पहली सीढ़ी:राज कुमार हिरानी से अजय ब्रह्मात्मज की baatcheet
'पहली सीढ़ी' निर्देशकों के इंटरव्यू की एक सीरिज है। मेरी कोशिश है कि इस इंटरव्यू के जरिए हम निर्देशक के मानस को समझ सकें। पहली फिल्म की रिलीज के बाद हर निर्देशक की गतिविधियां पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनल के माध्यम से दुनिया के सामने आ जाती हैं। हम पहली फिल्म के पहले की तैयारियों में ज्यादा नहीं जानते। आखिर क्यों कोई निर्देशक बनता है और फिर अपनी महत्वाकांक्षा को पाने के लिए उसे किन राहों, अवरोधों और मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। आम तौर पर इस पीरियड को हम 'गर्दिश के दिन' या 'संघर्ष के दिन' के रूप में जानते हैं। वास्तव में यह 'गर्दिश या 'संघर्ष से अधिक तैयारी का दौर होता है, जब हर निर्देशक मिली हुई परिस्थिति में अपनी क्षमताओं के उपयोग से निर्देशक की कुर्सी पर बैठने की युक्ति में लगा होता है। मेरी कोशिश है कि हम सफल निर्देशकों की तैयारियों को करीब से जानें और उस अदम्य इच्छा को पहचानें जो विपरीत स्थितियों में भी उन्हें भटकने, ठहरने और हारने से रोकती है। सफलता मेहनत का परिणाम नहीं होती। अनवरत मेहनत की प्रक्रिया में ही संयोग और स्वीकृति की कौंध है सफलता... क्योंकि सफलता प्रतिभा का उपसंहार नहीं होती। वह प्रतिभा में समविष्ट रहती है। प्रतिभा स्वीकृत होती है तो सफलता बन जाती है।
राजकुमार हिरानी से मेरी पहली मुलाकात विधु विनोद चोपड़ा के दफ्तर में हुई थी। फिल्म अभी रिलीज नहीं हुई थी। ज्यादातर पत्रकार विधु विनोद चोपड़ा का इंटरव्यू कर रहे थे। मैंने देखा कि एक शर्मीले स्वभाव का व्यक्ति चुपचाप बैंच पर बैठा है। उनकी आंखों की चमक ने मुझे आकर्षित किया। परिचय करने पर मालूम हुआ कि वह 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' के डायरेक्टर हैं। अखबारी किस्म का औपचारिक इंटरव्यू कर मैं चला आया। फिल्म रिलीज हुई और कुछ हफ्तों के बाद सफल हो गई। फिर से मुलाकात हुई। यह मुलाकात थोड़ी लंबी और अनौपचारिक थी। इसके बाद ऐसा संयोग हुआ कि मुझे अपने सूत्रों से थोड़ा पहले जानकारी मिल गई कि 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। मैंने हिरानी को मोबाइल से संदेश भेजा। कुछ घंटों के बाद यह सूचना सार्वजनिक हो गई, लेकिन हिरानी यह नहीं भूले कि मैंने उन्हें पला संदेश दिया था। मालूम नहीं इस घटना का हमारे परिचय में क्या महत्व है, लेकिन हिरानी उसके बाद की मुलाकातों में सभी के सामने इसका इसका उल्लेख करते रहे। यह उनके स्वभाव की अंतरंगता और उदारता है।
दो कामयाब फिल्मों के निर्देशक राजकुमार हिरानी आज भी उसी शर्मीले स्वभाव के हैं। लेकिन बातचीत के दरम्यान वे खुलते हैं और बगैर किसी छिपाव, दबाव और दोहराव के अपना मत रखते हैं। राजकुमार हिरानी ने हिंदी फिल्मों को लोकप्रियता का नया शिल्प दिया है। उनकी फिल्में आम दर्शक से लेकर खास दर्शकों तक को बांधती हैं और सभी को स्पंदित एवं आनंदित करती हैं। सचमुच बड़े निर्देशक की यही खूबी होती है कि वह 'मास और 'क्लास' के विभाजन को खत्म कर देता है। उसकी फिल्में समय की सीमा में आबद्ध नहीं रहतीं। समकालीन निर्देशकों में राजकुमार हिरानी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
- आप नागपुर से हैं? नागपुर हिंदू संगठन आरएसएस का गढ़ माना जाता है। क्या उनसे कभी संसर्ग रहा या आप प्रभावित हुए ?
0 कॉलेज जाने तक मुझे पता नहीं था कि नागपुर आरएसएस का गढ़ माना जाता है । वहां उनका मुख्य कार्यालय है, पर ऐसा नहीं है कि आम आदमी ज्यादा प्रभावित होते हों। हां कुछ शाखाएं लगती हैं। बचपन में देखा करता था। लोग मैदानों में शाखाएं लगाते थे। पर ऐसा नहीं है कि मैं कभी उन शाखाओं में गया या इंफूलुऐंस रहा है उनका। हिंदू संगठनों का जितना असर मुंबई में है, वैसा ही वहां भी था। ऐसा नहीं था कि हिंदू लहर चल रही हो और सभी उसमें गोते लगा रहे हों।
- किस तरह का परिवार था अपका? आपके पिता जी क्या करते हैं? हैं अभी?
0 हां, मेरे पिता जी हैं। मम्मी-डैडी नागपुर में रहते हैं। संयुक्त परिवार है हमलोगों का। तब चाचा जी साथ में थे। मेरे डैड वास्तव में टाइपराइटिंग इंस्टीट्यूट चलता था। बैकग्राउंड यह है कि वे पार्टीशन के टाइम पर पाकिस्तान से आए थे। पार्टीशन के समय वह 14-15 साल के थे। उनके पिताजी नहीं आए थे। वे पाकिस्तान में ही गुजर गए थे। मां और भाई लोग थे साथ में। आगरा के पास है फिरोजाबाद। वहां कुछ दिनों तक हमारा परिवार रिफ्यूजी कैंप में रहा। पहले वहां काम किया। वहां से फिर काम खोजते-खोजते वे नागपुर पहुंचे। कुछ टाइम नौकरी की वहां पर। उस समय टाइपराइटर का नया दौर शुरू हुआ था। तो एक टाइपराइटर लिया... टाइप करते-करते टाइपराइटिंग इंस्टीट्यूट शुरू किया। फिर बाद में डिस्ट्रीब्यूटर बनकर कर टाइपराइटर बेचते थे। मेरी स्मॉल बिजनेस फैमिली है। परिवार के दूसरे सदस्यों ने बाद में पढ़ाई-लिखाई की। ज्यादातर वकील हैं सब मेरी फैमिली में। मुझ से भी उम्मीद की जा रही थी कि मैं पढक़र वकील बनूंगा। और मैंने बी कॉम किया भी। बी कॉम के बाद एक साल लॉ भी किया। मेरा शुरू से लगाव था थिएटर की तरफ। कॉलेज के दिनों में नाटक लिखा करता थां। ऑल इंडिया रेडियो युवावाणी एक प्रोग्राम आता था। उसके लिए भी कुछ नाटक लिखे थे। खूब जम कर थिएटर करते थे। छोटा सा ग्रुप था हमारा आवाज।
- थिएटर में किस तरह के प्ले किए जाते थे?
0 छोटा सा ग्रुप था हमारा। वहां मराठी थिएटर बहुत स्ट्रौंग था। हम तो मराठी में नहीं करते थे,पर देखते बहुत थे। चाहे वो महाराष्ट्र नाट्य महोत्सव हो, वह हर साल वहां होता था। हम कुछ लोगों ने मिलकर एक थिएटर ग्रुप शुरू किया था आवास। कुछ कॉलेज के लोग थे, कुछ बाहर के थे, कुछ प्रोफेशनल... रेगुलर बेसिक पर काफी प्ले करते थे। हर किस्म के प्ले किए। ज्यादातर मराठी के लिखे हुए। मराठी से रूपांतर या कुछ बंगाली प्ले से ट्रांसलेट कर के करते थे। रेगुलर शोज भी करते थे हमलोग। होता ये था कि हिंदी थिएटर इतना स्ट्रोंग था नहीं तो टिकटें खुद बेचनी पड़ती थी। लोगों को खुद बुलाना पड़ता था। पर मजा आता था,इसलिए करते थे। काफी साल किया। वहां से शौक जागा...
- वैसा थिएटर जो बंबई या दिल्ली में हो रहा था, गंभीर किस्म के नाटक... ?
0 हमलोग का वैसा नहीं था। हमलोगों की सोच थी कि आदमी खुद धक्के खाते हुए सिखता है... वैसा थिएटर था। कोई गाइड करने वाला नहीं था। चंद शौकिया लोग थे,वे जुड़ गए थे साथ में और नाटक करना चाहते थे। मगर यह था कि हमलाग रेगुलर बेसिस पर नाटक करते थे। मुझे याद है कि साल में दो-तीन प्ले तो करते ही थे। कॉलेज से बाहर प्रोफेशनल रूप से कुछ जुटा कर। उतना पैसा जमा कर लिया जाता था कि एक हॉल बुक कर सकें। पर गाइड करने के लिए कोई था नहीं। जैसा कि दिल्ली में एनएसडी ग्रुप था या मुंबई में दूसरे ग्रुप सक्रिय थे। हमलोग खुद से धक्के खाते-खाते रास्ता ढूंढ़ते हुए मिल जाते थे थिएटर के लोग। एक किशोर कुलकर्णी जी थे, वो हैं अभी भी। उनको हम ले आते थे। वह मराठी थिएटर डायरेक्ट करते थे। उन्होंने कुछ हमारे प्ले डायरेक्टर किए तो उनसे सीखने को मिला। वैसे सीखते-सीखते कुछ करते रहे। वहीं से शौक जागा कि फिल्मों में जाया जाए और फिल्मों में कुछ किया जाए।
- बचपन में तो फिल्में देखते रहे होंगे?
0 फिल्म तो बहुत देखते थे। अक्सर जाते थे।
- पारिवारिक आउटिंग होती थी या...?
0 मुझे बचपन का याद है कि मैं दादी के साथ किसी शनिवार या रविवार को... य़ा शायद महीने में एक बार उनके साथ फिल्म देखने जाता था। डैड नहीं जा पाते थे, वेे व्यस्त रहते थे। मैं उनके साथ रिक्शा में बैठकर जाता था। मैं और मेरा भाई... दोनों को वह अपने साथ फिल्म ले जाती थीं। भारत टॉकिज था वहां पर छोटा सा। बारह आने में टिकट मिलता था एक। नीचे स्टॉल में बैठकर देखता था। उनके साथ हमने बहुत फिल्में देखी।
- किस तरह की फिल्में? उनकी च्वाइस कैसी होती थी?
0 सारी फिल्में।
- ऐसा नहीं कि ये देखना और वो नहीं देखना है?
0 ऐसा कुछ नहीं था। मुझे याद है कि मैं इतना छोटा था कि जो फिल्म देखकर आता था उसका हीरो ही मेरा आदर्श बन जाता था। मुझे ये भी याद है कि नवीन निश्चल की फिल्म देखता था तो मुझे लगता था कि नवीन निश्चल जैसा कोई नहीं है। बचपन में... आठ-दस साल के उम्र में तो यही होता है। कॉलेज पहुंचने पर आदमी की च्वाइस बनती है।
- उन दिनों की देखी हुई पहली फिल्म के बारे में बताएं,जिसकी छाप आपके मन पर रह गई हो?
0 मुझे याद है... 'संगम'। 'संगम' मुझे याद है, जब मैंने देखी थी तो उस समय बहुत अच्छी लगी थी। जब से एक च्वाइस होने लगी कि मुझे इस टाइप की फिल्में देखनी हैं तो मैँने हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में देखनी शुरू की। तब मुझे लगा कि इस तरह की फिल्म में मुझे मजा आता है। चाहे वो 'आनंद' हो या 'गोलमाल' हो चाहे वो 'चुपके चुपके' हो। मनमोहन देसाई की फिल्में देखा करते थे। वहां एक्सपोजर ज्यादा था नहीं। बाद में इंस्टीट्यूट गया...
- नागपुर में कितने थिएटर थे उस समय?
0 नागपुर में उस समय बाईस-तेईस थिएटर... अभी भी लगता है उतने ही हैं। इधर पहला मल्टीप्लेक्स बन रहा है। उनमें से आधे से ज्यादा में आप जा नहीं सकते थे। बहुत खराब कंडीशन में थे। चंद थिएटर ठीक थे घर के पास में, वहां जाकर देखा करता था।
- आपने बताया कि 'संगम' और कौन सी याद है?
0 याद कर रहा हूं , हां 'संगम' मुझे ज्यादा याद है।
- हीरो जो पहली बार पहचान में आया हो... कि ये फलां हीरो है?
0 ये मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन ही थे। स्कूल में ही थे उस समय। अमिताभ वाज ए हीरो। मुझे याद है कि हम साइकिल पर स्कूल जाते थे... चाल-ढाल भी फिर कुछ वैसी हो जाती थी। अचानक लगता था कि हम भी बेस में गहरी आवाज में बात कर रहे हैं। आयडलीज्म होता था। हम भी बेस में बात करते थे। उस टाइप के कपड़े पहनना चाहते थे। अब सोच कर हंसी भी आती है। मुझे याद है कि टेलर के पास गया था... उस समय मैंने अमिताभ की कोई फिल्म देखी थी। मैंने टेलर से कहा था कि मुझे उनके टाइप की शर्ट चाहिए। अब हंसते हैं... सब दोस्त जाते थे बनवाने के लिए। एक टेलर नागपुर में था, वो बना कर देता था। फिल्म देखकर शर्ट तैयार करता था। मुझे एक फिल्म याद है। वो फिल्म थी राखी, अमिताभ और विनोद मेहरा की फिल्म थी 'बेमिशाल'। उसमें अमिताभ ने जो शर्ट पहनी थी, वह हम कई दोस्तों ने सिलवाई थी। अमिताभ तो हम सभी के आदर्श थे।
- क्या चीजें अच्छी लगती थी? फिल्म देखने के लिए उत्साह क्यों होता था? सिर्फ देखने के लिए फिल्म देखना या वहां लड़कियां मिलेंगी या वहां दोस्तों के साथ मौज-मस्ती होगी, उद्देश्य क्या होता था?
0 फिल्म देखने का आनंद उठाना ही उद्देश्य होता था।
लड़कियां तो उस टाइम... काफी पहले की बात कर रहा हूं। नागपुर काफी रूढ़िवादी शहर था। उस समय शायद लड़कियां अकेली फिल्म देखने के लिए नहीं जाती थी। दोस्तों के साथ आउटिंग करने का… मस्ती करना शामिल रहता था। कोई भी बहाना ढूंढ़ लेते थे। एक दिन बारिश पर रही थी और मैंने कहा, मौसम अच्छा है यार, फिल्म देखते हैं। मुझे याद है कि मैंने मम्मी से जाकर कहा कि फिल्म देखने जा रहा हूं। परमिशन लेनी पड़ती थी। चाचा जी थे बाजू में ,उन्होंने पूछा क्यों? अभी क्यों जा रहे हो फिल्म देखने? मैंने कहा कि मौसम अच्छा है। उन्होंने पलटकर कहा, मौसम अच्छा है तो मौसम का आनंद लो न? फिल्म देखने क्यों जा रहे हो? था शौक और काफी देखा करता था फिल्में। मुझे याद है, वहां जब कोई नई फिल्म आती थी और पॉपुलर फिल्म होती थी, ऐसा लगता था कि चलेगी बहुत तो सुबह पांच बजे के शो हुआ करते थे वहां पर। मुझे याद 'कुर्बानी' फिल्म जब लगी थी तो सुबह पांच से साढ़े सात का शो होता था। फिर साढ़े सात का शो होताथा। इस तरह दो एडिशनल शो होते थे। पहला हफ्ता चलता था। वह सुबह के सात बजे के शो में काफी फिल्में देखी है मैंने। जब कॉलेज पहुंचा तो वह समय कॉलेज का होता था। सुबह सात बजे से कॉलेज होता था... तो कई बार निकल जाते थे। ऐसा नहीं कि अक्सर... पर कभी आदमी निकल जाया करता था। 'कुर्बानी' मुझे अच्छी तरह याद है। सात बजे का शो देखने के लिए यह सोच कर गया कि सात बजे का शो है तो लोग कम जाएंगे। पहला शो है टिकट मिल जाएगी। पहुंचे तो पता लगा कि पिछली फिल्म के दर्शक लाइन में लगे हैं। वहां गुरुवार को फिल्म लगती थी। यहां शुक्रवार को लगती है। बुधवार को लास्ट शो जो फिल्म लगी थी... वो खत्म हुआ तो उसको देखकर लोग थिएटर से निकले और रात को ही लाइन में लग गए सुबह की शो देखने के लिए। इतनी पॉपुलर हुई थी 'कुर्बानी' सात बजे का शो भी हाउसफुल था। देखनी है फिल्म यह सोच लिया था। मुझे याद है कि एक लडक़ा टिकट लेकर खड़ा था । बोल रहा था एक्सट्रा टिकट-एक्सट्रा टिकट । मैं और मेरा दोस्त था। मैंने कहा कि एक्सट्रा है तो दे दो यार। तो वह कहता है कि इतना ज्यादा लूंगा। यानी वो ब्लैक कर रहा था। ब्लैक मार्केटियरं नहीं था। वो लडक़ा था ऐसे ही था कोई... हमने ले ली टिकट। हम छोडऩा नहीं चाहते थे फिल्म। पैसे थे उतने... मैंने कहा कि दे दो। उस समय साढ़े पांच रूपये के टिकट होते थे। वो कुछ सात-आठ रूपये मांग रहा था। मैंने ग्यारह रूपये दिए और कहा कि इसमें इतना ही लिखा हुआ है। तुम ब्लैक कैसे कर सकते हो। वह बहाने करने लगा। उधर हम बेताब थे कि टिकट कैसे छोड़ दें? तो ले ली। पता चला कि वह भेला लडक़ा ब्लैक मार्केटियर ही था। क्योंकि हमारी बक-झक में तीन-चार हट्टे-कट्टे से लोग आ गए। हमने उसे बारह रूपये दिए थे। एक रूपया उसने वापस नहीं दिया। वो तीन-चार लोग जमा हो गए मेरे पास। एक कहता है आपने पैसे नहीं दिए? मैंने कहा दिया। वो सोलह मांग रहा था। डर रहे हैं कि कहीं मार न पर जाए। फिर भी कह रहे हैं कि इसमें ग्यारह लिखा हुआ है। तो वह कहता है - आपने तो बारह ही दिए उसको। आप क्या ब्लैक की बात करते हो? आप दिए तो? मैं कहा दिए तो, एक वापस करो न? डरे हुए थे। तो वो कहता है कि देख लेंगे। हमने कहा देख लो... दिल नहीं हो रहा था कि फिल्म छोड़ दें। हम जाकर बैठ गए सिनेमा हॉल में जाकर। मैंने कहा देखी जाएगी। बाद में वही लडक़ा आकर बगल में बैठ गया। उसने भी एक्सट्रा टिकट खरीदी। फिल्म खत्म हुई तो हम सामने के दरवाजे से नहीं निकले। हम पीछे से निकले। कहीं वो लोग रोक न लें। एक होता था आकर्षण उस टाइम फिल्में देखने का। और कोई इंटरटेनमेंट था नहीं। टेलीविजन नहीं था।
- फिल्में देखने के अलावा और क्या चीजें पसंद आती थी, जैसे लॉबिंग कार्ड देखना। मुझे याद है हमलोग बचपन में जाते थे, फिल्म देखने से पहले चार दिन लॉबिंग कार्ड ही देखकर चले आते थे?
0 इंटरवल में निकल कर देखता था। चलो ये-ये हो गया। अब ये-ये होने वाला है। ये बाकी है। लाबिंग कार्ड देख कर स्टोरी जज करने की कोशिश करता था। फिल्म इंटरेस्टिंग होगी कि नहीं? बहुत होता था। आजकल वो सब खत्म हो गया।
- फिल्मों से आपका लगाव बढ़ता गया,लेकिन आपने कब महसूस किया कि फिल्मों में ही जाना है?
0 जब थिएटर करने लगे तो फिर मुझे लगा कि अब मुझे फिल्म में कुछ करना है। मुझे लिखने का शौक था। और मैंने घरवालों से भी कहा।इसे सौभाग्य कहें मेरा। मेरी कोई जान-पहचान नहीं थी किसी फिल्म वाले से... क़ोई एसोसिएशन नहीं था। एक तरह से टिपिकल बिजनेस फैमिली। कुछ टाइम तक खटका, मुझे लगा कि शायद... लेकिन मेरे डैड को नहीं खटका। पर बाकी परिवार में सबको लगा कि ये क्या है?
- ये क्या है में क्या सवाल थे?
0 फिल्मों में जाने का मतलब उस समय नागपुर शहर में यही होता था कि एक्टर बनने जाने चाहता है। उनको यह नहीं समझ में आता था डायरेक्टर बनने जाना चाहता है। तो काफी लोग आरंभ में हंसते रह। पर मेरे डैड... उन्होंने कहा, तुम्हें जो करना है, वो करो। हम बोलेंगे ये करो तो उसका कोई फायदा नहीं। जब तक हो यहां हमारे साथ काम करो... बाकी फिर करना है तो करो। मुझे पता भी नहीं था कि फिल्म इंस्टीट्यूट है और वहां जाने का कोई तरीका होगा। तो मैं सोच रहा था कि बंबई आऊंगा किसी के साथ काम करूंगा। तो उन्होंने ही कहा कि करना है तो फिल्म इंस्टीट्यूट से होते हुए जाओ।
- उसके पहले बंबई कोई एक्सपोजर नहीं था आपका?
0 बंबई आ चुका था एक-दो बार। शहर देखा था मैंने। पर कोई कनेक्शन नहीं था। अनजाना शहर था। उसी वजह से डैड का कहना था कि अगर करना ही है तो ट्रेंड होकर करो। अपने-आप को ट्रेंड करो। हैव द प्रोपर एजुकेशन देन गो। वही मुझसे कहते रहते थे कि फिल्म इंस्टीट्यूट जाओ... फिर मैं फिल्म इंस्टीट्यूट गया। वहां से प्रोस्पेक्टस ले लाया। फॉर्म भेजा मैंने। मैंने बी कॉम किया था। ग्रेजुएशन के बाद अप्लाय किया। तो एडमिशन नहीं हुआ। मैंने डायरेक्शन के लिए अप्लाय किया था। तो फिर मैंने लॉ करना शुरू किया... मेरी फैमिली में सब वकील थे। मगर मन वहीं लगा रहा। लॉ करने के साथ प्ले भी करते रहे, कॉलेज में भी और और बाहर भी...।
- और इस बीच प्ले चलते रहे?
0 वो तो रेगुलर चलता रहा। मुख्य आकर्षण वही था। प्ले करते रहना है, लिखते रहना है। वो सब चलता रहता था। पहली बार एडमिशन नहीं हुआ,लेकिन टेस्ट देने के बाद थोड़ा सा पता चला कि कैसे होता है। इंस्टीट्यूट में गया था तो कुछ लोगों से मिला। मुझे पता चला इंस्टीट्यूट में एडमिशन के लिए करीब तीन-चार हजार लोग अप्लाय करते हैं हर साल। और बत्तीस सीट होती हैं टोटल। तो आसान नहीं है इतना। पता लगा कि आठ सीट होती थी हर कोर्स के लिए। मुझसे किसी ने कहा कि एडीटिंग में अप्लाय करो। अगर चार हजार लोग अप्लाय करते हैं तो दो हजार लोग डायरेक्शन के लिए करते हैं। एडीटिंग के लिए पांच-छह सौ लोग करते होंगे। उसमें ज्यादा चांस है। मैंने कहा कि मुझे कुछ आयडिया नहीं एडीटिंग क्या होता है। इतना था कि चलो एडीटिंग में घुस जाएंगे तो फिर डायरेक्शन कर लेंगे, वहां से कुछ हो जाएगा। तो अगले साल एडीटिंग में अप्लाय किया।
- अप्लाय करते समय ये दिमाग में था कि किस फील्ड में जाना है?
0 ये शौक था कि फिल्म बनाना है। क्योंकि प्ले डायरेक्ट करते थे नागपुर में तो यह दिमाग में था कि फिल्म डायरेक्ट करनी है। डायरेक्शन में नहीं हुआ तो सोचा चलो अब एडीटिंग में अप्लाय करते हैं। थोड़ा समझ में आ गया था कि किस तरह के पेपर्स होते हैं। दो टेस्ट होते थे। एक एप्टीट्यूड टेस्ट होता था, वो बैंक के एग्जाम जैसा होता था। वो आपका लॉजिक समझने की कोशिश करते थे। मैंने तैयारी शुरु की। फिर पढऩा शुरू किया फिल्मों के बारे में। वर्ल्ड सिनेमा समझने की कोशिश की। नेशनल सिनेमा समझने की कोशिश की, उस समय एक्सपोजर नहीं था।
- वो कौन लोग हैं जिन्होंने मदद की थी उस समय?
0 नहीं, मैं खुद गया था इंस्टीट्यूट। एक एग्जाम दे चुका था। वहां की लायब्रेरी देखी थी। पढऩा है तो पढ़ो। तो मैंने लाइब्रेरी में एक हफ्ता बिताया। वहां से मेरे लौटने के बाद नागपुर में एक फिल्म क्लब खुला ।
- आपने चालू किया?
0 नहीं। एक अलग ग्रुप था। उन्होंने शुरू किया। वल्र्ड सिनेमा आता था, फिल्म आरकाईव से फिल्में आती थीं। वो देखना शुरू हुआ। थोड़ा एक्सपोजर मिला। पूरी तैयारी के साथ एग्जाम दिया। उस साल सलेक्शन हो गया एडीटिंग में। अब लगता है कि अच्छा ही हुआ। एडीटिंग से आज मुझे इतनी मदद मिलती है। अगर डायरेक्शन कर के आता तो बहुत थयोरीटिक्ल कोर्स होता आज। एक टेक्नीकल बैकग्राउंड है। कहानी तो आदमी लिख लेता है। वह कोई आपको सीखा नहीं सकता शायद। फिर वहां से बंबई आया।
- बंबई में किनके साथ शुरू में?
0 एडीटिंग पास कर के आया था तो मैंने कुछ साल एडीटिंग की। हुआ यह कि... मुझे जब पहला टेलीग्राम मिला था मुझे एडमिशन का... आदमी, एक छोटे शहर से आया आदमी। ऐसा लगता था कि इंस्टीट्यूट में एडमिशन हो जाएगी बस लाइफ बन गई। हम निकलेंगे यहां से फिर फिल्म बनाएंगे। इसमें क्या है? प्रोब्लम क्या है? मुझे अभी तक याद है, जब टेलीग्राम आया। टेलीग्राम आता था,यू हैव बिन सलेक्टेड फोर दिस कोर्स... मैं उसको रख नहीं पा रहा था नीचे। मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि एडमिशन हो गयी। मैं देख रहा हूं। ऐसे देख रहा हूं। यार अब तो लाइफ हो गया सेट... अब जाएंगे तीन साल कर के निकलेंगे। और हो जाएंगे। देखता रहा, पता नहीं कितने घंटों तक मैंने देखा रहा होगा। मैं नागपुर से पहला व्यक्ति था इंस्टीट्यूट जाने वाला।
- यह किस साल की बात होगी?
0 84 से 87 तक था मैं इंस्टीट्यूट में। यह 84 की बात है। फिर बस पहुंच गए इंस्टीट्यूट। सात दिन में पता लग गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है कि हम यहां से निकलेंगे तो दुनिया चेंज हो जाएगी। अभी तो हम सीख रहे हैं। बाहर जाकर कुछ और सीखना है। ऐसा कुछ नहीं है। वो बड़ा इंटलेक्टचुअल सी जगह थी। जाते ही स्ट्राइक हो गई इंस्टीट्यूट में... रैगिंग होती थी। कहते थे खड़े होकर चिल्लाओ। वांट मोर स्टॉक, वी वांट फलेक्सीबिलिटी। न हमको स्टॉक समझ में आता था और न फलेक्सीबिलिटी समझ में आती थी। खड़े होकर चिल्ला रहे हैं नहीं तो रैगिंग होती थी। तो वो बड़ा इंटलेक्चुअल सा माहौल था वहां पर। कोई भी कुछ भी बोलता था। थोड़ा सी छद्म बौद्धिकता थी वहां पर। तो मैं डीप्रेशन में आ गया था। और मैं वापस आ गया नागपुर। फिर बीस-पच्चीस दिन बाद टेलीग्राम आया कि वापस आ जाओ। मृणाल सेन आ रहे हैं। गर्वनिंग कॉन्सिल के मेंबर हैं। उनकी मीटिंग है। उनका घेराव करना है। तो हम पहुंच गए वापस। मृणाल सेन आए, उनका घेराव किया गया। पुलिस आई, पुलिस सबको पकडक़र ले गई। अस्सी स्टूडेंट थे जेल में बैठे। मैं सोच रहा था मैं आया था फिल्म बनाने, यहां पुलिस स्टेशन में बैठे हुए हैं। बहुत डिप्रेशन में आ गया। स्ट्राइक खत्म हुई तो फिर आए। फिर क्लासेस शुरू हुए। वहां से फिर कांफिडेंश वापस आया। जब काम करना शुरू किया, जब स्टील कैमरे दिए जाते थे, जाकर शूट करते थे। फिर यह फीलिंग आने लगी कि नहीं यार हम जानते हैं। ऐसा नहीं है कि ... ये इंटलेक्चुअलिज्म अपनी जगह पर है। कांफिडेंश वापस आया फिर इन्जॉय करने लगा आदमी। और आज मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि वो तीन साल कल बीते हैं।
- आपने थिएटर का अभ्यास किया था। फिल्म इंस्टीट्यूट में तो विजुअल मीडियम के हिसाब से ट्रेनिंग चल रही होगी। कितना आसान रहा देखने और सोचने में आया बदलाव?
0 इंस्टीट्यूट ट्रेंड कर रहा था। हमलोग सीख रहे थे। पुराना भूल गया था। क्योंकि जब एक बार छुट्टी में घर गया तो... बाकी ग्रुप के लोग लोग प्ले कर रहे थे। मैंने सोचा फिर प्ले करूंगा। एक प्ले था कोई डायरेक्ट कर रहा था, मैं एक्ट कर रहा था ... तब मुझे लगा कि मैं भूल गया हूं। अब मेरे लिए ये मुश्किल है ... सच कहूं तो खुसुर-पूसुर करके सब लोग बात करते थे कि इसको हो क्या गया है। पहले तो बहुत अच्छा करता था। अब ठीक से नहीं कर पा रहा है। थोड़ा सा हो गया था कुछ,बदल गया था। उस माहौल से निकल कर इस माहौल में ढल गया। कई सालों तक लगता रहा कि अभी थिएटर करना चाहिए था। लेकिन अब नहीं लगता है।
- प्रशिक्षण कितना जरू री मानते हैं?
0 मैं समझता हूं कि बहुत जरूरी है ट्रेनिंग। ऐसा नहीं कि लोग डायरेक्ट नहीं सीखते हैं। डायरेक्ट भी सीखते हैं। हमको लगता है कि औपचारिक ट्रेनिंग का फायदा यह है कि आप सब कुछ व्यवस्थित ढंग से सीखते हैं। आपको हर चीज मिल जाती है। आप पहले दिन से कैमरा लेकर खड़े हो जाते है। आप समझते हैं कि लेंसिंग क्या होता है? लाइटिंग क्या होता है। लैप क्या होता है? स्टॉक क्या होता है। यहां पर आप सीखना भी चाहो तो ... किसी को असिस्ट करोगे तो आपको पहले पता नहीं होगा। कैमरामेन आपको थोड़े ही झांकने देगा कैमरा में से। वो आपको नहीं बताएगा कि लेंस क्या होता है। वह तो काम कर रहा है। अगर आप वह सीख कर आओ यहां पर तो ... फिर देखो और करो तो यहां आसान है। ये नहीं कह रहा हूं कि ऐसे नहीं सीख सकते हैं। पर औपचारिक ट्रेनिंग बहुत बेहतर है। ट्रेनिंग से खराब स्टूडेंट भी निकलेंगे, अच्छे स्टूडेंट भी निकलेंगे। हर मेडिकल कॉलेज से निकला हुआ डाक्टर जरूरी नहीं कि अच्छा डॉक्टर होगा। पर आपको एक वातावरण मिलता है सीखने के लिए। अब आप उसका कितना फायदा उठाते हैं। इंस्टीट्यूट में पूरा माहौल मिलता है। कमाल की लाइब्रेरी उपलब्ध है। जो फिल्म आप देखना चाहो। वल्र्ड सिनेमा आपके पास उपलब्ध है। आपके सारे दोस्त दिन भर सिनेमा पर बात कर रहे हैं। माहौल कमाल का मिलता है। साइड इफेक्ट भी है। आप इंटलेक्चुअल हो जाओ। आप एटीट्यूड दिखाना शुरू कर दो आप सोचने लगो कि कुछ हो तो आप बिखर भी सकते हो। पर आप उसको पॉजिटीवली लो तो आपको बहुत फायदा होगा। मुझे लगता है कि मुझे आज भी कोई कहे जाकर पढ़ाई करो कहीं तो मैं झट से तैयार हो जाऊंगा। सच कहता हूं,मन करता है कि कुछ चीजें अभी भी कहीं जाकर सीखना चाहिए। छोटा कोर्स छह हफ्ते का या महीने-दो महीने का करना चाहिए। म्यूजिक के बारे में थोड़ा और जानना चाहता हूं। मन करता है कि किसी दिन जाकर चेक करूंगा।
- मुंबई आने के बाद पहला जॉब क्या किया आपने?
0 पहला काम किया एडीटिंग का। एक एड फिल्म की मैंने। भरत रंगाचारी फिल्ममेकर थे। उन्होंने एक एड फिल्म बनाई थी। उनकी एड फिल्म एडिट की। उसके बाद रेणु सलूजा ने मुझे ट्रेक्लींग का काम दिया। एक डाक्यूमेंट्री थी उस पर काम किया।
- डायरेक्टर का नाम क्या था?
0 एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी शबनम ने। रेणु एडिट कर चुकी थी। उसके बाद साउंड का काम करना था। दो काम किए,उसके बाद फिर दो-तीन महीनों तक कुछ काम ही नहीं था।
- काम नहीं मिलने पर पैसों की दिक्कत रही होगी ?
0 इंस्टीट्यूट में स्कॉलरशिप मिलती थी। फीस बहुत कम थी। 257 रूपये भरा करते थे हमलोग एक सेमेस्टर का। समझ लीजिए कि हमलोग मुफ्त में ही पढ़ते थे। चार-पांच सौ रूपये महीने में हो जाता था। चार सौ रूपए स्कॉलरशिप मिलती थी। हर ग्रुप में दो लोगों को मिलती थी।
- वहां ड्रग्स से कैसे बचे आप?
0 इंस्टीट्यूट में ड्रग्स का कभी प्रोब्लम नहीं रहा। मुझे नहीं लगता कि कोई भी ड्रग्स लेता था। दारू वहां बहुत चलती थी इंस्टीट्यूट में। दारू वहां बहुत पीते थे लोग,लेकिन वह सीरियस लेवल पर नहीं था। एकाध होगा कोई ऐसा मामला ... हर कॉलेज में जितना होता है, उतना होता था। यह धारणा है वहां के बारे में ... हमारे टाइम पर नहीं था। आप जो समस्या कह रहे हैं, वो समस्या तो नहीं थी,पर आने के बाद दो-तीन महीना काम नहीं था। फिर कुछ छोटा सा मिलता था। तो वो पहले छह महीने मैं कहूंगा कि थोड़ी दिक्कत थी। उस समय फैमिली ने सपोर्ट किया।
- अकेले रहे या दोस्तों के साथ रहे? किस इलाके में रहे?
0 हुआ ये मेरे साथ, मुझे याद है ... मेरा डिप्लोमा फिल्म खत्म हुआ सबसे पहले। डिप्लोमा फिल्म खत्म कर के मैं चला गया नागपुर शहर।
- क्या नाम रखे थे डिप्लोमा फिल्म का?
0 एट कॉलम अफेअर। वहां ग्रुप बनते थे। चार लोगों का एक डायरेक्टर होता था। एक कैमरामेन, एक एडिटर। मेरे साथ डायरेक्टर थे श्रीराम राघवन। वो मेरे बैच में थे। अभी उन्होंने एक हसीना थी डायरेक्ट की थी। श्रीराम राघवन डायरेक्टर, हरिनाथ कैमरामेन थे, मैं एडिटर था। डाक्यूमेंट्री बनाई जिसको नेशनल अवार्ड भी मिला था बाद में। फिल्म बनाई और मैं चला गया। हमारा एक वीडियो कोर्स होने वाला था। दो महीने का कोर्स था। उसके लिए मैं लौटकर आया एक महीने के बाद । तो पता लगा कि वह कोर्स नहीं होने वाला है। इसका मतलब हमारा तीन साल का कोर्स खत्म हो गया अब आप जाइए। मैं गया तो पता लगा कि हमारे रूम से हमारा सामान निकाल दिया गया था। एक हॉल में रख दिया गया था। जिसको हम अपना घर समझते थे। वहां जाकर पता चला कि वो घर है ही नहीं। सारे स्टूडेंट बंबई या कहीं और भी जा चुके थे। और मुझे किसी ने खबर नहीं की थी। मुझे याद है, मैं पूरा दिन बैठा रहा कैंपस में न कमरा था अपना न कुछ और। जिसे हम अपना घर समझते थे, वहां अचानक असहाय बैठे थे। अब करें क्या? पूरा दिन मैं सोचता रहा कि अब मैं करूं क्या? मैं बंबई जाऊं कि मैं नागपुर जाऊं? क्योंकि मैं कहीं जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था। मुझे लग रहा था कि दो महीने का कोर्स खत्म होगा उसके बाद बंबई के लिए तैयारी करेंगे। बंबई में घर था न ठिकाना था। नागपुर जाकर कोई फायदा नहीं है। आना तो फिर बंबई ही है। फिर मैंने कहा अभी चलते हैं। मैंने वहां से एक बैग पैक किया और बाकी सामान को हॉल में छोड़ा। मैंने सोचा कि बाद में आकर पिकअप करूंगा कभी। एक बैग लेकर मैं ... एशियाड बस चलती थी उस समय। बस पकडक़र मैं बंबई पहुंचा था सुबह पांच बजे। मैं सीधा गया था श्रीराम राघवन के यहां। उनका घर है यहां पर। उसके घर गया, बेल बजाई, उसने दरवाजा खोला, वो हंसता हुआ मुझे देख रहा था। मैंने गालियां दी। तू साला बताया नहीं मेरे को ... उसने कहा कि मैंने जानबूझकर डिसाइड किया कि नहीं बताएंगे तुमको। आने दो पता लगेगा फिर। मालूम था कि यहीं आओगे तुम। उसका बंबई में मकान था। उसके माता-पिता पूना में रहते थे। अंदर गया तो हमारे तीन और बैचमेट सोए हुए थे, गद्दे डाल के। वो नींद में थे। मैं भी जाकर सो गया। सात बजे मुझे याद है कि सिक्कों की आवाज आने लगी। खट-खट-खट सिक्के ... उठा, देखा तो सब एक-एक रूपए के क्वाइन गिन रहे थे सब लोग। क्योंकि नीचे एक फोन बूथ होता था। और घर पर फोन नहीं था। वो फोन बूथ में जाकर सुबह लग जाते थे ... एक फिल्म की डायरेक्ट्री होती थी सबके पास। डायरेक्ट्री लेकर सब फोन करते थे। जो कैमरामेन होगा तो वो कोई कैमरामेन को फोन करेगा जॉब के लिए। मैंने देखा, बोला मर गया यार। कठोर सच्चाई दिखने लगी ... ये क्या हो रहा है। मैं बैठा रहा। पूरा प्रोसेस ही होता था कि आज इसको मिलना है, आज इस डायरेक्टर को मिलना है। वो सब चलता रहता था। अगले दिन मेरे पास भी वही था। मैं डायरेक्ट्री लेकर बैठा हुआ था। कुछ सिक्के थे और सुबह से फोन लगा रहे थे। फोन लगाते थे, फिर लोगों को मिलते थे। संयोग से मुझे पहले हफ्ते में ही पहला काम मिल गया। उसके कुछ पैसे मिले। मगर उसके बाद छह महीने तक कोई काम नहीं था। फिर वो वीडियो कोर्स आ गया। दो महीनों के लिए फिर से फिल्म इंस्टीट्यूट गए। वहां से जब लौटकर आए तो लगा कि काम ऐसे मिल नहीं सकता है। हम उम्मीद में बैठे हुए थे। हम लोगों से मिलते थे लेकिन किसी को विश्वास नहीं होता था। वो आपके साथ क्यों काम करेगा। हमको पता है कि शायद हम काम में अच्छे हैं। पर उसको तो नहीं पता है। फिर मैंने एक एडीटिंग रूम ज्वाइन किया। एक स्टूडियो था एकता वीडियो, सांताक्रूज में, उस समय वीडियो का टेक्नोलॉजी शुरू हुआ था। लो बैंड में एडीटिंग होता था। यह 1988 की बात है। वहां पर मैंने जॉब किया। उस समय ऐसा नहीं लगता था कि कोई स्ट्रगल कर रहे हैं। जिसको सोचो तो ... मजा आता था।
- उस समय शादी नहीं हुई थी क्या ?
0 मेरी शादी 1994 में हुई।
- कोई इमोशनल अफेयर या कोई गर्ल फ्रेंड ... इन व्यस्तताओं से बचे हुए थे?
0 कुछ नहीं, बचे हुए नहीं थे। वंचित थे।
- सोच रखा था या ...?
0 बिल्कुल नहीं, कोई मिल जाती तो बड़ी खुशी होती। वहां मुझे बारह सौ रूपए मिलते थे। हुआ ये कि वहां, एकता वीडियो में,लोगों से मिला। वहां लोग एडीटिंग करने आते थे। एडिटर लेकर आते थे। जिसको एडिटर नहीं होता था उसके साथ हम काम करते थे। उसमें छह महीना काम किया। वहां टीवी के काम आते थे। सीरियल का काम होता था ज्यादातर। मैंने सीरियल को एडिट करना शुरू किया। फिर कांटेक्ट बन गया। एडवर्टाइज में एक बार किसी के लिए काम करो, उसको आपका काम पसंद आता है तो आपको फिर से बुलाता है। वहां छह महीना और बाहर छह महीना फ्रीलांसिंग करने के बाद मुझे नियमित रूप से एडिटींग का काम मिलना शुरू हो गया। फिर एक दिन भी फ्री नहीं होता था। एक फीचर फिल्म भी एडिट की मैंने।
- फीचर फिल्म कौन सी थी?
0 अनंत बनानी की फिल्म थी 'जजबात'। उन्होंने खुद प्रोड्यूस की थी, पर वह चली नहीं। जॉय ऑगस्टीन ने एक फिल्म बनाई थी। उनकी पहली फिल्म,जो आधे में ही बंद हो गई थी। वो एडिट की। तो मेरा फिल्म का ऐसा एक्पीरियेंस रहा कि एक फिल्म की, वो चली नहीं तो पैसे नहीं मिले उसके। फिर दूसरी की वो बंद हो गई उसके भी पैसे नहीं मिले। काम इतना रहता था कि फीचर फिल्म उस समय स्टीनबेक पर होता था। छह-छह महीना एडिट करो फिर पैसे नहीं मिलें तो ... अचानक लगने लगा कि यार ये दुकान सरवाइव नहीं कर रहा है। उस दौरान मैं एडवरटाइजिंग के कुछ लोगों से मिला। उनके लिए एड फिल्में तैयार की। वहां कुछ अच्छे किस्म के लोग मिले। जो टिपिकल फिल्मी नहीं थे। वे अच्छे लोग थे और उनसे मिलने-जुलने में अच्छा लगता था। धीरे-धीरे पता नहीं कैसे अपने आप एड फिल्म में रूचि जागी। एड फिल्म एडिट करते-करते ... कुछ डायरेक्ट करने के लिए भी मिल गई। एक आदमी चाहता था डायरेक्टर । फिर डायरेक्ट करना शुरू कर दिया। वो फिल्में बनने लगी। फिर वहां से प्रोड्यूस करना शुरू कर दिया। करते-करते एड फिल्म की प्रोड्क्शन कंपनी बन गई। गुड वर्क ... वो चलता रहा। फिर उस बीच विधु विनोद चोपड़ा की मिशन कश्मीर मिल गई।
- इस बीच डायरेक्टर बनने का सपना कैसे बचाए रखा। क्या ऐसा नहीं हुआ कि एडिटिंग में पैसे आ रहे हैं तो आप संतुष्टï होकर इसी काम को आगे बढ़ाते रहें?
0 मैं नागपुर से यह नहीं सोचकर आया था कि मैं डाक्यूमेंट्री बनाऊंगा या एड फिल्में करूंगा। मुझे नहीं लगता कि कोई यह सोच कर आता है। हो सकता है कुछ लोग डाक्यूमेंट्री या एड फिल्म का ही सोच कर आते हों। हमें नागपुर में तो मालूम ही नहीं था कि एड फिल्में क्या होती हैं? जब इंस्टीट्यूट गए थे तो टेलीविजन भी नहीं था आज जैसा।। ये था कि फिल्में करनी है तो सौ प्र्रतिशत फिल्में ही बनानी हैं। पर सही दरवाजा नहीं मिल रहा था। न ठीक किस्म के लोग मिल रहे थे। लोगों से मिलना-जुलना बहुत मुश्किल होता था। फीचर फिल्म में मेरा एक्सपोजर इतना इच्छा नहीं रहा था। फिर विनोद के साथ जब मिलना शुरू हुआ तो कुछ मजा आया। लगा कि यार यह आदमी लगन वाला है। इनके साथ काम करने का मजा है। कुछ आदमी पैसे के लिए सब कुछ करते हैं। और कुछ मजे के लिए काम करते हैं। मुझे याद है, हम इंस्टीट्यूट में जो फिल्में बनाते थे, उसमें कोई कमर्शियल दृष्टिïकोण नहीं होता था। फिर भी जितना मजा वह फिल्म बनाने में आता था। बाहर किसी एड फिल्म में नहीं आया। क्योंकि आप यहां किसी के लिए बना रहे हो। यह सोचकर कि उसको ये प्रोडक्ट बेचना है तो उस हिसाब से पैकेज करना है। इंस्टीट्यूट में सारे लोग मिलकर पैसेनेटली, सारे स्टूडेंट अपनी एक्सरसाइज करते थे। इसको ऐसा बनाएंगे। एक्सपलोर करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। फिल्म बनती थी स्क्रीन होती थी। देखते थे। वास्तव में कई बार ऐसा लगता था कि रीढ़ की हड्डी सीधी है। चलते थे हम तो चाल में फर्क आ जाता था। मजा आता था। वह मजा मुझे वापस 'मुन्नाभाई' में मिला। मैंने और कुछ नहीं सोचा, इसलिए फिल्म बनाई कि मजा आ रहा है बनाने में।
- 'मिशन कश्मीर' के बाद कैसे बात बनी। विनोद ने सुझाव दिया या आपने उनसं आग्रह किया?
0 विनोद ने कभी किसी और के लिए फिल्म प्रोड्यूस नहीं की थी। वे खुद के लिए फिल्में बनाते थे। मुझे उनकी फिल्म एडिट करने में बहुत मजा आया। पहले भी एडिट कर चुका था, पर इतना मजा नहीं आया था जितना मजा इनके साथ काम करने में आया। तो उसके बाद मैं वापस गया तो सोचा कि अब अगर मैं फिल्म नहीं बनाऊंगा तो शायद कभी नहीं बना पाऊंगा। पहले होता यह था कि एड फिल्में करते थे। एक हफ्ते का गैप मिलता फिर सोचते थे कि चलो स्क्रिप्ट लिखेंगे। फिर एक हफ्ता लिखते थे। फि र एड फिल्म आ जाती थी। तीन महीने तक फिर कुछ नहीं करते थे फिर एक हफ्ते करते थे। ऐसे में सालों साल निकल गए। स्क्रिप्ट पूरी ही नहीं होती थी। अगर होती भी थी तो पसंद नहीं आती थी।
- तब तक शादी हो गई थी, बच्चे वगैरह हो गए थे?
0 हां, शादी हो गई थी। बच्चे भी हो गए थे। मेरी पत्नी काम करती हैं। आर्थिक परेशानी नहीं थी।
- आपकी पत्नी किस जॉब में थीं?
0 मेरी पत्नी इंडियन एअरलाइनस में है। तकलीफ नहीं थी। मैंने काफी काम किया था तो पैसे भी बचाए थे। मैं साच कर देखा कि अगर मैं एक साल काम न करूं तो भी सरवाइव कर सकता हूं। फिर मैंने कहा कि छह महीने ट्राई करता हूं। नहीं होगा तो फिर वापस करेंगे। ऐसा नहीं था कि काम नहीं मिलेगा। तो मैंने छह महीना सब कुछ बंद कर दिया। ऑफिस में फैक्स मशीन से स्क्रिप्ट आती थी। मैं देखता भी नहीं था। ऑफिस सब लोग डर गए थे। स्टॉफ लोग बोलते थे कि पागल हो गया है। छह महीने के बाद मुझे लगने लगा कि स्क्रिप्ट ठीक है तो मैं विनोद से मिला उस समय। यह सोचकर नहीं कि वे फिल्म प्रोड्यूस करेंगे। यह सोचकर कि मिलने गया कि आप कुछ एक्टरों से मिला दीजिए मुझे। और मैं चाहता हूं कि कोई एक्टर मान जाए तो फिर कोई फाइनेंस भी कर देगा। मेरा अपना प्रोड्क्शन हाऊस था। मैंने सोचा कोई फाइनेंसर मिल जाएगा तो मैं बना सकता हूं। बनाने का तो एक्सपीरियेंस था। उन्होंने कहा किस से मिलना है। उन्होंने कहा कि ऐसे कैसे तुम्हें किसी से मिलवाऊं। पता नहीं तुम क्या बनाना चाहते हो। फिर मैंने उन्हें स्क्रिप्ट सुनाई। उनको स्क्रिप्ट अच्छी लगी। उन्होंने कुछ सुझाव दिए। ऐसा-ऐसा करो। एक-दो महीने तक हमलोग मिलते रहे।
- पहले से स्टोरी आपके पास थी?
0 मेरे पास एक स्टोरी थी । तीन स्टूडेंट हैं, जो मेडिकल कॉलेज में हैं। उनकी एक स्टोरी थी मेरे पास में। मेरे बहुत दोस्त हैं। नागपुर में 12वीं के बाद आदमी या तो मेडिसीन करता था या इंजीनियरिंग करता था। मैं इंजीनियरिंग करना चाहता था। मेरे बहुत सारे लोग दोस्त जो 12वीं के बाद मेडिकल करना चाहते थे। मैं तो घुस नहीं पाया इंजीनियरिंग में। मेरे बहुत सारे दोस्तों इंजीनियरिंग में चले गए थे। बहुत सारे दोस्तों को मेडिकल में एडमिशन मिल गई थी। वही दोस्त थे। मैं बी कॉम कर रहा था। सुबह सात से दस कॉलेज होता था,उसके बाद फ्री। तो नाटक करते थे। उसके रिहर्सल चलते रहते थे। हमारे ग्र्रुप में कुछ मेडिकल के लडक़े थे। उन्हें कम समय मिलता था तो हम उनके हॉस्टल में जाकर रिहर्सल करते थे। मैं मेडिकल कॉलेज में बहुत जाता था। जाता था तो बहुत सारी चीजें दिखाई देती थी। और लिखने की आदत थी। एक डायरी साथ में रखते थे। जो थॉट आए लिख दो। वो थॉट इंस्टीट्यूट में भी मेरे साथ रहे। इंस्टीट्यूट से निकलने के बाद एक स्क्रिप्ट बनाई थी। मेडिकल कॉलेज के तीन स्टूडेंट की कहानी थी । उस कहानी में हंसी के प्रसंग बहुत थे। रोचक थे सीन, लेकिन उनको जोडऩे के लिए कोई कहानी नहीं थी। सीन पढ़ो तो मजा आता था मगर जोड़ता नहीं था। इसलिए वह हमेशा पड़ी रहती थी। फिर हमने दूसरी स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की वह पूरा किया। 'बाबूजी धीरे चलना' लेकिन उसमें मजा नहीं आ रहा था। वह संभल नहीं रही थी। एक मरीज है जो मर जाता है, बाद में भूत बनकर आता है और वो बताता है। वो बताता है कि क्या-क्या हुआ उसके साथ। मेडिकल सिस्टम पर टिप्पणी थी। वह थोड़ी बेहतर हुई। फिर भी मुझे लगा कि यार यह रीयल नहीं है। फिर एक दिन ये ख्याल में आया कि अगर एक भाई मेडिकल स्कूल में आ जाए । ऐसा लगा कि बहुत मस्ती भी हो सकती है। और उसके जरिए हम टिप्पणी भी कर सकते हैं। 'मिशन कश्मीर' के बाद वह थॉट आया। तब लिखना शुरू किया मैंने। जब मुझे लगा कि यह कहानी बन सकती है तो छह महीने उसे लिखा।
- फिर वह कहानी विनोद को सुनाई़?
0 हां, उनको सुनाई। उनको पसंद आई। कुछ सवाल थे उनके। दो महीने और काम किया। मुझे कु छ समय के लिए लगा कि मुझे बोल रहे हैं, आश्वासन दे रहे हैं, लेकिन मुझे किसी से मिला क्यों नहीं रहे हैं। केवल सलाह देते रहे और मैं करता रहा। फिर एक दिन उन्होंने पूछा कि कौन प्रोड्यूस कर रहा है। मैंने कहा हैं कुछ लोगों से बातें हुई हैं। बात हुई भी थी, लेकिन फायनल नहीं थी। उन्होंने मुझ से कहा कि मैं इसको करता हूं। हां, मैं प्रोड्यूस करता हूं। तो फिर वहां से बात आगे बढ़ी कि किस के साथ काम करनाचाहिए। फिर उन्होंने सलाह दी कि शाहरुख के साथ करो। मैंने सोचा और क्या चाहिए।मन में गुदगुदी उठी कि पहली फिल्म शाहरुख के साथ। उन्होंने शाहरुख को फोन किया मैंने जाकर स्क्रिप्ट सुनाई। वह 'देवदास' की शूटिंग कर रहे थे। मैंने स्क्रिप्ट उन्हें दे दी। मैं सुनाने गया था, लेकिन उन्होंने कहा कि टाइम नहीं है। स्क्रिप्ट छोड़ जाओ, मैं पढ़ लूंगा। मैंने मन में सोचा ये तो पढ़ेगा नहीं। उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी और दूसरे दिन फोन किया और कहा कि मुझे स्क्रिप्ट अच्छी लगी है,मिलते हैं। फिर एक महीना तक मैं उनसे रोज मिलता रहा। बहस चलती रही । मैंने महसमस किया कि स्क्रिप्ट पसंद आने के बाद वह मुझे परख रहे थे कि ये है कौन? बना पाएगा कि नहीं। फिर एक महीने के बाद उन्होंने हां की। तय हुआ कि हम साथ में काम करेंगे।
- जबकि विधु विनोद चोपड़ा आपके साथ थे?
0 आदमी सोचता है न कि डायरेक्टर कौन है। क्या है? वह सुपरस्टार हैं। क्यों काम करें किसी नए डायरेक्टर के साथ। फिर उनकी गर्दन की तकलीफ सामने आई। वह ऑपरेशन करवाने चले गए। फिर पता लगा कि साल भी लग सकता है। दो साल भी लग सकते हैं। क्योंकि वह काफी फिल्में कर रहा थे उस वक्त। तब संजय दत्त का नाम आया। और मैं बड़ा चौंका था। उस समय लग रहा था कि एक प्रोजेक्ट शाहरुख के साथ हो रहा था और वह रुक गया। अब वही फिल्म संजय के साथ करनी होगी। बाद में लगा कि इससे ज्यादा कोई भी आदमी इस रोल को शूट नहीं कर सकता है। एक तरह से अच्छा ही हुआ।
- इस फिल्म के निर्माण के दौरान कभी ऐसा निराशा नहीं हुई कि पता नहीं फिल्म बन पाएगी कि नहीं बन पाएगी? क्या होगा?
0 नहीं, दो साल लगे। 2000 में 'मिशन कश्मीर' खत्म हुई थी। अक्तूबर से मैंने लिखनी शुरू की थी। 2001 के मध्य में विनोद को सुनार्ई। विनोद के हां कहने के बाद भी दो साल लगे इस इस फिल्म के शुरू होने में। पर मुझे विनोद ने आश्वस्त कर दिया था। इसलिए कांफिडेंस था । विनोद ने कहा था कि यह फिल्म बनेगी जरूर। हम बनाएंगे। थोड़ा टाइम लगेगा। ऐसी निराशा नहीं थी। विश्वास था कि विनोद कह रहे हैं तो फिल्म रजरूर बनेगी। पर चिंता होती थी। आदमी काम नहीं कर रहा था। एड फिल्म बंद कर दी थी तीन साल से। काम नहीं करने का अपना दबाव काम करता है। अगर पैसे की कमी होती थी तो बीच में एक एड फिल्म कर लेता था। मुझे डर कभी नहीं लगा। पहले और दूसरे मुन्नाभाई में भी तीन साल का गैप रहा। मुझे लगता है कि आप पैसे के पीछे लगातार भागते रहेंगे तो फिर आप पैसे ही कमाते रहेंगे। फिर आप स्क्रिप्ट नहीं लिख सकते। आप आराम से लिखो। पैसे तो आ ही जाते हैं, कहीं न कहीं से घूम-फिर कर कहीं-कहीं से।
- अगर प्रभाव की बात पूछूं तो आप किन निर्देशकों के नाम लेंगे? एक तो विधु विनोद चोपड़ा की संगत का असर हो सकता है। बाकी कौन?
0 हिंदी सिनेमा से प्रभावित रहा। हृषिकेश मुखर्जी का सबसे बड़ा प्रभाव है। उनकी बहुत फिल्म मैंने देखी हैं और वे मुझे अच्छी लगती हैं। आज भी वो फिल्में याद है। उस दिन 'आनंद' की बात निकली तो मैंने उसकी कविता सुना दी। मुझे पूरी कविता याद थी आनंद की 'मौत तू एक ... ' मैं भी चौंका था। बचपन में देखी थी वह फिल्म। तो फिल्में याद रह जाती हैं। गुलजार साहब के फिल्मों का काफी प्रभाव रहा है। उनकी सारी फिल्में पसंद हैं मुझे। व्यक्तिगत स्तर पर विनोद से मिलने के बाद कहुत सारी बातें समझ में आईं। उनसे सिनेमासे अधिक जिंदगी जीने का एक अंदाज सीखा है। विनोद बिल्कुल गैरफिल्मी व्यक्ति हैं। साफ दिल और ईमानदार किस्म के आदमी हैं। थोड़ा मिसअंडरस्टुड आदमी, क्योंकि वो बोलते हैं फटाफट बोल देते हैं। मैं उनको बहुत नजदीक से जानता हूं। मैं देखा है कि बहुत साफ हैं। हर स्थिति में वो एक ही चीज लेकर चलते हैं कि मुझे फेअर रहना है। वो बहुत सिद्धांतवादी हैं। मैंने उनसे बहुत सीखा है। कैसे वह अपनी फैमिली को देखते हैं? कैसे अपने काम को हैंडल करते हैं? कैसे अपनी निजी जिंदगी संभालते हैं। विनोद से कमाल का एटीट्यूड सीखा। उसने मुझे थोड़ा सा निडर बनाया। मुझे ऐसा लगता है कि उससे मेरी असुरक्षा खत्म हो गई। ऐसा नहीं था कि पहले कोई असुरक्षा थी, पर काफी फर्क पड़ा है। आदमी को डर रहता है कि काम न करूं तो क्या होगा? थोड़ा बहुत होता था कभी। पर अब बिल्कुल नहीं होता। बड़े निडर किस्म के आदमी हैं वह। लोगों को डर रहता है न कि अब मैं ये नहीं करूंगा तो क्या होगा? ये क्या बोलेगा मेरे बारे में, पैसा कमाना जरूरी है। अब बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता है। बहुत ज्यादा इस चीज का असर हुआ है मुझ पर उनका। वैसे ही काम करूं। उनका भी पैशन काम ही है। मैंने देखा है। वह कभी यह सोचकर सिनेमा नहीं बनाते कि ये बनाऊंगा तो ओवरसीज में ज्यादा चलेगा। और ये यहां पर ज्यादा चलेगा। वह जाकर एकलव्य बनाते हैं राजस्थान में... क्योंकि उनको पसंद है।
-हिंदी सिनेमा के इस दौर में आप 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' लेकर आए। उसमें वैसी चमक-दमक नहीं है। क्या कभी सोचा नहीं कि जमाने के साथ चलूं?
0 इसलिए कहता हूं कि इन फिल्ममेकर जैसी हिम्मत होनी चाहिए।मुझे एन चंद्रा साहब मिले थे फिल्म फेस्टिवल में। मैं उनसे पहले कभी नहीं मिला था। वे दौड़ते हुए आए। अभी तक याद है, मैं भूल नहीं सकता। गोवा में 'मुन्नाभाई' के रिलीज होने के कई महीनों के बाद। दौड़ कर आए और मुझसे कहा, 'तुम ने मेरी तरह के सिनेमा में मेरा विश्वास फिर से जगा दिया है। मैंने अपनी जिंदगी ऐसे सिनेमा से शुरू की थी और निडर होकर बनाता था। मुझे लगता था कि दिल से बनाना चाहिए। कहीं बाद में मुझे लगने लगा कि यार थोड़ा ये, थोड़ा वो होना चाहिए। इसमें कमर्शियल होना चाहिए। इसमें ये होना चाहिए। फिर मैं बिखर गया। उन्होंने कहा कि अगर आप यह स्क्रिप्ट मेरे पास लेकर आते तो मैं आपको ऑफिस से भगा देता। बोलता कि बेवकूफ हो गया है। अस्पताल की पिक्चर,मरीज और डॉक्टर, ये कौन देखेगा? क्योंकि कोई भी कमर्शियल एलीमेंट नहीं है इसमें। इसकी सफलता देखने के बाद मुझे लगता है कि जो दिल को अच्छा लगे, वही बनाना चाहिए। मैं तारीफ करूंगा कि उन्होंने अपने मन की बात कही। ऐसी बातों से अपना विश्वास बढ़ता है कि वही बनाना चाहिए जो दिल को अच्छा लगता है। यह सोच कर नहीं बनाएंगे कि दूसरों को क्या अच्छा लगता है। अगर हम ये सोचकर बनाएंगे कि दूसरों को ये अच्छा लगता है तो हमको कैसे पता लगेगा कि दूसरों को क्या अच्छा लगता है। हम वही बना सकते हैं जो हमको पता है और जो हमको अच्छा लगता है। फिर उम्मीद करें कि जो हमको अच्छा लगता है और वह दूसरों को भी अच्छा लगे।
- लेकिन जितना धैर्य था आपके पास था या जिस तरीके से आपने खुद को बचाए रखा। तेरह साल उधर निकल गए और तीन साल इधर... सोलह साल के बाद आप एक फिल्म बना पाए हैं? सोलह सालों तक उस ख्वाब को बचाए रखना कि कोई नई फिल्म करनी है। मैं खासकर इसलिए पूछ रहा हूं कि जो नए डायरेक्टर आते हैं यहां पर,वे बहुत जल्दी निराश होने लगते हैं। उनसे आप क्या कहना चाहेंगे? सभी को दिखता है कि राजकुमार हिरानी की 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' पहली फिल्म थी और उसने कमाल कर दिया । पहली फिल्म के पहले का जो स्ट्रगल है, उसे लोग नहीं जानते?
0 मैं यह बोलता हूं कि कभी लगा ही नहीं कि स्ट्रगल है ये। उसको नाटकीय करना चाहें और आज की सफलता के संदर्भ में हम बोल सकते हैं कि यार हमने ऐसा किया। हम ऐसे रहते थे। एक कमरे में रहते थे और तीन मिलकर रहते थे... ड्रामाटाइज कर सकते हैं, पर मजा आता था। हमलोग रहते थे साथ में दो-दो, तीन-तीन लोग एक कमरे में। श्रीराम राघवन के घर पर रहा, फिर बाद पीजी रहते थे एक गुजराती फैमिली के घर पर। उस समय यह सोचते थे था कि यार एक सिंगल रूम हो जाए जहां पर अकेले रह सकें। क्योंकि फोन पर बात करने में बड़ी दिक्कत होती थी। हॉल में जाकर फोन करना पड़ता था। गुजराती ओल्ड कपल था। वे सुनते रहते थे कि हम क्या बातें करते हैं? हम दोस्तों से खुल कर बात नहीं कर पाते थे। मैं ये कहता था कि यार एक अपना रूम हो जहां अपना फोन हो कम से कम गाली देनी है तो खुलकर दे सकते हैं। ये पीछे बैठे हुए हैं। मगर इंस्टीट्यूट से आने से यह सबसे बड़ा फायदा था कि सपोर्ट सिस्टम था। अन्यथा मेरे लिए तो कोई तरीका ही नहीं था कि मैं डायरेक्ट बंबई आ जाता। क्योंकि कोई था नहीं। इंस्टीट्यूट से क्या होता है कि हर साल बत्तीस लोग पास होते हैं। कुछ साउथ के, कुछ कलकत्ता के होते हैं। बीस-पच्चीस लोग बंबई आते हैं। और यह समझिए कि हर साल बीस-पच्चीस लोग वहां से निकलकर साथ में स्ट्रगल कर रहे हैं। तो पहले छह महीना साल भर ये होता है कि रोज शाम को सारे लोग मिलते हैं। हमलोग पांच-छह लोग रोज शाम को मिलते थे, भाई तेरा क्या हुआ? आज मैं इसको मिला, मेरे को ये काम मिला। फिर दूसरों को भेजते थे। तो अकेलापन नहीं था।
- इंस्टीट्यूट की अपनी बाउंडिंग होती है या... ?
0 कमाल की बाउंडिंग होती है। आदमी एक-दूसरे को हेल्प करता है। और वो नहीं होता तो, अकेला आदमी शायद पागल हो जाता।
- अचानक कोई आए इंस्टीट्यूट से और कहे कि आपके साथ काम करना चाहूंगा तो आप का क्या जवाब होगा?
0 अगर आपके पास उस समय जरूरत होगी, और आपको ठीक लगेगा तो आप उसको काम दोगे। मन में रहता है कि अपना इंस्टीट्यूट का है, अपने यहां का है, हेल्प करना चाहिए। जैसा मुझे नागपुर के लिए वैसा बहुत लगता है। कोई नागपुर से आ जाए, कोई अचानक मिल जाए। नागपुर का छोड़िए कोई बोल दे कि मैं बाजू वर्धा से हूं या अमरावती से हूं तो लगता है कि अरे यार अपने इलाके का है। अरे यार आओ। बातें करने का दिल करता है। इंस्टीट्यूट का मामला अलग होता है। एक तो सबको हिस्ट्री पता होता है कि फलां इस बैच में था। आप कोशिश भी करते हैं उनसे मिलने की। मैं भी निकला जैसे तो मुझे मालूम था। मैं डेविड धवन और केतन मेहता से जाकर मिला। इन लोगों से मिलते हैं। हर बार आदमी काम नहीं दे पाता है। आपके पास होगा तो आप दे पाओगे। लेकिन यह जरूर बताते हैं कि आप इधर चले जाओ, उधर जाओ। उसकी वजह से ही मैं लगातार एडीटिंग करता रहा। दिल में फिल्म बनाने की तमन्ना बैठी थी। और ये तो मैंने देखा है कि आपको साठ साल की उम्र का भी आदमी मिल जाएगा जो फिल्म बनाने निकला है। तो उसको लगता है कि फिल्म बना लूंगा अभी। अगले दो साल में हो जाएगा। भले ही जिंदगी निकली जा रही हो। मुझे नहीं लगगता कि आदमी हार जाता है। वह इसमें रहता ही है। जो निकला है फिल्म बनाने के लिए... शायद बना पाए न बना पाए तो वो बात अलग है। तो मुझे नहीं लगा मुझे सोलह साल लगग गए। शायद वह समय लगना ही था। सोलह साल लगने ही थे, क्योंकि अगर मैं कहूं कि संजय लीला भंसाली के साथ में हमलोग पास आउट हुए थे। संजय भंसाली आए और उन्होंने विनोद के साथ काम करना शुरू कर दिया था। मैं जिन लोगों से मिला उस टाइम, वे अलग थे। अगर लाइक माइंडेड लोग शुरू में मिल जाते तो शायद जल्दी हो जाता। मैं एडवरटाइजिंग में चला गया। उसने मेरे कुछ साल ले लिए। थोड़ा सा सरवाइवल का भी मामला होता है। आदमी चाहता है कि थोड़ा सा कमाए नहीं तो... फिर कौन आदमी कमाने के चक्कर में किधर चला जाए? किसको कब मौका मिले?
- इस बीच कोई सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव भी आप पर रहा?
0 नहीं, मुझे कुछ खास दिलचस्पी नहीं थी। न कोई प्रभाव रहा और ना ही कोई रुचि रही।
- आपके पिताजी माइग्रेट हुए थे पाकिस्तान से । उनके अंदर कोई कटुता या गुस्सा रहा हो?
0 बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है कि राजनीति वक्त की लड़ाई है। विनोद का एक गाना था कि ये अलग चीजों की जंग है, इसमें बिचारा आदमी का क्या करना? बहुत फ्रेंड हैं मेरे, जो अलग कम्युनिटी के हैं और मैं बहुत शिद्दत से मानता हूं कि कोई आदमी बुरा नहीं होता। बस,परिस्थितियां होती हैं, जिनके कारण आदमी अलग ढंग से व्यवहार करता है।
- पहला शॉट का पहला दिन जिस दिन पहला एक्शन बोला था आप ने?
0 पहला शॉट लिया था हमने। रूस्तम वो अपने घर आ रहा है। उसकी टैक्सी है... उसके फादर को यहां पर बंद कर के रखा हुआ है। वो निकल कर आता है, सीढ़ी चढ़ते हुए दौड़ता है अपने फादर के कमरे में। वो पहला शॉट लिया था। उस दिन स्ट्रेस यही था कि ये फिल्म बड़ी जल्द बननी थी। विनोद ने कहा कि इतना बजट है, इतने टाइम में बनाना है। तो मैंने कलकुलेशन किया था कि हमें बीस शॉट हर दिन लेने हैं। और अगर मैं बीस शॉट नहीं ले पाऊंगा तो इस टाइम में पूरा नहीं कर सकता । सबसे बड़ा प्रेशर यही था कि बीस शॉट लेने हैं। दूसरा बड़ा प्रेशर यह था विनोद प्रधान शूट कर रहे थे इस फिल्म को। विनोद प्रधान 'देवदास' शूट कर के इस फिल्म पर आए थे। 'देवदास' में एक दिन में वह एक शॉट लेते थे। मुझ पर सबसे बड़ा प्रेशर यही था कि बीस शॉट मैं करूंगा कैसे? तो मैंने विनोद के ऊपर इतना प्रेशर डाल दिया था, रोज बोल-बोलकर कि विनोद बीस शॉट लेने हैं। ये करना है, ये करना है। तो मैंने कहा कि अगर ये नौ बजे का शॉट है तो अगर मैं दस बजे तक पहला शॉट ले पाऊं तो शायद हो जाए। पहले दिन पौने दस बजे हमलोग ने पहला शॉट शूट कर लिया। मैंने विनोद को फोन किया और कहा मैंने पहला शॉट ले लिया है पौने दस बजे। उसने कहा, 'वेरी गुड लगे रहो' और उस दिन हमने बाइस शॉट लिए थे। मुझे याद है मैंने फूल भेजे विनोद के यहां। मैंने कहा कमाल है। उसके बाद मुझे संजय मिला था। मैंने संयज को बताया कि बीस शॉट ले रहे हैं। तब मुझे संजय कहता है, बीस शॉट? उतना तो हम एक महीने में लेते थे।
- वो कितना बड़ा उत्साह होता है, जब आप डायरेक्टर के कुर्सी पर बैठे होते हैं।?
0 आय डोंट नो... मुझे लगता है कि उस टाइम एक जिम्मेदारी होती है। एक प्रेशर होता है। फस्र्ट फिल्म में तो यह प्रेशर था कि अब अपने जिम्मेदारी है। सबकुछ ठीक होना है। विनोद बिल्कुल शामिल नहीं होते हैं। वे पूरी जिम्मेदारी आपके ऊपर सौंप देते हैं। सब कुछ आपके ऊपर डाल देते हैं। उन्होंने पैसे बैंक में डाल दिए। ये चेक बुक है। आप साइन करवाकर करो। इतने में फिल्म बनानी है आपको। बात खत्म। फिर आप की जिम्मेदारी बन जाती है। अगर डायरेक्टर समझ ले कि पोजिशन ऑफ पावर में हूं, तो वो तो गलत एटीट्यूड होगा।
- पावर ऑफ क्र्रिएशन तो होता होगा?
0 नहीं उस टाइम... बोला जाए तो फटी पड़ी रहती है। कि टाइम पर खत्म नहीं हुआ तो मर जाऊंगा। ये लोकेशन मेरे पास नहीं है। मेरा तो छह-सात किलो वजन कम हो गया था 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' बनाते-बनाते।
- 'मुन्नाभाई...' रिलीज होने के तुरंत या उस दिन या उसके दो-चार दिन में जो हालत हुई या जिस ढंग से हुआ कि ये फिल्म तो गई। रिलीज के दो दिन तक पंद्रह-बीस प्रतिशत का कलेक्शन रहा?
0 रिलीज के दिन मुझे याद है, मैं गया था गेईटी सारे असिस्टेंट आए कि चलो-चलो फिल्म चलते हैं। मैं तो सो गया था उस दिन।
- कोई चिंता नहीं थी?
0 क्या हुआ कि हमलोगों ने बहुत लोगों को फिल्म दिखाई थी। कोई खरीद नहीं रहा था फिल्म। इतने डिस्ट्रीब्यूटर आए, सब देखते थे और बोलते थे ये बंबई के बाहर नहीं चलेगी। बंबई की भाषा ठाणे से आगे नहीं चलेगी। किसी ने नहीं खरीदी। आधी जगह विनोद ने रिलीज की। कई जगह नुकसान में विनोद को रिलीज करनी पड़ी। एक करोड़ अस्सी लाख कका नुकसान था, जिस समय फिल्म रिलीज हुई। किनोद ने कहा कि चलो कमा लेंगे। वीडियो वगैरह है, इसको कवर कर के हो जाएगा। तो उस प्रोसेस में हमने बहुत लोगों को फिल्म दिखाई। डिस्ट्रीब्यूटर खरीदते नहीं थे, लेकिन फ्रेंड देखते और बोलते थे कि यार बड़ी अच्छी पिक्चर है। मेरे को ये खुशी थी कि लोग फिल्म देखेंगे और बोलेंगे यार अच्छी फिल्म बनाई है। मुझे था कि मेरे मां-बाप देखेंगे। मेरी फैमिली देखेगी। मेरे दोस्त देखेंगे और बोलेंगे यार अच्छा काम किया। फिल्म चली या न चली ठीक है,काम तो अच्छा किया। वह संतोष था। रिलीज हुई उसके बाद थके हुए हालत में आकर सो गया घर में जाकर। मैं सोया हुआ था फोन आया दोपहर को। सोए नहीं थे कई महीनों से सो गए उस दिन। एक-डेढ़ बजे एसिस्टैंट का फोन आया। उसने कहा, सर जाकर फिल्म देखनी चाहिए। पब्लिक का रीएक्शन देखना चाहिए। तो हम पांच-छह लोग निकल गए गेईटी थिएटर में। अंदर घुसे... कोई जानता भी नहीं था उस टाइम। अंदर गए । मैंने गेटकीपर से पूछा कि कैसी है फिल्म? उसने अंगूठा उलट दिया। उस टाइम मेरे को लगा कि यार ये क्या हो गया? मै यह उम्मीद नहीं कर रहा था कि हंड्रेड परसेंट कलेक्शन होगा। यह था कि पचास परसेंट होगा । उसने अंगूठा उलटा किया तो मैं डर गया। अंदर गया तो कैरमबोर्ड वाला सीन चल रहा था उस समय। लोग हंस रहे, जम्प कर रहे हैं, एकाध को तो सीट पर उछलते हुए देखा। तालियां बजा रहे हैं। मैंने कहा ये ऐसे-ऐसे क्यों कर रहा है। ये तो साला लोगों को पसंद आ रही है। फिर समझ में आया कि वह बॉक्स ऑफिस की बात कर रहा था। यानी लोग ही नहीं है अंदर। फिर मैंने कहा पूरी फिल्म देखी नहीं तो, ये तो पहला ही शो चल रहा है, ये कैसे बकबास कर रहा है। फिर हम गए दूसरे थिएटर। गीता थिएटर वरली में, फिर मराठा मंदिर। फिर शाम को न्यू अम्पायर पहुंचे। वहां पहुंचते-पहुंचते जिस थिएटर में देखे कमाल का रिएक्शन। बोमन था न्यू अम्पायर के पास में रहता था। उसको बुलाया, बोला आकर देखो। वो आया तो रोने लगा, आंख से आंसू आ गए रिएक्शन देखकर। उसकी भी पहली फिल्म थी। मैंने कहा यार ऐसा होगा नहीं। लोग आने चाहिए। शाम को निकले तो नौ बजे का शो हाउसफुल था। श्याम श्राफ का फोन आया। वह डिस्ट्रीब्यूटर थे हमारे। वो कहते हैं कि मौखिक प्रचार से फिल्म चलती पर इतना फास्ट पिकअप करती है मैंने पहली बार देखा है। बारह बजे जिन लोगों ने फिल्म देखी, दोस्तों को फोन किया नाइट शो से कुछ-कुछ थिएटर में हाउसफुल होना शुरू हो गया।
- जब नेशनल अवार्ड मिल गया तब कैसा रहा?
0 ये आप ही ने बताया मुझे। नेशनल अवार्ड... मैं तब तक दूसरी फिल्म में लग गया था। पॉपूलर अवार्ड शुरू हुए। दिसंबर में रिलीज हुई फिल्म और फट-फट अवार्ड आने शुरू हुए। पहले अवार्ड तक तो लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। स्क्रीन अवार्ड हुए तो उसमें कोई ज्यादा नहीं थे। अभी रिलीज हुई थी तो लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि इसको कहां डालें। मुझे याद है कि प्रेस स्कीनिंग में किसी जर्नलिस्ट ने मुझसे कहा था कि सब देखकर निकले तो लोगों को लग रहा था कि पिक्चर अच्छी है। पर लोग ग्रेड वगैरह ठीक नहीं देना चाह रहे थे। एक-दूसरे से पूछ रहे थे कि क्या बोलें? क्योंकि एक तो संजय दत्त की पिक्चर। नाम 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' तो समझ में नहीं आता कि क्या... भाई की टाइप की फिल्म लगती है। संजय दत्त की लाइन से पंद्रह फिल्में फ्लॉप थीं। मन कह रहा था कि इसको भी ठीक से रेट नहीं दें। बड़ा कन्फ्यूजन सा था। वही बात अवार्ड के साथ भी हुई । बाद में भी फिर तारीफ मिलने लगी फिल्म को। नेशनल अवार्ड... अच्छा ही लगता है सुनकर कि गुड फीलिंग कि पसंद आई लोगों को।
- आखिरी सवाल... 'लगे रहो मुन्नाभाई' में गांधी जी को लाने की बात कहां से आई? आप कितना जरूरी मानते हैं गांधी को?
0 मैं बहुत गहराई से उन्हें मानता हूं।
- वर्धा में उनका आश्रम था। नागपुर के बहुत पास है? बचपन का कोई प्रभाव मानें क्या?
0 मुझ पर ऐसा कोई गहरा प्रभाव नहीं रहा। मैंने गांधी फिल्म देखी थी। वह मुझे बहुत अच्छी लगी थी। हमेशा उनमें कोई बात लगती थी। थोड़ी बहुत उनकी किताबें पढ़ी थीं। पर ऐसा नहीं था कि कोई फिल्म बनाऊंगा कभी, कुछ नहीं। पर एक बात लगती थी। सच में गांधी फिल्म देखने के बाद कि कुछ बात है इस आदमी में... कभी भी डिस्कशन हो जाए तो लोग कहते हैं आज के जमाने गांधी चल नहीं सकते। उस जमाने में चल गए उनके तरीके। मेरे को लगता था कि उन्होंने अलग ढंग से सोचा- हड़ताल उन्होंने सोची, कोई नहीं करता था। उपवास उन्होंने सोचा उस टाइम ... आज नहीं चलेंगे शायद पॉसिबल है। पर उस टाइम वो विचित्र तरीके खोजते थे कुछ। नमक उठाए ... कुछ एक बात थी उनमें, कुछ एक जीवनशैली कहूंगा। 'एमबीबीएस' के बाद मैंने बहुत पढऩा शुरू किया। ऐसे ही। कुछ किताबें मिली। पढ़ता चला गया। तब मुझे लगा कि इनको लेकर कुछ करना चाहिए। गांधी को गाली देना आज फैशन हो गया कि गांधी को कोई भी चीज के लिए दोषी ठहरा दो। दोष मढ़ऩा सबसे आसान काम है, क्योंकि उससे अपनी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। मुझे लगा कि कुछ कहना चाहिए। अगर ऐसे ही गांधी जी को लेकर कुछ कहेंगे तो कोई सुनेगा नहीं। बोलेंगे यार बोर कर रहा है। मैंने कहा मुन्नाभाई के साथ ही कुछ कर सकते हैं। डॉक्टरों को लेकर कुछ कहते हैं तो बोर करते हैं। मुन्नाभाई डॉक्टरों को लेकर कुछ करता है तो रुचि रहेगी। मैंने फिल्म में यही कहने की कोशिश की है कि उनके सिद्धांत आज भी चल सकते हैं। हमें उनमें विश्वास करना चाहिए। इस बात का मैं उपदेश नहीं दे सकता था। मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा है । कहीं ऐसा शब्दों में नहीं कहा है। मुन्नाभाई तरीके से हो रहा है, इंटरटेनिंग वजह से हो रहा है। इमोशनल वजह से हो रहा है। अभी तक मैं खुद संदेह में था कि कैसी प्र्र्रतिक्रिया मिलेगी। कल का रेस्पांस देखकर आया तो लगगा कि हम सफल होंगे। आज रात को बच्चन साहब देख रहे हैं।
- युवा और आकांक्षी डायरेक्टर के लिए क्या संदेश देंगे?
0 संदेश नहीं देना चाहिए। सलाह देना सबसे खतरनाक चीज है। मेरे खयाल में लोग खुद सीखते हैं। हर आदमी अपने-आप धक्के खाते हुए अपनी राह खोज लेता है। आदमी जो करना चाहे तो - गांधी जी की एक पंक्ति है - उद्देश्य खोजो,साधन मिल जाएंगे। क्या करना चाहते हो, खोजो रास्ता अपने आप निकल आएगा। अगर पैशन है तो वह होता है। मेरे साथ हुआ है। हो सकता है कि लोग मुझे भाग्यशाली कहें । फिर भी मैंने जहां तक देखा है, होता है। मैं दूसरे लोगो को भी देखता हूं। तय करो कि आप क्या करना चाहते हो, अगर लगन और चाव है तो अपने-आप रास्ता निकल आता है।
राजकुमार हिरानी से मेरी पहली मुलाकात विधु विनोद चोपड़ा के दफ्तर में हुई थी। फिल्म अभी रिलीज नहीं हुई थी। ज्यादातर पत्रकार विधु विनोद चोपड़ा का इंटरव्यू कर रहे थे। मैंने देखा कि एक शर्मीले स्वभाव का व्यक्ति चुपचाप बैंच पर बैठा है। उनकी आंखों की चमक ने मुझे आकर्षित किया। परिचय करने पर मालूम हुआ कि वह 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' के डायरेक्टर हैं। अखबारी किस्म का औपचारिक इंटरव्यू कर मैं चला आया। फिल्म रिलीज हुई और कुछ हफ्तों के बाद सफल हो गई। फिर से मुलाकात हुई। यह मुलाकात थोड़ी लंबी और अनौपचारिक थी। इसके बाद ऐसा संयोग हुआ कि मुझे अपने सूत्रों से थोड़ा पहले जानकारी मिल गई कि 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। मैंने हिरानी को मोबाइल से संदेश भेजा। कुछ घंटों के बाद यह सूचना सार्वजनिक हो गई, लेकिन हिरानी यह नहीं भूले कि मैंने उन्हें पला संदेश दिया था। मालूम नहीं इस घटना का हमारे परिचय में क्या महत्व है, लेकिन हिरानी उसके बाद की मुलाकातों में सभी के सामने इसका इसका उल्लेख करते रहे। यह उनके स्वभाव की अंतरंगता और उदारता है।
दो कामयाब फिल्मों के निर्देशक राजकुमार हिरानी आज भी उसी शर्मीले स्वभाव के हैं। लेकिन बातचीत के दरम्यान वे खुलते हैं और बगैर किसी छिपाव, दबाव और दोहराव के अपना मत रखते हैं। राजकुमार हिरानी ने हिंदी फिल्मों को लोकप्रियता का नया शिल्प दिया है। उनकी फिल्में आम दर्शक से लेकर खास दर्शकों तक को बांधती हैं और सभी को स्पंदित एवं आनंदित करती हैं। सचमुच बड़े निर्देशक की यही खूबी होती है कि वह 'मास और 'क्लास' के विभाजन को खत्म कर देता है। उसकी फिल्में समय की सीमा में आबद्ध नहीं रहतीं। समकालीन निर्देशकों में राजकुमार हिरानी एक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
- आप नागपुर से हैं? नागपुर हिंदू संगठन आरएसएस का गढ़ माना जाता है। क्या उनसे कभी संसर्ग रहा या आप प्रभावित हुए ?
0 कॉलेज जाने तक मुझे पता नहीं था कि नागपुर आरएसएस का गढ़ माना जाता है । वहां उनका मुख्य कार्यालय है, पर ऐसा नहीं है कि आम आदमी ज्यादा प्रभावित होते हों। हां कुछ शाखाएं लगती हैं। बचपन में देखा करता था। लोग मैदानों में शाखाएं लगाते थे। पर ऐसा नहीं है कि मैं कभी उन शाखाओं में गया या इंफूलुऐंस रहा है उनका। हिंदू संगठनों का जितना असर मुंबई में है, वैसा ही वहां भी था। ऐसा नहीं था कि हिंदू लहर चल रही हो और सभी उसमें गोते लगा रहे हों।
- किस तरह का परिवार था अपका? आपके पिता जी क्या करते हैं? हैं अभी?
0 हां, मेरे पिता जी हैं। मम्मी-डैडी नागपुर में रहते हैं। संयुक्त परिवार है हमलोगों का। तब चाचा जी साथ में थे। मेरे डैड वास्तव में टाइपराइटिंग इंस्टीट्यूट चलता था। बैकग्राउंड यह है कि वे पार्टीशन के टाइम पर पाकिस्तान से आए थे। पार्टीशन के समय वह 14-15 साल के थे। उनके पिताजी नहीं आए थे। वे पाकिस्तान में ही गुजर गए थे। मां और भाई लोग थे साथ में। आगरा के पास है फिरोजाबाद। वहां कुछ दिनों तक हमारा परिवार रिफ्यूजी कैंप में रहा। पहले वहां काम किया। वहां से फिर काम खोजते-खोजते वे नागपुर पहुंचे। कुछ टाइम नौकरी की वहां पर। उस समय टाइपराइटर का नया दौर शुरू हुआ था। तो एक टाइपराइटर लिया... टाइप करते-करते टाइपराइटिंग इंस्टीट्यूट शुरू किया। फिर बाद में डिस्ट्रीब्यूटर बनकर कर टाइपराइटर बेचते थे। मेरी स्मॉल बिजनेस फैमिली है। परिवार के दूसरे सदस्यों ने बाद में पढ़ाई-लिखाई की। ज्यादातर वकील हैं सब मेरी फैमिली में। मुझ से भी उम्मीद की जा रही थी कि मैं पढक़र वकील बनूंगा। और मैंने बी कॉम किया भी। बी कॉम के बाद एक साल लॉ भी किया। मेरा शुरू से लगाव था थिएटर की तरफ। कॉलेज के दिनों में नाटक लिखा करता थां। ऑल इंडिया रेडियो युवावाणी एक प्रोग्राम आता था। उसके लिए भी कुछ नाटक लिखे थे। खूब जम कर थिएटर करते थे। छोटा सा ग्रुप था हमारा आवाज।
- थिएटर में किस तरह के प्ले किए जाते थे?
0 छोटा सा ग्रुप था हमारा। वहां मराठी थिएटर बहुत स्ट्रौंग था। हम तो मराठी में नहीं करते थे,पर देखते बहुत थे। चाहे वो महाराष्ट्र नाट्य महोत्सव हो, वह हर साल वहां होता था। हम कुछ लोगों ने मिलकर एक थिएटर ग्रुप शुरू किया था आवास। कुछ कॉलेज के लोग थे, कुछ बाहर के थे, कुछ प्रोफेशनल... रेगुलर बेसिक पर काफी प्ले करते थे। हर किस्म के प्ले किए। ज्यादातर मराठी के लिखे हुए। मराठी से रूपांतर या कुछ बंगाली प्ले से ट्रांसलेट कर के करते थे। रेगुलर शोज भी करते थे हमलोग। होता ये था कि हिंदी थिएटर इतना स्ट्रोंग था नहीं तो टिकटें खुद बेचनी पड़ती थी। लोगों को खुद बुलाना पड़ता था। पर मजा आता था,इसलिए करते थे। काफी साल किया। वहां से शौक जागा...
- वैसा थिएटर जो बंबई या दिल्ली में हो रहा था, गंभीर किस्म के नाटक... ?
0 हमलोग का वैसा नहीं था। हमलोगों की सोच थी कि आदमी खुद धक्के खाते हुए सिखता है... वैसा थिएटर था। कोई गाइड करने वाला नहीं था। चंद शौकिया लोग थे,वे जुड़ गए थे साथ में और नाटक करना चाहते थे। मगर यह था कि हमलाग रेगुलर बेसिस पर नाटक करते थे। मुझे याद है कि साल में दो-तीन प्ले तो करते ही थे। कॉलेज से बाहर प्रोफेशनल रूप से कुछ जुटा कर। उतना पैसा जमा कर लिया जाता था कि एक हॉल बुक कर सकें। पर गाइड करने के लिए कोई था नहीं। जैसा कि दिल्ली में एनएसडी ग्रुप था या मुंबई में दूसरे ग्रुप सक्रिय थे। हमलोग खुद से धक्के खाते-खाते रास्ता ढूंढ़ते हुए मिल जाते थे थिएटर के लोग। एक किशोर कुलकर्णी जी थे, वो हैं अभी भी। उनको हम ले आते थे। वह मराठी थिएटर डायरेक्ट करते थे। उन्होंने कुछ हमारे प्ले डायरेक्टर किए तो उनसे सीखने को मिला। वैसे सीखते-सीखते कुछ करते रहे। वहीं से शौक जागा कि फिल्मों में जाया जाए और फिल्मों में कुछ किया जाए।
- बचपन में तो फिल्में देखते रहे होंगे?
0 फिल्म तो बहुत देखते थे। अक्सर जाते थे।
- पारिवारिक आउटिंग होती थी या...?
0 मुझे बचपन का याद है कि मैं दादी के साथ किसी शनिवार या रविवार को... य़ा शायद महीने में एक बार उनके साथ फिल्म देखने जाता था। डैड नहीं जा पाते थे, वेे व्यस्त रहते थे। मैं उनके साथ रिक्शा में बैठकर जाता था। मैं और मेरा भाई... दोनों को वह अपने साथ फिल्म ले जाती थीं। भारत टॉकिज था वहां पर छोटा सा। बारह आने में टिकट मिलता था एक। नीचे स्टॉल में बैठकर देखता था। उनके साथ हमने बहुत फिल्में देखी।
- किस तरह की फिल्में? उनकी च्वाइस कैसी होती थी?
0 सारी फिल्में।
- ऐसा नहीं कि ये देखना और वो नहीं देखना है?
0 ऐसा कुछ नहीं था। मुझे याद है कि मैं इतना छोटा था कि जो फिल्म देखकर आता था उसका हीरो ही मेरा आदर्श बन जाता था। मुझे ये भी याद है कि नवीन निश्चल की फिल्म देखता था तो मुझे लगता था कि नवीन निश्चल जैसा कोई नहीं है। बचपन में... आठ-दस साल के उम्र में तो यही होता है। कॉलेज पहुंचने पर आदमी की च्वाइस बनती है।
- उन दिनों की देखी हुई पहली फिल्म के बारे में बताएं,जिसकी छाप आपके मन पर रह गई हो?
0 मुझे याद है... 'संगम'। 'संगम' मुझे याद है, जब मैंने देखी थी तो उस समय बहुत अच्छी लगी थी। जब से एक च्वाइस होने लगी कि मुझे इस टाइप की फिल्में देखनी हैं तो मैँने हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में देखनी शुरू की। तब मुझे लगा कि इस तरह की फिल्म में मुझे मजा आता है। चाहे वो 'आनंद' हो या 'गोलमाल' हो चाहे वो 'चुपके चुपके' हो। मनमोहन देसाई की फिल्में देखा करते थे। वहां एक्सपोजर ज्यादा था नहीं। बाद में इंस्टीट्यूट गया...
- नागपुर में कितने थिएटर थे उस समय?
0 नागपुर में उस समय बाईस-तेईस थिएटर... अभी भी लगता है उतने ही हैं। इधर पहला मल्टीप्लेक्स बन रहा है। उनमें से आधे से ज्यादा में आप जा नहीं सकते थे। बहुत खराब कंडीशन में थे। चंद थिएटर ठीक थे घर के पास में, वहां जाकर देखा करता था।
- आपने बताया कि 'संगम' और कौन सी याद है?
0 याद कर रहा हूं , हां 'संगम' मुझे ज्यादा याद है।
- हीरो जो पहली बार पहचान में आया हो... कि ये फलां हीरो है?
0 ये मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन ही थे। स्कूल में ही थे उस समय। अमिताभ वाज ए हीरो। मुझे याद है कि हम साइकिल पर स्कूल जाते थे... चाल-ढाल भी फिर कुछ वैसी हो जाती थी। अचानक लगता था कि हम भी बेस में गहरी आवाज में बात कर रहे हैं। आयडलीज्म होता था। हम भी बेस में बात करते थे। उस टाइप के कपड़े पहनना चाहते थे। अब सोच कर हंसी भी आती है। मुझे याद है कि टेलर के पास गया था... उस समय मैंने अमिताभ की कोई फिल्म देखी थी। मैंने टेलर से कहा था कि मुझे उनके टाइप की शर्ट चाहिए। अब हंसते हैं... सब दोस्त जाते थे बनवाने के लिए। एक टेलर नागपुर में था, वो बना कर देता था। फिल्म देखकर शर्ट तैयार करता था। मुझे एक फिल्म याद है। वो फिल्म थी राखी, अमिताभ और विनोद मेहरा की फिल्म थी 'बेमिशाल'। उसमें अमिताभ ने जो शर्ट पहनी थी, वह हम कई दोस्तों ने सिलवाई थी। अमिताभ तो हम सभी के आदर्श थे।
- क्या चीजें अच्छी लगती थी? फिल्म देखने के लिए उत्साह क्यों होता था? सिर्फ देखने के लिए फिल्म देखना या वहां लड़कियां मिलेंगी या वहां दोस्तों के साथ मौज-मस्ती होगी, उद्देश्य क्या होता था?
0 फिल्म देखने का आनंद उठाना ही उद्देश्य होता था।
लड़कियां तो उस टाइम... काफी पहले की बात कर रहा हूं। नागपुर काफी रूढ़िवादी शहर था। उस समय शायद लड़कियां अकेली फिल्म देखने के लिए नहीं जाती थी। दोस्तों के साथ आउटिंग करने का… मस्ती करना शामिल रहता था। कोई भी बहाना ढूंढ़ लेते थे। एक दिन बारिश पर रही थी और मैंने कहा, मौसम अच्छा है यार, फिल्म देखते हैं। मुझे याद है कि मैंने मम्मी से जाकर कहा कि फिल्म देखने जा रहा हूं। परमिशन लेनी पड़ती थी। चाचा जी थे बाजू में ,उन्होंने पूछा क्यों? अभी क्यों जा रहे हो फिल्म देखने? मैंने कहा कि मौसम अच्छा है। उन्होंने पलटकर कहा, मौसम अच्छा है तो मौसम का आनंद लो न? फिल्म देखने क्यों जा रहे हो? था शौक और काफी देखा करता था फिल्में। मुझे याद है, वहां जब कोई नई फिल्म आती थी और पॉपुलर फिल्म होती थी, ऐसा लगता था कि चलेगी बहुत तो सुबह पांच बजे के शो हुआ करते थे वहां पर। मुझे याद 'कुर्बानी' फिल्म जब लगी थी तो सुबह पांच से साढ़े सात का शो होता था। फिर साढ़े सात का शो होताथा। इस तरह दो एडिशनल शो होते थे। पहला हफ्ता चलता था। वह सुबह के सात बजे के शो में काफी फिल्में देखी है मैंने। जब कॉलेज पहुंचा तो वह समय कॉलेज का होता था। सुबह सात बजे से कॉलेज होता था... तो कई बार निकल जाते थे। ऐसा नहीं कि अक्सर... पर कभी आदमी निकल जाया करता था। 'कुर्बानी' मुझे अच्छी तरह याद है। सात बजे का शो देखने के लिए यह सोच कर गया कि सात बजे का शो है तो लोग कम जाएंगे। पहला शो है टिकट मिल जाएगी। पहुंचे तो पता लगा कि पिछली फिल्म के दर्शक लाइन में लगे हैं। वहां गुरुवार को फिल्म लगती थी। यहां शुक्रवार को लगती है। बुधवार को लास्ट शो जो फिल्म लगी थी... वो खत्म हुआ तो उसको देखकर लोग थिएटर से निकले और रात को ही लाइन में लग गए सुबह की शो देखने के लिए। इतनी पॉपुलर हुई थी 'कुर्बानी' सात बजे का शो भी हाउसफुल था। देखनी है फिल्म यह सोच लिया था। मुझे याद है कि एक लडक़ा टिकट लेकर खड़ा था । बोल रहा था एक्सट्रा टिकट-एक्सट्रा टिकट । मैं और मेरा दोस्त था। मैंने कहा कि एक्सट्रा है तो दे दो यार। तो वह कहता है कि इतना ज्यादा लूंगा। यानी वो ब्लैक कर रहा था। ब्लैक मार्केटियरं नहीं था। वो लडक़ा था ऐसे ही था कोई... हमने ले ली टिकट। हम छोडऩा नहीं चाहते थे फिल्म। पैसे थे उतने... मैंने कहा कि दे दो। उस समय साढ़े पांच रूपये के टिकट होते थे। वो कुछ सात-आठ रूपये मांग रहा था। मैंने ग्यारह रूपये दिए और कहा कि इसमें इतना ही लिखा हुआ है। तुम ब्लैक कैसे कर सकते हो। वह बहाने करने लगा। उधर हम बेताब थे कि टिकट कैसे छोड़ दें? तो ले ली। पता चला कि वह भेला लडक़ा ब्लैक मार्केटियर ही था। क्योंकि हमारी बक-झक में तीन-चार हट्टे-कट्टे से लोग आ गए। हमने उसे बारह रूपये दिए थे। एक रूपया उसने वापस नहीं दिया। वो तीन-चार लोग जमा हो गए मेरे पास। एक कहता है आपने पैसे नहीं दिए? मैंने कहा दिया। वो सोलह मांग रहा था। डर रहे हैं कि कहीं मार न पर जाए। फिर भी कह रहे हैं कि इसमें ग्यारह लिखा हुआ है। तो वह कहता है - आपने तो बारह ही दिए उसको। आप क्या ब्लैक की बात करते हो? आप दिए तो? मैं कहा दिए तो, एक वापस करो न? डरे हुए थे। तो वो कहता है कि देख लेंगे। हमने कहा देख लो... दिल नहीं हो रहा था कि फिल्म छोड़ दें। हम जाकर बैठ गए सिनेमा हॉल में जाकर। मैंने कहा देखी जाएगी। बाद में वही लडक़ा आकर बगल में बैठ गया। उसने भी एक्सट्रा टिकट खरीदी। फिल्म खत्म हुई तो हम सामने के दरवाजे से नहीं निकले। हम पीछे से निकले। कहीं वो लोग रोक न लें। एक होता था आकर्षण उस टाइम फिल्में देखने का। और कोई इंटरटेनमेंट था नहीं। टेलीविजन नहीं था।
- फिल्में देखने के अलावा और क्या चीजें पसंद आती थी, जैसे लॉबिंग कार्ड देखना। मुझे याद है हमलोग बचपन में जाते थे, फिल्म देखने से पहले चार दिन लॉबिंग कार्ड ही देखकर चले आते थे?
0 इंटरवल में निकल कर देखता था। चलो ये-ये हो गया। अब ये-ये होने वाला है। ये बाकी है। लाबिंग कार्ड देख कर स्टोरी जज करने की कोशिश करता था। फिल्म इंटरेस्टिंग होगी कि नहीं? बहुत होता था। आजकल वो सब खत्म हो गया।
- फिल्मों से आपका लगाव बढ़ता गया,लेकिन आपने कब महसूस किया कि फिल्मों में ही जाना है?
0 जब थिएटर करने लगे तो फिर मुझे लगा कि अब मुझे फिल्म में कुछ करना है। मुझे लिखने का शौक था। और मैंने घरवालों से भी कहा।इसे सौभाग्य कहें मेरा। मेरी कोई जान-पहचान नहीं थी किसी फिल्म वाले से... क़ोई एसोसिएशन नहीं था। एक तरह से टिपिकल बिजनेस फैमिली। कुछ टाइम तक खटका, मुझे लगा कि शायद... लेकिन मेरे डैड को नहीं खटका। पर बाकी परिवार में सबको लगा कि ये क्या है?
- ये क्या है में क्या सवाल थे?
0 फिल्मों में जाने का मतलब उस समय नागपुर शहर में यही होता था कि एक्टर बनने जाने चाहता है। उनको यह नहीं समझ में आता था डायरेक्टर बनने जाना चाहता है। तो काफी लोग आरंभ में हंसते रह। पर मेरे डैड... उन्होंने कहा, तुम्हें जो करना है, वो करो। हम बोलेंगे ये करो तो उसका कोई फायदा नहीं। जब तक हो यहां हमारे साथ काम करो... बाकी फिर करना है तो करो। मुझे पता भी नहीं था कि फिल्म इंस्टीट्यूट है और वहां जाने का कोई तरीका होगा। तो मैं सोच रहा था कि बंबई आऊंगा किसी के साथ काम करूंगा। तो उन्होंने ही कहा कि करना है तो फिल्म इंस्टीट्यूट से होते हुए जाओ।
- उसके पहले बंबई कोई एक्सपोजर नहीं था आपका?
0 बंबई आ चुका था एक-दो बार। शहर देखा था मैंने। पर कोई कनेक्शन नहीं था। अनजाना शहर था। उसी वजह से डैड का कहना था कि अगर करना ही है तो ट्रेंड होकर करो। अपने-आप को ट्रेंड करो। हैव द प्रोपर एजुकेशन देन गो। वही मुझसे कहते रहते थे कि फिल्म इंस्टीट्यूट जाओ... फिर मैं फिल्म इंस्टीट्यूट गया। वहां से प्रोस्पेक्टस ले लाया। फॉर्म भेजा मैंने। मैंने बी कॉम किया था। ग्रेजुएशन के बाद अप्लाय किया। तो एडमिशन नहीं हुआ। मैंने डायरेक्शन के लिए अप्लाय किया था। तो फिर मैंने लॉ करना शुरू किया... मेरी फैमिली में सब वकील थे। मगर मन वहीं लगा रहा। लॉ करने के साथ प्ले भी करते रहे, कॉलेज में भी और और बाहर भी...।
- और इस बीच प्ले चलते रहे?
0 वो तो रेगुलर चलता रहा। मुख्य आकर्षण वही था। प्ले करते रहना है, लिखते रहना है। वो सब चलता रहता था। पहली बार एडमिशन नहीं हुआ,लेकिन टेस्ट देने के बाद थोड़ा सा पता चला कि कैसे होता है। इंस्टीट्यूट में गया था तो कुछ लोगों से मिला। मुझे पता चला इंस्टीट्यूट में एडमिशन के लिए करीब तीन-चार हजार लोग अप्लाय करते हैं हर साल। और बत्तीस सीट होती हैं टोटल। तो आसान नहीं है इतना। पता लगा कि आठ सीट होती थी हर कोर्स के लिए। मुझसे किसी ने कहा कि एडीटिंग में अप्लाय करो। अगर चार हजार लोग अप्लाय करते हैं तो दो हजार लोग डायरेक्शन के लिए करते हैं। एडीटिंग के लिए पांच-छह सौ लोग करते होंगे। उसमें ज्यादा चांस है। मैंने कहा कि मुझे कुछ आयडिया नहीं एडीटिंग क्या होता है। इतना था कि चलो एडीटिंग में घुस जाएंगे तो फिर डायरेक्शन कर लेंगे, वहां से कुछ हो जाएगा। तो अगले साल एडीटिंग में अप्लाय किया।
- अप्लाय करते समय ये दिमाग में था कि किस फील्ड में जाना है?
0 ये शौक था कि फिल्म बनाना है। क्योंकि प्ले डायरेक्ट करते थे नागपुर में तो यह दिमाग में था कि फिल्म डायरेक्ट करनी है। डायरेक्शन में नहीं हुआ तो सोचा चलो अब एडीटिंग में अप्लाय करते हैं। थोड़ा समझ में आ गया था कि किस तरह के पेपर्स होते हैं। दो टेस्ट होते थे। एक एप्टीट्यूड टेस्ट होता था, वो बैंक के एग्जाम जैसा होता था। वो आपका लॉजिक समझने की कोशिश करते थे। मैंने तैयारी शुरु की। फिर पढऩा शुरू किया फिल्मों के बारे में। वर्ल्ड सिनेमा समझने की कोशिश की। नेशनल सिनेमा समझने की कोशिश की, उस समय एक्सपोजर नहीं था।
- वो कौन लोग हैं जिन्होंने मदद की थी उस समय?
0 नहीं, मैं खुद गया था इंस्टीट्यूट। एक एग्जाम दे चुका था। वहां की लायब्रेरी देखी थी। पढऩा है तो पढ़ो। तो मैंने लाइब्रेरी में एक हफ्ता बिताया। वहां से मेरे लौटने के बाद नागपुर में एक फिल्म क्लब खुला ।
- आपने चालू किया?
0 नहीं। एक अलग ग्रुप था। उन्होंने शुरू किया। वल्र्ड सिनेमा आता था, फिल्म आरकाईव से फिल्में आती थीं। वो देखना शुरू हुआ। थोड़ा एक्सपोजर मिला। पूरी तैयारी के साथ एग्जाम दिया। उस साल सलेक्शन हो गया एडीटिंग में। अब लगता है कि अच्छा ही हुआ। एडीटिंग से आज मुझे इतनी मदद मिलती है। अगर डायरेक्शन कर के आता तो बहुत थयोरीटिक्ल कोर्स होता आज। एक टेक्नीकल बैकग्राउंड है। कहानी तो आदमी लिख लेता है। वह कोई आपको सीखा नहीं सकता शायद। फिर वहां से बंबई आया।
- बंबई में किनके साथ शुरू में?
0 एडीटिंग पास कर के आया था तो मैंने कुछ साल एडीटिंग की। हुआ यह कि... मुझे जब पहला टेलीग्राम मिला था मुझे एडमिशन का... आदमी, एक छोटे शहर से आया आदमी। ऐसा लगता था कि इंस्टीट्यूट में एडमिशन हो जाएगी बस लाइफ बन गई। हम निकलेंगे यहां से फिर फिल्म बनाएंगे। इसमें क्या है? प्रोब्लम क्या है? मुझे अभी तक याद है, जब टेलीग्राम आया। टेलीग्राम आता था,यू हैव बिन सलेक्टेड फोर दिस कोर्स... मैं उसको रख नहीं पा रहा था नीचे। मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि एडमिशन हो गयी। मैं देख रहा हूं। ऐसे देख रहा हूं। यार अब तो लाइफ हो गया सेट... अब जाएंगे तीन साल कर के निकलेंगे। और हो जाएंगे। देखता रहा, पता नहीं कितने घंटों तक मैंने देखा रहा होगा। मैं नागपुर से पहला व्यक्ति था इंस्टीट्यूट जाने वाला।
- यह किस साल की बात होगी?
0 84 से 87 तक था मैं इंस्टीट्यूट में। यह 84 की बात है। फिर बस पहुंच गए इंस्टीट्यूट। सात दिन में पता लग गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है कि हम यहां से निकलेंगे तो दुनिया चेंज हो जाएगी। अभी तो हम सीख रहे हैं। बाहर जाकर कुछ और सीखना है। ऐसा कुछ नहीं है। वो बड़ा इंटलेक्टचुअल सी जगह थी। जाते ही स्ट्राइक हो गई इंस्टीट्यूट में... रैगिंग होती थी। कहते थे खड़े होकर चिल्लाओ। वांट मोर स्टॉक, वी वांट फलेक्सीबिलिटी। न हमको स्टॉक समझ में आता था और न फलेक्सीबिलिटी समझ में आती थी। खड़े होकर चिल्ला रहे हैं नहीं तो रैगिंग होती थी। तो वो बड़ा इंटलेक्चुअल सा माहौल था वहां पर। कोई भी कुछ भी बोलता था। थोड़ा सी छद्म बौद्धिकता थी वहां पर। तो मैं डीप्रेशन में आ गया था। और मैं वापस आ गया नागपुर। फिर बीस-पच्चीस दिन बाद टेलीग्राम आया कि वापस आ जाओ। मृणाल सेन आ रहे हैं। गर्वनिंग कॉन्सिल के मेंबर हैं। उनकी मीटिंग है। उनका घेराव करना है। तो हम पहुंच गए वापस। मृणाल सेन आए, उनका घेराव किया गया। पुलिस आई, पुलिस सबको पकडक़र ले गई। अस्सी स्टूडेंट थे जेल में बैठे। मैं सोच रहा था मैं आया था फिल्म बनाने, यहां पुलिस स्टेशन में बैठे हुए हैं। बहुत डिप्रेशन में आ गया। स्ट्राइक खत्म हुई तो फिर आए। फिर क्लासेस शुरू हुए। वहां से फिर कांफिडेंश वापस आया। जब काम करना शुरू किया, जब स्टील कैमरे दिए जाते थे, जाकर शूट करते थे। फिर यह फीलिंग आने लगी कि नहीं यार हम जानते हैं। ऐसा नहीं है कि ... ये इंटलेक्चुअलिज्म अपनी जगह पर है। कांफिडेंश वापस आया फिर इन्जॉय करने लगा आदमी। और आज मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि वो तीन साल कल बीते हैं।
- आपने थिएटर का अभ्यास किया था। फिल्म इंस्टीट्यूट में तो विजुअल मीडियम के हिसाब से ट्रेनिंग चल रही होगी। कितना आसान रहा देखने और सोचने में आया बदलाव?
0 इंस्टीट्यूट ट्रेंड कर रहा था। हमलोग सीख रहे थे। पुराना भूल गया था। क्योंकि जब एक बार छुट्टी में घर गया तो... बाकी ग्रुप के लोग लोग प्ले कर रहे थे। मैंने सोचा फिर प्ले करूंगा। एक प्ले था कोई डायरेक्ट कर रहा था, मैं एक्ट कर रहा था ... तब मुझे लगा कि मैं भूल गया हूं। अब मेरे लिए ये मुश्किल है ... सच कहूं तो खुसुर-पूसुर करके सब लोग बात करते थे कि इसको हो क्या गया है। पहले तो बहुत अच्छा करता था। अब ठीक से नहीं कर पा रहा है। थोड़ा सा हो गया था कुछ,बदल गया था। उस माहौल से निकल कर इस माहौल में ढल गया। कई सालों तक लगता रहा कि अभी थिएटर करना चाहिए था। लेकिन अब नहीं लगता है।
- प्रशिक्षण कितना जरू री मानते हैं?
0 मैं समझता हूं कि बहुत जरूरी है ट्रेनिंग। ऐसा नहीं कि लोग डायरेक्ट नहीं सीखते हैं। डायरेक्ट भी सीखते हैं। हमको लगता है कि औपचारिक ट्रेनिंग का फायदा यह है कि आप सब कुछ व्यवस्थित ढंग से सीखते हैं। आपको हर चीज मिल जाती है। आप पहले दिन से कैमरा लेकर खड़े हो जाते है। आप समझते हैं कि लेंसिंग क्या होता है? लाइटिंग क्या होता है। लैप क्या होता है? स्टॉक क्या होता है। यहां पर आप सीखना भी चाहो तो ... किसी को असिस्ट करोगे तो आपको पहले पता नहीं होगा। कैमरामेन आपको थोड़े ही झांकने देगा कैमरा में से। वो आपको नहीं बताएगा कि लेंस क्या होता है। वह तो काम कर रहा है। अगर आप वह सीख कर आओ यहां पर तो ... फिर देखो और करो तो यहां आसान है। ये नहीं कह रहा हूं कि ऐसे नहीं सीख सकते हैं। पर औपचारिक ट्रेनिंग बहुत बेहतर है। ट्रेनिंग से खराब स्टूडेंट भी निकलेंगे, अच्छे स्टूडेंट भी निकलेंगे। हर मेडिकल कॉलेज से निकला हुआ डाक्टर जरूरी नहीं कि अच्छा डॉक्टर होगा। पर आपको एक वातावरण मिलता है सीखने के लिए। अब आप उसका कितना फायदा उठाते हैं। इंस्टीट्यूट में पूरा माहौल मिलता है। कमाल की लाइब्रेरी उपलब्ध है। जो फिल्म आप देखना चाहो। वल्र्ड सिनेमा आपके पास उपलब्ध है। आपके सारे दोस्त दिन भर सिनेमा पर बात कर रहे हैं। माहौल कमाल का मिलता है। साइड इफेक्ट भी है। आप इंटलेक्चुअल हो जाओ। आप एटीट्यूड दिखाना शुरू कर दो आप सोचने लगो कि कुछ हो तो आप बिखर भी सकते हो। पर आप उसको पॉजिटीवली लो तो आपको बहुत फायदा होगा। मुझे लगता है कि मुझे आज भी कोई कहे जाकर पढ़ाई करो कहीं तो मैं झट से तैयार हो जाऊंगा। सच कहता हूं,मन करता है कि कुछ चीजें अभी भी कहीं जाकर सीखना चाहिए। छोटा कोर्स छह हफ्ते का या महीने-दो महीने का करना चाहिए। म्यूजिक के बारे में थोड़ा और जानना चाहता हूं। मन करता है कि किसी दिन जाकर चेक करूंगा।
- मुंबई आने के बाद पहला जॉब क्या किया आपने?
0 पहला काम किया एडीटिंग का। एक एड फिल्म की मैंने। भरत रंगाचारी फिल्ममेकर थे। उन्होंने एक एड फिल्म बनाई थी। उनकी एड फिल्म एडिट की। उसके बाद रेणु सलूजा ने मुझे ट्रेक्लींग का काम दिया। एक डाक्यूमेंट्री थी उस पर काम किया।
- डायरेक्टर का नाम क्या था?
0 एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी शबनम ने। रेणु एडिट कर चुकी थी। उसके बाद साउंड का काम करना था। दो काम किए,उसके बाद फिर दो-तीन महीनों तक कुछ काम ही नहीं था।
- काम नहीं मिलने पर पैसों की दिक्कत रही होगी ?
0 इंस्टीट्यूट में स्कॉलरशिप मिलती थी। फीस बहुत कम थी। 257 रूपये भरा करते थे हमलोग एक सेमेस्टर का। समझ लीजिए कि हमलोग मुफ्त में ही पढ़ते थे। चार-पांच सौ रूपये महीने में हो जाता था। चार सौ रूपए स्कॉलरशिप मिलती थी। हर ग्रुप में दो लोगों को मिलती थी।
- वहां ड्रग्स से कैसे बचे आप?
0 इंस्टीट्यूट में ड्रग्स का कभी प्रोब्लम नहीं रहा। मुझे नहीं लगता कि कोई भी ड्रग्स लेता था। दारू वहां बहुत चलती थी इंस्टीट्यूट में। दारू वहां बहुत पीते थे लोग,लेकिन वह सीरियस लेवल पर नहीं था। एकाध होगा कोई ऐसा मामला ... हर कॉलेज में जितना होता है, उतना होता था। यह धारणा है वहां के बारे में ... हमारे टाइम पर नहीं था। आप जो समस्या कह रहे हैं, वो समस्या तो नहीं थी,पर आने के बाद दो-तीन महीना काम नहीं था। फिर कुछ छोटा सा मिलता था। तो वो पहले छह महीने मैं कहूंगा कि थोड़ी दिक्कत थी। उस समय फैमिली ने सपोर्ट किया।
- अकेले रहे या दोस्तों के साथ रहे? किस इलाके में रहे?
0 हुआ ये मेरे साथ, मुझे याद है ... मेरा डिप्लोमा फिल्म खत्म हुआ सबसे पहले। डिप्लोमा फिल्म खत्म कर के मैं चला गया नागपुर शहर।
- क्या नाम रखे थे डिप्लोमा फिल्म का?
0 एट कॉलम अफेअर। वहां ग्रुप बनते थे। चार लोगों का एक डायरेक्टर होता था। एक कैमरामेन, एक एडिटर। मेरे साथ डायरेक्टर थे श्रीराम राघवन। वो मेरे बैच में थे। अभी उन्होंने एक हसीना थी डायरेक्ट की थी। श्रीराम राघवन डायरेक्टर, हरिनाथ कैमरामेन थे, मैं एडिटर था। डाक्यूमेंट्री बनाई जिसको नेशनल अवार्ड भी मिला था बाद में। फिल्म बनाई और मैं चला गया। हमारा एक वीडियो कोर्स होने वाला था। दो महीने का कोर्स था। उसके लिए मैं लौटकर आया एक महीने के बाद । तो पता लगा कि वह कोर्स नहीं होने वाला है। इसका मतलब हमारा तीन साल का कोर्स खत्म हो गया अब आप जाइए। मैं गया तो पता लगा कि हमारे रूम से हमारा सामान निकाल दिया गया था। एक हॉल में रख दिया गया था। जिसको हम अपना घर समझते थे। वहां जाकर पता चला कि वो घर है ही नहीं। सारे स्टूडेंट बंबई या कहीं और भी जा चुके थे। और मुझे किसी ने खबर नहीं की थी। मुझे याद है, मैं पूरा दिन बैठा रहा कैंपस में न कमरा था अपना न कुछ और। जिसे हम अपना घर समझते थे, वहां अचानक असहाय बैठे थे। अब करें क्या? पूरा दिन मैं सोचता रहा कि अब मैं करूं क्या? मैं बंबई जाऊं कि मैं नागपुर जाऊं? क्योंकि मैं कहीं जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था। मुझे लग रहा था कि दो महीने का कोर्स खत्म होगा उसके बाद बंबई के लिए तैयारी करेंगे। बंबई में घर था न ठिकाना था। नागपुर जाकर कोई फायदा नहीं है। आना तो फिर बंबई ही है। फिर मैंने कहा अभी चलते हैं। मैंने वहां से एक बैग पैक किया और बाकी सामान को हॉल में छोड़ा। मैंने सोचा कि बाद में आकर पिकअप करूंगा कभी। एक बैग लेकर मैं ... एशियाड बस चलती थी उस समय। बस पकडक़र मैं बंबई पहुंचा था सुबह पांच बजे। मैं सीधा गया था श्रीराम राघवन के यहां। उनका घर है यहां पर। उसके घर गया, बेल बजाई, उसने दरवाजा खोला, वो हंसता हुआ मुझे देख रहा था। मैंने गालियां दी। तू साला बताया नहीं मेरे को ... उसने कहा कि मैंने जानबूझकर डिसाइड किया कि नहीं बताएंगे तुमको। आने दो पता लगेगा फिर। मालूम था कि यहीं आओगे तुम। उसका बंबई में मकान था। उसके माता-पिता पूना में रहते थे। अंदर गया तो हमारे तीन और बैचमेट सोए हुए थे, गद्दे डाल के। वो नींद में थे। मैं भी जाकर सो गया। सात बजे मुझे याद है कि सिक्कों की आवाज आने लगी। खट-खट-खट सिक्के ... उठा, देखा तो सब एक-एक रूपए के क्वाइन गिन रहे थे सब लोग। क्योंकि नीचे एक फोन बूथ होता था। और घर पर फोन नहीं था। वो फोन बूथ में जाकर सुबह लग जाते थे ... एक फिल्म की डायरेक्ट्री होती थी सबके पास। डायरेक्ट्री लेकर सब फोन करते थे। जो कैमरामेन होगा तो वो कोई कैमरामेन को फोन करेगा जॉब के लिए। मैंने देखा, बोला मर गया यार। कठोर सच्चाई दिखने लगी ... ये क्या हो रहा है। मैं बैठा रहा। पूरा प्रोसेस ही होता था कि आज इसको मिलना है, आज इस डायरेक्टर को मिलना है। वो सब चलता रहता था। अगले दिन मेरे पास भी वही था। मैं डायरेक्ट्री लेकर बैठा हुआ था। कुछ सिक्के थे और सुबह से फोन लगा रहे थे। फोन लगाते थे, फिर लोगों को मिलते थे। संयोग से मुझे पहले हफ्ते में ही पहला काम मिल गया। उसके कुछ पैसे मिले। मगर उसके बाद छह महीने तक कोई काम नहीं था। फिर वो वीडियो कोर्स आ गया। दो महीनों के लिए फिर से फिल्म इंस्टीट्यूट गए। वहां से जब लौटकर आए तो लगा कि काम ऐसे मिल नहीं सकता है। हम उम्मीद में बैठे हुए थे। हम लोगों से मिलते थे लेकिन किसी को विश्वास नहीं होता था। वो आपके साथ क्यों काम करेगा। हमको पता है कि शायद हम काम में अच्छे हैं। पर उसको तो नहीं पता है। फिर मैंने एक एडीटिंग रूम ज्वाइन किया। एक स्टूडियो था एकता वीडियो, सांताक्रूज में, उस समय वीडियो का टेक्नोलॉजी शुरू हुआ था। लो बैंड में एडीटिंग होता था। यह 1988 की बात है। वहां पर मैंने जॉब किया। उस समय ऐसा नहीं लगता था कि कोई स्ट्रगल कर रहे हैं। जिसको सोचो तो ... मजा आता था।
- उस समय शादी नहीं हुई थी क्या ?
0 मेरी शादी 1994 में हुई।
- कोई इमोशनल अफेयर या कोई गर्ल फ्रेंड ... इन व्यस्तताओं से बचे हुए थे?
0 कुछ नहीं, बचे हुए नहीं थे। वंचित थे।
- सोच रखा था या ...?
0 बिल्कुल नहीं, कोई मिल जाती तो बड़ी खुशी होती। वहां मुझे बारह सौ रूपए मिलते थे। हुआ ये कि वहां, एकता वीडियो में,लोगों से मिला। वहां लोग एडीटिंग करने आते थे। एडिटर लेकर आते थे। जिसको एडिटर नहीं होता था उसके साथ हम काम करते थे। उसमें छह महीना काम किया। वहां टीवी के काम आते थे। सीरियल का काम होता था ज्यादातर। मैंने सीरियल को एडिट करना शुरू किया। फिर कांटेक्ट बन गया। एडवर्टाइज में एक बार किसी के लिए काम करो, उसको आपका काम पसंद आता है तो आपको फिर से बुलाता है। वहां छह महीना और बाहर छह महीना फ्रीलांसिंग करने के बाद मुझे नियमित रूप से एडिटींग का काम मिलना शुरू हो गया। फिर एक दिन भी फ्री नहीं होता था। एक फीचर फिल्म भी एडिट की मैंने।
- फीचर फिल्म कौन सी थी?
0 अनंत बनानी की फिल्म थी 'जजबात'। उन्होंने खुद प्रोड्यूस की थी, पर वह चली नहीं। जॉय ऑगस्टीन ने एक फिल्म बनाई थी। उनकी पहली फिल्म,जो आधे में ही बंद हो गई थी। वो एडिट की। तो मेरा फिल्म का ऐसा एक्पीरियेंस रहा कि एक फिल्म की, वो चली नहीं तो पैसे नहीं मिले उसके। फिर दूसरी की वो बंद हो गई उसके भी पैसे नहीं मिले। काम इतना रहता था कि फीचर फिल्म उस समय स्टीनबेक पर होता था। छह-छह महीना एडिट करो फिर पैसे नहीं मिलें तो ... अचानक लगने लगा कि यार ये दुकान सरवाइव नहीं कर रहा है। उस दौरान मैं एडवरटाइजिंग के कुछ लोगों से मिला। उनके लिए एड फिल्में तैयार की। वहां कुछ अच्छे किस्म के लोग मिले। जो टिपिकल फिल्मी नहीं थे। वे अच्छे लोग थे और उनसे मिलने-जुलने में अच्छा लगता था। धीरे-धीरे पता नहीं कैसे अपने आप एड फिल्म में रूचि जागी। एड फिल्म एडिट करते-करते ... कुछ डायरेक्ट करने के लिए भी मिल गई। एक आदमी चाहता था डायरेक्टर । फिर डायरेक्ट करना शुरू कर दिया। वो फिल्में बनने लगी। फिर वहां से प्रोड्यूस करना शुरू कर दिया। करते-करते एड फिल्म की प्रोड्क्शन कंपनी बन गई। गुड वर्क ... वो चलता रहा। फिर उस बीच विधु विनोद चोपड़ा की मिशन कश्मीर मिल गई।
- इस बीच डायरेक्टर बनने का सपना कैसे बचाए रखा। क्या ऐसा नहीं हुआ कि एडिटिंग में पैसे आ रहे हैं तो आप संतुष्टï होकर इसी काम को आगे बढ़ाते रहें?
0 मैं नागपुर से यह नहीं सोचकर आया था कि मैं डाक्यूमेंट्री बनाऊंगा या एड फिल्में करूंगा। मुझे नहीं लगता कि कोई यह सोच कर आता है। हो सकता है कुछ लोग डाक्यूमेंट्री या एड फिल्म का ही सोच कर आते हों। हमें नागपुर में तो मालूम ही नहीं था कि एड फिल्में क्या होती हैं? जब इंस्टीट्यूट गए थे तो टेलीविजन भी नहीं था आज जैसा।। ये था कि फिल्में करनी है तो सौ प्र्रतिशत फिल्में ही बनानी हैं। पर सही दरवाजा नहीं मिल रहा था। न ठीक किस्म के लोग मिल रहे थे। लोगों से मिलना-जुलना बहुत मुश्किल होता था। फीचर फिल्म में मेरा एक्सपोजर इतना इच्छा नहीं रहा था। फिर विनोद के साथ जब मिलना शुरू हुआ तो कुछ मजा आया। लगा कि यार यह आदमी लगन वाला है। इनके साथ काम करने का मजा है। कुछ आदमी पैसे के लिए सब कुछ करते हैं। और कुछ मजे के लिए काम करते हैं। मुझे याद है, हम इंस्टीट्यूट में जो फिल्में बनाते थे, उसमें कोई कमर्शियल दृष्टिïकोण नहीं होता था। फिर भी जितना मजा वह फिल्म बनाने में आता था। बाहर किसी एड फिल्म में नहीं आया। क्योंकि आप यहां किसी के लिए बना रहे हो। यह सोचकर कि उसको ये प्रोडक्ट बेचना है तो उस हिसाब से पैकेज करना है। इंस्टीट्यूट में सारे लोग मिलकर पैसेनेटली, सारे स्टूडेंट अपनी एक्सरसाइज करते थे। इसको ऐसा बनाएंगे। एक्सपलोर करेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे। फिल्म बनती थी स्क्रीन होती थी। देखते थे। वास्तव में कई बार ऐसा लगता था कि रीढ़ की हड्डी सीधी है। चलते थे हम तो चाल में फर्क आ जाता था। मजा आता था। वह मजा मुझे वापस 'मुन्नाभाई' में मिला। मैंने और कुछ नहीं सोचा, इसलिए फिल्म बनाई कि मजा आ रहा है बनाने में।
- 'मिशन कश्मीर' के बाद कैसे बात बनी। विनोद ने सुझाव दिया या आपने उनसं आग्रह किया?
0 विनोद ने कभी किसी और के लिए फिल्म प्रोड्यूस नहीं की थी। वे खुद के लिए फिल्में बनाते थे। मुझे उनकी फिल्म एडिट करने में बहुत मजा आया। पहले भी एडिट कर चुका था, पर इतना मजा नहीं आया था जितना मजा इनके साथ काम करने में आया। तो उसके बाद मैं वापस गया तो सोचा कि अब अगर मैं फिल्म नहीं बनाऊंगा तो शायद कभी नहीं बना पाऊंगा। पहले होता यह था कि एड फिल्में करते थे। एक हफ्ते का गैप मिलता फिर सोचते थे कि चलो स्क्रिप्ट लिखेंगे। फिर एक हफ्ता लिखते थे। फि र एड फिल्म आ जाती थी। तीन महीने तक फिर कुछ नहीं करते थे फिर एक हफ्ते करते थे। ऐसे में सालों साल निकल गए। स्क्रिप्ट पूरी ही नहीं होती थी। अगर होती भी थी तो पसंद नहीं आती थी।
- तब तक शादी हो गई थी, बच्चे वगैरह हो गए थे?
0 हां, शादी हो गई थी। बच्चे भी हो गए थे। मेरी पत्नी काम करती हैं। आर्थिक परेशानी नहीं थी।
- आपकी पत्नी किस जॉब में थीं?
0 मेरी पत्नी इंडियन एअरलाइनस में है। तकलीफ नहीं थी। मैंने काफी काम किया था तो पैसे भी बचाए थे। मैं साच कर देखा कि अगर मैं एक साल काम न करूं तो भी सरवाइव कर सकता हूं। फिर मैंने कहा कि छह महीने ट्राई करता हूं। नहीं होगा तो फिर वापस करेंगे। ऐसा नहीं था कि काम नहीं मिलेगा। तो मैंने छह महीना सब कुछ बंद कर दिया। ऑफिस में फैक्स मशीन से स्क्रिप्ट आती थी। मैं देखता भी नहीं था। ऑफिस सब लोग डर गए थे। स्टॉफ लोग बोलते थे कि पागल हो गया है। छह महीने के बाद मुझे लगने लगा कि स्क्रिप्ट ठीक है तो मैं विनोद से मिला उस समय। यह सोचकर नहीं कि वे फिल्म प्रोड्यूस करेंगे। यह सोचकर कि मिलने गया कि आप कुछ एक्टरों से मिला दीजिए मुझे। और मैं चाहता हूं कि कोई एक्टर मान जाए तो फिर कोई फाइनेंस भी कर देगा। मेरा अपना प्रोड्क्शन हाऊस था। मैंने सोचा कोई फाइनेंसर मिल जाएगा तो मैं बना सकता हूं। बनाने का तो एक्सपीरियेंस था। उन्होंने कहा किस से मिलना है। उन्होंने कहा कि ऐसे कैसे तुम्हें किसी से मिलवाऊं। पता नहीं तुम क्या बनाना चाहते हो। फिर मैंने उन्हें स्क्रिप्ट सुनाई। उनको स्क्रिप्ट अच्छी लगी। उन्होंने कुछ सुझाव दिए। ऐसा-ऐसा करो। एक-दो महीने तक हमलोग मिलते रहे।
- पहले से स्टोरी आपके पास थी?
0 मेरे पास एक स्टोरी थी । तीन स्टूडेंट हैं, जो मेडिकल कॉलेज में हैं। उनकी एक स्टोरी थी मेरे पास में। मेरे बहुत दोस्त हैं। नागपुर में 12वीं के बाद आदमी या तो मेडिसीन करता था या इंजीनियरिंग करता था। मैं इंजीनियरिंग करना चाहता था। मेरे बहुत सारे लोग दोस्त जो 12वीं के बाद मेडिकल करना चाहते थे। मैं तो घुस नहीं पाया इंजीनियरिंग में। मेरे बहुत सारे दोस्तों इंजीनियरिंग में चले गए थे। बहुत सारे दोस्तों को मेडिकल में एडमिशन मिल गई थी। वही दोस्त थे। मैं बी कॉम कर रहा था। सुबह सात से दस कॉलेज होता था,उसके बाद फ्री। तो नाटक करते थे। उसके रिहर्सल चलते रहते थे। हमारे ग्र्रुप में कुछ मेडिकल के लडक़े थे। उन्हें कम समय मिलता था तो हम उनके हॉस्टल में जाकर रिहर्सल करते थे। मैं मेडिकल कॉलेज में बहुत जाता था। जाता था तो बहुत सारी चीजें दिखाई देती थी। और लिखने की आदत थी। एक डायरी साथ में रखते थे। जो थॉट आए लिख दो। वो थॉट इंस्टीट्यूट में भी मेरे साथ रहे। इंस्टीट्यूट से निकलने के बाद एक स्क्रिप्ट बनाई थी। मेडिकल कॉलेज के तीन स्टूडेंट की कहानी थी । उस कहानी में हंसी के प्रसंग बहुत थे। रोचक थे सीन, लेकिन उनको जोडऩे के लिए कोई कहानी नहीं थी। सीन पढ़ो तो मजा आता था मगर जोड़ता नहीं था। इसलिए वह हमेशा पड़ी रहती थी। फिर हमने दूसरी स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की वह पूरा किया। 'बाबूजी धीरे चलना' लेकिन उसमें मजा नहीं आ रहा था। वह संभल नहीं रही थी। एक मरीज है जो मर जाता है, बाद में भूत बनकर आता है और वो बताता है। वो बताता है कि क्या-क्या हुआ उसके साथ। मेडिकल सिस्टम पर टिप्पणी थी। वह थोड़ी बेहतर हुई। फिर भी मुझे लगा कि यार यह रीयल नहीं है। फिर एक दिन ये ख्याल में आया कि अगर एक भाई मेडिकल स्कूल में आ जाए । ऐसा लगा कि बहुत मस्ती भी हो सकती है। और उसके जरिए हम टिप्पणी भी कर सकते हैं। 'मिशन कश्मीर' के बाद वह थॉट आया। तब लिखना शुरू किया मैंने। जब मुझे लगा कि यह कहानी बन सकती है तो छह महीने उसे लिखा।
- फिर वह कहानी विनोद को सुनाई़?
0 हां, उनको सुनाई। उनको पसंद आई। कुछ सवाल थे उनके। दो महीने और काम किया। मुझे कु छ समय के लिए लगा कि मुझे बोल रहे हैं, आश्वासन दे रहे हैं, लेकिन मुझे किसी से मिला क्यों नहीं रहे हैं। केवल सलाह देते रहे और मैं करता रहा। फिर एक दिन उन्होंने पूछा कि कौन प्रोड्यूस कर रहा है। मैंने कहा हैं कुछ लोगों से बातें हुई हैं। बात हुई भी थी, लेकिन फायनल नहीं थी। उन्होंने मुझ से कहा कि मैं इसको करता हूं। हां, मैं प्रोड्यूस करता हूं। तो फिर वहां से बात आगे बढ़ी कि किस के साथ काम करनाचाहिए। फिर उन्होंने सलाह दी कि शाहरुख के साथ करो। मैंने सोचा और क्या चाहिए।मन में गुदगुदी उठी कि पहली फिल्म शाहरुख के साथ। उन्होंने शाहरुख को फोन किया मैंने जाकर स्क्रिप्ट सुनाई। वह 'देवदास' की शूटिंग कर रहे थे। मैंने स्क्रिप्ट उन्हें दे दी। मैं सुनाने गया था, लेकिन उन्होंने कहा कि टाइम नहीं है। स्क्रिप्ट छोड़ जाओ, मैं पढ़ लूंगा। मैंने मन में सोचा ये तो पढ़ेगा नहीं। उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी और दूसरे दिन फोन किया और कहा कि मुझे स्क्रिप्ट अच्छी लगी है,मिलते हैं। फिर एक महीना तक मैं उनसे रोज मिलता रहा। बहस चलती रही । मैंने महसमस किया कि स्क्रिप्ट पसंद आने के बाद वह मुझे परख रहे थे कि ये है कौन? बना पाएगा कि नहीं। फिर एक महीने के बाद उन्होंने हां की। तय हुआ कि हम साथ में काम करेंगे।
- जबकि विधु विनोद चोपड़ा आपके साथ थे?
0 आदमी सोचता है न कि डायरेक्टर कौन है। क्या है? वह सुपरस्टार हैं। क्यों काम करें किसी नए डायरेक्टर के साथ। फिर उनकी गर्दन की तकलीफ सामने आई। वह ऑपरेशन करवाने चले गए। फिर पता लगा कि साल भी लग सकता है। दो साल भी लग सकते हैं। क्योंकि वह काफी फिल्में कर रहा थे उस वक्त। तब संजय दत्त का नाम आया। और मैं बड़ा चौंका था। उस समय लग रहा था कि एक प्रोजेक्ट शाहरुख के साथ हो रहा था और वह रुक गया। अब वही फिल्म संजय के साथ करनी होगी। बाद में लगा कि इससे ज्यादा कोई भी आदमी इस रोल को शूट नहीं कर सकता है। एक तरह से अच्छा ही हुआ।
- इस फिल्म के निर्माण के दौरान कभी ऐसा निराशा नहीं हुई कि पता नहीं फिल्म बन पाएगी कि नहीं बन पाएगी? क्या होगा?
0 नहीं, दो साल लगे। 2000 में 'मिशन कश्मीर' खत्म हुई थी। अक्तूबर से मैंने लिखनी शुरू की थी। 2001 के मध्य में विनोद को सुनार्ई। विनोद के हां कहने के बाद भी दो साल लगे इस इस फिल्म के शुरू होने में। पर मुझे विनोद ने आश्वस्त कर दिया था। इसलिए कांफिडेंस था । विनोद ने कहा था कि यह फिल्म बनेगी जरूर। हम बनाएंगे। थोड़ा टाइम लगेगा। ऐसी निराशा नहीं थी। विश्वास था कि विनोद कह रहे हैं तो फिल्म रजरूर बनेगी। पर चिंता होती थी। आदमी काम नहीं कर रहा था। एड फिल्म बंद कर दी थी तीन साल से। काम नहीं करने का अपना दबाव काम करता है। अगर पैसे की कमी होती थी तो बीच में एक एड फिल्म कर लेता था। मुझे डर कभी नहीं लगा। पहले और दूसरे मुन्नाभाई में भी तीन साल का गैप रहा। मुझे लगता है कि आप पैसे के पीछे लगातार भागते रहेंगे तो फिर आप पैसे ही कमाते रहेंगे। फिर आप स्क्रिप्ट नहीं लिख सकते। आप आराम से लिखो। पैसे तो आ ही जाते हैं, कहीं न कहीं से घूम-फिर कर कहीं-कहीं से।
- अगर प्रभाव की बात पूछूं तो आप किन निर्देशकों के नाम लेंगे? एक तो विधु विनोद चोपड़ा की संगत का असर हो सकता है। बाकी कौन?
0 हिंदी सिनेमा से प्रभावित रहा। हृषिकेश मुखर्जी का सबसे बड़ा प्रभाव है। उनकी बहुत फिल्म मैंने देखी हैं और वे मुझे अच्छी लगती हैं। आज भी वो फिल्में याद है। उस दिन 'आनंद' की बात निकली तो मैंने उसकी कविता सुना दी। मुझे पूरी कविता याद थी आनंद की 'मौत तू एक ... ' मैं भी चौंका था। बचपन में देखी थी वह फिल्म। तो फिल्में याद रह जाती हैं। गुलजार साहब के फिल्मों का काफी प्रभाव रहा है। उनकी सारी फिल्में पसंद हैं मुझे। व्यक्तिगत स्तर पर विनोद से मिलने के बाद कहुत सारी बातें समझ में आईं। उनसे सिनेमासे अधिक जिंदगी जीने का एक अंदाज सीखा है। विनोद बिल्कुल गैरफिल्मी व्यक्ति हैं। साफ दिल और ईमानदार किस्म के आदमी हैं। थोड़ा मिसअंडरस्टुड आदमी, क्योंकि वो बोलते हैं फटाफट बोल देते हैं। मैं उनको बहुत नजदीक से जानता हूं। मैं देखा है कि बहुत साफ हैं। हर स्थिति में वो एक ही चीज लेकर चलते हैं कि मुझे फेअर रहना है। वो बहुत सिद्धांतवादी हैं। मैंने उनसे बहुत सीखा है। कैसे वह अपनी फैमिली को देखते हैं? कैसे अपने काम को हैंडल करते हैं? कैसे अपनी निजी जिंदगी संभालते हैं। विनोद से कमाल का एटीट्यूड सीखा। उसने मुझे थोड़ा सा निडर बनाया। मुझे ऐसा लगता है कि उससे मेरी असुरक्षा खत्म हो गई। ऐसा नहीं था कि पहले कोई असुरक्षा थी, पर काफी फर्क पड़ा है। आदमी को डर रहता है कि काम न करूं तो क्या होगा? थोड़ा बहुत होता था कभी। पर अब बिल्कुल नहीं होता। बड़े निडर किस्म के आदमी हैं वह। लोगों को डर रहता है न कि अब मैं ये नहीं करूंगा तो क्या होगा? ये क्या बोलेगा मेरे बारे में, पैसा कमाना जरूरी है। अब बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता है। बहुत ज्यादा इस चीज का असर हुआ है मुझ पर उनका। वैसे ही काम करूं। उनका भी पैशन काम ही है। मैंने देखा है। वह कभी यह सोचकर सिनेमा नहीं बनाते कि ये बनाऊंगा तो ओवरसीज में ज्यादा चलेगा। और ये यहां पर ज्यादा चलेगा। वह जाकर एकलव्य बनाते हैं राजस्थान में... क्योंकि उनको पसंद है।
-हिंदी सिनेमा के इस दौर में आप 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' लेकर आए। उसमें वैसी चमक-दमक नहीं है। क्या कभी सोचा नहीं कि जमाने के साथ चलूं?
0 इसलिए कहता हूं कि इन फिल्ममेकर जैसी हिम्मत होनी चाहिए।मुझे एन चंद्रा साहब मिले थे फिल्म फेस्टिवल में। मैं उनसे पहले कभी नहीं मिला था। वे दौड़ते हुए आए। अभी तक याद है, मैं भूल नहीं सकता। गोवा में 'मुन्नाभाई' के रिलीज होने के कई महीनों के बाद। दौड़ कर आए और मुझसे कहा, 'तुम ने मेरी तरह के सिनेमा में मेरा विश्वास फिर से जगा दिया है। मैंने अपनी जिंदगी ऐसे सिनेमा से शुरू की थी और निडर होकर बनाता था। मुझे लगता था कि दिल से बनाना चाहिए। कहीं बाद में मुझे लगने लगा कि यार थोड़ा ये, थोड़ा वो होना चाहिए। इसमें कमर्शियल होना चाहिए। इसमें ये होना चाहिए। फिर मैं बिखर गया। उन्होंने कहा कि अगर आप यह स्क्रिप्ट मेरे पास लेकर आते तो मैं आपको ऑफिस से भगा देता। बोलता कि बेवकूफ हो गया है। अस्पताल की पिक्चर,मरीज और डॉक्टर, ये कौन देखेगा? क्योंकि कोई भी कमर्शियल एलीमेंट नहीं है इसमें। इसकी सफलता देखने के बाद मुझे लगता है कि जो दिल को अच्छा लगे, वही बनाना चाहिए। मैं तारीफ करूंगा कि उन्होंने अपने मन की बात कही। ऐसी बातों से अपना विश्वास बढ़ता है कि वही बनाना चाहिए जो दिल को अच्छा लगता है। यह सोच कर नहीं बनाएंगे कि दूसरों को क्या अच्छा लगता है। अगर हम ये सोचकर बनाएंगे कि दूसरों को ये अच्छा लगता है तो हमको कैसे पता लगेगा कि दूसरों को क्या अच्छा लगता है। हम वही बना सकते हैं जो हमको पता है और जो हमको अच्छा लगता है। फिर उम्मीद करें कि जो हमको अच्छा लगता है और वह दूसरों को भी अच्छा लगे।
- लेकिन जितना धैर्य था आपके पास था या जिस तरीके से आपने खुद को बचाए रखा। तेरह साल उधर निकल गए और तीन साल इधर... सोलह साल के बाद आप एक फिल्म बना पाए हैं? सोलह सालों तक उस ख्वाब को बचाए रखना कि कोई नई फिल्म करनी है। मैं खासकर इसलिए पूछ रहा हूं कि जो नए डायरेक्टर आते हैं यहां पर,वे बहुत जल्दी निराश होने लगते हैं। उनसे आप क्या कहना चाहेंगे? सभी को दिखता है कि राजकुमार हिरानी की 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' पहली फिल्म थी और उसने कमाल कर दिया । पहली फिल्म के पहले का जो स्ट्रगल है, उसे लोग नहीं जानते?
0 मैं यह बोलता हूं कि कभी लगा ही नहीं कि स्ट्रगल है ये। उसको नाटकीय करना चाहें और आज की सफलता के संदर्भ में हम बोल सकते हैं कि यार हमने ऐसा किया। हम ऐसे रहते थे। एक कमरे में रहते थे और तीन मिलकर रहते थे... ड्रामाटाइज कर सकते हैं, पर मजा आता था। हमलोग रहते थे साथ में दो-दो, तीन-तीन लोग एक कमरे में। श्रीराम राघवन के घर पर रहा, फिर बाद पीजी रहते थे एक गुजराती फैमिली के घर पर। उस समय यह सोचते थे था कि यार एक सिंगल रूम हो जाए जहां पर अकेले रह सकें। क्योंकि फोन पर बात करने में बड़ी दिक्कत होती थी। हॉल में जाकर फोन करना पड़ता था। गुजराती ओल्ड कपल था। वे सुनते रहते थे कि हम क्या बातें करते हैं? हम दोस्तों से खुल कर बात नहीं कर पाते थे। मैं ये कहता था कि यार एक अपना रूम हो जहां अपना फोन हो कम से कम गाली देनी है तो खुलकर दे सकते हैं। ये पीछे बैठे हुए हैं। मगर इंस्टीट्यूट से आने से यह सबसे बड़ा फायदा था कि सपोर्ट सिस्टम था। अन्यथा मेरे लिए तो कोई तरीका ही नहीं था कि मैं डायरेक्ट बंबई आ जाता। क्योंकि कोई था नहीं। इंस्टीट्यूट से क्या होता है कि हर साल बत्तीस लोग पास होते हैं। कुछ साउथ के, कुछ कलकत्ता के होते हैं। बीस-पच्चीस लोग बंबई आते हैं। और यह समझिए कि हर साल बीस-पच्चीस लोग वहां से निकलकर साथ में स्ट्रगल कर रहे हैं। तो पहले छह महीना साल भर ये होता है कि रोज शाम को सारे लोग मिलते हैं। हमलोग पांच-छह लोग रोज शाम को मिलते थे, भाई तेरा क्या हुआ? आज मैं इसको मिला, मेरे को ये काम मिला। फिर दूसरों को भेजते थे। तो अकेलापन नहीं था।
- इंस्टीट्यूट की अपनी बाउंडिंग होती है या... ?
0 कमाल की बाउंडिंग होती है। आदमी एक-दूसरे को हेल्प करता है। और वो नहीं होता तो, अकेला आदमी शायद पागल हो जाता।
- अचानक कोई आए इंस्टीट्यूट से और कहे कि आपके साथ काम करना चाहूंगा तो आप का क्या जवाब होगा?
0 अगर आपके पास उस समय जरूरत होगी, और आपको ठीक लगेगा तो आप उसको काम दोगे। मन में रहता है कि अपना इंस्टीट्यूट का है, अपने यहां का है, हेल्प करना चाहिए। जैसा मुझे नागपुर के लिए वैसा बहुत लगता है। कोई नागपुर से आ जाए, कोई अचानक मिल जाए। नागपुर का छोड़िए कोई बोल दे कि मैं बाजू वर्धा से हूं या अमरावती से हूं तो लगता है कि अरे यार अपने इलाके का है। अरे यार आओ। बातें करने का दिल करता है। इंस्टीट्यूट का मामला अलग होता है। एक तो सबको हिस्ट्री पता होता है कि फलां इस बैच में था। आप कोशिश भी करते हैं उनसे मिलने की। मैं भी निकला जैसे तो मुझे मालूम था। मैं डेविड धवन और केतन मेहता से जाकर मिला। इन लोगों से मिलते हैं। हर बार आदमी काम नहीं दे पाता है। आपके पास होगा तो आप दे पाओगे। लेकिन यह जरूर बताते हैं कि आप इधर चले जाओ, उधर जाओ। उसकी वजह से ही मैं लगातार एडीटिंग करता रहा। दिल में फिल्म बनाने की तमन्ना बैठी थी। और ये तो मैंने देखा है कि आपको साठ साल की उम्र का भी आदमी मिल जाएगा जो फिल्म बनाने निकला है। तो उसको लगता है कि फिल्म बना लूंगा अभी। अगले दो साल में हो जाएगा। भले ही जिंदगी निकली जा रही हो। मुझे नहीं लगगता कि आदमी हार जाता है। वह इसमें रहता ही है। जो निकला है फिल्म बनाने के लिए... शायद बना पाए न बना पाए तो वो बात अलग है। तो मुझे नहीं लगा मुझे सोलह साल लगग गए। शायद वह समय लगना ही था। सोलह साल लगने ही थे, क्योंकि अगर मैं कहूं कि संजय लीला भंसाली के साथ में हमलोग पास आउट हुए थे। संजय भंसाली आए और उन्होंने विनोद के साथ काम करना शुरू कर दिया था। मैं जिन लोगों से मिला उस टाइम, वे अलग थे। अगर लाइक माइंडेड लोग शुरू में मिल जाते तो शायद जल्दी हो जाता। मैं एडवरटाइजिंग में चला गया। उसने मेरे कुछ साल ले लिए। थोड़ा सा सरवाइवल का भी मामला होता है। आदमी चाहता है कि थोड़ा सा कमाए नहीं तो... फिर कौन आदमी कमाने के चक्कर में किधर चला जाए? किसको कब मौका मिले?
- इस बीच कोई सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव भी आप पर रहा?
0 नहीं, मुझे कुछ खास दिलचस्पी नहीं थी। न कोई प्रभाव रहा और ना ही कोई रुचि रही।
- आपके पिताजी माइग्रेट हुए थे पाकिस्तान से । उनके अंदर कोई कटुता या गुस्सा रहा हो?
0 बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है कि राजनीति वक्त की लड़ाई है। विनोद का एक गाना था कि ये अलग चीजों की जंग है, इसमें बिचारा आदमी का क्या करना? बहुत फ्रेंड हैं मेरे, जो अलग कम्युनिटी के हैं और मैं बहुत शिद्दत से मानता हूं कि कोई आदमी बुरा नहीं होता। बस,परिस्थितियां होती हैं, जिनके कारण आदमी अलग ढंग से व्यवहार करता है।
- पहला शॉट का पहला दिन जिस दिन पहला एक्शन बोला था आप ने?
0 पहला शॉट लिया था हमने। रूस्तम वो अपने घर आ रहा है। उसकी टैक्सी है... उसके फादर को यहां पर बंद कर के रखा हुआ है। वो निकल कर आता है, सीढ़ी चढ़ते हुए दौड़ता है अपने फादर के कमरे में। वो पहला शॉट लिया था। उस दिन स्ट्रेस यही था कि ये फिल्म बड़ी जल्द बननी थी। विनोद ने कहा कि इतना बजट है, इतने टाइम में बनाना है। तो मैंने कलकुलेशन किया था कि हमें बीस शॉट हर दिन लेने हैं। और अगर मैं बीस शॉट नहीं ले पाऊंगा तो इस टाइम में पूरा नहीं कर सकता । सबसे बड़ा प्रेशर यही था कि बीस शॉट लेने हैं। दूसरा बड़ा प्रेशर यह था विनोद प्रधान शूट कर रहे थे इस फिल्म को। विनोद प्रधान 'देवदास' शूट कर के इस फिल्म पर आए थे। 'देवदास' में एक दिन में वह एक शॉट लेते थे। मुझ पर सबसे बड़ा प्रेशर यही था कि बीस शॉट मैं करूंगा कैसे? तो मैंने विनोद के ऊपर इतना प्रेशर डाल दिया था, रोज बोल-बोलकर कि विनोद बीस शॉट लेने हैं। ये करना है, ये करना है। तो मैंने कहा कि अगर ये नौ बजे का शॉट है तो अगर मैं दस बजे तक पहला शॉट ले पाऊं तो शायद हो जाए। पहले दिन पौने दस बजे हमलोग ने पहला शॉट शूट कर लिया। मैंने विनोद को फोन किया और कहा मैंने पहला शॉट ले लिया है पौने दस बजे। उसने कहा, 'वेरी गुड लगे रहो' और उस दिन हमने बाइस शॉट लिए थे। मुझे याद है मैंने फूल भेजे विनोद के यहां। मैंने कहा कमाल है। उसके बाद मुझे संजय मिला था। मैंने संयज को बताया कि बीस शॉट ले रहे हैं। तब मुझे संजय कहता है, बीस शॉट? उतना तो हम एक महीने में लेते थे।
- वो कितना बड़ा उत्साह होता है, जब आप डायरेक्टर के कुर्सी पर बैठे होते हैं।?
0 आय डोंट नो... मुझे लगता है कि उस टाइम एक जिम्मेदारी होती है। एक प्रेशर होता है। फस्र्ट फिल्म में तो यह प्रेशर था कि अब अपने जिम्मेदारी है। सबकुछ ठीक होना है। विनोद बिल्कुल शामिल नहीं होते हैं। वे पूरी जिम्मेदारी आपके ऊपर सौंप देते हैं। सब कुछ आपके ऊपर डाल देते हैं। उन्होंने पैसे बैंक में डाल दिए। ये चेक बुक है। आप साइन करवाकर करो। इतने में फिल्म बनानी है आपको। बात खत्म। फिर आप की जिम्मेदारी बन जाती है। अगर डायरेक्टर समझ ले कि पोजिशन ऑफ पावर में हूं, तो वो तो गलत एटीट्यूड होगा।
- पावर ऑफ क्र्रिएशन तो होता होगा?
0 नहीं उस टाइम... बोला जाए तो फटी पड़ी रहती है। कि टाइम पर खत्म नहीं हुआ तो मर जाऊंगा। ये लोकेशन मेरे पास नहीं है। मेरा तो छह-सात किलो वजन कम हो गया था 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' बनाते-बनाते।
- 'मुन्नाभाई...' रिलीज होने के तुरंत या उस दिन या उसके दो-चार दिन में जो हालत हुई या जिस ढंग से हुआ कि ये फिल्म तो गई। रिलीज के दो दिन तक पंद्रह-बीस प्रतिशत का कलेक्शन रहा?
0 रिलीज के दिन मुझे याद है, मैं गया था गेईटी सारे असिस्टेंट आए कि चलो-चलो फिल्म चलते हैं। मैं तो सो गया था उस दिन।
- कोई चिंता नहीं थी?
0 क्या हुआ कि हमलोगों ने बहुत लोगों को फिल्म दिखाई थी। कोई खरीद नहीं रहा था फिल्म। इतने डिस्ट्रीब्यूटर आए, सब देखते थे और बोलते थे ये बंबई के बाहर नहीं चलेगी। बंबई की भाषा ठाणे से आगे नहीं चलेगी। किसी ने नहीं खरीदी। आधी जगह विनोद ने रिलीज की। कई जगह नुकसान में विनोद को रिलीज करनी पड़ी। एक करोड़ अस्सी लाख कका नुकसान था, जिस समय फिल्म रिलीज हुई। किनोद ने कहा कि चलो कमा लेंगे। वीडियो वगैरह है, इसको कवर कर के हो जाएगा। तो उस प्रोसेस में हमने बहुत लोगों को फिल्म दिखाई। डिस्ट्रीब्यूटर खरीदते नहीं थे, लेकिन फ्रेंड देखते और बोलते थे कि यार बड़ी अच्छी पिक्चर है। मेरे को ये खुशी थी कि लोग फिल्म देखेंगे और बोलेंगे यार अच्छी फिल्म बनाई है। मुझे था कि मेरे मां-बाप देखेंगे। मेरी फैमिली देखेगी। मेरे दोस्त देखेंगे और बोलेंगे यार अच्छा काम किया। फिल्म चली या न चली ठीक है,काम तो अच्छा किया। वह संतोष था। रिलीज हुई उसके बाद थके हुए हालत में आकर सो गया घर में जाकर। मैं सोया हुआ था फोन आया दोपहर को। सोए नहीं थे कई महीनों से सो गए उस दिन। एक-डेढ़ बजे एसिस्टैंट का फोन आया। उसने कहा, सर जाकर फिल्म देखनी चाहिए। पब्लिक का रीएक्शन देखना चाहिए। तो हम पांच-छह लोग निकल गए गेईटी थिएटर में। अंदर घुसे... कोई जानता भी नहीं था उस टाइम। अंदर गए । मैंने गेटकीपर से पूछा कि कैसी है फिल्म? उसने अंगूठा उलट दिया। उस टाइम मेरे को लगा कि यार ये क्या हो गया? मै यह उम्मीद नहीं कर रहा था कि हंड्रेड परसेंट कलेक्शन होगा। यह था कि पचास परसेंट होगा । उसने अंगूठा उलटा किया तो मैं डर गया। अंदर गया तो कैरमबोर्ड वाला सीन चल रहा था उस समय। लोग हंस रहे, जम्प कर रहे हैं, एकाध को तो सीट पर उछलते हुए देखा। तालियां बजा रहे हैं। मैंने कहा ये ऐसे-ऐसे क्यों कर रहा है। ये तो साला लोगों को पसंद आ रही है। फिर समझ में आया कि वह बॉक्स ऑफिस की बात कर रहा था। यानी लोग ही नहीं है अंदर। फिर मैंने कहा पूरी फिल्म देखी नहीं तो, ये तो पहला ही शो चल रहा है, ये कैसे बकबास कर रहा है। फिर हम गए दूसरे थिएटर। गीता थिएटर वरली में, फिर मराठा मंदिर। फिर शाम को न्यू अम्पायर पहुंचे। वहां पहुंचते-पहुंचते जिस थिएटर में देखे कमाल का रिएक्शन। बोमन था न्यू अम्पायर के पास में रहता था। उसको बुलाया, बोला आकर देखो। वो आया तो रोने लगा, आंख से आंसू आ गए रिएक्शन देखकर। उसकी भी पहली फिल्म थी। मैंने कहा यार ऐसा होगा नहीं। लोग आने चाहिए। शाम को निकले तो नौ बजे का शो हाउसफुल था। श्याम श्राफ का फोन आया। वह डिस्ट्रीब्यूटर थे हमारे। वो कहते हैं कि मौखिक प्रचार से फिल्म चलती पर इतना फास्ट पिकअप करती है मैंने पहली बार देखा है। बारह बजे जिन लोगों ने फिल्म देखी, दोस्तों को फोन किया नाइट शो से कुछ-कुछ थिएटर में हाउसफुल होना शुरू हो गया।
- जब नेशनल अवार्ड मिल गया तब कैसा रहा?
0 ये आप ही ने बताया मुझे। नेशनल अवार्ड... मैं तब तक दूसरी फिल्म में लग गया था। पॉपूलर अवार्ड शुरू हुए। दिसंबर में रिलीज हुई फिल्म और फट-फट अवार्ड आने शुरू हुए। पहले अवार्ड तक तो लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। स्क्रीन अवार्ड हुए तो उसमें कोई ज्यादा नहीं थे। अभी रिलीज हुई थी तो लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि इसको कहां डालें। मुझे याद है कि प्रेस स्कीनिंग में किसी जर्नलिस्ट ने मुझसे कहा था कि सब देखकर निकले तो लोगों को लग रहा था कि पिक्चर अच्छी है। पर लोग ग्रेड वगैरह ठीक नहीं देना चाह रहे थे। एक-दूसरे से पूछ रहे थे कि क्या बोलें? क्योंकि एक तो संजय दत्त की पिक्चर। नाम 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' तो समझ में नहीं आता कि क्या... भाई की टाइप की फिल्म लगती है। संजय दत्त की लाइन से पंद्रह फिल्में फ्लॉप थीं। मन कह रहा था कि इसको भी ठीक से रेट नहीं दें। बड़ा कन्फ्यूजन सा था। वही बात अवार्ड के साथ भी हुई । बाद में भी फिर तारीफ मिलने लगी फिल्म को। नेशनल अवार्ड... अच्छा ही लगता है सुनकर कि गुड फीलिंग कि पसंद आई लोगों को।
- आखिरी सवाल... 'लगे रहो मुन्नाभाई' में गांधी जी को लाने की बात कहां से आई? आप कितना जरूरी मानते हैं गांधी को?
0 मैं बहुत गहराई से उन्हें मानता हूं।
- वर्धा में उनका आश्रम था। नागपुर के बहुत पास है? बचपन का कोई प्रभाव मानें क्या?
0 मुझ पर ऐसा कोई गहरा प्रभाव नहीं रहा। मैंने गांधी फिल्म देखी थी। वह मुझे बहुत अच्छी लगी थी। हमेशा उनमें कोई बात लगती थी। थोड़ी बहुत उनकी किताबें पढ़ी थीं। पर ऐसा नहीं था कि कोई फिल्म बनाऊंगा कभी, कुछ नहीं। पर एक बात लगती थी। सच में गांधी फिल्म देखने के बाद कि कुछ बात है इस आदमी में... कभी भी डिस्कशन हो जाए तो लोग कहते हैं आज के जमाने गांधी चल नहीं सकते। उस जमाने में चल गए उनके तरीके। मेरे को लगता था कि उन्होंने अलग ढंग से सोचा- हड़ताल उन्होंने सोची, कोई नहीं करता था। उपवास उन्होंने सोचा उस टाइम ... आज नहीं चलेंगे शायद पॉसिबल है। पर उस टाइम वो विचित्र तरीके खोजते थे कुछ। नमक उठाए ... कुछ एक बात थी उनमें, कुछ एक जीवनशैली कहूंगा। 'एमबीबीएस' के बाद मैंने बहुत पढऩा शुरू किया। ऐसे ही। कुछ किताबें मिली। पढ़ता चला गया। तब मुझे लगा कि इनको लेकर कुछ करना चाहिए। गांधी को गाली देना आज फैशन हो गया कि गांधी को कोई भी चीज के लिए दोषी ठहरा दो। दोष मढ़ऩा सबसे आसान काम है, क्योंकि उससे अपनी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। मुझे लगा कि कुछ कहना चाहिए। अगर ऐसे ही गांधी जी को लेकर कुछ कहेंगे तो कोई सुनेगा नहीं। बोलेंगे यार बोर कर रहा है। मैंने कहा मुन्नाभाई के साथ ही कुछ कर सकते हैं। डॉक्टरों को लेकर कुछ कहते हैं तो बोर करते हैं। मुन्नाभाई डॉक्टरों को लेकर कुछ करता है तो रुचि रहेगी। मैंने फिल्म में यही कहने की कोशिश की है कि उनके सिद्धांत आज भी चल सकते हैं। हमें उनमें विश्वास करना चाहिए। इस बात का मैं उपदेश नहीं दे सकता था। मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा है । कहीं ऐसा शब्दों में नहीं कहा है। मुन्नाभाई तरीके से हो रहा है, इंटरटेनिंग वजह से हो रहा है। इमोशनल वजह से हो रहा है। अभी तक मैं खुद संदेह में था कि कैसी प्र्र्रतिक्रिया मिलेगी। कल का रेस्पांस देखकर आया तो लगगा कि हम सफल होंगे। आज रात को बच्चन साहब देख रहे हैं।
- युवा और आकांक्षी डायरेक्टर के लिए क्या संदेश देंगे?
0 संदेश नहीं देना चाहिए। सलाह देना सबसे खतरनाक चीज है। मेरे खयाल में लोग खुद सीखते हैं। हर आदमी अपने-आप धक्के खाते हुए अपनी राह खोज लेता है। आदमी जो करना चाहे तो - गांधी जी की एक पंक्ति है - उद्देश्य खोजो,साधन मिल जाएंगे। क्या करना चाहते हो, खोजो रास्ता अपने आप निकल आएगा। अगर पैशन है तो वह होता है। मेरे साथ हुआ है। हो सकता है कि लोग मुझे भाग्यशाली कहें । फिर भी मैंने जहां तक देखा है, होता है। मैं दूसरे लोगो को भी देखता हूं। तय करो कि आप क्या करना चाहते हो, अगर लगन और चाव है तो अपने-आप रास्ता निकल आता है।
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Mera hausla aur bhi badh gaya.