फ़िल्म समीक्षा:चमकू
यथार्थ का फिल्मी चित्रण
शहरी दर्शकों के लिए इस फिल्म के यथार्थ को समझ पाना सहज नहीं होगा। फिल्मों के जरिए अंडरवर्ल्ड की ग्लैमराइज हिंसा से परिचित दर्शक बिहार में मौजूद इस हिंसात्मक माहौल की कल्पना नहीं कर सकते। लेखक-निर्देशक कबीर कौशिक ने वास्तविक किरदारों को लेकर एक नाटकीय और भावपूर्ण फिल्म बनाई है। फिल्म देखते वक्त यह जरूर लगता है कि कहीं-कहीं कुछ छूट गया है।
एक काल्पनिक गांव भागपुर में खुशहाल किसान परिवार में तब मुसीबत आती है, जब गांव के जमींदार उससे नाराज हो जाते हैं। वे बेटे के सामने पिता की हत्या कर देते हैं। बेटा नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वहीं उसकी परवरिश होती है। बड़ा होने पर चमकू नक्सल गतिविधियों में हिस्सा लेता है। एक मुठभेड़ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद वह खुद को पुलिस अस्पताल में पाता है। वहां उसके सामने शर्त रखी जाती है कि वह सरकार के गुप्त मिशन का हिस्सा बन जाए या अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठे। चमकू गुप्त मिशन का हिस्सा बनता है। वह मुंबई आ जाता है, जहां वह द्वंद्व और दुविधा का शिकार होता है। वह इस जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है लेकिन अपराध जगत की तरह सरकारी गुप्त मिशन का भी रास्ता एकतरफा होता है। वहां से सामान्य जिंदगी में कोई जिंदा नहीं लौटता। चमकू इसका अपवाद है। वह विजयी होता है।
कबीर कौशिक की पटकथा और संरचना दो दशक पहले के शिल्प में है। वे पुरानी शैली में दृश्य रचते हैं और उनका फिल्मांकन भी उसी तरीके से करते हैं। दर्शक घटनाओं और दृश्यों की सटीक कल्पना करने लगते हैं। हद तो तब होती है जब फिल्म की नायिका गर्भवती होने की घोषणा करती है। तात्पर्य यह है कि नक्सल पृष्ठभूमि की अनोखी कहानी घिसी-पिटी फार्मूलाबद्ध हिंदी फिल्म में तब्दील हो जाती है।
कबीर को भारतीय रेल से कुछ ज्यादा प्रेम है। उनकी पिछली फिल्म का क्लाइमेक्स ट्रेन में था। इस फिल्म में क्लाइमेक्स के पूर्व के दृश्य ट्रेन में हैं। वैसे चलती ट्रेन में डिब्बे के अंदर एक्शन की कल्पना रोमांचक है।
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Neeraj