श्याम बेनेगल का सम्मान
-अजय ब्रह्मात्मज
थाइलैंड की राजधानी बैंकॉक में आयोजित 9वें आईफा अवार्ड समारोह के दौरान हिंदी फिल्मों केपुरस्कार समारोह में श्याम बेनेगल को लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दरअसल, श्याम बेनेगल का नाम फिल्म इंडस्ट्री में आज भी बहुत आदर व सम्मान से लिया जाता है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के इस अच्छे फिल्मकार के कार्य को अभी तक रेखांकित नहीं किया गया है। चूंकि उनका काम इतना महत्वपूर्ण और स्पष्ट है कि बगैर गहराई में गए ही सभी उनके नाम का उल्लेख करते रहते हैं।
गौर करें, तो नामोल्लेख का भी फैशन चलता है। जैसे कि गुरुदत्त, बिमल राय, के.आसिफ जैसे महान फिल्मकारों को बिना देखे ही सिनेप्रेमी महान निर्देशक मान लेते हैं। निश्चित ही वे सभी महान हैं, लेकिन क्या हमने निजी तौर पर उनकी महानता को परखा, देखा और समझा है? आप आसपास पूछ कर देख लें। संभव है, अधिकांश ने उनकी फिल्में देखी भी न हों! ऐसे ही श्याम बेनेगल का नाम हर संदर्भ में लिया जाता है।
हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा से दरकिनार कर दिए गए विषयों, चरित्रों और स्थानों को श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में जगह दी। उन्होंने लंबे अभ्यास के बाद 1974 में अंकुर का निर्देशन किया। हिंदी फिल्मों के इतिहास में अंकुर का ऐतिहासिक महत्व है। यहीं से पैरेलल सिनेमा की शुरुआत होती है और साथ ही साथ उस तरह के निर्देशकों की जमात बढ़ती है, जो सिनेमा के यथार्थवादी स्वरूप को गढ़ने की कोशिश में लगे थे। श्याम बेनेगल ऐसी फिल्मों के नेतृत्वकारी फिल्मकार रहे, लेकिन अपनी विनम्रता में वे किसी प्रकार के नेतृत्व से इनकार करते हैं। उन्होंने हमेशा कहा कि कई दूसरे निर्देशकों के साथ मैं भी फिल्में निर्देशित कर रहा था। हम सभी यही चाहते थे कि सिनेमा सिर्फ पलायन और मनोरंजन का माध्यम नहीं बना रहे।
देश के प्रमुख समीक्षक चिदानंद दासगुप्ता ने अपने एक लेख में कहा है कि अगर सत्यजीत राय की फिल्में टैगोर के प्रबोधन का चित्रण करती हैं, तो श्याम बेनेगल की फिल्मों में हम नेहरू के भारत को देख सकते हैं, क्योंकि लोकतंत्र, धर्म निरपेक्षता, अवसर की समानता, मानव अधिकार और नारी अधिकार आदि मामलों में श्याम बेनेगल ने ही नेहरू की सोच को फिल्मों में प्रतिस्थापित किया। हिंदी फिल्मों में सामाजिक दृष्टि से इतना सचेत और जागरूक दूसरा कोई फिल्मकार शायद नहीं है। उन्होंने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एकनया परिवेश गढ़ा और कई कलाकारों और तकनीशियनों को सामने ले आए। उन्होंने यह साबित किया कि फिल्मों के लिए स्टार पहली आवश्यकता नहीं है।
इस छोटे आलेख में श्याम बेनेगल के योगदान को समेटना नामुमकिन है। बस एक ही पहलू पर ध्यान दें कि उनकी हर फिल्म की भाषा भी अलग होती है। वे जिस परिवेश की कहानी चुनते हैं, उसी परिवेश की भाषा रखते हैं। संवादों में स्थानीय मुहावरों का सुंदर समावेश करते हैं और लहजा पूरी तरह से भाषा और क्षेत्र विशेष से प्रेरित रहता है। उनकी भाषा भिन्न होने के बावजूद समझ में आने लायक रहती है। अंकुर, मंडी, जुनून, मंथन आदि फिल्मों को याद करें या फिर से देखें, तो लोग इस तथ्य से सहमत हो जाएंगे।
पुरस्कार लेते समय श्याम बेनेगल ने बिल्कुल सही कहा कि हाशिए के विषयों के फिल्मकार को आज मुख्यधारा का पुरस्कार समारोह सम्मानित कर रहा है। उन्होंने न तो इस पर आश्चर्य व्यक्त किया और न ही गुस्सा जाहिर किया। उन्होंने वस्तुस्थिति की तरफ इशारा किया! बस, श्याम बेनेगल की फिल्मों के सम्यक अध्ययन और मूल्यांकन की जरूरत है। जरूरत यह भी है कि हम उनके संभाषणों को संकलित करें, क्योंकि वे संभाषण वे वैचारिक स्पष्टता के साथ फिल्म, समाज और अपने समय को देखते हैं।
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श्याम के बनाए रास्ते पर चलने के लिये ज़रूरी अध्ययन और संवेदना की सख़्त कमी है. कुछ लोग तो पीठ मोडते ही गालियाँ निकालने या मज़ाक़ करने का मौक़ा भी हाथ से नहीं जाने देना चाहते. याद रखना चाहिये कि एक ग़ैर-हिंदीभाषी क्षेत्र के होते हुए उन्होंने मम्मो जैसी फ़िल्म बनाई है जो इस उपमहाद्वीप की एक मार्मिक सच्चाई को बडी गहराई से छूती है.