दरअसल:स्वागत है सज्जनपुर में
-अजय ब्रह्मात्मज
माफ करें, स्तंभ का शीर्षक वेलकम टू सज्जनपुर का अनुवाद नहीं है। सज्जनपुर यहां उस विषय का द्योतक है, जिसे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने हाशिए पर डाल रखा है। ग्लोबल होने के इस दौर में हिंदी सिनेमा ने गांव को भुला दिया है। लंबे समय से न गांव की गोरी दिखी और न ग्रामीण परिवेश। ठीक है कि पनघट की जगह नलकूप आ गए हैं और मोबाइल और मोटरसाइकिल गांव में पहुंच गए हैं, लेकिन भाषा, संस्कृति, लहजा, भावनाओं का ताना-बाना अब भी अलग है। गांव से जुड़ी सारी चीजों को देशज, ग्रामीण और डाउन मार्केट का दर्जा देकर दरकिनार करने का चलन बढ़ा है। याद करें कि पिछली बार कब आपने साइकिल देखी थी, पजामा पहने लोगों को देखा था, सिर पर आंचल रखे औरत देखी थी और खेत-खलिहान के साथ खपरैल घर। ..और कब डपोरशंख संबोधन सुना था?
बातचीत में ग्रामीण लहजे को अभद्र और असभ्य माना जाता है। बातचीत में सहज रूप से आने वाली गालियों को अश्लील कहा जाता है और मुहावरे तो अब सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मजे की बात यह है कि देश का शिक्षित समाज इतनी तेजी से अपनी भाषाई संस्कृति और परंपराओं से कट रहा है कि आम बोलचाल में देशज शब्दों के अर्थ उसे डिक्शनरी में देखने पड़ रहे हैं! इस परिपे्रक्ष्य में वेलकम.. का प्रदर्शन और दर्शकों के बीच उसका स्वागत होना बड़ी बात है। यह इस तथ्य का भी सूचक है कि हिंदी फिल्मों केदर्शक ऐसी फिल्में भी देखना चाहते हैं। उन्हें अपने गांव-देहात के भोले-भाले और साधारण लोग पसंद हैं और उनके जीवन में रचा-बसा हास्य उन्हें भी गुदगुदाता है। वेलकम.. मुंबई के मल्टीप्लेक्स से लेकर सहारनपुर के सिंगल स्क्रीन थिएटर तक में पसंद की जा रही है। दक्षिण भारतीय प्रदेशों में भी इस फिल्म को दर्शक मिल रहे हैं। यह फिल्म सिनेमाघरों में जितनी पसंद की जा रही है, उससे ज्यादा यह होम वीडियो सर्किट में पॉपुलर होगी।
कह सकते हैं कि देश के सम्मानित और बुजुर्ग फिल्मकार श्याम बेनेगल ने इस उम्र में विचलित, निराश और दिग्भ्रमित निर्देशकों को राह दिखाई है कि वेलकम.. भारतीय दर्शकों के मानस में है। बस जरूरत है कि उस पर जमी धूल हटाकर उसे साफ-सुथरे अंदाज में नई फ्रेमिंग के साथ पेश किया जाए। वेलकम.. के किरदार हमें अपरिचित नहीं लगते। हां, हमने उन्हें ग्लोबल होने की चाह में मुख्य परिदृश्य से बाहर जरूर कर दिया है। एकअजीब-सी होड़ लगी हुई है। शहरी और विदेशी दर्शकों को रिझाने की अनवरत कोशिश चल रही है। फैशन चल पड़ा है। नतीजतन फिल्में अपनी जड़ों, परिवेश और संदर्भ से कट और आखिरकार अपने मूल दर्शकों को खो रही हैं। वेलकम.. फिल्म बताती है कि तमाम तकनीकी प्रगति के बावजूद लेखक कितना महत्वपूर्ण होता है और वह फिल्म को किस कदर प्रभावशाली बना सकता है? उसके लिखे संवाद ही फिल्मों को विशेष सांस्कृतिक पहचान देते हैं। किसी भाषाई इलाके की कहानी दूसरी भाषा में बनाने पर भाव तो समझ में आता है, लेकिन अर्थ और उसकी छवियां बदल जाती हैं। फिल्मों की इस भाषाई अस्मिता पर ध्यान देने की जरूरत है। हिंदी फिल्मों में जिस तेजी से आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजी संवाद डाले जा रहे हैं, उससे हिंदी के दर्शक और भी दूर होंगे। आज की बड़ी जरूरत है कि फिल्में अपने दर्शकों से जुड़ें। अपने दर्शकों के बीच लोकप्रिय होने के बाद ही वे बाहर पसंद की जा सकती हैं। क्रॉसओवर सिनेमा बन सकती हैं और दूसरे समूह के दर्शकों को पसंद आ सकती हैं। वेलकम.. श्याम बेनेगल की निर्देशकीय सोच के साथ अशोक मिश्र की सरल भाषा की वजह से भी याद रखी जाएगी। फिल्म के किरदारों का गठन, उनके निर्वाह और चित्रण में लेखक का योगदान साफ दिखाई पड़ता है। निश्चित ही सधे इन अभिनेताओं ने अपने अभिनय से फिल्म को निखारकर और सम्पे्रषणीय बना दिया है।
वैसे, यदि यह कहें कि वेलकम टू सज्जनपुर एकरूपता के घुप्प अंधेरे में पहचान खो रही हिंदी फिल्मों के लिए एक रोशनदान साबित हो सकती है, तो शायद गलत नहीं होगा। श्याम बेनेगल ने एक नया द्वार खोल दिया है। अब यह मुंबई के निर्माता-निर्देशकों पर निर्भर करता है कि वे इस द्वार से निकलना पसंद करते हैं या नहीं? इस नई राह की कोई सीमा नहीं है और अनंत विस्तार की संभावनाएं हैं। शर्त सिर्फ इतनी है कि पांव जमीन पर रहे और ध्येय अपने दर्शकों के बीच पहुंचना हो!
माफ करें, स्तंभ का शीर्षक वेलकम टू सज्जनपुर का अनुवाद नहीं है। सज्जनपुर यहां उस विषय का द्योतक है, जिसे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने हाशिए पर डाल रखा है। ग्लोबल होने के इस दौर में हिंदी सिनेमा ने गांव को भुला दिया है। लंबे समय से न गांव की गोरी दिखी और न ग्रामीण परिवेश। ठीक है कि पनघट की जगह नलकूप आ गए हैं और मोबाइल और मोटरसाइकिल गांव में पहुंच गए हैं, लेकिन भाषा, संस्कृति, लहजा, भावनाओं का ताना-बाना अब भी अलग है। गांव से जुड़ी सारी चीजों को देशज, ग्रामीण और डाउन मार्केट का दर्जा देकर दरकिनार करने का चलन बढ़ा है। याद करें कि पिछली बार कब आपने साइकिल देखी थी, पजामा पहने लोगों को देखा था, सिर पर आंचल रखे औरत देखी थी और खेत-खलिहान के साथ खपरैल घर। ..और कब डपोरशंख संबोधन सुना था?
बातचीत में ग्रामीण लहजे को अभद्र और असभ्य माना जाता है। बातचीत में सहज रूप से आने वाली गालियों को अश्लील कहा जाता है और मुहावरे तो अब सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मजे की बात यह है कि देश का शिक्षित समाज इतनी तेजी से अपनी भाषाई संस्कृति और परंपराओं से कट रहा है कि आम बोलचाल में देशज शब्दों के अर्थ उसे डिक्शनरी में देखने पड़ रहे हैं! इस परिपे्रक्ष्य में वेलकम.. का प्रदर्शन और दर्शकों के बीच उसका स्वागत होना बड़ी बात है। यह इस तथ्य का भी सूचक है कि हिंदी फिल्मों केदर्शक ऐसी फिल्में भी देखना चाहते हैं। उन्हें अपने गांव-देहात के भोले-भाले और साधारण लोग पसंद हैं और उनके जीवन में रचा-बसा हास्य उन्हें भी गुदगुदाता है। वेलकम.. मुंबई के मल्टीप्लेक्स से लेकर सहारनपुर के सिंगल स्क्रीन थिएटर तक में पसंद की जा रही है। दक्षिण भारतीय प्रदेशों में भी इस फिल्म को दर्शक मिल रहे हैं। यह फिल्म सिनेमाघरों में जितनी पसंद की जा रही है, उससे ज्यादा यह होम वीडियो सर्किट में पॉपुलर होगी।
कह सकते हैं कि देश के सम्मानित और बुजुर्ग फिल्मकार श्याम बेनेगल ने इस उम्र में विचलित, निराश और दिग्भ्रमित निर्देशकों को राह दिखाई है कि वेलकम.. भारतीय दर्शकों के मानस में है। बस जरूरत है कि उस पर जमी धूल हटाकर उसे साफ-सुथरे अंदाज में नई फ्रेमिंग के साथ पेश किया जाए। वेलकम.. के किरदार हमें अपरिचित नहीं लगते। हां, हमने उन्हें ग्लोबल होने की चाह में मुख्य परिदृश्य से बाहर जरूर कर दिया है। एकअजीब-सी होड़ लगी हुई है। शहरी और विदेशी दर्शकों को रिझाने की अनवरत कोशिश चल रही है। फैशन चल पड़ा है। नतीजतन फिल्में अपनी जड़ों, परिवेश और संदर्भ से कट और आखिरकार अपने मूल दर्शकों को खो रही हैं। वेलकम.. फिल्म बताती है कि तमाम तकनीकी प्रगति के बावजूद लेखक कितना महत्वपूर्ण होता है और वह फिल्म को किस कदर प्रभावशाली बना सकता है? उसके लिखे संवाद ही फिल्मों को विशेष सांस्कृतिक पहचान देते हैं। किसी भाषाई इलाके की कहानी दूसरी भाषा में बनाने पर भाव तो समझ में आता है, लेकिन अर्थ और उसकी छवियां बदल जाती हैं। फिल्मों की इस भाषाई अस्मिता पर ध्यान देने की जरूरत है। हिंदी फिल्मों में जिस तेजी से आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजी संवाद डाले जा रहे हैं, उससे हिंदी के दर्शक और भी दूर होंगे। आज की बड़ी जरूरत है कि फिल्में अपने दर्शकों से जुड़ें। अपने दर्शकों के बीच लोकप्रिय होने के बाद ही वे बाहर पसंद की जा सकती हैं। क्रॉसओवर सिनेमा बन सकती हैं और दूसरे समूह के दर्शकों को पसंद आ सकती हैं। वेलकम.. श्याम बेनेगल की निर्देशकीय सोच के साथ अशोक मिश्र की सरल भाषा की वजह से भी याद रखी जाएगी। फिल्म के किरदारों का गठन, उनके निर्वाह और चित्रण में लेखक का योगदान साफ दिखाई पड़ता है। निश्चित ही सधे इन अभिनेताओं ने अपने अभिनय से फिल्म को निखारकर और सम्पे्रषणीय बना दिया है।
वैसे, यदि यह कहें कि वेलकम टू सज्जनपुर एकरूपता के घुप्प अंधेरे में पहचान खो रही हिंदी फिल्मों के लिए एक रोशनदान साबित हो सकती है, तो शायद गलत नहीं होगा। श्याम बेनेगल ने एक नया द्वार खोल दिया है। अब यह मुंबई के निर्माता-निर्देशकों पर निर्भर करता है कि वे इस द्वार से निकलना पसंद करते हैं या नहीं? इस नई राह की कोई सीमा नहीं है और अनंत विस्तार की संभावनाएं हैं। शर्त सिर्फ इतनी है कि पांव जमीन पर रहे और ध्येय अपने दर्शकों के बीच पहुंचना हो!
Comments
बहुत ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने ।