हानि हमारे महाभारत की
-अजय ब्रह्मात्मज
चैनल 9 एक्स पर कहानी हमारे महाभारत की आरंभ हुआ है। इस धारावाहिक को हम लेखक, निर्देशक या शोधकर्ता के नाम से नहीं पहचान रहे हैं, बल्कि इसे एकता कपूर का धारावाहिक कहा जा रहा है। एकता की प्रोडक्शन कंपनी विभिन्न चैनलों के लिए दर्जन से अधिक धारावाहिकों का निर्माण करती है। यह भी उनमें से ही एक धारावाहिक बन चुका है। इसकी दो हफ्तों की कडि़यां देख चुके दर्शकों को भारी निराशा हुई है। उनका मानना है कि यह कहानी नहीं, बल्कि हानि हमारे महाभारत की है!
दूरदर्शन के दिनों में धारावाहिक उनके निर्देशकों के नाम से जाने जाते थे। उन दिनों निर्देशक ही निर्माता होते थे या यों कहें कि निर्माता-निर्देशक भी होते थे। रामानंद सागर, बी.आर. चोपड़ा, संजय खान और डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के धारावाहिकों की सोच, दिशा और क्वालिटी पर उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा की छाप थी। वे सभी निर्देशक होने के साथ ही विचार-संपन्न व्यक्ति भी थे, जिनकी धारावाहिकों की भूमिका और प्रभाव को लेकर एक सुनिश्चित सोच थी। एकता कपूर महज एक निर्माता हैं। सच तो यह है कि एक मेकर या निर्देशक के रूप में उनकी कोई पहचान नहीं है। उन्हें इस धारावाहिक के लिए समर्थ, योग्य और सक्षम निर्देशक का चुनाव करना चाहिए था। अब भी देर नहीं हुई है। याद करें कि स्टार प्लस ने भी एक महाभारत की उद्घोषणा की थी। उसे बॉबी बेदी का महाभारत कहा गया था। बॉबी भी निर्माता हैं। हालांकि उन्होंने डॉ. द्विवेदी को अपना निर्देशक नियुक्त किया था, लेकिन उन्हें पूरा क्रेडिट देने में वे सकुचा गए। उसकेअटकने में बड़ी बाधा स्वयं बॉबी हैं। क्रिएटिव असहमति के कारण उसे डॉ. द्विवेदी छोड़ चुके हैं। उम्मीद है कहानी हमारे.. से बॉबी सबक लेंगे और पूरी तैयारी के साथ आएंगे। ऐसा लगता है कि एकता और बॉबी के लिए महाभारत का निर्माण पैशन से अधिक पैसों का खेल है। उन्हें प्रसारित करने वाले चैनलों के लिए टीआरपी की गारंटी, जो आखिरकार कमाई में तब्दील हो जाएगी। उन्हें लगता है कि भारतीय मानस में सदियों से पॉपुलर रहे इस एपिक को धारावाहिक का रूप देकर वे करोड़ों की कमाई कर सकते हैं। इस लालसा में दोनों ने कॉन्टेंट से अधिक पैकेजिंग पर ध्यान दिया। उपभोक्ता संस्कृति के इस दौर में सीरियल, टीवी शो, फिल्म और दूसरे एंटरटेंमेंट इवेंट प्रोडक्ट बन गए हैं। उनकी जबर्दस्त मार्केटिंग की जाती है और दर्शकों को लुभाने, बिठाने और फांसने के लिए तिकड़मी जाल बिछाए जाते हैं और इसमें दर्शक फंस भी जाते हैं।
एकता के कहानी.. पहले ही एपिसोड से दर्शकों की धारणा और रुचि से पलट प्रवृत्ति का पालन कर रही है। रजस्वला द्रौपदी को श्रृंगार करते दिखाने की भारी गलती उनसे हो गई है। पहले एपिसोड में सिंदूर गिरने से जो ड्रामा क्रिएट हुआ, वह सास-बहू टाइप के सीरियल के लिए तो उचित है, लेकिन पौराणिक और धार्मिक धारावाहिक में ऐसी छूट लेने की कतई अनुमति नहीं दी जा सकती। मजे की बात तो यह है कि हड़बड़ी में आरंभ किए गए इस धारावाहिक की आरंभिक कडि़यों में महत्वपूर्ण चरित्रों की प्रतिक्रियाओं को दिखाया ही नहीं गया। वजह यह थी कि उन कलाकारों का तब तक चयन ही नहीं हुआ था और जो चुने भी गए, उन कलाकारों के चयन में असावधानी बरती गई है! बालाजी कैंप में मौजूद कलाकारों को जबरन पौराणिक परिधान पहना कर कैमरे के सामने खड़ा कर दिया गया। मानो टमटम में अकेली जुतने वाली घोडि़यों को रथ में जोत दिया गया हो! जाहिर है, रथ खींचने का कौशल अलग और सामूहिक होता है। अधिकांश कलाकारों को हम अन्य भूमिकाओं में देखते रहे हैं और देख भी रहे हैं और इसीलिए दुर्योधन, द्रौपदी, गंगा आदि के चरित्रों के रूप में हम उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
महाभारत के चरित्रों की वेशभूषा को कैलेंडर आर्ट से अलग करना उचित है, लेकिन उसे ग्रीक और रोमन शैली में ढाल देना किसी अपराध से कम नहीं है। लहराते वस्त्र पर्दे पर नयनाभिरामी जरूर लग सकते हैं, लेकिन सौंदर्यबोध के स्तर पर वे भारतीय परिवेश का बोध बिल्कुल नहीं कराते। ऐसा लगता है कि पीटर बु्रक की प्रस्तुति से कुछ तत्व लेकर उन्हें आधुनिक रूप दे दिया गया है! सच तो यह है कि यहां भी एक जल्दबाजी दिखाई पड़ती है। इन सबसे अधिक खटकती है भाषा। इन कलाकारों के हिंदी उच्चारण पर ध्यान देने की जरूरत है। वे युद्ध को युध तो न बोलें। द को ध और हैं को है सुनना पड़े, तो धारावाहिक के क्रम बाधित होते हैं। कुछ हफ्तों में दर्शकों की प्रतिक्रियाएं आरंभ हो जाएंगी। इस बात की उम्मीद कम है कि कहानी.. इस स्वरूप में पॉपुलर होगा और अगर किसी प्रकार यह पॉपुलर हो भी गया, तो वह देश के सांस्कृतिक परिवेश के लिए बुरा होगा, क्योंकि हम अपने महाकाव्य के प्रति दूषित और भ्रमित धारणा बना लेंगे।
चैनल 9 एक्स पर कहानी हमारे महाभारत की आरंभ हुआ है। इस धारावाहिक को हम लेखक, निर्देशक या शोधकर्ता के नाम से नहीं पहचान रहे हैं, बल्कि इसे एकता कपूर का धारावाहिक कहा जा रहा है। एकता की प्रोडक्शन कंपनी विभिन्न चैनलों के लिए दर्जन से अधिक धारावाहिकों का निर्माण करती है। यह भी उनमें से ही एक धारावाहिक बन चुका है। इसकी दो हफ्तों की कडि़यां देख चुके दर्शकों को भारी निराशा हुई है। उनका मानना है कि यह कहानी नहीं, बल्कि हानि हमारे महाभारत की है!
दूरदर्शन के दिनों में धारावाहिक उनके निर्देशकों के नाम से जाने जाते थे। उन दिनों निर्देशक ही निर्माता होते थे या यों कहें कि निर्माता-निर्देशक भी होते थे। रामानंद सागर, बी.आर. चोपड़ा, संजय खान और डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के धारावाहिकों की सोच, दिशा और क्वालिटी पर उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा की छाप थी। वे सभी निर्देशक होने के साथ ही विचार-संपन्न व्यक्ति भी थे, जिनकी धारावाहिकों की भूमिका और प्रभाव को लेकर एक सुनिश्चित सोच थी। एकता कपूर महज एक निर्माता हैं। सच तो यह है कि एक मेकर या निर्देशक के रूप में उनकी कोई पहचान नहीं है। उन्हें इस धारावाहिक के लिए समर्थ, योग्य और सक्षम निर्देशक का चुनाव करना चाहिए था। अब भी देर नहीं हुई है। याद करें कि स्टार प्लस ने भी एक महाभारत की उद्घोषणा की थी। उसे बॉबी बेदी का महाभारत कहा गया था। बॉबी भी निर्माता हैं। हालांकि उन्होंने डॉ. द्विवेदी को अपना निर्देशक नियुक्त किया था, लेकिन उन्हें पूरा क्रेडिट देने में वे सकुचा गए। उसकेअटकने में बड़ी बाधा स्वयं बॉबी हैं। क्रिएटिव असहमति के कारण उसे डॉ. द्विवेदी छोड़ चुके हैं। उम्मीद है कहानी हमारे.. से बॉबी सबक लेंगे और पूरी तैयारी के साथ आएंगे। ऐसा लगता है कि एकता और बॉबी के लिए महाभारत का निर्माण पैशन से अधिक पैसों का खेल है। उन्हें प्रसारित करने वाले चैनलों के लिए टीआरपी की गारंटी, जो आखिरकार कमाई में तब्दील हो जाएगी। उन्हें लगता है कि भारतीय मानस में सदियों से पॉपुलर रहे इस एपिक को धारावाहिक का रूप देकर वे करोड़ों की कमाई कर सकते हैं। इस लालसा में दोनों ने कॉन्टेंट से अधिक पैकेजिंग पर ध्यान दिया। उपभोक्ता संस्कृति के इस दौर में सीरियल, टीवी शो, फिल्म और दूसरे एंटरटेंमेंट इवेंट प्रोडक्ट बन गए हैं। उनकी जबर्दस्त मार्केटिंग की जाती है और दर्शकों को लुभाने, बिठाने और फांसने के लिए तिकड़मी जाल बिछाए जाते हैं और इसमें दर्शक फंस भी जाते हैं।
एकता के कहानी.. पहले ही एपिसोड से दर्शकों की धारणा और रुचि से पलट प्रवृत्ति का पालन कर रही है। रजस्वला द्रौपदी को श्रृंगार करते दिखाने की भारी गलती उनसे हो गई है। पहले एपिसोड में सिंदूर गिरने से जो ड्रामा क्रिएट हुआ, वह सास-बहू टाइप के सीरियल के लिए तो उचित है, लेकिन पौराणिक और धार्मिक धारावाहिक में ऐसी छूट लेने की कतई अनुमति नहीं दी जा सकती। मजे की बात तो यह है कि हड़बड़ी में आरंभ किए गए इस धारावाहिक की आरंभिक कडि़यों में महत्वपूर्ण चरित्रों की प्रतिक्रियाओं को दिखाया ही नहीं गया। वजह यह थी कि उन कलाकारों का तब तक चयन ही नहीं हुआ था और जो चुने भी गए, उन कलाकारों के चयन में असावधानी बरती गई है! बालाजी कैंप में मौजूद कलाकारों को जबरन पौराणिक परिधान पहना कर कैमरे के सामने खड़ा कर दिया गया। मानो टमटम में अकेली जुतने वाली घोडि़यों को रथ में जोत दिया गया हो! जाहिर है, रथ खींचने का कौशल अलग और सामूहिक होता है। अधिकांश कलाकारों को हम अन्य भूमिकाओं में देखते रहे हैं और देख भी रहे हैं और इसीलिए दुर्योधन, द्रौपदी, गंगा आदि के चरित्रों के रूप में हम उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
महाभारत के चरित्रों की वेशभूषा को कैलेंडर आर्ट से अलग करना उचित है, लेकिन उसे ग्रीक और रोमन शैली में ढाल देना किसी अपराध से कम नहीं है। लहराते वस्त्र पर्दे पर नयनाभिरामी जरूर लग सकते हैं, लेकिन सौंदर्यबोध के स्तर पर वे भारतीय परिवेश का बोध बिल्कुल नहीं कराते। ऐसा लगता है कि पीटर बु्रक की प्रस्तुति से कुछ तत्व लेकर उन्हें आधुनिक रूप दे दिया गया है! सच तो यह है कि यहां भी एक जल्दबाजी दिखाई पड़ती है। इन सबसे अधिक खटकती है भाषा। इन कलाकारों के हिंदी उच्चारण पर ध्यान देने की जरूरत है। वे युद्ध को युध तो न बोलें। द को ध और हैं को है सुनना पड़े, तो धारावाहिक के क्रम बाधित होते हैं। कुछ हफ्तों में दर्शकों की प्रतिक्रियाएं आरंभ हो जाएंगी। इस बात की उम्मीद कम है कि कहानी.. इस स्वरूप में पॉपुलर होगा और अगर किसी प्रकार यह पॉपुलर हो भी गया, तो वह देश के सांस्कृतिक परिवेश के लिए बुरा होगा, क्योंकि हम अपने महाकाव्य के प्रति दूषित और भ्रमित धारणा बना लेंगे।
Comments
असलियत में क्या हुआ होगा वो युद्ध जैसा केकता जी कफिल्मायेंगी
कोस के क्या करेंगें कहानी कमहाभारत की को
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मैं तो कहता हूँ कि एनानिमश बनकर कमेन्ट करना ठीक नहीं है.