सम्मान भावना के खो चुके अर्थ तलाशें-महेश भट्ट
-महेश भट्ट
अभी कुछ ही समय बीता है, जब सहारा वन चैनल के रियलिटी शो झूम इंडिया के आिखरी और निर्णायक एपीसोड के दौरान एक प्रतियोगी के कमेंट ने मुझे आहत किया। मैं तीन लोगों के निर्णायक मंडल में शामिल था। यह कमेंट भी प्रत्यक्ष तौर पर मेरे िखलाफ नहीं था, बावजूद इसके मैंने इस तरह की हरकतों का विरोध करना ठीक समझा और कार्यक्रम से वॉकआउट कर गया। मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं समाज की मूल्य प्रणाली को लेकर बहुत ज्यादा नहीं सोचता हूं, इस विषय को लेकर अधिक चिंतित नहीं रहता, फिर भी मैं इसी समाज का एक हिस्सा हूं। हमारी मूल्य प्रणाली में स्त्रियों और बुजुर्गो को सम्मान की नजर से देखा जाता है और इनके िखलाफ कुछ गलत होते देख मेरा मन मुझे कचोटने लगता है। इसलिए जब एक प्रतियोगी ने मेरे साथी निर्णायकों शबाना आजमी और आनंदजी भाई का उपहास उडाया, मुझे महसूस हुआ कि उसने एक मान्य सामाजिक व्यवहार की लक्ष्मण रेखा लांघी है और इसका विरोध किया जाना चाहिए। मानव समाज के इस सबसे मूल्यवान खजाने को बचाने, बनाए रखने और बढाने की कोशिश की जानी चाहिए, जिसमें एक व्यक्ति के सम्मान को बेहद अहमियत दी जाती है।
जातिगत टिप्पणियों का विरोध
इसे संयोग कहें या कुछ और, इस शो में मेरे भावनात्मक उफान के अगले ही दिन एक अन्य हास्यास्पद विवाद की खबरें छाई रहीं। माधुरी दीक्षित की फिल्मों में वापसी वाली फिल्म आजा नच ले पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रतिबंध लगा दिया। बॉलीवुड में हमारे जैसे ढेरों लोग यह जानने को उत्सुक थे कि कैसे एक निर्दोष-सी फिल्म पर इतनी कडी प्रतिक्रिया हो सकती है! जब हमने यह जानने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि माननीय मुख्यमंत्री को फिल्म के एक गीत पर एतराज था और उनके अनुसार यह गीत दलित भावनाओं को आहत करता है। इस गीत की एक पंक्ति में आए .. कहे मैं सुनार हूं.. जैसे शब्दों को लेकर बखेडा खडा हो गया। माना गया कि इस पंक्ति से एक समुदाय को आपत्ति हो सकती है। उसी दिन शाम को नेशनल चैनल ने इस विवाद को लेकर मुझसे टेलीफोन पर लाइव प्रतिक्रिया मांगी तो मैंने अपनी निजी भाईचारे की भावना के बावजूद विरोधियों का ही पक्ष लिया। बाद में मैंने खुद से पूछा-ऐसा मैंने क्यों किया? मुझे इसका क्या फायदा मिला? मुझे मायावती की राजनीति से न नफा है, न कोई नुकसान, न ही मैं दलित राजनीति करना चाहता हूं। कारण सीधा-सादा है। मैं महज हाशिए पर खडे लोगों और शताब्दियों तक दबाए-कुचले गए लोगों के पक्ष में खडा हूं, जो अब विरोध के स्वर मुखर करने लगे हैं। दरअसल, सच तो यह है कि अपनी भाषा, रूपकों या बिंबों में हम कहीं न कहीं परंपरागत और युगों से चले आ रहे इन पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते हैं। खुशी की बात है कि मुख्यमंत्री ने इन पूर्वाग्रहों को चोट पहुंचाने के लिए बॉलीवुड का सहारा लिया। उनका कहना था कि उस समुदाय को भी समाज के तमाम अन्य तबकों की तरह सम्मानजनक ढंग से जीने का अधिकार है। यह इस बात की ओर इंगित करता है कि 21वीं सदी के पहले दशक में दलितों के प्रति बेहतर व्यवहार की मांग ज्यादा स्पष्ट ढंग से मुखरित हुई है और बॉलीवुड को इस लडाई में नेतृत्वकारी भूमिका निभानी है।
हाशिए पर खडे लोगों का गीत
बीते दिनों के बारे में सोचता हूं तो महसूस करता हूं कि बॉलीवुड ने अपनी कहानियों में व्यक्ति के सम्मान और इज्जत की इस भावना को प्रतिस्थापित ही किया है। फिल्म फिर सुबह होगी में साहिर लुधियानवी साहब के लिखे हुए एक गीत ने अपना खास मुकाम बनाया। गीत के बोल इस प्रकार थे -
माना कि अभी तेरे-मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं, मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं, इंसानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में ना तोली जाएगी, वो सुबह कभी तो आएगी..।
यह फिल्म काफी हद तक दोस्तोवोस्की के नॉवेल क्राइम एंड पनिशमेंट पर आधारित थी, साथ ही तत्कालीन नेहरूकालीन भारत में असहाय लोगों के हक में एक भावनात्मक निवेदन करती थी। आजाद भारत में जब हजारों प्रवासी अपने लिए बेहतर िजंदगी की तलाश में निकल पडे थे और जिस तरह तमाम शहर उनके दबाव तले बिखर रहे थे, उस समूचे घटनाक्रम पर यह फिल्म मानवीयता की उत्कंठा लिए एक राजनीतिक टिप्पणी करती थी। यह गीत दर्शाता था कि किस तरह गरीब और मुफलिस युगों से अपने सम्मान की खातिर तन और मन से एकजुट होकर लड रहे हैं। भारतीय सिनेमा का स्वर्णयुग कहे जाने वाले पचास के दशक में ऐसी थीम्स पर खासा काम किया गया।
जमीर और सम्मान की लडाई
राज कपूर की फिल्म श्री 420 की कहानी भी यही दिखाती थी कि असह्य भुखमरी और गरीबी की हालत में भी लोग अपने जमीर को िजंदा रखते हैं, अपने आत्मसम्मान को गिरवी नहीं रखते, जबकि दूसरी तरफ धनी लोग समाज के तमाम मानदंडों का मखौल उडाते हैं लेकिन वे अपने पैसे और ताकत के बल पर समाज में प्रतिष्ठित और सम्माजनक िजंदगी बिताते हैं।
एक अन्य उदाहरण है फिल्म मदर इंडिया का। ऑस्कर के लिए नामांकित इस पहली भारतीय फिल्म में मां बनी नरगिस दत्त शत्रु की बेटी की अस्मिता और सम्मान के लिए अपने ही बेटे की हत्या कर देती है। एक स्त्री का अपमान मां की नजर में असह्य था, भले ही वह शत्रु की बेटी क्यों न हो। अपने कलेजे के टुकडे को खुद खत्म करने के मार्मिक दृश्य आज तक लोगों के जेहन में अंकित हैं। इस मां को पूरे समाज की संवेदना और सराहना प्राप्त होती है और लोग इस मां को मदर इंडिया कहने लगते हैं। निर्माता बिमल रॉय ने अपनी फिल्मों के जरिए हमेशा अन्याय और गैर-बराबरी के िखलाफ आवाज उठाई, फिर चाहे यह असमानता धार्मिक, आर्थिक स्तर पर हो या सामाजिक स्तर पर। अछूत समस्या को लेकर उन्होंने फिल्म सुजाता बनाई। फिल्म में एक अछूत लडकी अपना पालन-पोषण करने वाली ब्राह्मण मां की जान बचाती है, उन्हें रक्तदान कर। इस तरह ब्राह्मण परिवार और समाज में वह सम्मान हासिल करती है, जो उसे अछूत होने के चलते कभी नहीं मिल सकता था। फिल्मी पर्दे पर ईमानदारी, सच्चरित्रता और सच्चाई का पक्ष लेने वाले पात्र दर्शकों की वाहवाही प्राप्त करते हैं और सम्मान के काबिल समझे जाते हैं। पात्रों में थोडे-बहुत शारीरिक अंतरों और बॉडी लैंग्वेज के माध्यम से दर्शक को बताया जाता है कि यह अच्छा व्यक्ति है या बुरा। अच्छा व्यक्ति हमेशा बुजुर्गो और कमजोरों का सम्मान हासिल करता है, उनके चरण स्पर्श कर या उन्हें प्रणाम कर, स्त्रियों और अधिकारविहीनों का सम्मान कर, जबकि विलेन या खलनायक मर्यादाहीन व्यवहार कर सामाजिक अच्छाइयों को बिगाडने का काम करते हैं..।
रचनात्मकता का संघर्ष
जहां तक मुझे याद आता है, उन दिनों हिंदी सिनेमा में दो महान प्रेम कहानियां एकसाथ आया करती थीं। पहले ढंग की कहानी में नायक के एंद्रिक प्रेम को दर्शाया जाता था, जिसमें गीत-नृत्य, आंसुओं और दिल टूटने की गाथा होती थी। जबकि दूसरी कहानी का नायक संसार से सम्मान और प्रेम पाने को आतुर रहता, अपनी सामाजिक-आर्थिक पहचान के लिए संघर्षरत रहता। समय के साथ यह दूसरी कहानी अधिक महत्वपूर्ण होती गई, प्रेम कहानी पीछे चली गई..। विगत समय में प्यासा इस लिहाज से एक महान फिल्म थी, जिसमें एक कलाकार अपनी कला के बल पर सम्मान पाने की हसरत रखता है, लेकिन अंतत: दुनियावी एहसास उसे इस कबीरी नतीजे तक पहुंचा देते हैं कि यहां इस संसार में हमेशा मुर्दो को ही पूजा जाता है। इस फिल्म का गीत, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो.. भी खासा चर्चित रहा।
सम्मान भावना में कमी
समाज में सम्मान भावना में आया यह ह्रास मानव निर्मित है। ठीक अकाल और सूखे की तरह, जब उस जिजिविषा का ही अंत हो जाता है, जो पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जरूरी है। प्राकृतिक आपदाएं संतुलन स्थापित करने का प्रकृति का अपना एक तरीका हैं। सम्मान मनुष्य द्वारा मनुष्य को दिया गया वह खास गुण है, जिसके द्वारा समाज में शक्ति-संतुलनको अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास किया जाता रहा है। इसीलिए नेतृत्व करने वाले हमेशा महत्वपूर्ण हुआ करते हैं, अनुयायी सदैव उनके पीछे चलते हैं।
मुझसे न पूछें कि क्यों, मगर हमारी निजी अवधारणा काफी हद तक इस पर निर्भर करती है कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं। हम खुद को दूसरों की नजर में अच्छा बनाए रखना चाहते हैं, िजंदगी भर सम्मान हासिल करने के लिए दुनिया की तरफ देखते हैं ताकि खुद के प्रति अच्छा महसूस कर सकें। हम इस बात से नफरत कर सकते हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं कर सकते कि दुनिया की नजर में उच्च स्तर या सम्मान हासिल करना एक ऐसा विचार है जो बहुतों द्वारा किसी एक को दिया जाने वाला सबसे शानदार इहलौकिक तोहफा है। लगभग हर समय में विभिन्न समाजों ने विभिन्न समूहों को यह सम्मान दिया है। पुराने समय में उपदेशकों, सैनिकों, शाही घरानों और शासकों ने अपने समाज या प्रजा से यह अनमोल उपहार प्राप्त किया। राजशाही या कुलीन समाजों में यह तो संभव था कि दुकानदार या व्यापारी धनी हो जाएं, लेकिन उन्हें समाज के वैसे सम्मानित सदस्य की तरह नहीं देखा जाता था, जिस तरह तथाकथित ऊंची जाति वालों को देखा जाता था। यहां ऊंची जाति शासक वर्ग का प्रतीक है।
पैसे से तौली जाने लगी प्रतिष्ठा
मगर फिर एक समय ऐसा भी आया, जब सम्मान इस स्तर पर मिलने लगा कि आपके पास कितना संग्रह है, यानी आप भौतिक स्तर पर कितने समृद्ध हैं। ऐसे समय में बिजनेसमैन नए शासक के बतौर स्थापित हुए। यह नतीजा था पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रांति और अमेरिका में तीस के दशक में आए बिखराव का। अंतत: आजादी के बाद इसने भारत को भी अपने लपेटे में ले लिया और सम्मान का आधार ही पैसा होता चला गया।
आज, आपकी हैसियत तभी कुछ है, जबकि बैंक में दस अंकों का रोकडा आपके नाम जमा हो। ऐसे समाज में जब करोड की कीमत वही हो चुकी है, जो कल तक लाख की थी। समाज की सबसे मजबूत करेंसी यानी सम्मान को ही खत्म कर दिया गया है। यह समय ऐसा है, जब येन-केन-प्रकारेण सभी शीघ्र से शीघ्र धनी हो जाना चाहते हैं। सुखोपभोग और पैसे की हमारी ललक तात्कालिक सुख प्राप्ति का माध्यम हो चुकी है। यूज एंड थ्रो वाले इस युग में न सिर्फ चीजों की खरीद-फरोख्त कर, उनका उपभोग कर उन्हें फेंक दिया जा रहा है, बल्कि लोगों को भी इस्तेमाल कर फेंक देने की प्रवृत्ति बढती जा रही है। निठारी जैसे जघन्य और पाशविक कांड इसी हवस की परिणति हैं। इसीलिए आज टीवी पर मनुष्य द्वारा मनुष्य पर की जाने वाली क्रूर और रक्तरंजित कहानियों की भरमार है। सामाजिक पतनशीलता की पराकाष्ठा है यह।
हर आर्थिक सफलता को सांस्कृतिक नव-जागरण का अनुयायी होने की आवश्यकता है। समय है कि उभरते हुए भारत को अपने युवाओं को यह सिखाना चाहिए कि सच्चे सम्मान का मूल्य समाज के लिए क्या है। हाल ही में आई फिल्म तारे जमीन पर में आमिर खान ने जन्मजात मानसिक रोग से ग्रस्त बच्चों के प्रति यह सम्मान प्रदर्शित किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक-दूसरे के प्रति सम्मान और शुभकामना प्रदर्शित करने की भारतीय परंपरा दोनों हाथों को जोडकर प्रणाम करने की है। इस प्रणाम का अर्थ है, मैं आपके भीतर मौजूद उस परमपिता परमेश्वर के प्रति नतमस्तक हूं। चलें, अपनी दुनिया को पीछे छूट चुकी संस्कृति का दर्शन कराएं और एक सादगीमय प्रणाम के नए अर्थ खंगालें।
अभी कुछ ही समय बीता है, जब सहारा वन चैनल के रियलिटी शो झूम इंडिया के आिखरी और निर्णायक एपीसोड के दौरान एक प्रतियोगी के कमेंट ने मुझे आहत किया। मैं तीन लोगों के निर्णायक मंडल में शामिल था। यह कमेंट भी प्रत्यक्ष तौर पर मेरे िखलाफ नहीं था, बावजूद इसके मैंने इस तरह की हरकतों का विरोध करना ठीक समझा और कार्यक्रम से वॉकआउट कर गया। मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं समाज की मूल्य प्रणाली को लेकर बहुत ज्यादा नहीं सोचता हूं, इस विषय को लेकर अधिक चिंतित नहीं रहता, फिर भी मैं इसी समाज का एक हिस्सा हूं। हमारी मूल्य प्रणाली में स्त्रियों और बुजुर्गो को सम्मान की नजर से देखा जाता है और इनके िखलाफ कुछ गलत होते देख मेरा मन मुझे कचोटने लगता है। इसलिए जब एक प्रतियोगी ने मेरे साथी निर्णायकों शबाना आजमी और आनंदजी भाई का उपहास उडाया, मुझे महसूस हुआ कि उसने एक मान्य सामाजिक व्यवहार की लक्ष्मण रेखा लांघी है और इसका विरोध किया जाना चाहिए। मानव समाज के इस सबसे मूल्यवान खजाने को बचाने, बनाए रखने और बढाने की कोशिश की जानी चाहिए, जिसमें एक व्यक्ति के सम्मान को बेहद अहमियत दी जाती है।
जातिगत टिप्पणियों का विरोध
इसे संयोग कहें या कुछ और, इस शो में मेरे भावनात्मक उफान के अगले ही दिन एक अन्य हास्यास्पद विवाद की खबरें छाई रहीं। माधुरी दीक्षित की फिल्मों में वापसी वाली फिल्म आजा नच ले पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रतिबंध लगा दिया। बॉलीवुड में हमारे जैसे ढेरों लोग यह जानने को उत्सुक थे कि कैसे एक निर्दोष-सी फिल्म पर इतनी कडी प्रतिक्रिया हो सकती है! जब हमने यह जानने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि माननीय मुख्यमंत्री को फिल्म के एक गीत पर एतराज था और उनके अनुसार यह गीत दलित भावनाओं को आहत करता है। इस गीत की एक पंक्ति में आए .. कहे मैं सुनार हूं.. जैसे शब्दों को लेकर बखेडा खडा हो गया। माना गया कि इस पंक्ति से एक समुदाय को आपत्ति हो सकती है। उसी दिन शाम को नेशनल चैनल ने इस विवाद को लेकर मुझसे टेलीफोन पर लाइव प्रतिक्रिया मांगी तो मैंने अपनी निजी भाईचारे की भावना के बावजूद विरोधियों का ही पक्ष लिया। बाद में मैंने खुद से पूछा-ऐसा मैंने क्यों किया? मुझे इसका क्या फायदा मिला? मुझे मायावती की राजनीति से न नफा है, न कोई नुकसान, न ही मैं दलित राजनीति करना चाहता हूं। कारण सीधा-सादा है। मैं महज हाशिए पर खडे लोगों और शताब्दियों तक दबाए-कुचले गए लोगों के पक्ष में खडा हूं, जो अब विरोध के स्वर मुखर करने लगे हैं। दरअसल, सच तो यह है कि अपनी भाषा, रूपकों या बिंबों में हम कहीं न कहीं परंपरागत और युगों से चले आ रहे इन पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते हैं। खुशी की बात है कि मुख्यमंत्री ने इन पूर्वाग्रहों को चोट पहुंचाने के लिए बॉलीवुड का सहारा लिया। उनका कहना था कि उस समुदाय को भी समाज के तमाम अन्य तबकों की तरह सम्मानजनक ढंग से जीने का अधिकार है। यह इस बात की ओर इंगित करता है कि 21वीं सदी के पहले दशक में दलितों के प्रति बेहतर व्यवहार की मांग ज्यादा स्पष्ट ढंग से मुखरित हुई है और बॉलीवुड को इस लडाई में नेतृत्वकारी भूमिका निभानी है।
हाशिए पर खडे लोगों का गीत
बीते दिनों के बारे में सोचता हूं तो महसूस करता हूं कि बॉलीवुड ने अपनी कहानियों में व्यक्ति के सम्मान और इज्जत की इस भावना को प्रतिस्थापित ही किया है। फिल्म फिर सुबह होगी में साहिर लुधियानवी साहब के लिखे हुए एक गीत ने अपना खास मुकाम बनाया। गीत के बोल इस प्रकार थे -
माना कि अभी तेरे-मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं, मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं, इंसानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में ना तोली जाएगी, वो सुबह कभी तो आएगी..।
यह फिल्म काफी हद तक दोस्तोवोस्की के नॉवेल क्राइम एंड पनिशमेंट पर आधारित थी, साथ ही तत्कालीन नेहरूकालीन भारत में असहाय लोगों के हक में एक भावनात्मक निवेदन करती थी। आजाद भारत में जब हजारों प्रवासी अपने लिए बेहतर िजंदगी की तलाश में निकल पडे थे और जिस तरह तमाम शहर उनके दबाव तले बिखर रहे थे, उस समूचे घटनाक्रम पर यह फिल्म मानवीयता की उत्कंठा लिए एक राजनीतिक टिप्पणी करती थी। यह गीत दर्शाता था कि किस तरह गरीब और मुफलिस युगों से अपने सम्मान की खातिर तन और मन से एकजुट होकर लड रहे हैं। भारतीय सिनेमा का स्वर्णयुग कहे जाने वाले पचास के दशक में ऐसी थीम्स पर खासा काम किया गया।
जमीर और सम्मान की लडाई
राज कपूर की फिल्म श्री 420 की कहानी भी यही दिखाती थी कि असह्य भुखमरी और गरीबी की हालत में भी लोग अपने जमीर को िजंदा रखते हैं, अपने आत्मसम्मान को गिरवी नहीं रखते, जबकि दूसरी तरफ धनी लोग समाज के तमाम मानदंडों का मखौल उडाते हैं लेकिन वे अपने पैसे और ताकत के बल पर समाज में प्रतिष्ठित और सम्माजनक िजंदगी बिताते हैं।
एक अन्य उदाहरण है फिल्म मदर इंडिया का। ऑस्कर के लिए नामांकित इस पहली भारतीय फिल्म में मां बनी नरगिस दत्त शत्रु की बेटी की अस्मिता और सम्मान के लिए अपने ही बेटे की हत्या कर देती है। एक स्त्री का अपमान मां की नजर में असह्य था, भले ही वह शत्रु की बेटी क्यों न हो। अपने कलेजे के टुकडे को खुद खत्म करने के मार्मिक दृश्य आज तक लोगों के जेहन में अंकित हैं। इस मां को पूरे समाज की संवेदना और सराहना प्राप्त होती है और लोग इस मां को मदर इंडिया कहने लगते हैं। निर्माता बिमल रॉय ने अपनी फिल्मों के जरिए हमेशा अन्याय और गैर-बराबरी के िखलाफ आवाज उठाई, फिर चाहे यह असमानता धार्मिक, आर्थिक स्तर पर हो या सामाजिक स्तर पर। अछूत समस्या को लेकर उन्होंने फिल्म सुजाता बनाई। फिल्म में एक अछूत लडकी अपना पालन-पोषण करने वाली ब्राह्मण मां की जान बचाती है, उन्हें रक्तदान कर। इस तरह ब्राह्मण परिवार और समाज में वह सम्मान हासिल करती है, जो उसे अछूत होने के चलते कभी नहीं मिल सकता था। फिल्मी पर्दे पर ईमानदारी, सच्चरित्रता और सच्चाई का पक्ष लेने वाले पात्र दर्शकों की वाहवाही प्राप्त करते हैं और सम्मान के काबिल समझे जाते हैं। पात्रों में थोडे-बहुत शारीरिक अंतरों और बॉडी लैंग्वेज के माध्यम से दर्शक को बताया जाता है कि यह अच्छा व्यक्ति है या बुरा। अच्छा व्यक्ति हमेशा बुजुर्गो और कमजोरों का सम्मान हासिल करता है, उनके चरण स्पर्श कर या उन्हें प्रणाम कर, स्त्रियों और अधिकारविहीनों का सम्मान कर, जबकि विलेन या खलनायक मर्यादाहीन व्यवहार कर सामाजिक अच्छाइयों को बिगाडने का काम करते हैं..।
रचनात्मकता का संघर्ष
जहां तक मुझे याद आता है, उन दिनों हिंदी सिनेमा में दो महान प्रेम कहानियां एकसाथ आया करती थीं। पहले ढंग की कहानी में नायक के एंद्रिक प्रेम को दर्शाया जाता था, जिसमें गीत-नृत्य, आंसुओं और दिल टूटने की गाथा होती थी। जबकि दूसरी कहानी का नायक संसार से सम्मान और प्रेम पाने को आतुर रहता, अपनी सामाजिक-आर्थिक पहचान के लिए संघर्षरत रहता। समय के साथ यह दूसरी कहानी अधिक महत्वपूर्ण होती गई, प्रेम कहानी पीछे चली गई..। विगत समय में प्यासा इस लिहाज से एक महान फिल्म थी, जिसमें एक कलाकार अपनी कला के बल पर सम्मान पाने की हसरत रखता है, लेकिन अंतत: दुनियावी एहसास उसे इस कबीरी नतीजे तक पहुंचा देते हैं कि यहां इस संसार में हमेशा मुर्दो को ही पूजा जाता है। इस फिल्म का गीत, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो.. भी खासा चर्चित रहा।
सम्मान भावना में कमी
समाज में सम्मान भावना में आया यह ह्रास मानव निर्मित है। ठीक अकाल और सूखे की तरह, जब उस जिजिविषा का ही अंत हो जाता है, जो पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जरूरी है। प्राकृतिक आपदाएं संतुलन स्थापित करने का प्रकृति का अपना एक तरीका हैं। सम्मान मनुष्य द्वारा मनुष्य को दिया गया वह खास गुण है, जिसके द्वारा समाज में शक्ति-संतुलनको अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास किया जाता रहा है। इसीलिए नेतृत्व करने वाले हमेशा महत्वपूर्ण हुआ करते हैं, अनुयायी सदैव उनके पीछे चलते हैं।
मुझसे न पूछें कि क्यों, मगर हमारी निजी अवधारणा काफी हद तक इस पर निर्भर करती है कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं। हम खुद को दूसरों की नजर में अच्छा बनाए रखना चाहते हैं, िजंदगी भर सम्मान हासिल करने के लिए दुनिया की तरफ देखते हैं ताकि खुद के प्रति अच्छा महसूस कर सकें। हम इस बात से नफरत कर सकते हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं कर सकते कि दुनिया की नजर में उच्च स्तर या सम्मान हासिल करना एक ऐसा विचार है जो बहुतों द्वारा किसी एक को दिया जाने वाला सबसे शानदार इहलौकिक तोहफा है। लगभग हर समय में विभिन्न समाजों ने विभिन्न समूहों को यह सम्मान दिया है। पुराने समय में उपदेशकों, सैनिकों, शाही घरानों और शासकों ने अपने समाज या प्रजा से यह अनमोल उपहार प्राप्त किया। राजशाही या कुलीन समाजों में यह तो संभव था कि दुकानदार या व्यापारी धनी हो जाएं, लेकिन उन्हें समाज के वैसे सम्मानित सदस्य की तरह नहीं देखा जाता था, जिस तरह तथाकथित ऊंची जाति वालों को देखा जाता था। यहां ऊंची जाति शासक वर्ग का प्रतीक है।
पैसे से तौली जाने लगी प्रतिष्ठा
मगर फिर एक समय ऐसा भी आया, जब सम्मान इस स्तर पर मिलने लगा कि आपके पास कितना संग्रह है, यानी आप भौतिक स्तर पर कितने समृद्ध हैं। ऐसे समय में बिजनेसमैन नए शासक के बतौर स्थापित हुए। यह नतीजा था पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रांति और अमेरिका में तीस के दशक में आए बिखराव का। अंतत: आजादी के बाद इसने भारत को भी अपने लपेटे में ले लिया और सम्मान का आधार ही पैसा होता चला गया।
आज, आपकी हैसियत तभी कुछ है, जबकि बैंक में दस अंकों का रोकडा आपके नाम जमा हो। ऐसे समाज में जब करोड की कीमत वही हो चुकी है, जो कल तक लाख की थी। समाज की सबसे मजबूत करेंसी यानी सम्मान को ही खत्म कर दिया गया है। यह समय ऐसा है, जब येन-केन-प्रकारेण सभी शीघ्र से शीघ्र धनी हो जाना चाहते हैं। सुखोपभोग और पैसे की हमारी ललक तात्कालिक सुख प्राप्ति का माध्यम हो चुकी है। यूज एंड थ्रो वाले इस युग में न सिर्फ चीजों की खरीद-फरोख्त कर, उनका उपभोग कर उन्हें फेंक दिया जा रहा है, बल्कि लोगों को भी इस्तेमाल कर फेंक देने की प्रवृत्ति बढती जा रही है। निठारी जैसे जघन्य और पाशविक कांड इसी हवस की परिणति हैं। इसीलिए आज टीवी पर मनुष्य द्वारा मनुष्य पर की जाने वाली क्रूर और रक्तरंजित कहानियों की भरमार है। सामाजिक पतनशीलता की पराकाष्ठा है यह।
हर आर्थिक सफलता को सांस्कृतिक नव-जागरण का अनुयायी होने की आवश्यकता है। समय है कि उभरते हुए भारत को अपने युवाओं को यह सिखाना चाहिए कि सच्चे सम्मान का मूल्य समाज के लिए क्या है। हाल ही में आई फिल्म तारे जमीन पर में आमिर खान ने जन्मजात मानसिक रोग से ग्रस्त बच्चों के प्रति यह सम्मान प्रदर्शित किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक-दूसरे के प्रति सम्मान और शुभकामना प्रदर्शित करने की भारतीय परंपरा दोनों हाथों को जोडकर प्रणाम करने की है। इस प्रणाम का अर्थ है, मैं आपके भीतर मौजूद उस परमपिता परमेश्वर के प्रति नतमस्तक हूं। चलें, अपनी दुनिया को पीछे छूट चुकी संस्कृति का दर्शन कराएं और एक सादगीमय प्रणाम के नए अर्थ खंगालें।
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