हमका सलीमा देखाय देव...-चण्डीदत्त शुक्ल
हिन्दी टाकीज-१०
इस बार हिन्दी टाकीज में चंडीदत्त शुक्ल .यूपी की राजधानी लखनऊ से 128 किलोमीटर, बेकल उत्साही के गांव बलरामपुर से 42, अयोध्या वाले फैजाबाद से 50 किलोमीटर दूर है गोंडा. 1975 के किसी महीने में यहीं पैदा हुए थे चण्डीदत्त शुक्ल. वहीं पढ़े-लिखे. लखनऊ और जालंधर में कई अखबारों, मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने के बाद फिलहाल दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर हैं.लिखने-पढ़ने की दीवानगी है, वक्त मिले न मिले मौका निकाल लेते हैं. थिएटर, टीवी-सिनेमा से पुरानी रिश्तेदारी है. स्क्रिप्टिंग, एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है पर जो भी काम करने को मिले, छोड़ते नहीं. सुस्त से ब्लागर भी हैं. उनके ब्लाग हैं www.chauraha1.blogspot.com और www.chandiduttshukla1.blogspot.com. साहित्य में भी बिन बुलाए घुसे रहने के लिए तैयार. कई किताबों की योजना है पर इनमें से चंद अब भी फाइनल होने के इंतजार में हैं...और जानना हो, तो chandiduttshukla@gmail.com पर मिल सकते हैं।
हमका सलीमा देखाय देव...
झींकते-रींकते हुए हम पहले मुंह बनाते, फिर ठुनकते और जब बस न चलता तो पेंपें करके रोने लगते। देश-दुनिया के हजारों बच्चों की तरह हम भी दुलरुआ थे, मनबढ़ और बप्पा की लैंग्वेज में कहें, तो बरबाद होने के रस्ते पर तेजी के साथ बढ़ रहे थे. खैर, कुढ़ने के बावजूद बप्पा खुद ही पिच्चर दिखाने अक्सर ले जाते. कभी न ले जाते, तो दादी पइसा, मिठाई और -- कुटाई नहीं होने देंगे -- का भरोसा थमाकर फिल्म देखने भेज देतीं. तो यूं पड़े हममें सिलमची (ब-तर्ज चिलमची) होने के संस्कार लेकिन नहीं...सिनेमा से भी कहीं पहले दर्शक होने के बीज पड़ गए थे. हम दर्शक बने आल्हा प्रोग्राम के, रामलीला के, नउटंकी के. भाई लोगों को जानके खुसी होगी कि ये तरक्की हमने तब हासिल कर ली थी, जब बमुश्किल चार-पांच साल के होंगे. पिता गजब के कल्चरल हैं (खानदानी रुतबे के बावजूद). जावा मोटरसाइकिल पर हमें आगे-पीछे कहीं भी टांग-टूंगकर रात, आधी रात,पछिलहरा (एकदम भोर)निकल लेते किसी भी सांस्कृतिक अनुष्ठान का पहरुआ बनने. पान खाने के तगड़े शौकीन हैं वे. बनारसी तमकुहा पान वे खाते रहते और हम उनके अगल-बगल दुबके, नौटंकी-आल्हा-रहंस (रासलीला का छोटा एडिशन) का मजा मुंह बाए हुए लेते. रात में गांव-गंवई के बीच, तरह-तरह की बतकही के हल्ले में थोड़ा-सा म्यूजिकल भी कान में पड़ जाता और यूं जीवन में कल्चर की सत्यनारायण कथा ने प्रवेश किया.
सिनेमा की बात
समझ में नहीं आता--कब से याद करूं? तब से, जब प्रकाश, संगीत और दृश्यों का विधान पता नहीं था...रोशनियों के दायरे आंखों के इर्द-गिर्द छाए रहते, दृश्यों की जगह कुछ परछाइयां नजर आतीं और कानों को अच्छा लगने वाले सुर-साज रूह को छू जाते...या तब से याद करूं, जब पता चलने लगा था कि फिल्म मोटामोटी क्या है, सीन कैसे बनते हैं और कहानी-गाने कहां वजूद में आते हैं। या फिर और बाद से, जब इन सबकी तकनीक से भी परिचित हुआ. जरा-सा खुद काम कर, थोड़ा औरों को देखकर और बहुत-सा पढ़कर...लेकिन पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर फिल्म का, पढ़े सो पंडित होय, सो फिल्मों का सही संस्कार बीच के दिनों में ही हुआ...अलसाए दिन, जब कुछ-कुछ पता चल चुका था पर ढेर सारी अलमस्ती ही साथ थी...यानी छुटपन...
इससे भी पहले टीवी
तब आठ-दस साल का था। घर में टीवी नहीं थी, क्यों नहीं थी, ठीकठीक याद नहीं आता.शायद आर्थिक दिक्कतें वजह हों, या फिर घर में पांडित्य का दबदबा...जिसके तहत टीवी, सलीमा या पिच्चर को नरक का आधार समझा-बताया गया...खैर, वजह जो हो, घर में टीवी नहीं थी तो नहीं थी. शायद पूरे शहर में (हमारे मोहल्ले में तो खैर हंड्रेड परसेंट पक्का है कि माया फूफा को छोड़कर किसी घर में नहीं थी) पांच-सात ही रही हो...सो,गोंडा शहर में टीवी जिन गिने-चुने घरों में थी, उनके यहां या तो मेरा जाना-आना नहीं था, या फिर घुसने को ही नहीं मिलता था. फिर भी टीवी से मोहब्बत हो गई थी...सूं...सूं...करते, या जलतरंगें बजाते, या फिर शहनाई की धुन (संगीत के जानकार निर्बुद्धि पर हंसें नहीं) बजाते हुए सत्यम शिवम सुंदरम की धुन गूंजती, साढ़े पांच बजे शाम का शायद वक्त था, तब हम लोग माया फूफा के घर की इकलौती खिड़की पर सिर देकर खड़े हो जाते...गर्मियों में बुआ जी, जिनसे हमारा रिश्ता मोहल्ले के अच्छे, इज्जतदार पड़ोसियों की निकम्मी औलादों से ज्यादा और कुछ नहीं था, जमकर गरियातीं और उनके लड़के भी अपने उत्कृष्ट होने का हर दस मिनट पर एहसास दिलाते, पर हम थे कि खिड़की छोड़ने को तैयार न रहते...नीले बैकग्राउंड में ह्वाइट कलर का गोला पता नहीं कितने जादुई ढंग से देर तक घूमता, फिर बुआ जैसी शक्ल वाली ही एक लड़की, एंकर, एनाउंसर, समाचार वक्ता, जो चाहे कह लें, ढेर सारे कपड़े पहने सामने आती और कुछ भी बोलना शुरू कर देती. हम मुंह बाए बस उसका मुंह ही देखते रहते. अपनी गली-मोहल्ले की ही कोई बहुत खबसूरत लड़की लगती वो...पर ऐसी, जिसे दूर से ही देखा जा सकता है, छुओगे तो काट लेगी.सीरियलों की बात चलती है, तो नुक्कड़ याद आता है, उससे भी कहीं ज्यादा इंतजार. एक स्टेशन पर लंबा इंतजार. बहुत छोटा-सा था, जब वहां से प्रेम का लेसन पढ़ा. बहुत बाद में एक फिल्म का गाना सुनते हुए--रोमांस का भी एक लेक्चर होना चाहिए, वो लेसन फिर-फिर याद आया. मुंगेरीलाल के हसीन सपने और मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल जैसे धारावाहिकों के दृश्य अब तक नसों में बेचैनी पैदा कर देते हैं.मालगुडी डेज, तमस, एक कहानी की तो उफ्फ॥पूछिए ही मत...।टीवी पर ही पहले-पहल जासूसी सीरियल देखे.करमचंद की गाजरें और किटी की किटकिट. यहीं रामायण, महाभारत और चंद्रकांता जैसे भव्य धारावाहिक.रामायण के वक्त तक घर में एक बहुत मरियल ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी आ गया था.पिता जी से हम लोगों ने खूब चिल्ल-पों मचाई, तो उन्होंने एंटीना में बुस्टर कलर टीवी वाला लगवा दिया, बोले-अभी बुस्टर लगवा दिया है कलर वाला, बाद में टीवी भी ला देंगे. टीवी तो खैर कलर बहुत साल नहीं आई. पहले बड़ी ब्लैक एंड ह्वाइट आई और बहुत साल चली. हमने कब कलर टीवी खरीदी, वो प्रसंग कोई हैसियत नहीं रखता, इसलिए उसका जिक्र अभी नहीं--फिर कभी. टेलिविजन पर फिल्में भी किश्तवार आती थीं...अब भी आती हैं, यकीन न हो तो बाइस्कोप देख लीजिए. तीन घंटे की फिल्म चार दिन में आती है. लेकिन जब ये फिल्में आतीं, तो टीवी के आगे बैठने को लेकर जो धकापेल मचती, बताने लायक नहीं है. बिनावजह यादों को हिंसा से भरपूर का लेबल दे दिया जाएगा.
चुनांचे...रंगोली भी लाजवाब रही...
हेमामालिनी कभी झक सफेद साड़ी में दिखतीं तो कभी नीले रंग की।(ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी पर ब्ल्यू कलर का कवर लगा था). अब उनके जैसी धुनदार (ट्रांसलेशन -- म्यूजिकल) एंकर कोई नहीं दिखती. संडे की सुबे-सुबे हम सब दर्जन भर बच्चे चौकड़ी मारकर फर्श पर बैठ जाते. नक्शेबाजी करते हुए गनेश दद्दा (घर के टीवी आपरेटर) स्टाइल के साथ टीवी खोलते. टीवी की बीमारी ज्यादा नहीं बढ़ी तब तक सिनेमा की छूत लग गई थी. सारा दिन मुसलसल आवारागर्दी करने के बाद नाइट शो देखने जाता था. अक्सर अकेले, कभी-कभार पड़ोस के किसी दोस्त के साथ. हर बार पैसे मुझे ही चुकाने होते पर टिक्की और गोलगप्पा साथ वाला ही खिलाता.
गोंडा में सिनेमा हॉल
तीन हैं सिनेमा हॉल। इनमें से तीनों की हालत पर कुछ कहूंगा,तो इनके ओनर हड्डी-पसली एक कर देंगे पर अव्यवस्था हर जगह है. कहीं थोड़ी कम, तो कहीं थोड़ी ज्यादा. पिछली छुट्टियों में घर गया था, तो पता चला कि एक बिकने वाला भी है, दूसरे में फिल्म देखना बहुत बड़े संत्रास को न्योता देने जैसा है और तीसरे में अब नई फिल्में नहीं लगतीं, ये वो है जिसकी हालत कुछ बेहतर थी. घर के सबसे करीब था कृष्णा. मुझे वहां लगने वाली डाकू रानी हसीना, चंबल की नागिन टाइप की पिच्चरें बहुत प्रिय थीं. खूब ठांय-ठूंय, सेक्सुअल कॉमेडी देखता औऱ किशोरावस्था में मिली हॉट नॉलेज को ग्रहण करता. यहीं पर गानों वाली किताब मिलती थी, चार आने-अठन्नी और कोई-कोई बारह आने की. चार-पन्नों की किताब में नायक नायिका-गीतकार के नाम दिए होते, एक बहुत खराब सी काली-सफेद तस्वीर बनी होती, जिस पर स्याही पुत गई होती और हम सब उसे खरीदकर किसी धर्मग्रंथ जैसी श्रद्धा के साथ पढ़ते.
पुराने जमाने के हीमेश
यहीं सुना था दिवाना मुझको लोग कहें...नाक से यें यें यें कहने का मजा हिमेश रेशमिया क्या जानें...यही दीवानगी रास्ते का पत्थर किसमत ने मुझे बना दिया...तक भी पहुंची। कहीं तो ये दिल कहीं मिल नहीं पाते...और हीरो के गाने सुनते हुए बहुत रोया हूं मैं॥और तब यकीन मानिए कोई इश्क-विश्क मसलन-लड़कियों से जो होता है...वो भी नहीं था. खैर, मिथुन चक्रवर्ती का पराक्रमी डांस, जितेंद्र और श्रीदेवी की मस्त-मस्त मूवीज, पद्मालय का तिलिस्म...बहुत कुछ देखा. एक डायरी ही बना ली थी, जिसमें फिल्मों की रिलीज, कहानी और बजट तक लिखा होता. फिल्म इतिहासकारों के लिए विशेष संदर्भ ग्रंथ बन सकता है. सलीमा के विशेष समर्पण के चलते बाद में हाईस्कूल का रिसर्च स्कालर बनना पड़ा.ये वे दिन थे, जब हर फिल्म में हीरोइन के साथ हीरो की जगह खुद को देखता था. रास्ते में लौटते हुए खंभें ठोंकते हुए फाइट की प्रैक्टिस, गली में भौंकते कुत्तों को जानी कहने की आदत. बारिश में भीगकर जुकाम को दावत देने का जुनून, क्या कहें, समाज की भाषा में कितने पैसे फूंके और कितना समय व्यर्थ किया पर सपने देखने की आदत कब सिनेमा का गंभीर दर्शक बना देती है, यह बताने की बात नहीं है. हां, एक बात स्वीकार करूंगा, चाहे मेरे सेलेक्शन पर कितने ही सवाल क्यों न उठें...मुझे अब तक कोई भी फिल्म बतौर दर्शक बुरी नहीं लगी, मैंने भरपूर मजे लेकर उसे देखा है. चाहे वो डाकू रानी वाली फिल्म हो या फिर अर्थ जैसी अर्थवान फिल्म.
क्लासिक का चककर
धीरे-धीरे उम्र बढ़ी तो सलीमा भी चुनचुनकर देखने लगा। गुलजार, हृषिकेश मुखर्जी, महबूब, गुरुदत्त, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई भी..., सुभाष घई, महेश भट्ट. सबको देखा, बार-बार देखा. एक फिल्म आई थी मैं आजाद हूं. लोगों ने कहा बंडल है. मुझे अब भी लगता है कि नहीं थी. तब एक ही दिन में तीन शो देख लिए थे. इस दावे पर सवाल उठ सकता है कि मैं सिनेमा का गंभीर दर्शक हूं...जवाब दूंगा, सिनेमा को तो गंभीरता से ही देखा है...देखा जाने वाला सिनेमा गंभीर न हो तो मैं क्या करूं। खैर, गंभीर फिल्में देखने से कहीं ज्यादा पढ़ी जाती हैं...वहीं से सिनेमा का असल आस्वाद मिला है पर ये आनंद-अध्ययन हॉल में नहीं हो सका, वीसीआर- की बदौलत ही पूरा हो पाया. हम सब जुनूनी लोग चंदा करके वीसीआर मंगाते, टीवी भी॥रिक्शे पर लदकर आता..साथ में तीन फिल्में...एक कैसेट हम लोग लाते...वीसीआर वाले को नहीं बताते...फिल्म चालू होती...जल्दी-जल्दी गाने रिवाइंड, फारवर्ड करके फिल्म देख लेते...कोई गाना अच्छा लगता, तो पूरा भी देखते. सुबू-सुबू वीसीआर वाला आता और कवर छूकर बोलता, वीसीआर गरम क्यों है? तुम लोगों ने तीन से ज्यादा फिल्में देख ली हैं क्या? हम काउंट करके बताते कि अभी तो नवै घंटा हुआ है, बारह घंटे का फिल्म कैसे देख लेंगे भाई?
रोटिया बैरन मजा लिए जाए रे...
कहने को बहुत कुछ है...इतना जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, मसलन-कैसे सिनेमा हॉल में गेटकीपर से झगड़ा करके फिल्म देखी...कैसे प्रीमियर में फिल्म देखने के लिए मुंबई ही पहुंच गए, कैसे एक फिल्म के सेट पर हीरोइन को ही पटा लिया और बाद में डायरेक्टर से वो झाड़ खाई कि पूछो ही नहीं...पर न पढ़ने वालों के पास सब्र बचेगा और न लिखने की फुर्सत बची है...वैसे भी, ये सबकुछ इतना खूबसूरत है कि यादों में ही सिमटा रहे, तो अच्छा, नहीं तो अपनी चमक खो सकता है। अब वो पहले जैसी मस्ती कहां...कंप्यूटर, डीवीडी, वीसीडी, होम थिएटर, म्यूजिक सिस्टम, टेप रिकार्डर...आज सबकुछ है. कुछ फिल्म वालों से जान-पहचान, मेल-मुलाकात है, जिनसे नहीं है, उनसे हाथ मिलाते ही सुरसुरी आ जाए...वैसा खयाल भी नहीं बचा है फिर भी...पहले जैसी मस्ती और मजा नहीं है...कहीं खो गया है भाई लार्जर देन लाइफ वाले सलीमा का जादू...
इस बार हिन्दी टाकीज में चंडीदत्त शुक्ल .यूपी की राजधानी लखनऊ से 128 किलोमीटर, बेकल उत्साही के गांव बलरामपुर से 42, अयोध्या वाले फैजाबाद से 50 किलोमीटर दूर है गोंडा. 1975 के किसी महीने में यहीं पैदा हुए थे चण्डीदत्त शुक्ल. वहीं पढ़े-लिखे. लखनऊ और जालंधर में कई अखबारों, मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने के बाद फिलहाल दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर हैं.लिखने-पढ़ने की दीवानगी है, वक्त मिले न मिले मौका निकाल लेते हैं. थिएटर, टीवी-सिनेमा से पुरानी रिश्तेदारी है. स्क्रिप्टिंग, एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है पर जो भी काम करने को मिले, छोड़ते नहीं. सुस्त से ब्लागर भी हैं. उनके ब्लाग हैं www.chauraha1.blogspot.com और www.chandiduttshukla1.blogspot.com. साहित्य में भी बिन बुलाए घुसे रहने के लिए तैयार. कई किताबों की योजना है पर इनमें से चंद अब भी फाइनल होने के इंतजार में हैं...और जानना हो, तो chandiduttshukla@gmail.com पर मिल सकते हैं।
हमका सलीमा देखाय देव...
झींकते-रींकते हुए हम पहले मुंह बनाते, फिर ठुनकते और जब बस न चलता तो पेंपें करके रोने लगते। देश-दुनिया के हजारों बच्चों की तरह हम भी दुलरुआ थे, मनबढ़ और बप्पा की लैंग्वेज में कहें, तो बरबाद होने के रस्ते पर तेजी के साथ बढ़ रहे थे. खैर, कुढ़ने के बावजूद बप्पा खुद ही पिच्चर दिखाने अक्सर ले जाते. कभी न ले जाते, तो दादी पइसा, मिठाई और -- कुटाई नहीं होने देंगे -- का भरोसा थमाकर फिल्म देखने भेज देतीं. तो यूं पड़े हममें सिलमची (ब-तर्ज चिलमची) होने के संस्कार लेकिन नहीं...सिनेमा से भी कहीं पहले दर्शक होने के बीज पड़ गए थे. हम दर्शक बने आल्हा प्रोग्राम के, रामलीला के, नउटंकी के. भाई लोगों को जानके खुसी होगी कि ये तरक्की हमने तब हासिल कर ली थी, जब बमुश्किल चार-पांच साल के होंगे. पिता गजब के कल्चरल हैं (खानदानी रुतबे के बावजूद). जावा मोटरसाइकिल पर हमें आगे-पीछे कहीं भी टांग-टूंगकर रात, आधी रात,पछिलहरा (एकदम भोर)निकल लेते किसी भी सांस्कृतिक अनुष्ठान का पहरुआ बनने. पान खाने के तगड़े शौकीन हैं वे. बनारसी तमकुहा पान वे खाते रहते और हम उनके अगल-बगल दुबके, नौटंकी-आल्हा-रहंस (रासलीला का छोटा एडिशन) का मजा मुंह बाए हुए लेते. रात में गांव-गंवई के बीच, तरह-तरह की बतकही के हल्ले में थोड़ा-सा म्यूजिकल भी कान में पड़ जाता और यूं जीवन में कल्चर की सत्यनारायण कथा ने प्रवेश किया.
सिनेमा की बात
समझ में नहीं आता--कब से याद करूं? तब से, जब प्रकाश, संगीत और दृश्यों का विधान पता नहीं था...रोशनियों के दायरे आंखों के इर्द-गिर्द छाए रहते, दृश्यों की जगह कुछ परछाइयां नजर आतीं और कानों को अच्छा लगने वाले सुर-साज रूह को छू जाते...या तब से याद करूं, जब पता चलने लगा था कि फिल्म मोटामोटी क्या है, सीन कैसे बनते हैं और कहानी-गाने कहां वजूद में आते हैं। या फिर और बाद से, जब इन सबकी तकनीक से भी परिचित हुआ. जरा-सा खुद काम कर, थोड़ा औरों को देखकर और बहुत-सा पढ़कर...लेकिन पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर फिल्म का, पढ़े सो पंडित होय, सो फिल्मों का सही संस्कार बीच के दिनों में ही हुआ...अलसाए दिन, जब कुछ-कुछ पता चल चुका था पर ढेर सारी अलमस्ती ही साथ थी...यानी छुटपन...
इससे भी पहले टीवी
तब आठ-दस साल का था। घर में टीवी नहीं थी, क्यों नहीं थी, ठीकठीक याद नहीं आता.शायद आर्थिक दिक्कतें वजह हों, या फिर घर में पांडित्य का दबदबा...जिसके तहत टीवी, सलीमा या पिच्चर को नरक का आधार समझा-बताया गया...खैर, वजह जो हो, घर में टीवी नहीं थी तो नहीं थी. शायद पूरे शहर में (हमारे मोहल्ले में तो खैर हंड्रेड परसेंट पक्का है कि माया फूफा को छोड़कर किसी घर में नहीं थी) पांच-सात ही रही हो...सो,गोंडा शहर में टीवी जिन गिने-चुने घरों में थी, उनके यहां या तो मेरा जाना-आना नहीं था, या फिर घुसने को ही नहीं मिलता था. फिर भी टीवी से मोहब्बत हो गई थी...सूं...सूं...करते, या जलतरंगें बजाते, या फिर शहनाई की धुन (संगीत के जानकार निर्बुद्धि पर हंसें नहीं) बजाते हुए सत्यम शिवम सुंदरम की धुन गूंजती, साढ़े पांच बजे शाम का शायद वक्त था, तब हम लोग माया फूफा के घर की इकलौती खिड़की पर सिर देकर खड़े हो जाते...गर्मियों में बुआ जी, जिनसे हमारा रिश्ता मोहल्ले के अच्छे, इज्जतदार पड़ोसियों की निकम्मी औलादों से ज्यादा और कुछ नहीं था, जमकर गरियातीं और उनके लड़के भी अपने उत्कृष्ट होने का हर दस मिनट पर एहसास दिलाते, पर हम थे कि खिड़की छोड़ने को तैयार न रहते...नीले बैकग्राउंड में ह्वाइट कलर का गोला पता नहीं कितने जादुई ढंग से देर तक घूमता, फिर बुआ जैसी शक्ल वाली ही एक लड़की, एंकर, एनाउंसर, समाचार वक्ता, जो चाहे कह लें, ढेर सारे कपड़े पहने सामने आती और कुछ भी बोलना शुरू कर देती. हम मुंह बाए बस उसका मुंह ही देखते रहते. अपनी गली-मोहल्ले की ही कोई बहुत खबसूरत लड़की लगती वो...पर ऐसी, जिसे दूर से ही देखा जा सकता है, छुओगे तो काट लेगी.सीरियलों की बात चलती है, तो नुक्कड़ याद आता है, उससे भी कहीं ज्यादा इंतजार. एक स्टेशन पर लंबा इंतजार. बहुत छोटा-सा था, जब वहां से प्रेम का लेसन पढ़ा. बहुत बाद में एक फिल्म का गाना सुनते हुए--रोमांस का भी एक लेक्चर होना चाहिए, वो लेसन फिर-फिर याद आया. मुंगेरीलाल के हसीन सपने और मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल जैसे धारावाहिकों के दृश्य अब तक नसों में बेचैनी पैदा कर देते हैं.मालगुडी डेज, तमस, एक कहानी की तो उफ्फ॥पूछिए ही मत...।टीवी पर ही पहले-पहल जासूसी सीरियल देखे.करमचंद की गाजरें और किटी की किटकिट. यहीं रामायण, महाभारत और चंद्रकांता जैसे भव्य धारावाहिक.रामायण के वक्त तक घर में एक बहुत मरियल ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी आ गया था.पिता जी से हम लोगों ने खूब चिल्ल-पों मचाई, तो उन्होंने एंटीना में बुस्टर कलर टीवी वाला लगवा दिया, बोले-अभी बुस्टर लगवा दिया है कलर वाला, बाद में टीवी भी ला देंगे. टीवी तो खैर कलर बहुत साल नहीं आई. पहले बड़ी ब्लैक एंड ह्वाइट आई और बहुत साल चली. हमने कब कलर टीवी खरीदी, वो प्रसंग कोई हैसियत नहीं रखता, इसलिए उसका जिक्र अभी नहीं--फिर कभी. टेलिविजन पर फिल्में भी किश्तवार आती थीं...अब भी आती हैं, यकीन न हो तो बाइस्कोप देख लीजिए. तीन घंटे की फिल्म चार दिन में आती है. लेकिन जब ये फिल्में आतीं, तो टीवी के आगे बैठने को लेकर जो धकापेल मचती, बताने लायक नहीं है. बिनावजह यादों को हिंसा से भरपूर का लेबल दे दिया जाएगा.
चुनांचे...रंगोली भी लाजवाब रही...
हेमामालिनी कभी झक सफेद साड़ी में दिखतीं तो कभी नीले रंग की।(ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी पर ब्ल्यू कलर का कवर लगा था). अब उनके जैसी धुनदार (ट्रांसलेशन -- म्यूजिकल) एंकर कोई नहीं दिखती. संडे की सुबे-सुबे हम सब दर्जन भर बच्चे चौकड़ी मारकर फर्श पर बैठ जाते. नक्शेबाजी करते हुए गनेश दद्दा (घर के टीवी आपरेटर) स्टाइल के साथ टीवी खोलते. टीवी की बीमारी ज्यादा नहीं बढ़ी तब तक सिनेमा की छूत लग गई थी. सारा दिन मुसलसल आवारागर्दी करने के बाद नाइट शो देखने जाता था. अक्सर अकेले, कभी-कभार पड़ोस के किसी दोस्त के साथ. हर बार पैसे मुझे ही चुकाने होते पर टिक्की और गोलगप्पा साथ वाला ही खिलाता.
गोंडा में सिनेमा हॉल
तीन हैं सिनेमा हॉल। इनमें से तीनों की हालत पर कुछ कहूंगा,तो इनके ओनर हड्डी-पसली एक कर देंगे पर अव्यवस्था हर जगह है. कहीं थोड़ी कम, तो कहीं थोड़ी ज्यादा. पिछली छुट्टियों में घर गया था, तो पता चला कि एक बिकने वाला भी है, दूसरे में फिल्म देखना बहुत बड़े संत्रास को न्योता देने जैसा है और तीसरे में अब नई फिल्में नहीं लगतीं, ये वो है जिसकी हालत कुछ बेहतर थी. घर के सबसे करीब था कृष्णा. मुझे वहां लगने वाली डाकू रानी हसीना, चंबल की नागिन टाइप की पिच्चरें बहुत प्रिय थीं. खूब ठांय-ठूंय, सेक्सुअल कॉमेडी देखता औऱ किशोरावस्था में मिली हॉट नॉलेज को ग्रहण करता. यहीं पर गानों वाली किताब मिलती थी, चार आने-अठन्नी और कोई-कोई बारह आने की. चार-पन्नों की किताब में नायक नायिका-गीतकार के नाम दिए होते, एक बहुत खराब सी काली-सफेद तस्वीर बनी होती, जिस पर स्याही पुत गई होती और हम सब उसे खरीदकर किसी धर्मग्रंथ जैसी श्रद्धा के साथ पढ़ते.
पुराने जमाने के हीमेश
यहीं सुना था दिवाना मुझको लोग कहें...नाक से यें यें यें कहने का मजा हिमेश रेशमिया क्या जानें...यही दीवानगी रास्ते का पत्थर किसमत ने मुझे बना दिया...तक भी पहुंची। कहीं तो ये दिल कहीं मिल नहीं पाते...और हीरो के गाने सुनते हुए बहुत रोया हूं मैं॥और तब यकीन मानिए कोई इश्क-विश्क मसलन-लड़कियों से जो होता है...वो भी नहीं था. खैर, मिथुन चक्रवर्ती का पराक्रमी डांस, जितेंद्र और श्रीदेवी की मस्त-मस्त मूवीज, पद्मालय का तिलिस्म...बहुत कुछ देखा. एक डायरी ही बना ली थी, जिसमें फिल्मों की रिलीज, कहानी और बजट तक लिखा होता. फिल्म इतिहासकारों के लिए विशेष संदर्भ ग्रंथ बन सकता है. सलीमा के विशेष समर्पण के चलते बाद में हाईस्कूल का रिसर्च स्कालर बनना पड़ा.ये वे दिन थे, जब हर फिल्म में हीरोइन के साथ हीरो की जगह खुद को देखता था. रास्ते में लौटते हुए खंभें ठोंकते हुए फाइट की प्रैक्टिस, गली में भौंकते कुत्तों को जानी कहने की आदत. बारिश में भीगकर जुकाम को दावत देने का जुनून, क्या कहें, समाज की भाषा में कितने पैसे फूंके और कितना समय व्यर्थ किया पर सपने देखने की आदत कब सिनेमा का गंभीर दर्शक बना देती है, यह बताने की बात नहीं है. हां, एक बात स्वीकार करूंगा, चाहे मेरे सेलेक्शन पर कितने ही सवाल क्यों न उठें...मुझे अब तक कोई भी फिल्म बतौर दर्शक बुरी नहीं लगी, मैंने भरपूर मजे लेकर उसे देखा है. चाहे वो डाकू रानी वाली फिल्म हो या फिर अर्थ जैसी अर्थवान फिल्म.
क्लासिक का चककर
धीरे-धीरे उम्र बढ़ी तो सलीमा भी चुनचुनकर देखने लगा। गुलजार, हृषिकेश मुखर्जी, महबूब, गुरुदत्त, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई भी..., सुभाष घई, महेश भट्ट. सबको देखा, बार-बार देखा. एक फिल्म आई थी मैं आजाद हूं. लोगों ने कहा बंडल है. मुझे अब भी लगता है कि नहीं थी. तब एक ही दिन में तीन शो देख लिए थे. इस दावे पर सवाल उठ सकता है कि मैं सिनेमा का गंभीर दर्शक हूं...जवाब दूंगा, सिनेमा को तो गंभीरता से ही देखा है...देखा जाने वाला सिनेमा गंभीर न हो तो मैं क्या करूं। खैर, गंभीर फिल्में देखने से कहीं ज्यादा पढ़ी जाती हैं...वहीं से सिनेमा का असल आस्वाद मिला है पर ये आनंद-अध्ययन हॉल में नहीं हो सका, वीसीआर- की बदौलत ही पूरा हो पाया. हम सब जुनूनी लोग चंदा करके वीसीआर मंगाते, टीवी भी॥रिक्शे पर लदकर आता..साथ में तीन फिल्में...एक कैसेट हम लोग लाते...वीसीआर वाले को नहीं बताते...फिल्म चालू होती...जल्दी-जल्दी गाने रिवाइंड, फारवर्ड करके फिल्म देख लेते...कोई गाना अच्छा लगता, तो पूरा भी देखते. सुबू-सुबू वीसीआर वाला आता और कवर छूकर बोलता, वीसीआर गरम क्यों है? तुम लोगों ने तीन से ज्यादा फिल्में देख ली हैं क्या? हम काउंट करके बताते कि अभी तो नवै घंटा हुआ है, बारह घंटे का फिल्म कैसे देख लेंगे भाई?
रोटिया बैरन मजा लिए जाए रे...
कहने को बहुत कुछ है...इतना जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, मसलन-कैसे सिनेमा हॉल में गेटकीपर से झगड़ा करके फिल्म देखी...कैसे प्रीमियर में फिल्म देखने के लिए मुंबई ही पहुंच गए, कैसे एक फिल्म के सेट पर हीरोइन को ही पटा लिया और बाद में डायरेक्टर से वो झाड़ खाई कि पूछो ही नहीं...पर न पढ़ने वालों के पास सब्र बचेगा और न लिखने की फुर्सत बची है...वैसे भी, ये सबकुछ इतना खूबसूरत है कि यादों में ही सिमटा रहे, तो अच्छा, नहीं तो अपनी चमक खो सकता है। अब वो पहले जैसी मस्ती कहां...कंप्यूटर, डीवीडी, वीसीडी, होम थिएटर, म्यूजिक सिस्टम, टेप रिकार्डर...आज सबकुछ है. कुछ फिल्म वालों से जान-पहचान, मेल-मुलाकात है, जिनसे नहीं है, उनसे हाथ मिलाते ही सुरसुरी आ जाए...वैसा खयाल भी नहीं बचा है फिर भी...पहले जैसी मस्ती और मजा नहीं है...कहीं खो गया है भाई लार्जर देन लाइफ वाले सलीमा का जादू...
Comments
उत्तम, अति उत्तम। संस्मरण शायद सुन्दर ही होते हैं। अखबार में आप इतना अच्छा नहीं लिखते। लेकिन यहां तो पूरा बांध लिया।
वेद रत्न शुक्ल
वह गोंडा की मस्ती, वह चाट और टिक्की
वह रात-भर इंतजार की घडियां, कहां गई टिक-टिक
कभी गोंडा जाता भी हूं तो आप जैसे लोग ही नहीं मिलते,
मन बड़ा उदास होता, लेकिन अब तो उसी मिट्टी से हैं..
सो गोंडा का क्या ?... आप तो दिल्ली वाले हो गए और मैं तुच्छ प्राणी जालंधर की सड़कें नाप रहा हूं ।
कभी गुरू जी की तो कभी द्विवेदी जी की याद आती है...
मत छेड़े गोंडा की बातें...
पंडित जी
आपका छोटा भाई...
cinema ki khushboodaar huwaayen gonda (jaise dhero chote chote shehro se) se delhi aarhi hain.
लेख बहुत ही अच्छा लगा!
ग़ज़ब थे वो दिन। सिनेमा तो सच, गांव, कस्बों और देहात में ही जीवंत होता है।
सिनेमा से जुड़े आपके अनुभवों को पढ़ते हुए मैं बीते हुए ज़माने में पहुँच गया।
बहुत अच्छा लगा और जिन बातों का आपने अंत में उल्लेख किया है, उनके बारे में विस्तार से जानने की इच्छा है।