जाने तू.. देखकर सभी को मजा आएगा: अब्बास टायरवाला
अब्बास टायरवाला ने निर्देशन से पहले फिल्मों के लिए गीत और स्क्रिप्ट लिखे। लगातार लेखन के बाद एक दौर ऐसा भी आया, जब उन्हें न ही कुछ सूझ रहा था और न कुछ नया लिखने की प्रेरणा ही मिल पा रही थी! इसी दौर में उन्होंने निर्देशन में उतरने का फैसला किया और अपनी भावनाओं को जानू तू या जाने ना का रूप दिया। यह फिल्म चार जुलाई को रिलीज हो रही है। बातचीत अब्बास टायरवाला से..
जाने तू या जाने ना नाम सुनते ही एक गीत की याद आती है। क्या उस गीत से प्रेरित है यह फिल्म?
बिल्कुल है। यह मेरा प्रिय गीत है। गौर करें, तो पाएंगे कि इतने साल बाद भी इस गीत का आकर्षण कम नहीं हुआ है। पुराने गीतों की बात ही निराली है। इन दिनों एक फैशन भी चला है। नई फिल्मों के शीर्षक के लिए किसी पुराने गीत के बोल उठा लेते हैं। फिल्म की थीम के बारे में जब मुझे पता चला कि प्यार है, तो इसके लिए मुझे जाने तू या जाने ना बोल अच्छे लगे। इस गीत में खुशी का अहसास है, क्योंकि यह लोगों को उत्साह देता है। मैंने इसी तरह की फिल्म बनाने की कोशिश की है। कोशिश है कि फिल्म लोगों को खुशी दे।
जाने तू या जाने ना के किरदार इसी दुनिया के हैं या आजकल की फिल्मों की तरह उनकी अपनी एक काल्पनिक दुनिया है?
इस फिल्म में लंबे समय बाद हमें इस दुनिया के किरदार देखने को मिलेंगे। वैसे हिंदी फिल्मों में हमारे किरदार वास्तविक नहीं होते। ऐसा लगता है कि या तो हमें वास्तविक दुनिया को भूलने के लिए मजबूर किया गया है, या हम खुद ही उसे भूल जाना चाहते हैं। इसकी वजह यह भी है कि हमें बैंकॉक में मुंबई दिखाना है, लंदन के किसी कॉलेज में जेवियर कॉलेज दिखाना है और हमें ऑस्ट्रेलिया के किसी सड़क को भारत की सड़क बताना है। कहीं न कहीं, यह सोच बैठ गई है कि हमारे शहर और हमारा देश इतना खूबसूरत नहीं है। अमूमन हम अपने शहर को घिनौने या बदसूरत रूप में ही दिखाते हैं। हम गली-कूचों में तभी जाते हैं, जब अंडरवर्ल्ड दिखाना होता है। इन कथित खामियों और कमियों के बावजूद इस देश का एक रंग है। मुंबई हमें फिल्मों में नहीं दिखती। मुंबई के समंदर का रंग नीला नहीं है। धूसर, भूरा और गंदा रंग है, लेकिन उसके सामने बैठ कर जो मोहब्बत करते हैं, उन्हें वह बहुत ही रोमांटिक लगता है। मैं चाहता था कि अपने शहर को ही दिखाऊं। इस शहर के रंग, भाषा, माहौल और आशिकी को मैंने पकड़ने और दिखाने की कोशिश की है। फिल्म का हर किरदार मेरी याद, मेरे दोस्तों और मेरे किसी दौर से जुड़ा हुआ है। इसके साथ ही यह परियों की कहानी की तरह है और इसीलिए प्यार, मोहब्बत, अहसास और झगड़े भी हैं इसमें।
प्यार-मोहब्बत और अहसास तो हम हर फिल्म में देखते हैं। इस फिल्म में यह किस तरह अलग है?
लोगों ने अवश्य देखी होगी ऐसी फिल्में, लेकिन उन्होंने इस शहर में इस जिंदगी की और हम लोगों की कहानी नहीं देखी होगी। लोगों ने बॉलीवुड की अलग मायानगरी देखी है। जाने.. की मुस्कुराहट और खुशी लोगों को अपनी लगेगी। उन्हें अपनी भाषा में आसपास की कहानी दिखेगी। लव स्टोरी के साथ इसमें कई मसाले भी होंगे।
ऐसा क्यों हो रहा है कि सारे लेखक एक समय के बाद निर्देशक हो जाते हैं और सारे युवा निर्देशक अपनी फिल्में खुद लिखते हैं? पहले तो ऐसा नहीं था?
पहले का दौर अलग था। तब काम का बंटवारा था। आज के दौर में फिल्मों की मांग बढ़ गई है और एक सच यह भी है कि कॉरपोरेट प्रभाव बढ़ने के कारण फिल्म बनाने के अधिक मौके भी अब ज्यादा मिलने लगे हैं। आपके पास कोई नया आइडिया हो, तो आप निर्देशक बन सकते हैं। निर्देशक बनने में कम जोखिम है। मैं कहना चाहूंगा कि ज्यादातर निर्देशकों को फिल्में नहीं मिलनी चाहिए। अपने छोटे से करियर में मुझे लगा कि मैं दूसरों से बुरी फिल्म नहीं बनाऊंगा। लेखक होने के कारण यह आत्मविश्वास है। इसके साथ ही मेरे मां-पिता ने सिखाया कि अगर एक काम कोई और कर सकता है, तो मैं भी मेहनत कर उस काम को उसी स्तर का या उस से बढि़या कर सकता हूं। देखना है कि यह बात सही उतरती है या मैं मुंह की खाऊंगा..!
स्क्रिप्ट लिखते समय कोई ऐक्टर ध्यान में था क्या?
मैंने कभी ऐक्टर की इमेज को लेकर फिल्म नहीं लिखी। शाहरुख खान की दोनों फिल्में अशोका और मैं हूं ना उदाहरण हैं। इस फिल्म के लेखन के समय तो इमरान खान कहीं थे ही नहीं! मैं किसी स्टार को ध्यान में रख कर फिल्म कभी नहीं लिखूंगा। मेरे लिए यह नामुमकिन है।
क्या यह मालूम था कि फिल्म का अदिति.. गीत इतना पॉपुलर हो जाएगा?
ए.आर. रहमान ने जब यह धुन पहली बार सुनाई थी, तभी मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि यह गीत पॉपुलर होगा। वैसे यूनिट के लोगों को लगता था कि पप्पू.. ज्यादा हिट होगा। तब मैं सभी से यही कहता था कि अदिति.. सभी की जुबान पर चढ़ जाएगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसमें नई बात सरल तरीके और मधुर धुन के साथ कही गई है। जब प्रोमो बने, तब भी सबकी राय यही थी कि पप्पू.. का प्रोमो पहले चलाना चाहिए। मैं चाहता था कि अदिति.. ही पहले चले। मैंने आमिर खान से भी कहा। उन्होंने कहा कि अगर निर्देशक होने के नाते आपको यह गीत पहले चलाना है, तो हम इसे ही पहले चलाएंगे।
जाने तू.. यूथफुल लग रही है?
प्रोमोशन देख कर ऐसा लग सकता है। मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि यह फिल्म यूथ के बारे में जरूर है, लेकिन सभी के देखने लायक है। यह मेरा दर्शकों से वादा है कि इसे देखने के बाद कोई नहीं कह सकता कि हमें मजा नहीं आया। बहुत सारे भाव, रस, किरदार और बातें हैं, जो हर उम्र के दर्शकों को लुभाएंगे।
लेखक और गीतकार होने के कारण निर्देशक अब्बास को कितनी मदद मिली?
चूंकि सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी, इसीलिए मुझे बहुत खुशी मिली। मैं यहां बताना चाहूंगा कि मुझसे पहले केवल गुलजार साहब ने ही अपनी फिल्मों के गीत, स्क्रिप्ट और कहानी लिखे हैं।
दर्शक क्यों जाएं आपकी फिल्म देखने?
मैंने सच्चाई से फिल्म बनाई है। इसमें उमंग, भावना, दोस्ती और प्यार की यात्रा है। इस यात्रा में लोगों को पूरा आनंद आएगा। यह फिल्म किसी को बुरी नहीं लगेगी। यह या तो लोगों को पसंद आएगी या बहुत पसंद आएगी। यह मेरा आत्मविश्वास है। मैं अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर लोगों को फिल्म देखने के लिए आमंत्रित करता हूं। लोग दोस्त और परिवार के साथ इसे देखें। मेरी बात का यकीन करें कि उनका शुक्रवार बर्बाद नहीं होगा।
जाने तू या जाने ना नाम सुनते ही एक गीत की याद आती है। क्या उस गीत से प्रेरित है यह फिल्म?
बिल्कुल है। यह मेरा प्रिय गीत है। गौर करें, तो पाएंगे कि इतने साल बाद भी इस गीत का आकर्षण कम नहीं हुआ है। पुराने गीतों की बात ही निराली है। इन दिनों एक फैशन भी चला है। नई फिल्मों के शीर्षक के लिए किसी पुराने गीत के बोल उठा लेते हैं। फिल्म की थीम के बारे में जब मुझे पता चला कि प्यार है, तो इसके लिए मुझे जाने तू या जाने ना बोल अच्छे लगे। इस गीत में खुशी का अहसास है, क्योंकि यह लोगों को उत्साह देता है। मैंने इसी तरह की फिल्म बनाने की कोशिश की है। कोशिश है कि फिल्म लोगों को खुशी दे।
जाने तू या जाने ना के किरदार इसी दुनिया के हैं या आजकल की फिल्मों की तरह उनकी अपनी एक काल्पनिक दुनिया है?
इस फिल्म में लंबे समय बाद हमें इस दुनिया के किरदार देखने को मिलेंगे। वैसे हिंदी फिल्मों में हमारे किरदार वास्तविक नहीं होते। ऐसा लगता है कि या तो हमें वास्तविक दुनिया को भूलने के लिए मजबूर किया गया है, या हम खुद ही उसे भूल जाना चाहते हैं। इसकी वजह यह भी है कि हमें बैंकॉक में मुंबई दिखाना है, लंदन के किसी कॉलेज में जेवियर कॉलेज दिखाना है और हमें ऑस्ट्रेलिया के किसी सड़क को भारत की सड़क बताना है। कहीं न कहीं, यह सोच बैठ गई है कि हमारे शहर और हमारा देश इतना खूबसूरत नहीं है। अमूमन हम अपने शहर को घिनौने या बदसूरत रूप में ही दिखाते हैं। हम गली-कूचों में तभी जाते हैं, जब अंडरवर्ल्ड दिखाना होता है। इन कथित खामियों और कमियों के बावजूद इस देश का एक रंग है। मुंबई हमें फिल्मों में नहीं दिखती। मुंबई के समंदर का रंग नीला नहीं है। धूसर, भूरा और गंदा रंग है, लेकिन उसके सामने बैठ कर जो मोहब्बत करते हैं, उन्हें वह बहुत ही रोमांटिक लगता है। मैं चाहता था कि अपने शहर को ही दिखाऊं। इस शहर के रंग, भाषा, माहौल और आशिकी को मैंने पकड़ने और दिखाने की कोशिश की है। फिल्म का हर किरदार मेरी याद, मेरे दोस्तों और मेरे किसी दौर से जुड़ा हुआ है। इसके साथ ही यह परियों की कहानी की तरह है और इसीलिए प्यार, मोहब्बत, अहसास और झगड़े भी हैं इसमें।
प्यार-मोहब्बत और अहसास तो हम हर फिल्म में देखते हैं। इस फिल्म में यह किस तरह अलग है?
लोगों ने अवश्य देखी होगी ऐसी फिल्में, लेकिन उन्होंने इस शहर में इस जिंदगी की और हम लोगों की कहानी नहीं देखी होगी। लोगों ने बॉलीवुड की अलग मायानगरी देखी है। जाने.. की मुस्कुराहट और खुशी लोगों को अपनी लगेगी। उन्हें अपनी भाषा में आसपास की कहानी दिखेगी। लव स्टोरी के साथ इसमें कई मसाले भी होंगे।
ऐसा क्यों हो रहा है कि सारे लेखक एक समय के बाद निर्देशक हो जाते हैं और सारे युवा निर्देशक अपनी फिल्में खुद लिखते हैं? पहले तो ऐसा नहीं था?
पहले का दौर अलग था। तब काम का बंटवारा था। आज के दौर में फिल्मों की मांग बढ़ गई है और एक सच यह भी है कि कॉरपोरेट प्रभाव बढ़ने के कारण फिल्म बनाने के अधिक मौके भी अब ज्यादा मिलने लगे हैं। आपके पास कोई नया आइडिया हो, तो आप निर्देशक बन सकते हैं। निर्देशक बनने में कम जोखिम है। मैं कहना चाहूंगा कि ज्यादातर निर्देशकों को फिल्में नहीं मिलनी चाहिए। अपने छोटे से करियर में मुझे लगा कि मैं दूसरों से बुरी फिल्म नहीं बनाऊंगा। लेखक होने के कारण यह आत्मविश्वास है। इसके साथ ही मेरे मां-पिता ने सिखाया कि अगर एक काम कोई और कर सकता है, तो मैं भी मेहनत कर उस काम को उसी स्तर का या उस से बढि़या कर सकता हूं। देखना है कि यह बात सही उतरती है या मैं मुंह की खाऊंगा..!
स्क्रिप्ट लिखते समय कोई ऐक्टर ध्यान में था क्या?
मैंने कभी ऐक्टर की इमेज को लेकर फिल्म नहीं लिखी। शाहरुख खान की दोनों फिल्में अशोका और मैं हूं ना उदाहरण हैं। इस फिल्म के लेखन के समय तो इमरान खान कहीं थे ही नहीं! मैं किसी स्टार को ध्यान में रख कर फिल्म कभी नहीं लिखूंगा। मेरे लिए यह नामुमकिन है।
क्या यह मालूम था कि फिल्म का अदिति.. गीत इतना पॉपुलर हो जाएगा?
ए.आर. रहमान ने जब यह धुन पहली बार सुनाई थी, तभी मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि यह गीत पॉपुलर होगा। वैसे यूनिट के लोगों को लगता था कि पप्पू.. ज्यादा हिट होगा। तब मैं सभी से यही कहता था कि अदिति.. सभी की जुबान पर चढ़ जाएगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसमें नई बात सरल तरीके और मधुर धुन के साथ कही गई है। जब प्रोमो बने, तब भी सबकी राय यही थी कि पप्पू.. का प्रोमो पहले चलाना चाहिए। मैं चाहता था कि अदिति.. ही पहले चले। मैंने आमिर खान से भी कहा। उन्होंने कहा कि अगर निर्देशक होने के नाते आपको यह गीत पहले चलाना है, तो हम इसे ही पहले चलाएंगे।
जाने तू.. यूथफुल लग रही है?
प्रोमोशन देख कर ऐसा लग सकता है। मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि यह फिल्म यूथ के बारे में जरूर है, लेकिन सभी के देखने लायक है। यह मेरा दर्शकों से वादा है कि इसे देखने के बाद कोई नहीं कह सकता कि हमें मजा नहीं आया। बहुत सारे भाव, रस, किरदार और बातें हैं, जो हर उम्र के दर्शकों को लुभाएंगे।
लेखक और गीतकार होने के कारण निर्देशक अब्बास को कितनी मदद मिली?
चूंकि सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी, इसीलिए मुझे बहुत खुशी मिली। मैं यहां बताना चाहूंगा कि मुझसे पहले केवल गुलजार साहब ने ही अपनी फिल्मों के गीत, स्क्रिप्ट और कहानी लिखे हैं।
दर्शक क्यों जाएं आपकी फिल्म देखने?
मैंने सच्चाई से फिल्म बनाई है। इसमें उमंग, भावना, दोस्ती और प्यार की यात्रा है। इस यात्रा में लोगों को पूरा आनंद आएगा। यह फिल्म किसी को बुरी नहीं लगेगी। यह या तो लोगों को पसंद आएगी या बहुत पसंद आएगी। यह मेरा आत्मविश्वास है। मैं अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर लोगों को फिल्म देखने के लिए आमंत्रित करता हूं। लोग दोस्त और परिवार के साथ इसे देखें। मेरी बात का यकीन करें कि उनका शुक्रवार बर्बाद नहीं होगा।
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