दरअसल:प्रचार में गौण होते निर्देशक
-अजय ब्रह्मात्मज
हर कलाकार अपने इंटरव्यू में निर्देशक को कैप्टन ऑफ द शिप कहता है। मुहावरा बहुत पुराना जरूर है, लेकिन यही मुहावरा प्रचलित है। हां, निर्देशक फिल्म रूपी जहाज का कप्तान होता है, क्योंकि यही सच है। निर्देशक ही फिल्म की प्लानिंग करता है। एक रचना-संसार सुनिश्चित करता है। लेखक की मदद से किरदार गढ़ता है और फिर उनमें प्राण फूंक देता है। पर्दे पर चलते-फिरते वे किरदार दर्शकों से संवाद और संवेदना स्थापित करते हैं। दो से तीन घंटे की उस दुनिया को गढ़ने वाला निर्देशक ही होता है। अगर आप फिल्म जगत से वाकिफ हैं और निर्माण की प्रक्रिया से परिचित हैं, तो निर्देशक की नियामक भूमिका को समझ सकते हैं। एक सिम्पल विचार को फिल्म में परिणत करना और फिर उसे व्यापार योग्य वस्तु बना देने में आज के निर्देशक की भूमिका फिल्म पूरी होने के साथ खत्म हो जाती है। फिल्म का फाइनल प्रिंट आते ही इन दिनों बाजार के जानकार उसकी मार्केटिंग और पैकेजिंग की रणनीति तय करना शुरू कर देते हैं। अफसोस की बात तो यह है कि इस रणनीति में निर्देशक की राय नहीं ली जाती और न उसे इतना जरूरी समझा जाता है कि फिल्म के प्रचार में उसका समुचित उपयोग किया जाए! वैसे, एक सच यह भी है कि अधिकांश निर्देशकों ने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया है। वे हाशिए पर आ गई भूमिका से संतुष्ट हैं, क्योंकि उन्हें यही लगता है कि अगर उन्होंने हस्तक्षेप किया, तो वे अगली फिल्म से वंचित हो सकते हैं।
हालांकि पिछले दिनों दो-चार निर्देशकों ने इस ताजा स्थिति के प्रति नाराजगी व्यक्त की। उन्होंने सोदाहरण बताया कि फिल्मों के प्रचार में निर्देशक गौण होता है। केवल स्टार बोल रहे होते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि मीडिया की भी रुचि निर्देशकों में नहीं रहती। हां, अगर निर्देशक करण जौहर, आशुतोष गोवारीकर जैसे नामचीन हों, तो अलग बात है, अन्यथा फिल्म के फर्स्ट लुक में उनके एक-दो उद्धरण भर रख दिए जाते हैं। एक नाराज निर्देशक ने बताया कि हीरो या हीरोइन को फिल्मों के कथ्य की कोई जानकारी नहीं होती। कायदे से वे अपने किरदारों को भी नहीं जानते। फिल्म निर्माण और उसके प्रचार में अजीब किस्म की लापरवाही घुसती जा रही है। पॉपुलर स्टारों में यदि दो-तीन को छोड़ दें, तो बाकी को इसकी परवाह भी नहीं रहती कि फिल्म में उनके चरित्र को किस रूप में पेश किया गया है! फिल्म की रिलीज के समय वे चंद मोटी-मोटी बातें कहते हैं, जिसे सिर्फ फिल्म का नाम बदल कर उनकी हर फिल्म के साथ दिखाया जा सकता है। मसलन, मेरा काम अच्छा है, अलग है.. फिल्म के निर्देशक को अपना काम मालूम है.. हीरो-हीरोइन का सुंदर सहयोग रहा..। शूटिंग का माहौल पारिवारिक था.. बड़ा मजा आया। टीवी के एंटरटेनमेंट रिपोर्टर स्टारों की एकरूप टिप्पणी के साथ फिल्म के गतिचित्र जोड़कर पैकेज तैयार कर लेते हैं। उस नाराज निर्देशक ने आगे कहा, इससे टीवी के दर्शकों का मनोरंजन तो हो जाता है, लेकिन वे समझ नहीं पाते कि फिल्म में क्या है? वे असमंजस में रहते हैं।
हालांकि फिल्म के शुरू और अंत में ए फिल्म बाई.. लिखने का रिवाज चल पड़ा है, लेकिन फिल्म का कर्ता-धर्ता निर्देशक ही फिल्म के बारे में कुछ नहीं बता पाता। सच तो यह है कि वह स्टारों की बकवास सुनने के लिए विवश रहता है। उसकी अकुलाहट और पीड़ा हम समझ सकते हैं। अपने सृजन के बारे में कुछ न बोल-बता पाने की तकलीफ से गुजरते निर्देशक की वेदना तब और बढ़ जाती है, जब उसकी फिल्म का अभिप्रेत जाहिर नहीं हो पाता। स्टार ज्यादा से ज्यादा अपने रोल के बारे में बता पाते हैं। उनके सामने पूरी फिल्म की समझ नहीं रहती। अगर फिल्म के प्रचार के समय निर्देशक का नजरिया सुसंगत तरीके से पेश किया जाए, तो दर्शकों को धारणा बनाने और निर्णय लेने में सुविधा होगी कि वे फिल्म देखें या न देखें! उसके बाद दर्शक फिल्म को सही परिप्रेक्ष्य में देख पाएंगे और तब फिल्म की सराहना और आलोचना भी अधिक तार्किक और संगत होगी।
हर कलाकार अपने इंटरव्यू में निर्देशक को कैप्टन ऑफ द शिप कहता है। मुहावरा बहुत पुराना जरूर है, लेकिन यही मुहावरा प्रचलित है। हां, निर्देशक फिल्म रूपी जहाज का कप्तान होता है, क्योंकि यही सच है। निर्देशक ही फिल्म की प्लानिंग करता है। एक रचना-संसार सुनिश्चित करता है। लेखक की मदद से किरदार गढ़ता है और फिर उनमें प्राण फूंक देता है। पर्दे पर चलते-फिरते वे किरदार दर्शकों से संवाद और संवेदना स्थापित करते हैं। दो से तीन घंटे की उस दुनिया को गढ़ने वाला निर्देशक ही होता है। अगर आप फिल्म जगत से वाकिफ हैं और निर्माण की प्रक्रिया से परिचित हैं, तो निर्देशक की नियामक भूमिका को समझ सकते हैं। एक सिम्पल विचार को फिल्म में परिणत करना और फिर उसे व्यापार योग्य वस्तु बना देने में आज के निर्देशक की भूमिका फिल्म पूरी होने के साथ खत्म हो जाती है। फिल्म का फाइनल प्रिंट आते ही इन दिनों बाजार के जानकार उसकी मार्केटिंग और पैकेजिंग की रणनीति तय करना शुरू कर देते हैं। अफसोस की बात तो यह है कि इस रणनीति में निर्देशक की राय नहीं ली जाती और न उसे इतना जरूरी समझा जाता है कि फिल्म के प्रचार में उसका समुचित उपयोग किया जाए! वैसे, एक सच यह भी है कि अधिकांश निर्देशकों ने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया है। वे हाशिए पर आ गई भूमिका से संतुष्ट हैं, क्योंकि उन्हें यही लगता है कि अगर उन्होंने हस्तक्षेप किया, तो वे अगली फिल्म से वंचित हो सकते हैं।
हालांकि पिछले दिनों दो-चार निर्देशकों ने इस ताजा स्थिति के प्रति नाराजगी व्यक्त की। उन्होंने सोदाहरण बताया कि फिल्मों के प्रचार में निर्देशक गौण होता है। केवल स्टार बोल रहे होते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि मीडिया की भी रुचि निर्देशकों में नहीं रहती। हां, अगर निर्देशक करण जौहर, आशुतोष गोवारीकर जैसे नामचीन हों, तो अलग बात है, अन्यथा फिल्म के फर्स्ट लुक में उनके एक-दो उद्धरण भर रख दिए जाते हैं। एक नाराज निर्देशक ने बताया कि हीरो या हीरोइन को फिल्मों के कथ्य की कोई जानकारी नहीं होती। कायदे से वे अपने किरदारों को भी नहीं जानते। फिल्म निर्माण और उसके प्रचार में अजीब किस्म की लापरवाही घुसती जा रही है। पॉपुलर स्टारों में यदि दो-तीन को छोड़ दें, तो बाकी को इसकी परवाह भी नहीं रहती कि फिल्म में उनके चरित्र को किस रूप में पेश किया गया है! फिल्म की रिलीज के समय वे चंद मोटी-मोटी बातें कहते हैं, जिसे सिर्फ फिल्म का नाम बदल कर उनकी हर फिल्म के साथ दिखाया जा सकता है। मसलन, मेरा काम अच्छा है, अलग है.. फिल्म के निर्देशक को अपना काम मालूम है.. हीरो-हीरोइन का सुंदर सहयोग रहा..। शूटिंग का माहौल पारिवारिक था.. बड़ा मजा आया। टीवी के एंटरटेनमेंट रिपोर्टर स्टारों की एकरूप टिप्पणी के साथ फिल्म के गतिचित्र जोड़कर पैकेज तैयार कर लेते हैं। उस नाराज निर्देशक ने आगे कहा, इससे टीवी के दर्शकों का मनोरंजन तो हो जाता है, लेकिन वे समझ नहीं पाते कि फिल्म में क्या है? वे असमंजस में रहते हैं।
हालांकि फिल्म के शुरू और अंत में ए फिल्म बाई.. लिखने का रिवाज चल पड़ा है, लेकिन फिल्म का कर्ता-धर्ता निर्देशक ही फिल्म के बारे में कुछ नहीं बता पाता। सच तो यह है कि वह स्टारों की बकवास सुनने के लिए विवश रहता है। उसकी अकुलाहट और पीड़ा हम समझ सकते हैं। अपने सृजन के बारे में कुछ न बोल-बता पाने की तकलीफ से गुजरते निर्देशक की वेदना तब और बढ़ जाती है, जब उसकी फिल्म का अभिप्रेत जाहिर नहीं हो पाता। स्टार ज्यादा से ज्यादा अपने रोल के बारे में बता पाते हैं। उनके सामने पूरी फिल्म की समझ नहीं रहती। अगर फिल्म के प्रचार के समय निर्देशक का नजरिया सुसंगत तरीके से पेश किया जाए, तो दर्शकों को धारणा बनाने और निर्णय लेने में सुविधा होगी कि वे फिल्म देखें या न देखें! उसके बाद दर्शक फिल्म को सही परिप्रेक्ष्य में देख पाएंगे और तब फिल्म की सराहना और आलोचना भी अधिक तार्किक और संगत होगी।
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