छोटी फिल्मों का सीमित संसार
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी की छोटी फिल्में अवधि, आकार या विषय की दृष्टि से छोटी नहीं होतीं, बल्कि बजट और कलाकारों से फिल्में छोटी या बड़ी हो जाती हैं। फिर उसी के अनुरूप उनका प्रचार भी किया जाता है। भले ही विडंबना हो, लेकिन यही सच है कि हिंदी फिल्में आज भी स्टार के कारण बड़ी हो जाती हैं। अगर स्टार रहेंगे, तो बजट बढ़ेगा और यदि बजट बढ़ा, तो फिल्म अपने आप महंगी हो जाती है। महंगी फिल्मों में निवेशित धन उगाहने के लिए मार्केटिंग और पब्लिसिटी पर भी ज्यादा खर्च किया जाता है। यह अलग बात है कि कई बार नतीजा ठन-ठन गोपाल हो जाता है, जैसा कि टशन के साथ हुआ।
बहरहाल, हम छोटी फिल्मों की बातें कर रहे हैं। सुभाष घई की कंपनी मुक्ता आर्ट्स ने सर्चलाइट नाम से एक अलग कंपनी बनाई है। यह कंपनी छोटी फिल्मों का निर्माण करती है। नागेश कुक्नूर की फिल्म इकबाल से इसकी शुरुआत हुई। यूटीवी ने भी स्पॉट ब्वॉय नाम से एक अलग कंपनी खोलकर छोटी फिल्मों का निर्माण आरंभ किया है। उनकी पहली फिल्म आमिर जल्दी ही रिलीज होगी। स्पॉट ब्वॉय ही अनुराग कश्यप की फिल्म देवड़ी का भी निर्माण कर रही है। यशराज फिल्म्स ने कोई अलग से कंपनी नहीं बनाई है, लेकिन पिछले साल आई काबुल एक्सप्रेस एक ऐसी ही छोटी फिल्म थी। अन्य प्रोडक्शन हाउस भी ऐसी छोटी फिल्मों की योजनाओं में लगे हैं। स्वतंत्र निर्माता और युवा निर्देशकों की पहली फिल्में आमतौर पर इसी श्रेणी की छोटी फिल्में होती हैं।
हिंदी फिल्मों में कभी पैरेलल सिनेमा का चलन था। सिनेमा की इस परंपरा से हमें श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, केतन मेहता, सईद मिर्जा, प्रकाश झा और कुंदन शाह जैसे निर्देशक मिले। सीमित बजट में बड़े कथ्य की उनकी फिल्मों ने दर्शकों को सिनेमा की इस क्षमता का परिचय दिया था कि हमारे आसपास की वास्तविक जिंदगी भी फिल्मों की कहानी बन सकती है। पैरेलल सिनेमा के विकसित और प्रचलित होने के निश्चित कारण थे और उन कारणों के खत्म होने के साथ ही पैरेलल सिनेमा का चलन भी समाप्त हो गया।
इधर महानगरों में मल्टीप्लेक्स कल्चर के आगमन के बाद यह महसूस किया गया कि शहरी दर्शक कुछ अलग किस्म का सिनेमा चाहते हैं। दरअसल, विश्व सिनेमा से परिचित ये दर्शक बॉलीवुड की कथित मसाला फिल्मों से ऊब गए हैं और इसीलिए वे कथ्य, अभिनय और शिल्प में बदलाव चाहते हैं। वे सहज सिनेमा चाहते हैं। इन दर्शकों ने ही बीइंग साइरस, भेजा फ्राय और खोसला का घोंसला जैसी फिल्मों को स्वीकार किया। फिल्म ट्रेड के लोग आज भी नहीं समझ पा रहे हैं कि भेजा फ्राय क्यों और कैसे हिट हो गई? इस फिल्म के बिजनेस ने स्वतंत्र निर्माताओं को प्रेरित किया। हालांकि भेजा फ्राय वाली कामयाबी किसी और फिल्म को नहीं मिली, लेकिन यह सच है कि प्रयोग की संभावना बढ़ी। अभी छोटी फिल्मों के स्टार और डायरेक्टर भी पॉपुलर हो रहे हैं। रणवीर शौरी और विनय पाठक की जोड़ी किसी भी छोटी फिल्म की सफलता की गारंटी समझी जा रही है। रजत कपूर ऐसी फिल्मों के सुपरिचित नाम हैं। वे ऐक्टिंग के साथ-साथ डायरेक्शन में भी व्यस्त हैं। उन्होंने रघु रोमियो से छोटी शुरुआत की और फिल्म निर्माण का नया विकल्प लेकर सामने आए। उनके आजमाए ढांचे को दूसरे निर्माता-निर्देशक भी आजमा रहे हैं। छोटी फिल्मों के जरिए रजत कपूर आज प्रतिष्ठित नाम बन गए हैं।
उम्मीद की जा रही है कि छोटी फिल्मों का संसार और विस्तृत होगा। सीमित बजट होने के कारण ऐसी फिल्मों का नुकसान बड़ा नहीं होता और फिर इन दिनों किसी भी फिल्म में निवेशित धन को उगाहने के इतने माध्यम सामने आ गए हैं कि शायद ही किसी को घाटा होता हो! यह अलग बात है कि छोटी फिल्मों के इस संसार के ज्यादातर दर्शक शहरी हैं।
इसलिए उनकी रुचि को ही प्राथमिकता दी जाती है। महानगरों के मल्टीप्लेक्स और शहरी होम वीडियो सर्किट में ही इस किस्म की छोटी फिल्में चल पा रही हैं। अधिकांश भारत और उसके दर्शक इन छोटी फिल्मों के दायरे से बाहर हैं।
हिंदी की छोटी फिल्में अवधि, आकार या विषय की दृष्टि से छोटी नहीं होतीं, बल्कि बजट और कलाकारों से फिल्में छोटी या बड़ी हो जाती हैं। फिर उसी के अनुरूप उनका प्रचार भी किया जाता है। भले ही विडंबना हो, लेकिन यही सच है कि हिंदी फिल्में आज भी स्टार के कारण बड़ी हो जाती हैं। अगर स्टार रहेंगे, तो बजट बढ़ेगा और यदि बजट बढ़ा, तो फिल्म अपने आप महंगी हो जाती है। महंगी फिल्मों में निवेशित धन उगाहने के लिए मार्केटिंग और पब्लिसिटी पर भी ज्यादा खर्च किया जाता है। यह अलग बात है कि कई बार नतीजा ठन-ठन गोपाल हो जाता है, जैसा कि टशन के साथ हुआ।
बहरहाल, हम छोटी फिल्मों की बातें कर रहे हैं। सुभाष घई की कंपनी मुक्ता आर्ट्स ने सर्चलाइट नाम से एक अलग कंपनी बनाई है। यह कंपनी छोटी फिल्मों का निर्माण करती है। नागेश कुक्नूर की फिल्म इकबाल से इसकी शुरुआत हुई। यूटीवी ने भी स्पॉट ब्वॉय नाम से एक अलग कंपनी खोलकर छोटी फिल्मों का निर्माण आरंभ किया है। उनकी पहली फिल्म आमिर जल्दी ही रिलीज होगी। स्पॉट ब्वॉय ही अनुराग कश्यप की फिल्म देवड़ी का भी निर्माण कर रही है। यशराज फिल्म्स ने कोई अलग से कंपनी नहीं बनाई है, लेकिन पिछले साल आई काबुल एक्सप्रेस एक ऐसी ही छोटी फिल्म थी। अन्य प्रोडक्शन हाउस भी ऐसी छोटी फिल्मों की योजनाओं में लगे हैं। स्वतंत्र निर्माता और युवा निर्देशकों की पहली फिल्में आमतौर पर इसी श्रेणी की छोटी फिल्में होती हैं।
हिंदी फिल्मों में कभी पैरेलल सिनेमा का चलन था। सिनेमा की इस परंपरा से हमें श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, केतन मेहता, सईद मिर्जा, प्रकाश झा और कुंदन शाह जैसे निर्देशक मिले। सीमित बजट में बड़े कथ्य की उनकी फिल्मों ने दर्शकों को सिनेमा की इस क्षमता का परिचय दिया था कि हमारे आसपास की वास्तविक जिंदगी भी फिल्मों की कहानी बन सकती है। पैरेलल सिनेमा के विकसित और प्रचलित होने के निश्चित कारण थे और उन कारणों के खत्म होने के साथ ही पैरेलल सिनेमा का चलन भी समाप्त हो गया।
इधर महानगरों में मल्टीप्लेक्स कल्चर के आगमन के बाद यह महसूस किया गया कि शहरी दर्शक कुछ अलग किस्म का सिनेमा चाहते हैं। दरअसल, विश्व सिनेमा से परिचित ये दर्शक बॉलीवुड की कथित मसाला फिल्मों से ऊब गए हैं और इसीलिए वे कथ्य, अभिनय और शिल्प में बदलाव चाहते हैं। वे सहज सिनेमा चाहते हैं। इन दर्शकों ने ही बीइंग साइरस, भेजा फ्राय और खोसला का घोंसला जैसी फिल्मों को स्वीकार किया। फिल्म ट्रेड के लोग आज भी नहीं समझ पा रहे हैं कि भेजा फ्राय क्यों और कैसे हिट हो गई? इस फिल्म के बिजनेस ने स्वतंत्र निर्माताओं को प्रेरित किया। हालांकि भेजा फ्राय वाली कामयाबी किसी और फिल्म को नहीं मिली, लेकिन यह सच है कि प्रयोग की संभावना बढ़ी। अभी छोटी फिल्मों के स्टार और डायरेक्टर भी पॉपुलर हो रहे हैं। रणवीर शौरी और विनय पाठक की जोड़ी किसी भी छोटी फिल्म की सफलता की गारंटी समझी जा रही है। रजत कपूर ऐसी फिल्मों के सुपरिचित नाम हैं। वे ऐक्टिंग के साथ-साथ डायरेक्शन में भी व्यस्त हैं। उन्होंने रघु रोमियो से छोटी शुरुआत की और फिल्म निर्माण का नया विकल्प लेकर सामने आए। उनके आजमाए ढांचे को दूसरे निर्माता-निर्देशक भी आजमा रहे हैं। छोटी फिल्मों के जरिए रजत कपूर आज प्रतिष्ठित नाम बन गए हैं।
उम्मीद की जा रही है कि छोटी फिल्मों का संसार और विस्तृत होगा। सीमित बजट होने के कारण ऐसी फिल्मों का नुकसान बड़ा नहीं होता और फिर इन दिनों किसी भी फिल्म में निवेशित धन को उगाहने के इतने माध्यम सामने आ गए हैं कि शायद ही किसी को घाटा होता हो! यह अलग बात है कि छोटी फिल्मों के इस संसार के ज्यादातर दर्शक शहरी हैं।
इसलिए उनकी रुचि को ही प्राथमिकता दी जाती है। महानगरों के मल्टीप्लेक्स और शहरी होम वीडियो सर्किट में ही इस किस्म की छोटी फिल्में चल पा रही हैं। अधिकांश भारत और उसके दर्शक इन छोटी फिल्मों के दायरे से बाहर हैं।
Comments
दरअसल छोटी फिल्मों के लिये सेल्युलाइड के बजाय डिजिटल फारमेट सबसे अच्छा है. भेजा फ्राय या इकबाल जैसी फिल्म डिजिटली शूट करके 35mm पर बड़ी आसानी से ब्लो अप की जा सकती है और कोई भी देखकर कतई फर्क नहीं बता सकता. मीरा नायर ने मानसून वेंडिंग का एक हिस्सा डिजिटल में शूट किया था और कोई भी ये नहीं बता सकता कि वो हिस्से कौन कौन से हैं.
फिल्म रॉ मटेरियल बेचने वाली कम्पनियां दुनियां भर में डिजिटल फिल्मों के खिलाफ प्रोपेगंडा करती रहीं है और कामयाब भी हुंईं है. हिन्दुस्तान में इक्का दुक्का डिजिटल फिल्म बनी भी हैं जैसे राम माधवानी ने Let's Talk बनायी या कमल हासन ने Mumbai Express बनायी लेकिन इन्होंने कैमरे एकदम प्रोज्यूमर लेवेल के लिये जिससे डिजिटल फिल्म के मार्केट को धक्का ही लगा.
मेरी निगाह में तो छोटी फिल्मों का संसार असीमित होने वाला है.