सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता
-अजय ब्रह्मात्मज
मंगलवार 5 अगस्त को अक्षय शिवम शुक्ला ने एकता कपूर के बालाजी टेलीफिल्म्स के दफ्तर केसामने आत्महत्या की कोशिश की। अपमान, निराशा और उत्तेजना में शुक्ला ने भले ही यह कदम उठाया हो, लेकिन इस घटना के कारणों पर ठंडे दिमाग से गौर करने की जरूरत है। अक्षय सिर्फ एक खबर नहीं हैं। एक सच्चाई हैं। मुंबई में अक्षय जैसे हजारों युवक संघर्ष करते हुए सिसक रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे सभी अक्षय जैसे दुस्साहसी नहीं हैं या फिर उन्होंने अभी तक उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। लिखने और बताने की जरूरत नहीं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का ग्लैमर देश के सुदूर कोनों में बैठे युवक-युवतियों को आकर्षित करता है। वे हर साल हजारों की तादाद में मुंबई पहुंचते हैं और फिल्म इंडस्ट्री की चौखट के बाहर ही अपनी उम्र और उम्मीद गुजार देते हैं। ऐसे महत्वाकांक्षी व्यक्तियों में एक अदम्य जिद होती है कि वे अवसर मिलने पर अवश्य कामयाब होंगे, लेकिन अवसर मुंबई पहुंच जाने की तरह आसान होता, तो क्या बात थी..?
फिल्म इंडस्ट्री की उम्र सौ साल से अधिक लंबी हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोई ऐसा जरिया या तरीका विकसित नहीं हो पाया है कि फिल्मों के विभिन्न क्षेत्र और विभागों में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति उसका उपयोग कर सकें। ज्यादातर लोग कामयाबी को किस्मत से जोड़कर देखते हैं और कामयाब ऐक्टर, तकनीशियन या अन्य संबंधित व्यक्तियों की मेहनत को नजरंदाज कर देते हैं। गौर करने पर हम जान सकते हैं कि सालों की लगन और एकाग्रता के बाद ही कोई व्यक्ति जीवन में सफल होता है। यह तथ्य फिल्म इंडस्ट्री समेत जीवन के सभी क्षेत्रों में देखने को मिलता है। बिल्कुल सही कहते हैं कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता, क्योंकि उसके लिए मेहनत, लगन और एकाग्रता की लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। रास्ते अलग हो सकते हैं। कोई थोड़ा तेज या कोई थोड़ा धीमे मंजिल तक पहुंचता है, लेकिन सच तो यह है कि सफर की मुश्किलें कभी कम नहीं होतीं।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री प्रमुख रूप से मुंबई में केंद्रित है। इसका विकेन्द्रीकरण नहीं हुआ। हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में कभी-कभार सुगबुगाहट दिखी, किंतु इंफ्रास्ट्रक्चर की कमियों के कारण फिल्म निर्माण का कार्य वहां विकसित नहीं हो सका। इसके अलावा, हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में फिल्म और मनोरंजन उद्योग से संबंधित प्रशिक्षण और पाठ्यक्रम भी उपलब्ध नहीं हैं। मधुबनी, मुरादाबाद, मोहाली या मनाली के आकांक्षी युवक को पता हीं नहीं है कि फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश के क्या तरीके हो सकते हैं! पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित फिल्मी सामग्रियां उसके आकर्षण को बढ़ाती हैं। गॉसिप और इंटरव्यू में संयोग, किस्मत और भाग्य के बारे में स्टारों की जुबानी किस्से छपते हैं और देश के विभिन्न शहरों में बैठे युवक गुमराह हो रहे होते हैं। वे अगली फुर्सत में ट्रेन पकड़ते हैं और सीधे मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, कुर्ला टर्मिनस और मुंबई सेंट्रल में उतरते हैं। वे अपने सपनों के साथ मुंबई की सड़कें छानते हैं। उनमें से कोई एक कामयाब होता है, तो फिर हजारों-लाखों युवक उसकी कहानी से प्रेरित होकर मुंबई का रुख कर लेते हैं।
इस अनवरत सिलसिले की एक कड़ी हैं अक्षय शिवम शुक्ला..। कह सकते हैं कि वे एक कमजोर कड़ी थे, क्योंकि चंद हफ्तों के अंदर वे हिम्मत हार गए और निराशा की उत्तेजना में उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की। क्या इस घटना के बाद बालाजी टेलीफिल्म्स या अन्य प्रोडक्शन हाउस, स्टार और डायरेक्टर ऐसा कोई कदम उठाएंगे कि भविष्य में शुक्ला की घटनाएं न दोहराई जा सकें। कोई तरीका तो खोजना ही होगा! यह एक सामाजिक समस्या है। हमें उन सपनों, आकांक्षाओं और भविष्य को आत्मदाह से बचाना होगा, जो दिशा और अवसर मिलने पर फिल्म इंडस्ट्री में कुछ जोड़ सकते हैं!
मंगलवार 5 अगस्त को अक्षय शिवम शुक्ला ने एकता कपूर के बालाजी टेलीफिल्म्स के दफ्तर केसामने आत्महत्या की कोशिश की। अपमान, निराशा और उत्तेजना में शुक्ला ने भले ही यह कदम उठाया हो, लेकिन इस घटना के कारणों पर ठंडे दिमाग से गौर करने की जरूरत है। अक्षय सिर्फ एक खबर नहीं हैं। एक सच्चाई हैं। मुंबई में अक्षय जैसे हजारों युवक संघर्ष करते हुए सिसक रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे सभी अक्षय जैसे दुस्साहसी नहीं हैं या फिर उन्होंने अभी तक उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। लिखने और बताने की जरूरत नहीं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का ग्लैमर देश के सुदूर कोनों में बैठे युवक-युवतियों को आकर्षित करता है। वे हर साल हजारों की तादाद में मुंबई पहुंचते हैं और फिल्म इंडस्ट्री की चौखट के बाहर ही अपनी उम्र और उम्मीद गुजार देते हैं। ऐसे महत्वाकांक्षी व्यक्तियों में एक अदम्य जिद होती है कि वे अवसर मिलने पर अवश्य कामयाब होंगे, लेकिन अवसर मुंबई पहुंच जाने की तरह आसान होता, तो क्या बात थी..?
फिल्म इंडस्ट्री की उम्र सौ साल से अधिक लंबी हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोई ऐसा जरिया या तरीका विकसित नहीं हो पाया है कि फिल्मों के विभिन्न क्षेत्र और विभागों में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति उसका उपयोग कर सकें। ज्यादातर लोग कामयाबी को किस्मत से जोड़कर देखते हैं और कामयाब ऐक्टर, तकनीशियन या अन्य संबंधित व्यक्तियों की मेहनत को नजरंदाज कर देते हैं। गौर करने पर हम जान सकते हैं कि सालों की लगन और एकाग्रता के बाद ही कोई व्यक्ति जीवन में सफल होता है। यह तथ्य फिल्म इंडस्ट्री समेत जीवन के सभी क्षेत्रों में देखने को मिलता है। बिल्कुल सही कहते हैं कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता, क्योंकि उसके लिए मेहनत, लगन और एकाग्रता की लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। रास्ते अलग हो सकते हैं। कोई थोड़ा तेज या कोई थोड़ा धीमे मंजिल तक पहुंचता है, लेकिन सच तो यह है कि सफर की मुश्किलें कभी कम नहीं होतीं।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री प्रमुख रूप से मुंबई में केंद्रित है। इसका विकेन्द्रीकरण नहीं हुआ। हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में कभी-कभार सुगबुगाहट दिखी, किंतु इंफ्रास्ट्रक्चर की कमियों के कारण फिल्म निर्माण का कार्य वहां विकसित नहीं हो सका। इसके अलावा, हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में फिल्म और मनोरंजन उद्योग से संबंधित प्रशिक्षण और पाठ्यक्रम भी उपलब्ध नहीं हैं। मधुबनी, मुरादाबाद, मोहाली या मनाली के आकांक्षी युवक को पता हीं नहीं है कि फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश के क्या तरीके हो सकते हैं! पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित फिल्मी सामग्रियां उसके आकर्षण को बढ़ाती हैं। गॉसिप और इंटरव्यू में संयोग, किस्मत और भाग्य के बारे में स्टारों की जुबानी किस्से छपते हैं और देश के विभिन्न शहरों में बैठे युवक गुमराह हो रहे होते हैं। वे अगली फुर्सत में ट्रेन पकड़ते हैं और सीधे मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, कुर्ला टर्मिनस और मुंबई सेंट्रल में उतरते हैं। वे अपने सपनों के साथ मुंबई की सड़कें छानते हैं। उनमें से कोई एक कामयाब होता है, तो फिर हजारों-लाखों युवक उसकी कहानी से प्रेरित होकर मुंबई का रुख कर लेते हैं।
इस अनवरत सिलसिले की एक कड़ी हैं अक्षय शिवम शुक्ला..। कह सकते हैं कि वे एक कमजोर कड़ी थे, क्योंकि चंद हफ्तों के अंदर वे हिम्मत हार गए और निराशा की उत्तेजना में उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की। क्या इस घटना के बाद बालाजी टेलीफिल्म्स या अन्य प्रोडक्शन हाउस, स्टार और डायरेक्टर ऐसा कोई कदम उठाएंगे कि भविष्य में शुक्ला की घटनाएं न दोहराई जा सकें। कोई तरीका तो खोजना ही होगा! यह एक सामाजिक समस्या है। हमें उन सपनों, आकांक्षाओं और भविष्य को आत्मदाह से बचाना होगा, जो दिशा और अवसर मिलने पर फिल्म इंडस्ट्री में कुछ जोड़ सकते हैं!
Comments