फिल्मी पर्दे और जीवन का सच
-अजय ब्रह्मात्मज
कुछ दिनों पहले शबाना आजमी ने बयान दे दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें (पति जावेद अख्तर समेत) मुंबई में मकान नहीं मिल पा रहा है। उनके बयान का विरोध हो रहा है। शबाना का सामाजिक व्यक्तित्व ओढ़ा हुआ लगता है, लेकिन अपने इस बयान में उन्होंने उस कड़वी सच्चाई को उगल दिया है, जो भारतीय समाज में दबे-छिपे तरीके से मौजूद रही है। मुंबई की बात करें, तो अयोध्या की घटना के बाद बहुत तेजी से सामुदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। निदा फाजली जैसे शायर को अपनी सुरक्षा के लिए मुस्लिम बहुल इलाके में शिफ्ट करना पड़ा। गैर मजहबी और पंथनिरपेक्ष किस्म के मुसलमान बुद्धिजीवियों, शायरों, लेखकों और दूसरी समझदार हस्तियों ने अपने ठिकाने बदले। आम आदमी की तो बात ही अलग है। अलिखित नियम है कि हिंदू बहुल सोसाइटी और बिल्डिंग में मुसलमानों को फ्लैट मत दो।
हिंदी सिनेमा बहुत पहले से इस तरह के सामाजिक भेदभाव दर्शाता रहा है। देश में मुसलमानों की आबादी करीब बीस प्रतिशत है, लेकिन फिल्मों में उनका चित्रण पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाता। मुख्यधारा की कॉमर्शिअॅल फिल्मों में कितने नायकों का नाम खुर्शीद, अनवर या शाहरुख होता है? नायिकाओं के नाम भी जेबा, सलमा या शबनम नहीं होते। हां, अगर मुस्लिम परिवेश की फिल्म बन रही हो, तो अवश्य मुस्लिम समाज, परिवार और किरदार नजर आते हैं। आखिर क्यों किसी कॉमर्शिअॅल रोमांटिक फिल्म का हीरो मुसलमान नहीं होता? ऊपरी तौर पर देखें, तो ज्यादातर नायकों के नाम हिंदू परिवारों के प्रचलित नाम ही होते हैं। हिंदी फिल्मों में पंजाबी व्यक्तियों और संस्कृति के वर्चस्व से वे मल्होत्रा, मेहरा आदि ही होते हैं। क्या कभी नर्मदेश्वर पांडे, रामखेलावन यादव या मंगतू पासवान हिंदी फिल्म का हीरो हो सकता है? नहीं हो सकता, क्योंकि हिंदी फिल्में अघोषित रूप से लोकप्रिय संस्कृति के नाम पर जो बेचना और दिखाना चाहती है, उसके लिए ये नाम बाधक होंगे। माना जाता है कि ये नाम, उपनाम और जातियां देश के डाउन मार्केट से संबंधित हैं। चूंकि हिंदी फिल्मों के दर्शक मुख्यरूप से बहुसंख्यक हिंदू हैं, इसलिए उनकी धार्मिक-सामाजिक भावनाओं का खयाल रखते हुए किरदारों के नाम तक हिंदू रखे जाते हैं। अगर कोई मुसलमान किरदार फिल्म में होगा भी, तो उसे त्याग की मूर्ति के रूप में दिखाया जाएगा। वह अपनी जान देकर भी हीरो को बचाएगा। रोजा के बाद तो पठानी शूट, खत की गई दाढ़ी और सूरमा लगी आंखों के किरदार मुसलमान होने के साथ ही राष्ट्रद्रोही भी हो गए। तात्पर्य यह है किसामाजिक भेदभाव का यह यथार्थ पर्दे पर लंबे समय से चित्रित हो रहा है। सामाजिक जीवन में भेदभाव से परेशान होने पर भी मुसलमान नागरिकखामोश थे। अब वे बोलने लगे हैं। उनके बयानों से सांप्रदायिक सद्भाव की चादर ओढ़े समाज में तिलमिलाहट हो रही है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सालों से धार्मिक धु्रवीकरण है। धर्म विशेष, प्रदेश विशेष और संप्रदाय विशेष के आधार पर काम दिए और लिए जाते हैं। हां, इंडस्ट्री के लोग इतने प्रोफेशनल अवश्य हैं कि हुनरमंदों को ही काम मिलता है। इस संदर्भ में धर्म, जाति और प्रदेश केनाम पर अतिरक्ति समझौता नहीं किया जाता। मुमकिन है शबाना आजमी के बयान के बाद इस दिशा में समाजशास्त्रीय अध्ययन और विमर्श आरंभ हो। यह जरूरी भी है, क्योंकि महानगरों में जाति और धर्म विशेष के धु्रवीकरण की प्रक्रिया चल रही है। यह देश के सामाजिक और पंथनिरपेक्ष संस्कृति के लिए खतरनाक है। सिनेमा से जुड़ी लोकप्रिय हस्तियों ने तकलीफ बताई है, तो इस तरफ सभी का ध्यान गया है।
कुछ दिनों पहले शबाना आजमी ने बयान दे दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें (पति जावेद अख्तर समेत) मुंबई में मकान नहीं मिल पा रहा है। उनके बयान का विरोध हो रहा है। शबाना का सामाजिक व्यक्तित्व ओढ़ा हुआ लगता है, लेकिन अपने इस बयान में उन्होंने उस कड़वी सच्चाई को उगल दिया है, जो भारतीय समाज में दबे-छिपे तरीके से मौजूद रही है। मुंबई की बात करें, तो अयोध्या की घटना के बाद बहुत तेजी से सामुदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। निदा फाजली जैसे शायर को अपनी सुरक्षा के लिए मुस्लिम बहुल इलाके में शिफ्ट करना पड़ा। गैर मजहबी और पंथनिरपेक्ष किस्म के मुसलमान बुद्धिजीवियों, शायरों, लेखकों और दूसरी समझदार हस्तियों ने अपने ठिकाने बदले। आम आदमी की तो बात ही अलग है। अलिखित नियम है कि हिंदू बहुल सोसाइटी और बिल्डिंग में मुसलमानों को फ्लैट मत दो।
हिंदी सिनेमा बहुत पहले से इस तरह के सामाजिक भेदभाव दर्शाता रहा है। देश में मुसलमानों की आबादी करीब बीस प्रतिशत है, लेकिन फिल्मों में उनका चित्रण पांच प्रतिशत भी नहीं हो पाता। मुख्यधारा की कॉमर्शिअॅल फिल्मों में कितने नायकों का नाम खुर्शीद, अनवर या शाहरुख होता है? नायिकाओं के नाम भी जेबा, सलमा या शबनम नहीं होते। हां, अगर मुस्लिम परिवेश की फिल्म बन रही हो, तो अवश्य मुस्लिम समाज, परिवार और किरदार नजर आते हैं। आखिर क्यों किसी कॉमर्शिअॅल रोमांटिक फिल्म का हीरो मुसलमान नहीं होता? ऊपरी तौर पर देखें, तो ज्यादातर नायकों के नाम हिंदू परिवारों के प्रचलित नाम ही होते हैं। हिंदी फिल्मों में पंजाबी व्यक्तियों और संस्कृति के वर्चस्व से वे मल्होत्रा, मेहरा आदि ही होते हैं। क्या कभी नर्मदेश्वर पांडे, रामखेलावन यादव या मंगतू पासवान हिंदी फिल्म का हीरो हो सकता है? नहीं हो सकता, क्योंकि हिंदी फिल्में अघोषित रूप से लोकप्रिय संस्कृति के नाम पर जो बेचना और दिखाना चाहती है, उसके लिए ये नाम बाधक होंगे। माना जाता है कि ये नाम, उपनाम और जातियां देश के डाउन मार्केट से संबंधित हैं। चूंकि हिंदी फिल्मों के दर्शक मुख्यरूप से बहुसंख्यक हिंदू हैं, इसलिए उनकी धार्मिक-सामाजिक भावनाओं का खयाल रखते हुए किरदारों के नाम तक हिंदू रखे जाते हैं। अगर कोई मुसलमान किरदार फिल्म में होगा भी, तो उसे त्याग की मूर्ति के रूप में दिखाया जाएगा। वह अपनी जान देकर भी हीरो को बचाएगा। रोजा के बाद तो पठानी शूट, खत की गई दाढ़ी और सूरमा लगी आंखों के किरदार मुसलमान होने के साथ ही राष्ट्रद्रोही भी हो गए। तात्पर्य यह है किसामाजिक भेदभाव का यह यथार्थ पर्दे पर लंबे समय से चित्रित हो रहा है। सामाजिक जीवन में भेदभाव से परेशान होने पर भी मुसलमान नागरिकखामोश थे। अब वे बोलने लगे हैं। उनके बयानों से सांप्रदायिक सद्भाव की चादर ओढ़े समाज में तिलमिलाहट हो रही है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सालों से धार्मिक धु्रवीकरण है। धर्म विशेष, प्रदेश विशेष और संप्रदाय विशेष के आधार पर काम दिए और लिए जाते हैं। हां, इंडस्ट्री के लोग इतने प्रोफेशनल अवश्य हैं कि हुनरमंदों को ही काम मिलता है। इस संदर्भ में धर्म, जाति और प्रदेश केनाम पर अतिरक्ति समझौता नहीं किया जाता। मुमकिन है शबाना आजमी के बयान के बाद इस दिशा में समाजशास्त्रीय अध्ययन और विमर्श आरंभ हो। यह जरूरी भी है, क्योंकि महानगरों में जाति और धर्म विशेष के धु्रवीकरण की प्रक्रिया चल रही है। यह देश के सामाजिक और पंथनिरपेक्ष संस्कृति के लिए खतरनाक है। सिनेमा से जुड़ी लोकप्रिय हस्तियों ने तकलीफ बताई है, तो इस तरफ सभी का ध्यान गया है।
Comments
Films and the film industry is only a part of the wider Hindu character of Indian society.
Shabana spoke the truth, howsoever inconvenient it might be. I am not sure as citizens we understand the true meaning of secularism.