फ़िल्म समीक्षा:खेला

तनाव का पाजिटिव अंत
-अजय ब्रह्मात्मज
रितुपर्णो घोष की खेला संवेदना और विषय के आधार पर हिंदी साहित्य में नई कहानी के दौर की याद दिलाती है। स्त्री-पुरुष संबंधों में निहित द्वंद्व और पार्थक्य को देश के साहित्यकारों और फिल्मकारों ने अलग-अलग नजरिए से चित्रित किया है। रितुपर्णो घोष स्त्री-पुरुष संबंध के तनाव को इस फिल्म में नया अंत देते हैं।
खेला राजा और शीला की कहानी है। राजा फिल्ममेकर है। वह अपनी फिल्म के लिए किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता। राजा फिल्म बनाने के सपने में इस कदर लिप्त और व्यस्त रहता है कि वह शीला के लिए पर्याप्त समय नहीं निकाल पाता। शीला की सोच गृहिणी की है। वह राजा को गृहस्थी की चिंताओं में भी देखना चाहती है। स्थिति यह आती है कि दोनों अलग हो जाते हैं। राजा अपनी फिल्म में डूब जाता है। उधर शीला अपने एकाकीपन से त्रस्त होकर राजा के पास अलगाव के कागजात भिजवा देती है। रितुपर्णो घोष ने ऐसे विषयों पर 15-20 साल पहले बन रही फिल्मों की तरह कथित नारीवाद का नारा नहीं लगाया है और न पुरुष को उसके सपनों के लिए दुत्कारा है। फिल्म के अंत में राजा और शीला एक साथ रहने का फैसला करते हैं और इस तरह उनके बीच मौजूद तनाव का पाजिटिव अंत होता है।
फिल्म में प्रोसेनजीत और मनीषा कोईराला मुख्य किरदारों को निभाते हैं। प्रोसेनजीत ने युवा फिल्मकार की मुश्किलों और दुविधाओं को अच्छी तरह पर्दे पर उतारा है। मनीषा कोईराला का सधा अभिनय चरित्र के अनुकूल है। राइमा सेन भी अपने किरदार के साथ न्याय करती हैं। खेला का आकर्षण छोटा बच्चा है। उसकी मासूमियत आकर्षित करती है।
रितुपर्णो घोष की ऐसी फिल्में कहानी की तरह होती हैं। उनमें न तो औपन्यासिक विस्तार होता है और न बहुआयामी चरित्र होते हैं। ऐसी फिल्मों को देखने का एक अलग आनंद होता है। बांग्ला में बनी यह फिल्म हिंदी में डब की गई है। अगर डबिंग पर थोड़ा ध्यान दिया गया होता तो फिल्म का प्रभाव और बेहतर होता।

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