फिल्मी कारोबार खुले हैं नए द्वार
-अजय ब्रह्मात्मज
अभी तक हम यही जानते और मानते हैं कि फिल्में यदि बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं करतीं, तो निर्माता घाटे में रहता है और इसीलिए उक्त फिल्म से जुड़े स्टारों का बाजार भाव गिर जाता है। यह सच जरूर है, लेकिन फिल्मों के व्यापक कारोबार का यह पूरा सच नहीं है। इन दिनों फिल्मों की कमाई के कई नए द्वार खुल गए हैं। आमतौर पर हिंदी फिल्मों का निर्माता अगर अपनी फिल्म रिलीज कर लेता है, तो वह नुकसान में नहीं रहता। तत्काल वह फायदे में भले ही नहीं दिखे, लेकिन एक अंतराल में वह निवेशित राशि निकाल ही लेता है। इसीलिए लगातार फ्लॉप हो रहीं फिल्मों के बावजूद निर्माता नई फिल्मों की घोषणाएं करते ही रहते हैं।
दरअसल, पहले बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ही फिल्मों की आय का मुख्य जरिया था, क्योंकि फिल्में 25 हफ्तों और 50 हफ्तों तक सिनेमाघरों में टिके रहने के बाद निर्माताओं और स्टारों के चेहरे पर मुस्कान लाती थीं, लेकिन सच तो यह है कि अब चेहरे पर यह मुस्कान 25 और 50 दिनों में ही आ जाती है। कुछ फिल्में तो सप्ताहांत के तीन दिनों में ही फायदा दिखाने लगती हैं। एक सच यह भी है कि लगभग एक हजार प्रिंट एक साथ सिनेमाघरों में रिलीज कर बड़े निर्माता आरंभिक तीन दिनों में ही लाभ सुनिश्चित कर लेते हैं। इसके लिए आक्रामक प्रचार, डिस्ट्रीब्यूशन का अच्छा नेटवर्क और सही थिएटरों के चुनाव जैसे कारक महत्वपूर्ण होते हैं। गौरतलब यह है कि इस तरह की तात्कालिक कमाई में मल्टीप्लेक्स की खास भूमिका होती है। पिछले दिनों हमने देखा कि टशन की रिलीज के समय मल्टीप्लेक्स के मालिक और यशराज फिल्म्स के बीच सहमति नहीं होने से यशराज फिल्म्स को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसके बावजूद टशन से यशराज फिल्म्स को लाभ होगा, क्योंकि और कई तरीकों और नए द्वारों से टशन ने कारोबार किया है। फिल्म कारोबार की ये सहयोगी गतिविधियां फिल्म रिलीज होने के पहले से आरंभ हो जाती हैं। फिल्म के निर्माण और प्रचार में मुख्य रूप से निर्माता निवेश करते हैं। निर्माण और प्रचार के दौरान स्पांसर, इवेंट और इन फिल्म मार्केटिंग के जरिए वे आवश्यक खर्च की भरपाई कर लेते हैं। इन दिनों फिल्मों के ऐसे मार्केटिंग एजेंट उभर आए हैं, जो फिल्म के निर्माण और प्रचार में निर्माता-निर्देशक की मदद करते हैं। उनकी आर्थिक चिंताओं को कम करने में इन पेशेवर एजेंटों की भूमिका बढ़ती जा रही है। टशन, एसिड फैक्ट्री और मिशन इस्तांबुल जैसी फिल्मों के आक्रामक प्रचार को बाजार का जबर्दस्त समर्थन मिलता है। पॉपुलर स्टारों और बड़े बैनरों की फिल्मों के लिए नए किस्म का कारोबार लाभदायक सिद्ध होता है।
गौर करें, तो फिल्म आरंभ होने के पहले ही इन दिनों अलग-अलग किस्म के पार्टनर और स्पांसर की लंबी-चौड़ी लिस्ट आती है। इस लिस्ट में शामिल प्रोडक्ट फिल्म की लागत को कम करते हैं। निर्माण के समय कंज्यूमर प्रोडक्ट की इन फिल्म प्लेस्मेंट से लेकर होर्डिग, न्यूज पेपर ऐड, रेडियो प्रचार और टीवी प्रोमो के लिए की गई पार्टनरशिप से निर्माता का धन बचता है। बचा हुआ धन एक तरह से निर्माता के लाभ को बढ़ाता है। इसके अलावा, रिंग टोन, स्क्रीन सेवर, इमेजेज आदि से भी फिल्मों की कमाई बढ़ती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इधर फिर से म्यूजिक इंडस्ट्री में उछाल दिख रहा है। टी-सीरीज और बिग म्यूजिक फिल्म संगीत के होशियार व्यापारी के रूप में सामने आ रहे हैं। फिल्मों के म्यूजिक राइट में भी बढ़ोत्तरी हुई है।
फिल्म की रिलीज से पहले बाजार के समर्थन से फिल्मों के जबरदस्त प्रचार की नई रणनीति उभरी है। एसिड फैक्ट्री का ही उदाहरण लें, तो इस निर्माणाधीन फिल्म से संबंधित इवेंट के आयोजनों ने इसे बड़ी फिल्म के तौर पर स्थापित कर दिया है। ऐसा लग रहा है कि संजय गुप्ता के कैंप से स्टाइलिश और बड़ी फिल्म आ रही है। फिल्म क्या है, यह तो बाद में पता चलेगा! दरअसल.. बाजार किसी भी फिल्म को इसलिए गर्म करता है कि वह उसके जरिए अपने प्रोडक्ट के कुछ ग्राहक बना ले। फिल्म की क्वालिटी या बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन में ऐसे स्पांसर और ब्रैंड की कोई रुचि नहीं रहती है। वे रिलीज के पहले ही हाइप करते हैं और अपने प्रोडक्ट के ग्राहक जुटा लेते हैं। फिल्म निर्माताओं को इससे फायदा ही होता है। उनकी फिल्म का प्रचार होता है और बगैर खर्च किए फिल्म का बाजार बनता है।
अभी तक हम यही जानते और मानते हैं कि फिल्में यदि बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं करतीं, तो निर्माता घाटे में रहता है और इसीलिए उक्त फिल्म से जुड़े स्टारों का बाजार भाव गिर जाता है। यह सच जरूर है, लेकिन फिल्मों के व्यापक कारोबार का यह पूरा सच नहीं है। इन दिनों फिल्मों की कमाई के कई नए द्वार खुल गए हैं। आमतौर पर हिंदी फिल्मों का निर्माता अगर अपनी फिल्म रिलीज कर लेता है, तो वह नुकसान में नहीं रहता। तत्काल वह फायदे में भले ही नहीं दिखे, लेकिन एक अंतराल में वह निवेशित राशि निकाल ही लेता है। इसीलिए लगातार फ्लॉप हो रहीं फिल्मों के बावजूद निर्माता नई फिल्मों की घोषणाएं करते ही रहते हैं।
दरअसल, पहले बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ही फिल्मों की आय का मुख्य जरिया था, क्योंकि फिल्में 25 हफ्तों और 50 हफ्तों तक सिनेमाघरों में टिके रहने के बाद निर्माताओं और स्टारों के चेहरे पर मुस्कान लाती थीं, लेकिन सच तो यह है कि अब चेहरे पर यह मुस्कान 25 और 50 दिनों में ही आ जाती है। कुछ फिल्में तो सप्ताहांत के तीन दिनों में ही फायदा दिखाने लगती हैं। एक सच यह भी है कि लगभग एक हजार प्रिंट एक साथ सिनेमाघरों में रिलीज कर बड़े निर्माता आरंभिक तीन दिनों में ही लाभ सुनिश्चित कर लेते हैं। इसके लिए आक्रामक प्रचार, डिस्ट्रीब्यूशन का अच्छा नेटवर्क और सही थिएटरों के चुनाव जैसे कारक महत्वपूर्ण होते हैं। गौरतलब यह है कि इस तरह की तात्कालिक कमाई में मल्टीप्लेक्स की खास भूमिका होती है। पिछले दिनों हमने देखा कि टशन की रिलीज के समय मल्टीप्लेक्स के मालिक और यशराज फिल्म्स के बीच सहमति नहीं होने से यशराज फिल्म्स को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसके बावजूद टशन से यशराज फिल्म्स को लाभ होगा, क्योंकि और कई तरीकों और नए द्वारों से टशन ने कारोबार किया है। फिल्म कारोबार की ये सहयोगी गतिविधियां फिल्म रिलीज होने के पहले से आरंभ हो जाती हैं। फिल्म के निर्माण और प्रचार में मुख्य रूप से निर्माता निवेश करते हैं। निर्माण और प्रचार के दौरान स्पांसर, इवेंट और इन फिल्म मार्केटिंग के जरिए वे आवश्यक खर्च की भरपाई कर लेते हैं। इन दिनों फिल्मों के ऐसे मार्केटिंग एजेंट उभर आए हैं, जो फिल्म के निर्माण और प्रचार में निर्माता-निर्देशक की मदद करते हैं। उनकी आर्थिक चिंताओं को कम करने में इन पेशेवर एजेंटों की भूमिका बढ़ती जा रही है। टशन, एसिड फैक्ट्री और मिशन इस्तांबुल जैसी फिल्मों के आक्रामक प्रचार को बाजार का जबर्दस्त समर्थन मिलता है। पॉपुलर स्टारों और बड़े बैनरों की फिल्मों के लिए नए किस्म का कारोबार लाभदायक सिद्ध होता है।
गौर करें, तो फिल्म आरंभ होने के पहले ही इन दिनों अलग-अलग किस्म के पार्टनर और स्पांसर की लंबी-चौड़ी लिस्ट आती है। इस लिस्ट में शामिल प्रोडक्ट फिल्म की लागत को कम करते हैं। निर्माण के समय कंज्यूमर प्रोडक्ट की इन फिल्म प्लेस्मेंट से लेकर होर्डिग, न्यूज पेपर ऐड, रेडियो प्रचार और टीवी प्रोमो के लिए की गई पार्टनरशिप से निर्माता का धन बचता है। बचा हुआ धन एक तरह से निर्माता के लाभ को बढ़ाता है। इसके अलावा, रिंग टोन, स्क्रीन सेवर, इमेजेज आदि से भी फिल्मों की कमाई बढ़ती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इधर फिर से म्यूजिक इंडस्ट्री में उछाल दिख रहा है। टी-सीरीज और बिग म्यूजिक फिल्म संगीत के होशियार व्यापारी के रूप में सामने आ रहे हैं। फिल्मों के म्यूजिक राइट में भी बढ़ोत्तरी हुई है।
फिल्म की रिलीज से पहले बाजार के समर्थन से फिल्मों के जबरदस्त प्रचार की नई रणनीति उभरी है। एसिड फैक्ट्री का ही उदाहरण लें, तो इस निर्माणाधीन फिल्म से संबंधित इवेंट के आयोजनों ने इसे बड़ी फिल्म के तौर पर स्थापित कर दिया है। ऐसा लग रहा है कि संजय गुप्ता के कैंप से स्टाइलिश और बड़ी फिल्म आ रही है। फिल्म क्या है, यह तो बाद में पता चलेगा! दरअसल.. बाजार किसी भी फिल्म को इसलिए गर्म करता है कि वह उसके जरिए अपने प्रोडक्ट के कुछ ग्राहक बना ले। फिल्म की क्वालिटी या बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन में ऐसे स्पांसर और ब्रैंड की कोई रुचि नहीं रहती है। वे रिलीज के पहले ही हाइप करते हैं और अपने प्रोडक्ट के ग्राहक जुटा लेते हैं। फिल्म निर्माताओं को इससे फायदा ही होता है। उनकी फिल्म का प्रचार होता है और बगैर खर्च किए फिल्म का बाजार बनता है।
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