दरअसल:गांव और गरीब गायब हैं हिंदी फिल्मों से

-अजय ब्रह्मात्मज
बाजार का पुराना नियम है कि उसी वस्तु का उत्पादन करो, जिसकी खपत हो। अपने संभावित ग्राहक की रुचि, पसंद और जरूरतों को ध्यान में रखकर ही उत्पादक वस्तुओं का निर्माण और व्यापार करते हैं। कहने के लिए सिनेमा कला है, लेकिन यह मूल रूप से लाभ की नीति का पालन करता है। खासकर उपभोक्ता संस्कृति के प्रचलन के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने अपनी पूरी शक्ति वैसी फिल्मों के उत्पादन में लगा दी है, जिनसे सुनिश्चित कमाई हो। निर्माता अब उत्पादक बन गए हैं। माना जा रहा है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की अधिकांश कमाई मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों और विदेशों से होती है। नतीजतन फिल्मों के विषय निर्धारित करते समय इन इलाकों के दर्शकों के बारे में ही सोचा जा रहा है। यह स्थिति खतरनाक होने के बावजूद प्रचलित हो रही है। पिछले दिनों फिल्मों पर चल रही एक संगोष्ठी में जावेद अख्तर ने इन मुद्दों पर बात की, तो ट्रेड सर्किल ने ध्यान दिया। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और हिंदी पत्रकारों की चिंता के इस विषय पर फिल्म इंडस्ट्री अभी तक गंभीर नहीं थी, लेकिन जावेद अख्तर के छेड़ते ही इस विषय पर विचार आरंभ हुआ। लोग बैठकों में ही सही, लेकिन अब विमर्श करने लगे हैं। जावेद अख्तर ने स्पष्ट कहा कि देश की पचहत्तर प्रतिशत आबादी अभी गांव में ही रहती है। हिंदी सिनेमा उनकी सुध नहीं ले रही है। वेलकम टू सज्जनपुर एक अपवाद मात्र है। इसी प्रकार मल्टीप्लेक्स के दर्शकों को ज्यादा तवज्जो दी जा रही है, जबकि एक सच यह भी है कि ज्यादातर दर्शकों की पहुंच में अभी मल्टीप्लेक्स नहीं आए हैं। जावेद अख्तर ने कहा कि जब मैं इंडस्ट्री में आया था, तब मेरे सीनियरों ने सलाह दी थी कि ऐसी स्क्रिप्ट लिखने की कोशिश करना, जो गांव-कस्बों के दर्शकों को अपील करे। अभी यह बात किसी युवा लेखक या निर्देशक को कही जाए, तो वे हंस पड़ेंगे और संभव है, सुझाव देने वालों को पुरातनपंथी समझ कर आगे बातचीत ही न करें। जावेद अख्तर ने वाजिब चिंता जाहिर की है कि इस प्रवृत्ति से न केवल हिंदी सिनेमा विभाजित हो जाएगा, बल्कि वह मुख्य रूप से अमीरों का ही सिनेमा हो कर रह जाएगा। उसके दायरे से गरीब बाहर हो जाएंगे।
जावेद साहब मुंबई में रहते हैं और ओम शांति ओम और रॉक ऑन जैसी फिल्मों के गीत लिखते हैं। शायद उन्हें ठीक-ठीक मालूम नहीं है कि उनकी चिंताएं वास्तविक रूप ले चुकी हैं और गांव, गरीब और उनसे संबंधित सारी चीजें हिंदी फिल्मों से बाहर हो चुकी हैं और इन दिनों तो सामान्य फिल्मों की शूटिंग भी किसी कस्बे या गांव में नहीं होती। गांव आता भी है, तो सरसों से लहलहाता पंजाब का गांव आता है, जहां समृद्धि छलक रही होती है। हमारे फिल्मकार उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में जाने की हिम्मत ही नहीं करते, शायद इसलिए, क्योंकि वहां के परिदृश्य से उनकी फिल्मों की दृश्य संरचना में निर्धनता झलकने लगेगी। गरीबी पर फिल्म बनाने की बात कौन कहे? आज के फिल्मकार अपनी फिल्म के किसी कोने में भी गरीब की झलक नहीं दिखाना चाहते। सुख से अघाए दर्शक का स्वाद क्यों खराब किया जाए?
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का अगर यही रवैया रहा, तो जल्दी ही उसके पारंपरिक दर्शक अपनी रुचि और पसंद का सिनेमा खोज लेंगे या नई तरह की फिल्मों का निर्माण कर लेंगे। इसकी शुरुआत हो चुकी है। फिलहाल भोजपुरी फिल्मों ने बिहार से हिंदी फिल्मों को बाहर खदेड़ दिया है। पिछले दिनों द्रोण और किडनैप जैसी फिल्मों के मुकाबले बिहार में हम बाहुबली ने अच्छा प्रदर्शन किया। उसके ज्यादा प्रिंट रिलीज हुए। चूंकि हम बाहुबली का विषय बिहार के दर्शकों का परिचित और करीब था, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह फिल्म चली। दर्शकों की बढ़ती भीड़ को देखते हुए भोजपुरी सिनेमा के साथ कॉरपोरेट व‌र्ल्ड जुड़ रहा है और स्तरीय फिल्मों के निर्माण के लिए आवश्यक धन भी आने लगा है। हम बाहुबली एक बड़ा संकेत है, लेकिन क्या मुंबई में बैठे ट्रेड पंडित इसे भांप कर मुंबइया निर्माताओं को सचेत कर रहे हैं? लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पकड़ अपने अंदरूनी इलाकों पर ढीली हो गई है!

Comments

गांव और गरीब को अलग कर हिन्दी सिनेमा अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। कब तक सपनों के भरोसे उन का सिनेमा लोग देखते रहेंगे?
धनियां होरी अब कहाँ,गंगा-जमुना-नीर.
दो बीघा जमीन की टूट गई प्राचीर.
टूट गयी प्राचीर, इन्डिया छाया ऐसा.
भारत की आत्मा पर हावी रूपया-पैसा.
कह साधक कवि,अब चलती सपनों की चोरी.
गंगा-जमुना कहाँ, कहाँ अब धनियां -होरी.
बहुत सही विचारा है; शीर्षक ई सब कुछ कह दे रहा है. उम्मीद सिंह जी की ये कविता भी बहुत अच्छी लगी .

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