निर्देशकों का लेखक बनना ठीक है, लेकिन.. .
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले कुछ सालों में फिल्म लेखन में बड़ा बदलाव आया है। उल्लेखनीय है कि इस बदलाव की तरफ सबसे पहले यश चोपड़ा ने संकेत किया था। उन्होंने अपने बेटे आदित्य चोपड़ा समेत सभी युवा निर्देशकों के संबंध में कहा था कि वे सब अपनी फिल्मों की स्क्रिप्ट खुद लिखते हैं। भले ही दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के समय यह ट्रेंड नहीं रहा हो, लेकिन हाल-फिलहाल में आए अधिकांश युवा निर्देशकों ने अपनी फिल्में खुद लिखीं और उन युवा निर्देशकों ने किसी और की कहानी ली, तो पटकथा और संवाद स्वयं लिखे। इस संदर्भ में हिंदी फिल्मों के एक वरिष्ठ लेखक की टिप्पणी रोचक है। उनकी राय में फिल्म लेखक-निर्देशक और निर्माता की भागीदारी पहले भी रहती थी, लेकिन वे कथा, पटकथा और संवाद का क्रेडिट स्वयं नहीं लेते थे। उन्होंने महबूब खान, बी.आर. चोपड़ा, बिमल राय और राजकपूर के हवाले से कहा कि इन सभी निर्देशकों की टीम होती थी और इस टीम में लेखक भी रहते थे। स्टोरी सिटिंग का चलन था। फिल्म की योजना बनने के बाद फिल्म के लेखक, ऐक्टर, निर्माता और निर्देशक साथ बैठते थे। सलाह-मशविरा होती थी और फिल्म के लिए नियुक्त लेखक हर स्टोरी सिटिंग के बाद अपनी कहानी और पटकथा में सुधार करता था। फिल्मों के दृश्य, प्रसंग और संवाद तक डायरेक्टर बताते थे, लेकिन उन्होंने कभी लेखकों के साथ क्रेडिट शेयर नहीं किया। यह बदलाव इधर ही दिख रहा है कि निर्देशक फिल्म के लेखन में शामिल होने का क्रेडिट भी लेने लगे हैं!
पुराने खयाल के वरिष्ठ लेखक से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता। यह भी हो सकता है कि फिल्म लेखन में निर्देशकों की बढ़ती दखलंदाजी की प्रतिक्रिया में वे उनके योगदान और क्रेडिट को नकार रहे हों! हालांकि यह सच है कि क्रेडिट लेने का आजकल जैसा मोह पुराने निर्देशकों में नहीं था। राजकपूर तो अपनी फिल्म के गीतों के मुखड़े और धुन तक सुझाते थे। अपनी फिल्मों की कथा सुझाने के बाद वे उसके विस्तार और लेखन में नियमित रूप से साथ रहते थे, लेकिन उन्होंने कभी लेखकों के अधिकार का हनन नहीं किया। चूंकि निर्देशक फिल्म यूनिट का मुखिया और दिशा निर्धारक होता है, इसलिए फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र में उनका सहयोग वांछित है। इधर के निर्देशकों को लगता है कि लेखक उनके आइडिया को तरीके से डेवलॅप नहीं कर पाते! आइडिया और लेखन के गैप को भरने के लिए उन्हें की-बोर्ड खड़काना ही पड़ता है। जाहिर-सी बात है कि वे अपनी मेहनत की पहचान भी चाहते हैं, इसलिए फिल्म लेखन की विभिन्न श्रेणियों (कथा, पटकथा और संवाद) में अपना नाम जोड़ने से नहीं हिचकते। युवा निर्देशक अपनी फिल्मों की कहानी खुद ही खोजते हैं। इन दिनों हर निर्देशक पहली फिल्म निर्देशित करने के पहले कम से कम दो-तीन स्क्रिप्ट तो लिख ही चुका होता है। फिर स्क्रिप्ट लेखन के सॉफ्टवेयर भी आ गए हैं। उनसे अनेक सुविधाएं मिल जाती हैं। स्क्रिप्ट लेखन का तकनीकी पक्ष इन सॉफ्टवेयर की सहायता से संभाल लिया जाता है। रही बात संवाद की, तो निर्देशक इसे अंग्रेजी में लिख देते हैं और फिर फिल्म यूनिट का कोई हिंदी जानकार या सहायक या स्वयं अभिनेता ही उन्हें हिंदी में बोल देते हैं। इसी प्रक्रिया के कारण आज की फिल्मों के संवाद प्रभावशाली नहीं हो पाते!
युवा निर्देशकों के लेखक बनने से देखें, तो कई समस्याएं भी उभरी हैं। अधिकांश युवा निर्देशक अंग्रेजी फिल्में देखकर और उनके जरिए ही हिंदी फिल्मों में प्रवेश करते हैं, इसलिए उनकी स्क्रिप्ट पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट रहता है। यदि लोग इधर की फिल्मों पर गौर करेंगे, तो पाएंगे कि चुस्त और गतिमान होने के बावजूद वे दर्शकों से जुड़ नहीं पातीं! उसकी एक वजह यही है कि भारतीय भावनाओं को विदेशी शिल्प में ढालना मुश्किल है। युवा निर्देशक कोशिश करते हैं, लेकिन इस कोशिश में भावनाओं की कशिश खो जाती है और दृश्य प्रभावहीन हो जाता है। फिल्म लेखन बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से निबटने के लिए युवा निर्देशकों को पेशेवर लेखकों की मदद लेनी चाहिए या फिर अपनी लेखन-कला समृद्ध करनी चाहिए! उसके लिए यह बहुत जरूरी है कि उन्हें भारतीय संस्कृति, इतिहास, रिवाज और भाषा का सम्यक ज्ञान हो।
पिछले कुछ सालों में फिल्म लेखन में बड़ा बदलाव आया है। उल्लेखनीय है कि इस बदलाव की तरफ सबसे पहले यश चोपड़ा ने संकेत किया था। उन्होंने अपने बेटे आदित्य चोपड़ा समेत सभी युवा निर्देशकों के संबंध में कहा था कि वे सब अपनी फिल्मों की स्क्रिप्ट खुद लिखते हैं। भले ही दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के समय यह ट्रेंड नहीं रहा हो, लेकिन हाल-फिलहाल में आए अधिकांश युवा निर्देशकों ने अपनी फिल्में खुद लिखीं और उन युवा निर्देशकों ने किसी और की कहानी ली, तो पटकथा और संवाद स्वयं लिखे। इस संदर्भ में हिंदी फिल्मों के एक वरिष्ठ लेखक की टिप्पणी रोचक है। उनकी राय में फिल्म लेखक-निर्देशक और निर्माता की भागीदारी पहले भी रहती थी, लेकिन वे कथा, पटकथा और संवाद का क्रेडिट स्वयं नहीं लेते थे। उन्होंने महबूब खान, बी.आर. चोपड़ा, बिमल राय और राजकपूर के हवाले से कहा कि इन सभी निर्देशकों की टीम होती थी और इस टीम में लेखक भी रहते थे। स्टोरी सिटिंग का चलन था। फिल्म की योजना बनने के बाद फिल्म के लेखक, ऐक्टर, निर्माता और निर्देशक साथ बैठते थे। सलाह-मशविरा होती थी और फिल्म के लिए नियुक्त लेखक हर स्टोरी सिटिंग के बाद अपनी कहानी और पटकथा में सुधार करता था। फिल्मों के दृश्य, प्रसंग और संवाद तक डायरेक्टर बताते थे, लेकिन उन्होंने कभी लेखकों के साथ क्रेडिट शेयर नहीं किया। यह बदलाव इधर ही दिख रहा है कि निर्देशक फिल्म के लेखन में शामिल होने का क्रेडिट भी लेने लगे हैं!
पुराने खयाल के वरिष्ठ लेखक से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता। यह भी हो सकता है कि फिल्म लेखन में निर्देशकों की बढ़ती दखलंदाजी की प्रतिक्रिया में वे उनके योगदान और क्रेडिट को नकार रहे हों! हालांकि यह सच है कि क्रेडिट लेने का आजकल जैसा मोह पुराने निर्देशकों में नहीं था। राजकपूर तो अपनी फिल्म के गीतों के मुखड़े और धुन तक सुझाते थे। अपनी फिल्मों की कथा सुझाने के बाद वे उसके विस्तार और लेखन में नियमित रूप से साथ रहते थे, लेकिन उन्होंने कभी लेखकों के अधिकार का हनन नहीं किया। चूंकि निर्देशक फिल्म यूनिट का मुखिया और दिशा निर्धारक होता है, इसलिए फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र में उनका सहयोग वांछित है। इधर के निर्देशकों को लगता है कि लेखक उनके आइडिया को तरीके से डेवलॅप नहीं कर पाते! आइडिया और लेखन के गैप को भरने के लिए उन्हें की-बोर्ड खड़काना ही पड़ता है। जाहिर-सी बात है कि वे अपनी मेहनत की पहचान भी चाहते हैं, इसलिए फिल्म लेखन की विभिन्न श्रेणियों (कथा, पटकथा और संवाद) में अपना नाम जोड़ने से नहीं हिचकते। युवा निर्देशक अपनी फिल्मों की कहानी खुद ही खोजते हैं। इन दिनों हर निर्देशक पहली फिल्म निर्देशित करने के पहले कम से कम दो-तीन स्क्रिप्ट तो लिख ही चुका होता है। फिर स्क्रिप्ट लेखन के सॉफ्टवेयर भी आ गए हैं। उनसे अनेक सुविधाएं मिल जाती हैं। स्क्रिप्ट लेखन का तकनीकी पक्ष इन सॉफ्टवेयर की सहायता से संभाल लिया जाता है। रही बात संवाद की, तो निर्देशक इसे अंग्रेजी में लिख देते हैं और फिर फिल्म यूनिट का कोई हिंदी जानकार या सहायक या स्वयं अभिनेता ही उन्हें हिंदी में बोल देते हैं। इसी प्रक्रिया के कारण आज की फिल्मों के संवाद प्रभावशाली नहीं हो पाते!
युवा निर्देशकों के लेखक बनने से देखें, तो कई समस्याएं भी उभरी हैं। अधिकांश युवा निर्देशक अंग्रेजी फिल्में देखकर और उनके जरिए ही हिंदी फिल्मों में प्रवेश करते हैं, इसलिए उनकी स्क्रिप्ट पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट रहता है। यदि लोग इधर की फिल्मों पर गौर करेंगे, तो पाएंगे कि चुस्त और गतिमान होने के बावजूद वे दर्शकों से जुड़ नहीं पातीं! उसकी एक वजह यही है कि भारतीय भावनाओं को विदेशी शिल्प में ढालना मुश्किल है। युवा निर्देशक कोशिश करते हैं, लेकिन इस कोशिश में भावनाओं की कशिश खो जाती है और दृश्य प्रभावहीन हो जाता है। फिल्म लेखन बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से निबटने के लिए युवा निर्देशकों को पेशेवर लेखकों की मदद लेनी चाहिए या फिर अपनी लेखन-कला समृद्ध करनी चाहिए! उसके लिए यह बहुत जरूरी है कि उन्हें भारतीय संस्कृति, इतिहास, रिवाज और भाषा का सम्यक ज्ञान हो।
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