हिन्दी टाकीज:जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू-पंकज शुक्ला
हिन्दी टाकीज सीरीज में इस बार पंकज शुक्ला.पंकज शुक्ला ने फ़िल्म पत्रकार के रूप में शुरूआत की.विभिन्न अख़बारों में काम करते हुए वे फिल्मों के करीब आए और आखिरकार एक फ़िल्म निर्देशित की.उनकी भोजपुरी फ़िल्म भोले शंकर जल्दी ही रिलीज हो रही है।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू
सिनेमा को सिनेमा कहना तो हम लोगों ने बहुत बाद में सीखा। पहले तो ये पिच्चर होती थी। बचपन की बाकी बातें तो याद नहीं हां, लेकिन शायद ककहरा सीखने के वक्त ही पिच्चर का दीवाना मैं हो गया था। उन दिनों पापा रेलवे में मुलाजिम थे और पैदाइश के बाद हम लोगों को सीधे जोधपुर एक्सपोर्ट कर दिया गया था, वहीं पहली पिच्चर देखी- परिचय। ये फिल्म इसलिए मुझे याद रही क्योंकि इसे देखने के लिए मैंने खूब धमाल मचाया था। सिनेमा से ये मेरा पहला परिचय था। गुलज़ार की कारीगरी के साथ साथ जितेंद्र और जया भादुड़ी की अदाकारी के मायने तो खैर बरसों बाद मुझे समझ में आए, कुछ याद रहा तो बस कछुए की पीठ पर जलती मोमबत्ती वाला सीन। परिचय के बाद और जोधपुर से वापस गांव में इंपोर्ट होने से पहले हाथी मेरे साथी और बॉबी जैसी फिल्में भी देखने को मिलीं। पापा को फिल्में देखने का शौक था या कहूं कि मध्यमवर्गीय परिवार के लिए उस वक्त का सिनेमा ही सबसे सस्ता मनोरंजन था, हम लोगों ने जोधपुर में उस दौरान खूब फिल्में देखीं, जब ठीक से सिनेमा तो क्या दुनिया भी समझने लायक नहीं हुए थे। इसके बाद गांव वापसी हुई, प्राइमरी स्कूल का सफेद पैजामा और नीली कमीज हमारी ड्रेस बनी और सिनेमा छूट गया कहीं पीछे। लेकिन सिनेमा का असर कहां जाने वाला। छोटे भाई के जन्म के वक्त मम्मी कानपुर गईं थीं, और वहां से लौटी तो गोद में भैया के साथ बक्से में संतोषी मां की फोटो भी थी। किसी सिनेमा ने किसी भगवान की लोकप्रियता बढ़ाने का ऐसा काम शायद ही दुनिया के किसी दूसरे कोने में किया हो। गर्मी की छुट्टिया हुईं और कानपुर से बुआ का पूरा कुनबा अपने लाव लश्कर समेत गांव आ पहुंचा। तब वो लोग बालामऊ ट्रेन से फतेहपुर चौरासी स्टेशन उतरते और कोई सात किलोमीटर का आगे का सफर बैलगाड़ियों से तय करते। उन दिनों बुआ के बड़े लड़के के बाल बिल्कुल राजेश खन्ना की तरह हुआ करते थे। बैलगाड़ी पर बुआ का परिवार ठसमठस भरा था और सबसे आगे बैठे थे उनके ये सबसे बड़े सपूत। गांव में हल्ला मच गया कि नौटंकी आई है, ये तो जब बैलगाड़ी हमारे अहाते में आकर रुकी और हमलोगों ने सबके पैर छूने शुरु किए, तभी लोग समझ पाए कि रिश्तेदार हैं। तो ऐसा होता था उन दिनों सिनेमा का असर, इंसान की चाल ढाल सब जवानी आते आते फिल्मी हो जाती थी। शोले रिलीज़ हो चुकी थी और गर्मियों की पूरी छुट्टिया उस बार शोले के संवादों के साथ ही गुजरी। बुआ का छोटा बेटा शोले की कहानी हमें साउंड इफेक्ट्स के साथ सुनाता, "औ भइया फिर जय और वीरू डकैतन से लड़त हैं, रेलगाड़ी छकपक छकपक पूरी रफ्तार म है। ठाकुरौ लड़त हैं, तबहीं धांय से ठाकुर के गोली लगत है और जय और वीरू दोनों ओका बचावत हैं।" शोले देखने का मौका मुझे आठवीं पास करने के बाद 1978 में मिला। और 1980 में हाई स्कूल पास करने के बाद मैं कानपुर आ गया आगे की पढ़ाई करने। सिनेमा का जादू यहीं से मेरे सिर चढ़ा, और ऐसा चढ़ा कि कुछ पूछो मत। दैनिक आज में सिनेमा के जो विज्ञापन छपते थे, उस पर हम लोग पेन से टिक लगाया करते थे, इरादा ये रहता था कि कानपुर शहर में ऐसी कोई फिल्म नहीं होनी चाहिए जो हमने देखी ना हो। इसके लिए कभी बुआ के घर में पूजा के लिए चढे रुपये उठाए, कभी फीस के लिए मिले पैसे खर्च कर दिए। लड़कपन में पहली चोरी इसी दीवानगी के लिए ही की। इंटर के बोर्ड के इम्तिहान चल रहे थे और तभी लगी थी मिथुन चकवर्ती की फिल्म उस्तादी उस्ताद से। इम्तिहान देखकर निकले तो सिनेमा देखने का मन हुआ। और मन हुआ तो बस सीधे पहुंच गए निगार सिनेमा। साइकिल खड़ी की और पिच्चर देखी, घर पहुंचे तो दोपहर के साढे तीन बज रहे थे। हमने बहाना बना दिया कि कोई उठा ले गया था। लेकिन जब लगा कि किसी गलत लड़के को उठा लिया है तो माल रोड पर ले जाकर छोड़ दिया। बहाना कोई हफ्ते भर ही टिक पाया क्योंकि अपहरण के लिए इस्तेमाल जिस गाड़ी के नंबर का जिक्र मैंने कानपुर के उस मकान में रहने वाले कोई दर्जन भर किराएदारों के सामने किया था, वो फिल्म में ही इस्तेमाल हुई थी। और जैसे ही ये फिल्म मकान में रहने वाले बाकी लोगों ने देखी, हमारी लफ्फाजी पकड़ी गई। मिथुन चक्रवर्ती को अब तो खैर मैं निर्देशित भी कर चुका हूं, लेकिन ये वही दौर था, जब मिथुन चक्रवर्ती के पोस्टकार्ड साइज फोटो खरीदने के लिए पूरा कानपुर छान मारा था। उन दिनों सितारों के पोस्ट कार्ड फुटपाथों पर बिकते थे और कानपुर भर के सारे फुटपाथ छानकर मैंने एक शानदार कलेक्शन तैयार किया था। मिथुन का ऐसा कोई भी फोटो नहीं था जो मेरे पास ना हो। बुआ के बड़े बेटे ने अगर राजेश खन्ना का हेयर स्टाइल अपनाया था तो छोटे बेटे ने मिथुन का। नाम भी वो अपना सुरेश मिश्रा "मिथुन" ही लिखता था। कराटे रिलीज़ होने के बाद नान चाकू भी काफी दिनों तक हम लोगों ने रखी। ब्रूस ली ने जो काम विदेश में किया वो काम मिथुन ने हिंदुस्तान में किया। मार्शल आर्ट के क्लब गली गली में खुलने लगे। और, मिडिल क्लास का हर लड़का मिथुन की स्टाइल में ही चलने लगा। वीएसएस और टीवी के ज़रिए फिल्म देखने का शगल तब कानपुर जैसे महानगर में भी हुआ करता था। कोई खुशी का मौका होता तो बस वीडियो बुक कराओ। इम्तिहान में पास हुए तो वीडियो, शादी तय हुई तो वीडियो और तिलक समारोहों में तो नौटंकी को बंद करने का काम ही गांवों में वीडियो के चलन ने किया। तब विविध भारती ही सिनेमा प्रेमियों के मनोरंजन का बड़ा ज़रिया हुआ करता था। सुबह साढ़े आठ बजे से लेकर नौ बजे तक नए फिल्म गाने चित्रलोक में आते थे। संडे तो खैर जैसे जश्न का दिन होता था। एस कुमार्स का फिल्मी मुकदमा हो या फिर साढे बारह बजे से प्रसारित होने वाला फिल्म साउंड ट्रैक, इस दौरान रेडियो को अपने कब्जे में रखने के लिए कई बार घर में भाइयों के बीच महाभारत हुई। 1978 से लेकर 1984 तक सिनेमा को लेकर दीवानगी का ये आलम यूं ही कायम रहा। सीपीएमटी में सेलेक्शन नहीं हो पाया तो भागकर मुंबई आ गए। दो साल यहां फाकाकशी भी की, लेकिन सिनेमा का चस्का नहीं छूटा। और इसी दौरान चस्का लगा फिल्मों के बारे में समझने का। पृथ्वी थिएटर पर तब भी शाम को कलाकारों का मजमा लगा रहता था। बांद्रा में मिथुन चक्रवर्ती के घर के सामने तब देश भर से भागे लड़कों का मेला लगता था। मिथुन सफेद वॉक्स वैगन में निकलते और खिड़की खोलकर सबको नमस्ते करते। कहते हैं तब मुंबई मे तब दो ही सफेद वॉक्स वैगन थीं, एक मिथुन के पास और दूसरी अमिताभ के पास। उन्हीं दिनों एक दिन में रात को सपना देखा कि मैं और मिथुन साथ में बैठकर चाय पी रहे हैं। पिछले साल नवंबर में मिथुन को मैंने अपनी बतौर निर्देशक पहली फिल्म के लिए साइन किया। राम चरित मानस में एक चौपाई है- जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलेहि ना कुछ संदेहू। सिनेमा और मिथुन पर मेरा स्नेह लड़कपन के दिनों से था, और अब जब दोनों मिल गए हैं तो लगता है कि मानस की चौपाइयों में सत्यता अवश्य है।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू
सिनेमा को सिनेमा कहना तो हम लोगों ने बहुत बाद में सीखा। पहले तो ये पिच्चर होती थी। बचपन की बाकी बातें तो याद नहीं हां, लेकिन शायद ककहरा सीखने के वक्त ही पिच्चर का दीवाना मैं हो गया था। उन दिनों पापा रेलवे में मुलाजिम थे और पैदाइश के बाद हम लोगों को सीधे जोधपुर एक्सपोर्ट कर दिया गया था, वहीं पहली पिच्चर देखी- परिचय। ये फिल्म इसलिए मुझे याद रही क्योंकि इसे देखने के लिए मैंने खूब धमाल मचाया था। सिनेमा से ये मेरा पहला परिचय था। गुलज़ार की कारीगरी के साथ साथ जितेंद्र और जया भादुड़ी की अदाकारी के मायने तो खैर बरसों बाद मुझे समझ में आए, कुछ याद रहा तो बस कछुए की पीठ पर जलती मोमबत्ती वाला सीन। परिचय के बाद और जोधपुर से वापस गांव में इंपोर्ट होने से पहले हाथी मेरे साथी और बॉबी जैसी फिल्में भी देखने को मिलीं। पापा को फिल्में देखने का शौक था या कहूं कि मध्यमवर्गीय परिवार के लिए उस वक्त का सिनेमा ही सबसे सस्ता मनोरंजन था, हम लोगों ने जोधपुर में उस दौरान खूब फिल्में देखीं, जब ठीक से सिनेमा तो क्या दुनिया भी समझने लायक नहीं हुए थे। इसके बाद गांव वापसी हुई, प्राइमरी स्कूल का सफेद पैजामा और नीली कमीज हमारी ड्रेस बनी और सिनेमा छूट गया कहीं पीछे। लेकिन सिनेमा का असर कहां जाने वाला। छोटे भाई के जन्म के वक्त मम्मी कानपुर गईं थीं, और वहां से लौटी तो गोद में भैया के साथ बक्से में संतोषी मां की फोटो भी थी। किसी सिनेमा ने किसी भगवान की लोकप्रियता बढ़ाने का ऐसा काम शायद ही दुनिया के किसी दूसरे कोने में किया हो। गर्मी की छुट्टिया हुईं और कानपुर से बुआ का पूरा कुनबा अपने लाव लश्कर समेत गांव आ पहुंचा। तब वो लोग बालामऊ ट्रेन से फतेहपुर चौरासी स्टेशन उतरते और कोई सात किलोमीटर का आगे का सफर बैलगाड़ियों से तय करते। उन दिनों बुआ के बड़े लड़के के बाल बिल्कुल राजेश खन्ना की तरह हुआ करते थे। बैलगाड़ी पर बुआ का परिवार ठसमठस भरा था और सबसे आगे बैठे थे उनके ये सबसे बड़े सपूत। गांव में हल्ला मच गया कि नौटंकी आई है, ये तो जब बैलगाड़ी हमारे अहाते में आकर रुकी और हमलोगों ने सबके पैर छूने शुरु किए, तभी लोग समझ पाए कि रिश्तेदार हैं। तो ऐसा होता था उन दिनों सिनेमा का असर, इंसान की चाल ढाल सब जवानी आते आते फिल्मी हो जाती थी। शोले रिलीज़ हो चुकी थी और गर्मियों की पूरी छुट्टिया उस बार शोले के संवादों के साथ ही गुजरी। बुआ का छोटा बेटा शोले की कहानी हमें साउंड इफेक्ट्स के साथ सुनाता, "औ भइया फिर जय और वीरू डकैतन से लड़त हैं, रेलगाड़ी छकपक छकपक पूरी रफ्तार म है। ठाकुरौ लड़त हैं, तबहीं धांय से ठाकुर के गोली लगत है और जय और वीरू दोनों ओका बचावत हैं।" शोले देखने का मौका मुझे आठवीं पास करने के बाद 1978 में मिला। और 1980 में हाई स्कूल पास करने के बाद मैं कानपुर आ गया आगे की पढ़ाई करने। सिनेमा का जादू यहीं से मेरे सिर चढ़ा, और ऐसा चढ़ा कि कुछ पूछो मत। दैनिक आज में सिनेमा के जो विज्ञापन छपते थे, उस पर हम लोग पेन से टिक लगाया करते थे, इरादा ये रहता था कि कानपुर शहर में ऐसी कोई फिल्म नहीं होनी चाहिए जो हमने देखी ना हो। इसके लिए कभी बुआ के घर में पूजा के लिए चढे रुपये उठाए, कभी फीस के लिए मिले पैसे खर्च कर दिए। लड़कपन में पहली चोरी इसी दीवानगी के लिए ही की। इंटर के बोर्ड के इम्तिहान चल रहे थे और तभी लगी थी मिथुन चकवर्ती की फिल्म उस्तादी उस्ताद से। इम्तिहान देखकर निकले तो सिनेमा देखने का मन हुआ। और मन हुआ तो बस सीधे पहुंच गए निगार सिनेमा। साइकिल खड़ी की और पिच्चर देखी, घर पहुंचे तो दोपहर के साढे तीन बज रहे थे। हमने बहाना बना दिया कि कोई उठा ले गया था। लेकिन जब लगा कि किसी गलत लड़के को उठा लिया है तो माल रोड पर ले जाकर छोड़ दिया। बहाना कोई हफ्ते भर ही टिक पाया क्योंकि अपहरण के लिए इस्तेमाल जिस गाड़ी के नंबर का जिक्र मैंने कानपुर के उस मकान में रहने वाले कोई दर्जन भर किराएदारों के सामने किया था, वो फिल्म में ही इस्तेमाल हुई थी। और जैसे ही ये फिल्म मकान में रहने वाले बाकी लोगों ने देखी, हमारी लफ्फाजी पकड़ी गई। मिथुन चक्रवर्ती को अब तो खैर मैं निर्देशित भी कर चुका हूं, लेकिन ये वही दौर था, जब मिथुन चक्रवर्ती के पोस्टकार्ड साइज फोटो खरीदने के लिए पूरा कानपुर छान मारा था। उन दिनों सितारों के पोस्ट कार्ड फुटपाथों पर बिकते थे और कानपुर भर के सारे फुटपाथ छानकर मैंने एक शानदार कलेक्शन तैयार किया था। मिथुन का ऐसा कोई भी फोटो नहीं था जो मेरे पास ना हो। बुआ के बड़े बेटे ने अगर राजेश खन्ना का हेयर स्टाइल अपनाया था तो छोटे बेटे ने मिथुन का। नाम भी वो अपना सुरेश मिश्रा "मिथुन" ही लिखता था। कराटे रिलीज़ होने के बाद नान चाकू भी काफी दिनों तक हम लोगों ने रखी। ब्रूस ली ने जो काम विदेश में किया वो काम मिथुन ने हिंदुस्तान में किया। मार्शल आर्ट के क्लब गली गली में खुलने लगे। और, मिडिल क्लास का हर लड़का मिथुन की स्टाइल में ही चलने लगा। वीएसएस और टीवी के ज़रिए फिल्म देखने का शगल तब कानपुर जैसे महानगर में भी हुआ करता था। कोई खुशी का मौका होता तो बस वीडियो बुक कराओ। इम्तिहान में पास हुए तो वीडियो, शादी तय हुई तो वीडियो और तिलक समारोहों में तो नौटंकी को बंद करने का काम ही गांवों में वीडियो के चलन ने किया। तब विविध भारती ही सिनेमा प्रेमियों के मनोरंजन का बड़ा ज़रिया हुआ करता था। सुबह साढ़े आठ बजे से लेकर नौ बजे तक नए फिल्म गाने चित्रलोक में आते थे। संडे तो खैर जैसे जश्न का दिन होता था। एस कुमार्स का फिल्मी मुकदमा हो या फिर साढे बारह बजे से प्रसारित होने वाला फिल्म साउंड ट्रैक, इस दौरान रेडियो को अपने कब्जे में रखने के लिए कई बार घर में भाइयों के बीच महाभारत हुई। 1978 से लेकर 1984 तक सिनेमा को लेकर दीवानगी का ये आलम यूं ही कायम रहा। सीपीएमटी में सेलेक्शन नहीं हो पाया तो भागकर मुंबई आ गए। दो साल यहां फाकाकशी भी की, लेकिन सिनेमा का चस्का नहीं छूटा। और इसी दौरान चस्का लगा फिल्मों के बारे में समझने का। पृथ्वी थिएटर पर तब भी शाम को कलाकारों का मजमा लगा रहता था। बांद्रा में मिथुन चक्रवर्ती के घर के सामने तब देश भर से भागे लड़कों का मेला लगता था। मिथुन सफेद वॉक्स वैगन में निकलते और खिड़की खोलकर सबको नमस्ते करते। कहते हैं तब मुंबई मे तब दो ही सफेद वॉक्स वैगन थीं, एक मिथुन के पास और दूसरी अमिताभ के पास। उन्हीं दिनों एक दिन में रात को सपना देखा कि मैं और मिथुन साथ में बैठकर चाय पी रहे हैं। पिछले साल नवंबर में मिथुन को मैंने अपनी बतौर निर्देशक पहली फिल्म के लिए साइन किया। राम चरित मानस में एक चौपाई है- जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलेहि ना कुछ संदेहू। सिनेमा और मिथुन पर मेरा स्नेह लड़कपन के दिनों से था, और अब जब दोनों मिल गए हैं तो लगता है कि मानस की चौपाइयों में सत्यता अवश्य है।
Comments
मुबारक हो अजय
ये बहुत अच्छा भाव पूर्ण आलेख है
में जो कहता हूँ-
की लेखक लोगो से में ऊब सा जाता हूँ
वो ही इस का मज़ा है
सीधे दिल की बात
कविता और डायरी का मज़ा है
अगले केखों का इंतजार rahega
सादर,
पंकज शुक्ल
pankajshuklaa@gmail.com
dhanyvad
Again, I do not appreciuate any unsolicited e mails.
chavanni is sorry for unsolicited mail,but he checked and didnt find your name in his contacts.some pf your friend must have forwarded it to you.
sorry again from chavanni.
sarvpratham, Ajay ji ko Dhanywaad ki unki Sarthak Pahal se hume es tarah ke Sukhdai lekh Padhne ke avsar mil rahe hain. dvitya, Pankaj Shukla jaise Lekhkon ko Dhanywaad jo Chavanni ki es Pahal ko Kamyaab bana rahe hain. Agle lekh ka Intazaar rahega.
Dhanyawaad.