फ़िल्म समीक्षा:मिशन इस्तांबुल
-अजय ब्रह्मात्मज
अपूर्व लाखिया ने मिशन इस्तांबुल में टेररिज्म के संदर्भ में एक्शन-थ्रिलर की कल्पना की है। यह फिल्म टेररिज्म पर नहीं है। हिंदी में बनी एक्शन फिल्मों में हम ऐसी चुनौतियों की कहानी देखते रहे हैं। नयापन यही है कि तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में घटनाएं घटती हैं और उसमें भारत से गया टीवी जर्नलिस्ट विकास सागर शामिल है। दूसरी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी लाजिक वगैरह न खोजें। बस एक्शन के रोमांच का अनुभव करें। विकास सागर देश के तेज-तर्रार और एक लोकप्रिय चैनल के स्टार रिपोर्टर हैं। वह एंकरिंग भी कर लेते हंै। अपने काम में मशगूल रहने के कारण विकास बीवी अंजलि को ज्यादा समय नहीं दे पाते। बीवी भी जर्नलिस्ट है, लेकिन वह इसी वजह से तलाक लेना चाहती है। मालूम नहीं, हमारे फिल्मकार कामकाजी दंपतियों के बीच तालमेल बिठाना कब सीखेंगे? बहरहाल, विकास तुर्की के अल जोहरा चैनल का आफर स्वीकार करता है और इस्तांबुल पहुंच जाता है। वहां उसकी मुलाकात गजनी और अल ओवाइस से होती है। टेररिज्म की गतिविधियों के कवरेज के दौरान उसे अपने चैनल के कार्याकलाप पर शक होता है। उसके शक को रिजवान खान पुख्ता कर देता है। वह उसे सावधान करता है कि अब उसका इस चैनल से निकलना मुश्किल है, क्योंकि चैनल छोड़नेवालों को दुनिया ही छोड़नी पड़ती है। विकास टेररिस्ट सरगना गजनी के भारत संबंधी नापाक इरादों की जानकारी सरकार तक पहुंचाना चाहता है। उसकी मदद में रिजवान खान आता है। उसे टेररिस्टों से इसलिए बदला लेना है कि एक आतंकवादी हमले में उसकी बीवी और बेटी हलाक हो गई थीं। रिजवान और विकास मिल कर आतंकवादियों के सारे मंसूबों पर पानी फेर देते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि फिल्म के अंत में विकास की बीवी अंजलि भी उसे मिल जाती है। अपूर्व लाखिया ने सुरेश नायर के साथ मिल कर फिल्म लिखी है। उन्होंने कहीं भी यह दिखाने या बताने की कोशिश नहीं की है कि वे टेररिज्म पर फिल्म बना रहे हैं। फिल्म बड़े ही चुस्त तरीके से आधार रच देती है। ज्यादा प्रसंग और घटनाएं नहीं हैं। नायक और खलनायक को आमने-सामने खड़ा करने के बाद एक्शन आरंभ हो जाता है। एक्शन कहीं हैरतअंगेज है तो कहीं घिसा-पिटा है। एक्शन फिल्मों में आधुनिक हथियारों से लड़ने के बावजूद आखिरी फैसला कुश्ती से ही होता है। यह सिर्फ हिंदी फिल्मों की समस्या नहीं है। हालीवुड में भी यही होता है। फिल्मकार कहते हैं कि कुश्ती के बाद आम दर्शक को जीत का अहसास होता है। उसे लगता है कि हीरो की तरह वह भी दुश्मनों को हरा सकता है। अपूर्व ने फिल्म के एक्शन डायरेक्टर से अच्छा काम लिया है। निकितन धीर और शब्बीर आहलूवालिया निराश नहीं करते। सुनील शेट्टी छोटी सी भूमिका में प्रभाव छोड़ जाते हैं। अभिनेत्रियों में श्र्वेता भारद्वाज से उम्मीद बनती है। श्रिया सरन साधारण हैं। फिल्म के गीत-संगीत में तुर्की का अहसास है। अपूर्व ने फिल्म को छोटा रखा है। अच्छी बात है कि व्यर्थ के विस्तार में न जाकर उन्होंने एक्शन पर ही सारा ध्यान केंद्रित किया है। यहां तक कि पे्रम कहानी में भी वह नहीं उलझे हैं। उनकी यह फिल्म युवा दर्शकों को पसंद आएगी।
अपूर्व लाखिया ने मिशन इस्तांबुल में टेररिज्म के संदर्भ में एक्शन-थ्रिलर की कल्पना की है। यह फिल्म टेररिज्म पर नहीं है। हिंदी में बनी एक्शन फिल्मों में हम ऐसी चुनौतियों की कहानी देखते रहे हैं। नयापन यही है कि तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में घटनाएं घटती हैं और उसमें भारत से गया टीवी जर्नलिस्ट विकास सागर शामिल है। दूसरी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी लाजिक वगैरह न खोजें। बस एक्शन के रोमांच का अनुभव करें। विकास सागर देश के तेज-तर्रार और एक लोकप्रिय चैनल के स्टार रिपोर्टर हैं। वह एंकरिंग भी कर लेते हंै। अपने काम में मशगूल रहने के कारण विकास बीवी अंजलि को ज्यादा समय नहीं दे पाते। बीवी भी जर्नलिस्ट है, लेकिन वह इसी वजह से तलाक लेना चाहती है। मालूम नहीं, हमारे फिल्मकार कामकाजी दंपतियों के बीच तालमेल बिठाना कब सीखेंगे? बहरहाल, विकास तुर्की के अल जोहरा चैनल का आफर स्वीकार करता है और इस्तांबुल पहुंच जाता है। वहां उसकी मुलाकात गजनी और अल ओवाइस से होती है। टेररिज्म की गतिविधियों के कवरेज के दौरान उसे अपने चैनल के कार्याकलाप पर शक होता है। उसके शक को रिजवान खान पुख्ता कर देता है। वह उसे सावधान करता है कि अब उसका इस चैनल से निकलना मुश्किल है, क्योंकि चैनल छोड़नेवालों को दुनिया ही छोड़नी पड़ती है। विकास टेररिस्ट सरगना गजनी के भारत संबंधी नापाक इरादों की जानकारी सरकार तक पहुंचाना चाहता है। उसकी मदद में रिजवान खान आता है। उसे टेररिस्टों से इसलिए बदला लेना है कि एक आतंकवादी हमले में उसकी बीवी और बेटी हलाक हो गई थीं। रिजवान और विकास मिल कर आतंकवादियों के सारे मंसूबों पर पानी फेर देते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि फिल्म के अंत में विकास की बीवी अंजलि भी उसे मिल जाती है। अपूर्व लाखिया ने सुरेश नायर के साथ मिल कर फिल्म लिखी है। उन्होंने कहीं भी यह दिखाने या बताने की कोशिश नहीं की है कि वे टेररिज्म पर फिल्म बना रहे हैं। फिल्म बड़े ही चुस्त तरीके से आधार रच देती है। ज्यादा प्रसंग और घटनाएं नहीं हैं। नायक और खलनायक को आमने-सामने खड़ा करने के बाद एक्शन आरंभ हो जाता है। एक्शन कहीं हैरतअंगेज है तो कहीं घिसा-पिटा है। एक्शन फिल्मों में आधुनिक हथियारों से लड़ने के बावजूद आखिरी फैसला कुश्ती से ही होता है। यह सिर्फ हिंदी फिल्मों की समस्या नहीं है। हालीवुड में भी यही होता है। फिल्मकार कहते हैं कि कुश्ती के बाद आम दर्शक को जीत का अहसास होता है। उसे लगता है कि हीरो की तरह वह भी दुश्मनों को हरा सकता है। अपूर्व ने फिल्म के एक्शन डायरेक्टर से अच्छा काम लिया है। निकितन धीर और शब्बीर आहलूवालिया निराश नहीं करते। सुनील शेट्टी छोटी सी भूमिका में प्रभाव छोड़ जाते हैं। अभिनेत्रियों में श्र्वेता भारद्वाज से उम्मीद बनती है। श्रिया सरन साधारण हैं। फिल्म के गीत-संगीत में तुर्की का अहसास है। अपूर्व ने फिल्म को छोटा रखा है। अच्छी बात है कि व्यर्थ के विस्तार में न जाकर उन्होंने एक्शन पर ही सारा ध्यान केंद्रित किया है। यहां तक कि पे्रम कहानी में भी वह नहीं उलझे हैं। उनकी यह फिल्म युवा दर्शकों को पसंद आएगी।
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dhanyavad apne mera samay bacha diya.
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