फिल्मों की आय से भी बनती है राय
-अजय ब्रह्मात्मज
यह चलन कुछ समय से तेज हुआ है। फिल्म रिलीज होने के कुछ दिनों और हफ्तों के बाद अखबारों, ट्रेड पत्रिकाओं और इंटरनेट पर विज्ञापनों और खबरों के जरिए निर्माता फिल्म के ग्रॉस कलेक्शन की जानकारी देता है। यह आंकड़ा काफी बड़ा होता है। ऐसा लगता है कि फिल्म ने खूब व्यवसाय किया है और इसीलिए कलेक्शन इतना तगड़ा हुआ है। दरअसल, इस अभियान के पीछे निर्माता की मंशा और कोशिश यही रहती है कि फिल्म हिट मान ली जाए, क्योंकि अगर फिल्म के प्रति धारणा बन गई कि वह हिट है, तो उससे निर्माता को फायदा होता है। दरअसल, निर्माता आगामी फायदे के लिए आंकड़ों का झूठ गढ़ता है। वह आम दर्शकों समेत ट्रेड को भी झांसा देता है, जबकि ट्रेड पंडित वास्तविक आय के बारे में अच्छी तरह जान रहे होते हैं।
गौर करें, तो ग्रॉस कलेक्शन झूठ से अधिक झांसा है। आंकड़ा सही रहता है, लेकिन वास्तविक आय कुल आमद की दस-पंद्रह प्रतिशत ही होती है। चूंकि आम दर्शक और सामान्य पाठक इन आंकड़ों के समीकरण से वाकिफ नहीं होते, इसलिए ग्रॉस कलेक्शन देखकर फिल्म को हिट मान लेते हैं। इस कलेक्शन में वितरक और प्रदर्शक के शेयर शामिल रहते हैं। इसके अलावा, फिल्म प्रदर्शन के विभिन्न अधिकारों को बेचने से होने वाली आय भी उसमें जोड़ दी जाती है। यहां तक कि आयकर विभाग को दिया जाने वाला कर भी घटाया नहीं जाता! जाहिर-सी बात है कि सभी स्रोतों से आनेवाली रकम का कुल योग भारी मुनाफे का भ्रम देता है और इससे फिल्म का मार्केट भी बनता है। फिल्म कुछ और दर्शकों को सिनेमाघरों में खींचने में सफल होती है। ट्रेड सर्किल में सफलता का आडम्बर बना रहता है। ट्रेड पंडित ग्रॉस कलेक्शन के झांसे की परम्परा में ठीक-ठीक बता सकते हैं। कहते हैं, इसकी शुरुआत अनजाने में हुई थी। शोमैन सुभाष घई की फिल्म खलनायक की रिलीज के समय की बात है। उस फिल्म की रिलीज के समय संजय दत्त पर गैरकानूनी तरीके से हथियार रखने का अभियोग लगा था। खलनायक पर्दे और वास्तविक जिंदगी के मेल से कामयाब रही थी। कुछ हफ्तों के बाद घई ने ट्रेड पत्रिकाओं में ग्रॉस कलेक्शन का विज्ञापन दिया था। तब यह रकम दस करोड़ बताई गई थी। अपने समय के हिसाब से किसी फिल्म के लिए वह बहुत बड़ी रकम थी। इस प्रसंग का मजेदार पहलू यह है कि विज्ञापन छपने के कुछ ही दिनों के अंदर ही आयकर अधिकारी घई के ठिकाने पर पहुंच गए थे। दस करोड़ की आय हो और आयकर अधिकारी निष्क्रिय रहें? ऐसा कैसे हो सकता था! पिछले दिनों एक मुलाकात में घई ने उस घटना को सुनाने के साथ ही बताया था कि उनकी वास्तविक आय पचहत्तर लाख से ज्यादा नहीं थी। शोमैन ने निस्संकोच जानकारी दी कि हिट समझी जाने वाली ताल से उन्हें नुकसान हुआ था, जबकि फ्लॉप मानी गई यादें उन्हें मुनाफा दे गई थी। फिल्मों के हिट या फ्लॉप होने की धारणाएं सच नहीं होतीं।
सचमुच हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में झूठ और झांसे का कारोबार चलता है। यहां जो दिखता है, वही वास्तविकता नहीं है, क्योंकि वह नियोजित तरीके से दिखाया जाता है। उसके पीछे लाभ की मंशा रहती है। जो वास्तविकता होती है, उस पर झूठ का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है और कोई भी उन्हें खुरचकर तह तक नहीं पहुंचना चाहता। मीडिया को इतनी फुर्सत नहीं है और अगर किसी ने व्यक्तिगत रुचि लेकर कुछ जानने-समझने की कोशिश भी की, तो ऐसी तरकीब नहीं है कि सच जाना जा सके! लिहाजा झूठ का व्यापार चलता रहता है।
यह चलन कुछ समय से तेज हुआ है। फिल्म रिलीज होने के कुछ दिनों और हफ्तों के बाद अखबारों, ट्रेड पत्रिकाओं और इंटरनेट पर विज्ञापनों और खबरों के जरिए निर्माता फिल्म के ग्रॉस कलेक्शन की जानकारी देता है। यह आंकड़ा काफी बड़ा होता है। ऐसा लगता है कि फिल्म ने खूब व्यवसाय किया है और इसीलिए कलेक्शन इतना तगड़ा हुआ है। दरअसल, इस अभियान के पीछे निर्माता की मंशा और कोशिश यही रहती है कि फिल्म हिट मान ली जाए, क्योंकि अगर फिल्म के प्रति धारणा बन गई कि वह हिट है, तो उससे निर्माता को फायदा होता है। दरअसल, निर्माता आगामी फायदे के लिए आंकड़ों का झूठ गढ़ता है। वह आम दर्शकों समेत ट्रेड को भी झांसा देता है, जबकि ट्रेड पंडित वास्तविक आय के बारे में अच्छी तरह जान रहे होते हैं।
गौर करें, तो ग्रॉस कलेक्शन झूठ से अधिक झांसा है। आंकड़ा सही रहता है, लेकिन वास्तविक आय कुल आमद की दस-पंद्रह प्रतिशत ही होती है। चूंकि आम दर्शक और सामान्य पाठक इन आंकड़ों के समीकरण से वाकिफ नहीं होते, इसलिए ग्रॉस कलेक्शन देखकर फिल्म को हिट मान लेते हैं। इस कलेक्शन में वितरक और प्रदर्शक के शेयर शामिल रहते हैं। इसके अलावा, फिल्म प्रदर्शन के विभिन्न अधिकारों को बेचने से होने वाली आय भी उसमें जोड़ दी जाती है। यहां तक कि आयकर विभाग को दिया जाने वाला कर भी घटाया नहीं जाता! जाहिर-सी बात है कि सभी स्रोतों से आनेवाली रकम का कुल योग भारी मुनाफे का भ्रम देता है और इससे फिल्म का मार्केट भी बनता है। फिल्म कुछ और दर्शकों को सिनेमाघरों में खींचने में सफल होती है। ट्रेड सर्किल में सफलता का आडम्बर बना रहता है। ट्रेड पंडित ग्रॉस कलेक्शन के झांसे की परम्परा में ठीक-ठीक बता सकते हैं। कहते हैं, इसकी शुरुआत अनजाने में हुई थी। शोमैन सुभाष घई की फिल्म खलनायक की रिलीज के समय की बात है। उस फिल्म की रिलीज के समय संजय दत्त पर गैरकानूनी तरीके से हथियार रखने का अभियोग लगा था। खलनायक पर्दे और वास्तविक जिंदगी के मेल से कामयाब रही थी। कुछ हफ्तों के बाद घई ने ट्रेड पत्रिकाओं में ग्रॉस कलेक्शन का विज्ञापन दिया था। तब यह रकम दस करोड़ बताई गई थी। अपने समय के हिसाब से किसी फिल्म के लिए वह बहुत बड़ी रकम थी। इस प्रसंग का मजेदार पहलू यह है कि विज्ञापन छपने के कुछ ही दिनों के अंदर ही आयकर अधिकारी घई के ठिकाने पर पहुंच गए थे। दस करोड़ की आय हो और आयकर अधिकारी निष्क्रिय रहें? ऐसा कैसे हो सकता था! पिछले दिनों एक मुलाकात में घई ने उस घटना को सुनाने के साथ ही बताया था कि उनकी वास्तविक आय पचहत्तर लाख से ज्यादा नहीं थी। शोमैन ने निस्संकोच जानकारी दी कि हिट समझी जाने वाली ताल से उन्हें नुकसान हुआ था, जबकि फ्लॉप मानी गई यादें उन्हें मुनाफा दे गई थी। फिल्मों के हिट या फ्लॉप होने की धारणाएं सच नहीं होतीं।
सचमुच हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में झूठ और झांसे का कारोबार चलता है। यहां जो दिखता है, वही वास्तविकता नहीं है, क्योंकि वह नियोजित तरीके से दिखाया जाता है। उसके पीछे लाभ की मंशा रहती है। जो वास्तविकता होती है, उस पर झूठ का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है और कोई भी उन्हें खुरचकर तह तक नहीं पहुंचना चाहता। मीडिया को इतनी फुर्सत नहीं है और अगर किसी ने व्यक्तिगत रुचि लेकर कुछ जानने-समझने की कोशिश भी की, तो ऐसी तरकीब नहीं है कि सच जाना जा सके! लिहाजा झूठ का व्यापार चलता रहता है।
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