हिन्दी टाकीज: फ़िल्में, बचपन और छोटू उस्ताद-रवि रतलामी
हिन्दी टाकीज में इस बार रवि रतलामी.ब्लॉग जगत के पाठकों को रवि रतलामी के बारे में कुछ भी नया बताना नामुमकिन है.उनके कार्य और योगदान के हम सभी कृतज्ञ हैं.उन्होंने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया और यह सुंदर आलेख भेजा.इस कड़ी को कम से कम १०० तक पहुँचाना है.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है कि आप अपने अनुभव और संस्मरण बांटे.आप अपने आलेख यूनिकोड में chavannichap@gmail.com पर भेजें.
फ़िल्में, बचपन और छोटू उस्ताद
पिछली गर्मियों में स्पाइडरमैन 3 जब टॉकीज में लगी थी तो घर के तमाम बच्चों ने हंगामा कर दिया कि वो तो टॉकीज पर ही फ़िल्म देखने जाएंगे और वो भी जितनी जल्दी हो सके उतनी. उन्हें डीवीडी, डिश या केबल पर इसके दिखाए जाने तक का इंतजार कतई गवारा नहीं था. और उसमें हमारा हीरो छोटू भी था.
बच्चे उठते बैठते, खाते पीते अपने अभिभावकों को प्रश्न वाचक दृष्टि से देखते रहते कि उन्हें हम कब फ़िल्म दिखाने ले जा रहे हैं. अंततः जब छोटू ने स्पाइडरमैन फ़िल्म देखने के नाम पर खाना पीना बंद कर बुक्के फाड़कर रोना पीटना शुरू कर दिया कि उनके पापा-मामा तीन मर्तबा वादा करने के बाद भी स्पाइडरमैन दिखाने नहीं ले जा रहे हैं, तो हार कर बच्चों को फ़िल्म दिखाने ले जाना ही पड़ा.
अंधेरे सिनेमा हाल के चमकीले पर्दे पर जब चमड़ी से चिपके लाल रंग का ड्रेस पहने फ़िल्म का हीरो स्पाइडरमैन काले रंग के उसी किस्म के ड्रेस पहने शैतान खलनायक से जब लड़ाई करने लगा तो छोटू और उसका चार वर्षीय हम उम्र चचेरा भाई - बिट्टू भी आपस में झगड़ने लगे.
छोटू ने कहा – मैं लाल वाला हीरो हूं. तू काला वाला है. मैं तुझे मार दूंगा. मैं तुझे हरा दूंगा. बिट्टू ने कहा – नहीं मैं लाल वाला हूं - तू काला वाला है. मैं तुझे मार डालूंगा.
और वहीं उनमें स्पाइडरमैन वर्सेस खलनायक की लड़ाई होने लगी. वे दोनों अपने आप को स्पाइडरमैन समझने लगे, और दूसरे को खलनायक और वहीं टॉकीज में लड़ने लगे. उन दोनों को अन्य दूसरे दर्शकों के क्रोध से बचने के लिए जैसे तैसे तत्काल समझाया गया, मगर स्पाइडरमैन का जादू उनके मन से निकलने में महीनों लग गए. जब तब भी मौका पाते स्पाइडरमैन बन जाते और छड़ी या रॉड या कभी झाड़ू से ही, उन दोनों में युद्ध शुरू हो जाता.
छोटू जब रितिक रौशन की फ़िल्म देखता है तो महीनों तक रितिक रोशन बना रहता है. उठते बैठते, चलते-फिरते उसे अपने अंदर रितिक नजर आता है. ओरिजिनल वाला नहीं, पर्दे वाला हीरो. कहीं रितिक का गाना बजा नहीं, इधर रितिक स्टाइल में छोटू का डांस शुरु हुआ नहीं.
छोटू जब आइस एज की फिल्म देख लेता है, तो वो प्यारा हाथी बन जाता है. दिन-रात, सुबह शाम उसे आइस एज देखना होता है. बारंबार, दसियों बार. सीन दर सीन याद रहते हैं. मगर हर बार देखने में एक नए तरह का मजा आता है. और फ़िल्म पचासवीं बार देख लेने के बाद भी बोर नहीं करती – पहली मर्तबा देखने का ही मजा मिलता है छोटू को.
आप इस प्यारे हीरो छोटू उस्ताद से नहीं मिलना चाहेंगे? देखिए छोटू उस्ताद का पाजामा डांस –
यू-ट्यूब की कड़ी यह है http://in.youtube.com/watch?v=LXJgfXEuLv8
मुझे भी याद है अपने बचपन (में देखी गई) की फ़िल्मों का. तब फ़िल्में आज की तरह इतनी आसान और सुलभ भी तो नहीं होती थीं कि डीवीडी, टीवी, केबल और डिश के माध्यम दिन में दर्जनों फ़िल्मों से छांट लीजिए देखने के लिए. मेरी पहले पहल की देखी हुई (जो याद है) फ़िल्म थी – दस लाख. ओमप्रकाश का अभिनय, नीतूसिंह (बाल कलाकार के रूप में) की अदाकारी वो सब दिल में छप सी गई थी. फ़िल्म का थीम सांग – गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा, तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा (फ़िल्म दस लाख की लॉटरी खुलने के थीम पर बनाई गई थी) तो पहाड़े की तरह अभी भी याद है. पिछले दिनों जी क्लासिक पर यह फ़िल्म दिखाई गई तो समय निकाल कर कुछ हिस्से मैंने फिर से देखे.
एक और किस्सा - बात तब की है जब मैं प्रायमरी में पढ़ता था. राजेश खन्ना की एक फ़िल्म आराधना रिलीज हुई थी. कक्षा में टीचर जी भी महीनों आराधना ग्रस्त रहीं. हम छात्रों से (जो फ़िल्में देख चुके थे या देख आते थे) गणित के बजाए आराधना के सीन पूछतीं और याद डायलाग उगलवातीं. आराधना के गीत गवातीं. मैं उतना प्रिविलेज्ड बच्चा नहीं था – आराधना जैसी फ़िल्में हमारे हिस्से में तब आया नहीं करती थीं – तो मैं बस उन सीन की कल्पना कर लिया करता था.
बचपन में हमारे हिस्से में अकसर धार्मिक फ़िल्में आती थीं. जब धार्मिक फ़िल्में टॉकीज में लगती तो पारिवारिक आयोजन की तरह पूरा घर फ़िल्म देखने जाया करता था. तब फ़िल्मों में देवों और असुरों के बाबू भाई मिस्त्री के बनाए हुए चमत्कार अत्यंत चमत्कृत करते थे और बाद में महीनों कल्पना के घोड़े पर सवार मैं अपने आपको छोटू की तरह भगवान का रूप समझता और कल्पना में असुरों से युद्ध करता.
अब मैं फ़िल्में देखता हूं – चाहे वो सांवरिया (जिसे 3 घंटे झेलना नामुमकिन हो गया) हो चाहे डाई हार्ड-3 (इसकी अविश्वसनीय मारधाड़ भी असहनीय रही) तो मैं अपने आपको हीरो के बजाए उसका क्रिटिक ज्यादा पाता हूं. सिनेमा के बीच में दिमाग कहीं और उलझने लगता है. शायद मेरे भीतर का हीरो – छोटू उस्ताद कहीं ग़ायब हो गया है. कहीं खो गया है. यदि वो आपको कहीं मिले तो उसका अता पता दीजिएगा...
----
Comments
:)
बेहतरीन लिखा है.