फ़िल्म समीक्षा:अगली और पगली

कामेडी नहीं, तमाचा है
-अजय ब्रह्मात्मज
मुंबई शहर में एक लड़का एक लड़की को पीठ पर लादे परेल स्टेशन से निकलता है और एक होटल में चेक इन करता है। अगली रात यही घटना दोहरायी जाती है। लड़का और लड़की के घर वालों को कोई चिंता नहीं है कि दोनों दो रातों से कहां हैं, जबकि फिल्म में दिखाया जा चुका है कि लड़का अभी तक मां के हाथों मार खाता है और लड़की के प्रेमी की हाल ही में मौत हुई है। ऐसे अजीबो गरीब किरदारों को लेकर सचिन खोट ने कामेडीनुमा फिल्म बनायी है।
अगली और पगली के तमाचों की काफी चर्चा रही। फिल्म में कुहु कबीर को चट-चट तमाचे मारती है। कुछ देर के बाद वे तमाचे दर्शक अपने गाल पर भी महसूस करने लगते हैं। चंद घटनाओं और प्रसंगों में कबीर और कुहु को शामिल कर बनायी गयी यह फिल्म बांध नहीं पाती है। फिल्म की मूल अवधारणा पटकथा में उतर नहीं पायी है। इसी कारण किरदार कृत्रिम और नकली लगते हैं।
बालीवुड में ऐसी फिल्मों का नया फार्मूला चल पड़ा है। सीमित बजट की असामान्य सी कहानी में उम्दा कलाकारों को लेकर फिल्में बनायी जा रही हैं। उनमें से कुछ कामयाब भी हो गयीं, इसलिए कारपोरेट कंपनियों को लग रहा है कि दो बड़ी फिल्मों के साथ एक ऐसी फिल्म बनाकर वे सब सफल हो सकते हैं, किंतु हर छोटी फिल्म भेजा फ्राय या खोसला का घोसला नहीं हो पाती। प्रीतिश नंदी कम्युनिकेशंस अगली और पगली के साथ इस कोशिश में विफल रही।
मल्लिका की अदाओं और जलवों का भरपूर इस्तेमाल किया गया है, लेकिन वह उनके किरदार की पर्सनैलिटी से जुड़ नहीं पाता। लगता है कि गानों, दृश्य और अदाओं की पच्चीकारी की जा रही है। मल्लिका शेरावत भावपूर्ण दृश्यों में सपाट हो जाती हैं। निश्चित ही रणवीर शौरी उम्दा एक्टर हैं, लेकिन ऐसी फिल्मों में वे खुद को अनावश्यक ही खर्च कर रहे हैं। इस फिल्म में बाकी कलाकारों की भूमिका सेट पर सजायी गयी प्रापर्टी से अधिक नहीं है।
फिल्म के गीत-संगीत की बात करें तो पापुलर होने के कारण टल्ली गाना फिल्म में भी अच्छा लगता है। अनु मलिक की आवाज अब कानों में मधुर नहीं लगती। गानों के फिल्मांकन और बाकी फिल्म में कोई रिश्ता नहीं बन पाया है।

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