हिन्दी टाकीज: सिनेमा बुरी चीज़ है, बेटा-नचिकेता देसाई
हिन्दी टाकीज में इस बार नचिकेता देसाई । नचिकेता देसाई ने भूमिगत पत्रकारिता से पत्रकारिता में कदम रखा। पिछले २५ सालों में उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों से लेकर हिन्दी और अंग्रेज़ी के विभिन्न अख़बारों में सेवाएँ दीं.आपातकाल के दौर में उन्होंने रणभेरी नाम की पत्रिका निकली थी.इन दिनों अहमदाबाद में हैं और बिज़नस इंडिया के विशेष संवाददाता हैं.अहमदाबाद में वे हार्मोनिका क्लब भी चलाते हैं.आप उन्हें nachiketa.desai@gmail.com पर लिख सकते हैं।
बात मेरे बचपन की है. बनारस में राज कपूर की फिल्म 'संगम' लगी थी. मेरी बड़ी बहन और उसकी सहेलियां फिल्म देखना चाहती थीं. अब बनारस में उन दिनों लड़कियां अकेली सिनेमा देखने नहीं जा सकती थीं. इसलिए उन्होंने मेरी नानी से कहा, "चलो हमारे साथ, अच्छी फिल्म है." नानी, श्रीमती मालतीदेवी चौधरी, प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थीं, भारत की संविधान सभा की सदस्य रह चुकी थीं और उड़ीसा के आदिवासियों के बीच उन्हें उनके अधिकारों के लिए संगठित करने का काम करती थीं. बहुत ना-नुकुर के बाद राजी हो गईं।
चार घंटे की फिल्म, तिस पर वैजयंती माला के नहाने का सीन, उन चार सहेलियों ने नानी की उपस्थिति में कैसे देखी होगी इसका अंदाज़ा पाठक लगा लें. नानी गुस्से से आगबबूला हो गई थीं. "केते अभद्र !!!' (कितनी असभ्य फिल्म थी) बस इतना कहा और पूरे एक दिन बहन से बात-चीत बंद रखी।
सिनेमा के बारे में हमारे घर में बड़े बुज़ुर्गों की राय लगभग इसी प्रकार की थी. सिनेमा का मतलब प्यार, इश्क, मोहब्बत, मार-पीट. बच्चों को इन सब से दूर रखना ही अच्छा. वैसे पिताजी गांधीजी के आश्रम में पले-बड़े होने के बावज़ूद फिल्मी गाने गुनगुनाते सुने जाते थे।
जहां तक मुझे याद है, हम बच्चों ने पहली फिल्म चार्ली चैपलिन की 'मोडर्न टाइम्स' देखी थी, वह भी मां-पिताजी के साथ. दुसरी फिल्म 'नवरंग' थी. वैसे जब मैं दूसरी कक्षा में था तो वडोदरा में हमारी मकान मालकिन एक सिनेमा थिएटर के पास पान की दुकान चलाया करती थीं. उसका बेटा, जो मुझसे करीब ५-६ साल बड़ा था, हर नई फिल्म देखने के बाद मुहल्ले के बच्चों को हमारे बरामदे पर बैठा कर उस फिल्म की कहानी सुनाया करता था. हम बहुत चाव के साथ और मुंह बाए कहानी सुनते थे।
तीन-चार वर्षों के बाद, जब मैं शायद छठी या सातवीं कक्षा में था तो हमारी स्कूल की ओर से हमें 'दोस्ती' फिल्म दिखाने ले जाया गया. मैं उस फिल्म में बहुत रोया. फिल्म के दो नायक थे. एक पैर से अपंग और दूसरा नेत्र हीन. एक गाता था, दूसरा माउथ ओर्गन बजाता था. चूंकि मैं भी माउथ ओर्गन बजाता था, मुझे उस बाजा बजाने वाले हीरो से विशेष सहानुभूति हो गई होगी।
हमारे स्कूल में महिने में एक बार फिल्म दिखाई जाती थी. मैंने अपने स्कूल में "दो आंखें बारह हाथ", "नया दौर" और 4-5 अंग्रेजी फिल्में देखी थी।
मैट्रिक की परीक्षा के आखिरी पर्चे के बाद, मेरी कक्षा के सभी लड़के 'पडोसन' फिल्म देखने गए. यह पहली फिल्म थी जो मैं अपने दोस्तों के साथ देखने गया, जिसमें मेरे बड़े-बजुर्ग उपस्थित नहीं थे. उस फिल्म में एक सीन में सायरा बानू बाथरूम के टब में से नहा कर, तौलिया लपेटते हुए बाहर निकलते हुए दिखाई देती है. मेरा एक सहपाठी उस सीन में अपनी कुर्सी के नीचे बैठ गया यह सोच कर कि शायद ऐसा करने से उसे हिरोईन पूर्नतया नग्न दिखाई देगी. हम लोगों ने कई दिनों तक इस बात को ले कर उसका मजाक उड़ाया।
यूनिवर्सिटी में प्रवेश पाते ही मानों मुझे आज़ादी मिल गई. मैंने उन दिनों क्लास छोड़ कर कई फिल्में देख डालीं. एक दिन पिताजी के एक मित्र ने मुझे क्लास से भाग कर सिनेमा देखते रंगे हाथ पकड़ लिया. खबर घर तक पहुंच गई. मां ने खाली इतना कहा कि सिनेमा देखा तो हमें उसकी कहानी भी सुना दो।
कोलेज के दिनों मुझे शशी कपूर बहुत पसंद था. उसकी तरह बाल बनाने से ले कर उसकी स्टाइल में डांस करना, मैंने सब किया, यह भ्रम पाल कर कि मैं भी उसकी तरह लगता हूं. मेरी समय-समय पर मन पसंद लड़कियां मुझे किसी न किसी हिरोइन जैसी लगती थीं. कोई राखी की तरह, कोई सायरा बानू की तरह, दूसरी वहीदा रहमान की तरह तो कोई तनूजा या रेखा कि तरह. मन प्रसन्न रहता था कि मेरी पसंद की लड़कियां इन जैसी सुंदर हैं।
आज कल मैं अपने आपको किसी भी हीरो जैसा नहीं मान पा रहा. न ही किसी महिला मित्र को हिरोइन की तरह.
बात मेरे बचपन की है. बनारस में राज कपूर की फिल्म 'संगम' लगी थी. मेरी बड़ी बहन और उसकी सहेलियां फिल्म देखना चाहती थीं. अब बनारस में उन दिनों लड़कियां अकेली सिनेमा देखने नहीं जा सकती थीं. इसलिए उन्होंने मेरी नानी से कहा, "चलो हमारे साथ, अच्छी फिल्म है." नानी, श्रीमती मालतीदेवी चौधरी, प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थीं, भारत की संविधान सभा की सदस्य रह चुकी थीं और उड़ीसा के आदिवासियों के बीच उन्हें उनके अधिकारों के लिए संगठित करने का काम करती थीं. बहुत ना-नुकुर के बाद राजी हो गईं।
चार घंटे की फिल्म, तिस पर वैजयंती माला के नहाने का सीन, उन चार सहेलियों ने नानी की उपस्थिति में कैसे देखी होगी इसका अंदाज़ा पाठक लगा लें. नानी गुस्से से आगबबूला हो गई थीं. "केते अभद्र !!!' (कितनी असभ्य फिल्म थी) बस इतना कहा और पूरे एक दिन बहन से बात-चीत बंद रखी।
सिनेमा के बारे में हमारे घर में बड़े बुज़ुर्गों की राय लगभग इसी प्रकार की थी. सिनेमा का मतलब प्यार, इश्क, मोहब्बत, मार-पीट. बच्चों को इन सब से दूर रखना ही अच्छा. वैसे पिताजी गांधीजी के आश्रम में पले-बड़े होने के बावज़ूद फिल्मी गाने गुनगुनाते सुने जाते थे।
जहां तक मुझे याद है, हम बच्चों ने पहली फिल्म चार्ली चैपलिन की 'मोडर्न टाइम्स' देखी थी, वह भी मां-पिताजी के साथ. दुसरी फिल्म 'नवरंग' थी. वैसे जब मैं दूसरी कक्षा में था तो वडोदरा में हमारी मकान मालकिन एक सिनेमा थिएटर के पास पान की दुकान चलाया करती थीं. उसका बेटा, जो मुझसे करीब ५-६ साल बड़ा था, हर नई फिल्म देखने के बाद मुहल्ले के बच्चों को हमारे बरामदे पर बैठा कर उस फिल्म की कहानी सुनाया करता था. हम बहुत चाव के साथ और मुंह बाए कहानी सुनते थे।
तीन-चार वर्षों के बाद, जब मैं शायद छठी या सातवीं कक्षा में था तो हमारी स्कूल की ओर से हमें 'दोस्ती' फिल्म दिखाने ले जाया गया. मैं उस फिल्म में बहुत रोया. फिल्म के दो नायक थे. एक पैर से अपंग और दूसरा नेत्र हीन. एक गाता था, दूसरा माउथ ओर्गन बजाता था. चूंकि मैं भी माउथ ओर्गन बजाता था, मुझे उस बाजा बजाने वाले हीरो से विशेष सहानुभूति हो गई होगी।
हमारे स्कूल में महिने में एक बार फिल्म दिखाई जाती थी. मैंने अपने स्कूल में "दो आंखें बारह हाथ", "नया दौर" और 4-5 अंग्रेजी फिल्में देखी थी।
मैट्रिक की परीक्षा के आखिरी पर्चे के बाद, मेरी कक्षा के सभी लड़के 'पडोसन' फिल्म देखने गए. यह पहली फिल्म थी जो मैं अपने दोस्तों के साथ देखने गया, जिसमें मेरे बड़े-बजुर्ग उपस्थित नहीं थे. उस फिल्म में एक सीन में सायरा बानू बाथरूम के टब में से नहा कर, तौलिया लपेटते हुए बाहर निकलते हुए दिखाई देती है. मेरा एक सहपाठी उस सीन में अपनी कुर्सी के नीचे बैठ गया यह सोच कर कि शायद ऐसा करने से उसे हिरोईन पूर्नतया नग्न दिखाई देगी. हम लोगों ने कई दिनों तक इस बात को ले कर उसका मजाक उड़ाया।
यूनिवर्सिटी में प्रवेश पाते ही मानों मुझे आज़ादी मिल गई. मैंने उन दिनों क्लास छोड़ कर कई फिल्में देख डालीं. एक दिन पिताजी के एक मित्र ने मुझे क्लास से भाग कर सिनेमा देखते रंगे हाथ पकड़ लिया. खबर घर तक पहुंच गई. मां ने खाली इतना कहा कि सिनेमा देखा तो हमें उसकी कहानी भी सुना दो।
कोलेज के दिनों मुझे शशी कपूर बहुत पसंद था. उसकी तरह बाल बनाने से ले कर उसकी स्टाइल में डांस करना, मैंने सब किया, यह भ्रम पाल कर कि मैं भी उसकी तरह लगता हूं. मेरी समय-समय पर मन पसंद लड़कियां मुझे किसी न किसी हिरोइन जैसी लगती थीं. कोई राखी की तरह, कोई सायरा बानू की तरह, दूसरी वहीदा रहमान की तरह तो कोई तनूजा या रेखा कि तरह. मन प्रसन्न रहता था कि मेरी पसंद की लड़कियां इन जैसी सुंदर हैं।
आज कल मैं अपने आपको किसी भी हीरो जैसा नहीं मान पा रहा. न ही किसी महिला मित्र को हिरोइन की तरह.
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