अभिनेताओं की श्रेणी में खडा किया। आप किसी से भी अमिताभ की श्रेष्ठ फिल्म के बारे में पूछें, उसमें इस ट्रेजडी को सबसे ऊपर पाएंगे। रमेश सिप्पी की शक्ति दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन साथ आए थे। इसका लेखन सलीम-जावेद ने किया था और फिल्म की कहानी में कमियां थीं। लेकिन फिल्म के ट्रैजिक दृश्य यादगार हैं। राखी (अमिताभ की मां) की मौत के बाद शोक मनाने आए बाप-बेटे के बीच का खामोश दृश्य आज भी बहुत कुछ कहता है।
दुख भरी कहानियां
अपनी फिल्मों में मुझे नाम और काश दो ट्रेजडी फिल्में लगती हैं। नाम मेरी पहली हिट फिल्म थी। इसमें एक ऐसे परिवार की दुख भरी कहानी थी, जो अपराध के रास्ते पर निकल चुके बेटे के साथ तालमेल बिठाने का चित्रण करती है। बेटा विदेश में एक दर्दनाक अंत का शिकार होता है। नौवें दशक के मध्य में बनी इस फिल्म का लेखन सलीम खान ने किया था। नाम से संजय दत्त का कैरियर चमका, जो नशामुक्ति का इलाज करवा कर अमेरिका से लौटे थे। इस फिल्म से वे रातोरात स्टार बन गए। लोगों को नाम इसी अंतिम दृश्य के कारण याद आती है। ट्रेजडी का आकर्षण ही ऐसा है। काश अच्छी फिल्म थी, लेकिन नहीं चली। उसकी वजह थी कि फिल्म की कहानी और ट्रीटमेंट को दर्शकों ने सच के करीब पाया। फिल्म में जैकी श्रॉफ, डिंपल कपाडिया, अनुपम खेर और बाल कलाकार मकरंद थे। काश एक बुझते सितारे की कहानी थी, जिसे उसकी बीवी ने छोड दिया और जो अपने मरते बच्चे की तीन ख्वाहिशें पूरी करना चाहता है। दो इच्छाएं तो पूरी कर देता है, लेकिन तीसरी इच्छा.. मरने के बजाय जीवित रहने की इच्छा वह पूरी नहीं कर पाता। जीवन, प्रेम और मृत्यु की इस फिल्म में जैकी को एक्टर के तौर पर पहचाना गया और डिंपल कपाडिया को योग्य अभिनेत्री समझा गया। फिल्म की विफलता से मैंने महसूस किया था कि दर्शकों की रुचि बदल रही है। उसी के बाद मैंने आशिकी, दिल है कि मानता नहीं और सडक जैसी फिल्में बनाई। इन फिल्मों के कथ्य के बारे में क्या कहूं?
जिन्हें लोकप्रिय बनाया ट्रेजडी ने
मनोरंजन जगत में आज का माहौल ट्रेजडी फिल्मों के अनुकूल नहीं है। लेकिन अगर आप फिल्म स्टारों और सफल फिल्मों को करीब से देखें तो पाएंगे कि उनके नाम और लोकप्रियता में ट्रेजडी का कितना बडा योगदान रहा है। देवदास के बगैर दिलीप कुमार कहां होते? दीवार और शक्ति के बगैर अमिताभ बच्चन की कल्पना कर सकते हैं क्या? नाम के बगैर मैं और संजय दत्त नहीं होते। अगर हिंदी फिल्मों ने ट्रेजडी से मुंह मोड लिया तो वह सबसे बडी ट्रेजडी होगी।

Comments

Pranay Narayan said…
cinema aur darshak ke badalte mijaz ko samajhne waalon se mujhe thodi irshya hoti hai..wo isliye ki main utni baariki se naheen samajh paata cinema aur uske darshak ko.Salim-Javed ki jodi aur bhatt sahab cinema ke is liye hi to bade naam hain.

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