प्रकाश झा से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत
पहली सीढ़ीमैं प्रवेश भारद्वाज का कृतज्ञ हूं। उन्होंने मुझे ऐसे लंबे, प्रेरक और महत्वपूर्ण इंटरव्यू के लिए प्रेरित किया। फिल्मों में डायरेक्टर का वही महत्व होता है, जो किसी लोकतांत्रिक देश में प्रधानमंत्री का होता है। अगर प्रधानमंत्री सचमुच राजनीतिज्ञ हो तो वह देश को दिशा देता है। निर्देशक फिल्मों का दिशा निर्धारक, मार्ग निर्देशक, संचालक, सूत्रधार, संवाहक और समीक्षक होता है। एक फिल्म के दरम्यान ही वह अनेक भूमिकाओं और स्थितियों से गुजरता है। फिल्म देखते समय हम सब कुछ देखते हैं, बस निर्देशक का काम नहीं देख पाते। हमें अभिनेता का अभिनय दिखता है। संगीत निर्देशक का संगीत सुनाई पड़ता है। गीतकार का शब्द आदोलित और आलोड़ित करते हैं। संवाद लेखक के संवाद जोश भरते हैं, रोमांटिक बनाते हैं। कैमरामैन का छायांकन दिखता है। बस, निर्देशक ही नहीं दिखता। निर्देशक एक किस्म की अमूर्त और निराकार रचना-प्रक्रिया है, जो फिल्म निर्माण \सृजन की सभी प्रक्रियाओं में मौजूद रहता है। इस लिहाज से निर्देशक का काम अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। श्याम बेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि आप ईश्वर की धारणा में यकीन करते हों और उसे महसूस करना चाहते हों या साक्षात देखना चाहते हों तो किसी निर्देशक से मिल लें। फिल्म निर्देशक धरती पर चलता-फिरता साक्षात ईश्वर होता है। अगर यह संसार ईश्वर की मर्जी से चलता है तो फिल्मों का तीन घंटों का यह माया संसार निर्देशक की मर्जी पर टिका रहता है। वह पूरी फिल्म के एक-एक दृश्य का सृजनहार होता है। अफ़सोस की बात है कि हिंदी फिल्मों में स्टार को महत्वपूर्ण स्थान मिल गया है। लेकिन निर्देशक आज भी पहचान के मोहताज हैं। इन दिनों निर्देशक अपनी गरिमा भी खो बैठे हैं। अब ये केवल किसी विचार, धारणा या प्रस्ताव को 'एक्सक्यूट' करते हैं। उसे बिकाऊ वस्तु बना देते हैं।प्रवेश भारद्वाज ने मुझे बार-बार उकसाया और अखबारों की नौकरी की सुविधाओं और प्रमाद से बार-बार झकझोरा। मुझे निर्देशक हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं, इसलिए कहीं न कहीं मैं प्रवेश को सुनता और समझता रहा। इस सीरिज में कोशिश है कि हम निर्देशकों की तैयारी, मानसिकता और उस परिवेश को समझें, जिसमें उन्होंने निर्देशक बनने का ही फैसला किया। पहली फिल्म बन जाने और उसके बाद मिली पहचान के पश्चात की यात्रा से हम सभी कमोबेश परिचित होते हैं, लेकिन पहली फिल्म मिलने के पहले के अनिश्चय, आशंका, आत्मविश्वास और आत्मसंघर्ष से हम परिचित नहीं हो पाते। हर इंटरव्यू के पहले मैंने निर्देशकों से आग्रह किया कि वे अपने आरंभिक जीवन के प्रति नॉस्टेलजिक एटीट्यूड न रखते हुए सब कुछ बताएं।इस सीरिज की शुरुआत प्रकाश झा से हुई। उन्होंने इसे 'पहली सीढ़ी' नाम दिया। इसे संयोग ही कहें कि 'बया' के संपादक गौरीनाथ ने इस सीरिज के लिए पहला इंटरव्यू प्रकाश झा का ही मांगा। प्रकाश झा मेरे अग्रज और मार्गदर्शक हैं। विवादों और शंकाओं से जूझते हुए अपनी क्रिएटिव अस्मिता की धुरी पर टिके प्रकाश झा के योगदान का मूल्यांकन अभी नहीं किया जा सकता। उन्होंने हिंदी सिनेमा को नई भाषा दी है।प्रकाश झा से मेरी मुलाकात अग्रज सुमंत मिश्र के साथ हुई थी। वे बिहार से लौटकर आए थे और मुंबई में खुद को फिर को फिर से संजो रहे थे। उन्होंने 'बंदिश' की तैयारी शुरु कर दी थी। पहली मुलाकात बेहद औपचारिक थी। तब तक मैंने तय नहीं किया था कि फिल्मों पर ही लिखना है। हां, फ्रीलांसिंग के दबाव में फिल्मी हस्तियों से मिलने का क्रम आरंभ हो चुका था। 'मुंगेरी के भाई नौरंगीलाल' के समय प्रकाश झा से विस्तृत बातें हुईं। तब तक मैं श्याम बेनेगल के संपर्क में आ चुका था और दो-तीन निर्देशकों के साक्षात्कार कर चुका था। प्रकाश झा का रहस्यमय व्यक्तित्व मुझे अपनी ओर खींच रहा था। खासकर उनकी तीक्ष्ण मुस्कुराहट ... ऐसा लगता है कि कोई राज होंठों के कोनें में छिपा है। बस, वे बताने ही जा रहे हैं। ऐसी मुस्कुराहट के समय प्रकाश झा की आंखें सजल हो जाती हैं। बहरहाल, औपचारिकता टूटी और मैंने थोड़ा करीब से उन्हें देखा। हां, 'मृत्युदंड' के समय प्रकाश जी से गाढ़ा परिचय हुआ और उसके बाद से संपर्क और परिचय की सांद्रता में कभी कमी नहीं आई। मैंने जब इस इंटरव्यू की बात की तो उन्होंने झट से कहा, शुरू करो ... बोलो कब इंटरव्यू करना है। और इस तरह 'पहली सीढ़ी' की नींव पड़ी।
शुरू से बताएं। फिल्मों में आने की बात आपने कब और क्यों सोची?मैं तो दिल्ली यूनिवर्सिटी में फिजिक्स ऑनर्स की पढ़ाई कर रहा था। उस समय अचानक लगने लगा कि क्या यही मेरा जीवन है? ग्रेजुएशन हो जाएगा, फिर आईएएस ऑफिसर बनकर सर्विसेज में चले जाएंगे। पता नहीं क्यो वह विचार मुझे पसंद नहीं आ रहा था। काफी संघर्ष dरना पड़ा उन दिनों परिवार की आशंकाएं थीं। उन सभी को छोड़-लतार कर... बीच में पढ़ाई छोड़ कर मुंबई आ गया। पैसे भी नहीं लिए पिताजी से... पिताजी से मैंने कहा कि जो काम आप नहीं चाहते मैं करूं, उस काम के लिए मैं आप से पैसे नहीं लूंगा। चलने लगा तो घर के सारे लोग उदास थे... नाराज थे। मेरे पास तीन सौ रूपये थे। मैं मुंबई आ गया... फिल्मो के लिए नहीं, पेंटिंग में रुचि थी मेरी। जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स का नाम सुना था। मैंने कहा कि वहीं जाऊंगा। वहां जाकर जीवन बनाऊंगा घर छोड़कर चला आया था। मंबई आने के बाद जीविका के लिए कुछ.कुछ करना पड़ा। ट्रेन में एक सज्जन मिल गए थे.राजाराम। आज भी याद है। दहिसर - मुंबई का बाहरी इलाका-में बिल्डिंग वगैरह बनाते थे। उनके पास यूपी जौनपुर के बच्चे रहते थे। वहीं हमको भी सोने की जगह मिल गई। दिन भर निकलते थे काम-वाम की खोज में।
आप तो जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स के लिए मुंबई आए थे न? फिर काम-वाम की खोज...?जे जे गया तो पता चला कि वहां सेमेस्टर शरू होने में थोड़ा वक्त लगेगा। मेरे पास एक कैमरा होता था। मेरी थाती वही थी। कभी तस्वीरें वगैरह खीच लेते थे। काम के लिहाज से पहला रेगुलर काम एक इंग्लिश स्पीकिंग इंस्टीट्यूट था। बिजनेशसमैन वहां सीखने आते थे। एक्सपोर्टर से बात करने के लिए उन्हें अंग्रेजी की जरूरत पड़ती थी।मेरी अंग्रेजी थोड़ी अच्छी हुआ करती थी। मेरी उम्र तब 19-20 साल थी। वहां एप्लाई किया तो काम मिल गया। बड़े-बूढ़े लोगों को अंग्रेजी सिखाता था। तीन-चार घंटे दिन में काम करना होता था। बाकी समय में जहांगीर आर्ट गैलरी, जे जे और दूसरी आर्ट गैलरीयों में घूमा करते थे। उसी बीच मेरी मुलाकात दहिसर की बिल्डिंग में रह रहे एक आर्ट डायरेक्टर से हुई। उनका नाम आगा जानी था। शीशे का काम करते थे। 'धरमा' का सेट लगाया था उन्होंने जिसमें नवीन निश्चल, प्राण और रेखा वगैरह थे। फिल्म के डायरेक्टर चांद थे। उन्होंने एक दिन मुझे फोटोग्राफी करते देख लिया। उन्होंने मुझे बुलाया। मेरी तस्वीरें देखीं और चाय पिलाई। मुझ में इंटरेस्ट दिखाया। मैंने ऐसा समझा कि उन्हें मैं काम का आदमी लगा, जो आर्ट डायरेक्शन में एसिस्ट कर सकता है। अगले दिन वे शूटिंग पर जा रहे थे, संडे का दिन था... मैंने पूछ दिया कि कहां जा रहे हैं आगा साहब, तो तपाक से बोले, 'सन एंड सैंड में सेट लगा है। वहीं जा रहा हूं' मैंने यों ही पूछ दिया कि चलूं मैं भी, तो उन्होंने साथ कर लिया। फिल्मी दुनिया से मेरा वह पहला जुड़ाव रहा। मुंबई आने के बाद भी मेरी कभी इच्छा नहीं हुई थी कि किसी स्टार से मिलूं या शूटिंग देखने चला जाऊं। पूरी तरह से पेंटिंग में डूबा था मै... बहरहाल उस दिन फिल्म की शूटिंग देखने चला गया 'सन एंड सैंड' के आस-पास तब कोई दूसरा होटल नहीं था। एकदम खाली जगह थी। वहीं 'धरमा' का सेट लगा था। 'राज को राज रहने दो' गाने की शूटिंग थी। वहां का माहौल मुझे बहुत अच्छा लगा। लाइटिंग चल रही थी। मैं एक कोने में खड़े होकर रात के नौ बजे तक शूटिंग देखता रहा। बीच में दो बार आगा जानी पूछने आए। फिर उन्होंने कहा कि वे लौट रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि आप जाइए, मैं आ जाऊंगा। मैं वहां से हिला ही नहीं। मेरे मन-मस्तिष्क में बात आई कि यही करना है। रात में लौटा तो आगा जी के पास गया। वे अभी सोए नहीं थे। उनसे मैंने मन की बात कही और दबाव डाला कि 'आपको मेरी मदद करनी होगी।' अगले दिन सुबह फिर मिला और मैंने कहा चलिए, जिंदगी में मुझे मेरा लक्ष्य मिल गया है।
पहली बार शूटिंग देखने का ऐसा असर हुआ? उसके पहले कितनी फिल्में देखी थीं आपने या फिल्मों का कितना और किस तरह का शौक था?मैं तो तिलैया के आर्मी स्कूल में था। दिल्ली आने पर भी ऐसा नहीं था कि फिल्म देखने के लिए परेशान रहते हों। कॉलेज के दिनों में 'पाकीजा' रिलीज हुई थी। मैंने 'पाकीजा' दो-तीन बार जरूर देखी थी। स्कूल के दिनों में पेंटिंग, मूर्तिकारी आदि का शौक था। दिल्ली गया तो बड़े-बड़े आर्टिस्ट के काम का एक्सपोजर मिला। उन्हें देखकर लगता था। कि मैं कुछ कर सकता हूं... लेकिन सन एंड सैंड का वह दिन तो कमाल का था। लगा कि कुछ पा लिया है मैंने। आगा जी ने अगले दिन चांद साहब से मिलवा दिया। चांद साहब ने तेरहवां एसिस्टैंट बना लिया। चीफ एसिस्टैंट देवा था। मैं रोजाना सुबह आ जाता था और चाय-वाय, कुर्सी-उर्सी का इंतजाम करता था या देवा जो बोलता था, उसे कर देता था। मैं देखता-समझता रहा। कुछ एसिस्टैंट चार-पांच साल से लगे हुए थे। देवा बारह-तेरह साल से असिस्टैंट था। फिल्म माध्यम के प्रति मेरी रुचि बढ़ती गई। कुल पांच दिन रहा मैं एसिस्टैंट। पांच रुपये मिलते थे तब रोज के...
सिर्फ पांच दिन ही एसिस्टैंट रहे और वह भी पांच रुपए प्रति दिन पर..?हां, पांच रुपए ही लंच के तौर पर मिलते थे। लंच ब्रेक के समय हम लोग बाहर जाकर खा लेते थे। तब जुहू बस स्टॉप पर चिलिया की दुकान थी। वहां डेढ़ रुपए में खाना हो जाता था। उडीपी होटल में दो रुपए पैंतीस पैसे में इतनी बड़ी थाली मिलती थी कि हम खा नहीं सकते थे। पांच दिनों में ही मुझे अंदाजा लगा कि अगर एसिस्टैंट बने रहे तो बारह-पंद्रह सालो तक कोई उम्मीद नहीं रहेगी। छठे दिन वहां का शेड्यूल खत्म होते ही मैं पूना चला गया। पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में जाकर मैंने सब कुछ पता किया। वहां सिर्फ एक ही कोर्स के लिए मैं क्वालीफाई कर रहा था, सिर्फ एक्टिंग के लिए। बाकी पढ़ाई के लिए ग्रेजुएशन जरूरी था। मैंने ग्रेजुएशन किया नहीं था। मुंबई लौटने के बाद मैंने दहिसर छोछ़ दिया। नौकरी की खोज शुरू की। सोचा कि ऐसी नौकरी कर लूं, जिसमें पढ़ाई का वक्त भी मिले। ताड़देव के एक रेस्तरां में एप्लाई किया। उनका नया ब्रांच कुलाबा में खुल रहा था। होटल के मालिक तीन भाई थे। उसमें से एक सैनिक स्कूल में पढ़ा था। उसने मुझे रख लिया। तीन सौ रुपए महीने के की नौकरी लगी। नौकरी के साथ मैंने केसी कॉलेज में मैंने एडमिशन भी ले लिया। वहां रोज क्लास नहीं करता था। टीचरों से दोस्ती कर ली थी और अपनी मजबूरी बता दी। वे अटैंडेंस लगा देते थे। होटल में सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक काम करना होता था। बीच में दो-तीन घंटे का खाली समय मिल जाता था। उसी में पढ़ाई होती थी। मेरे सारे पैसे बच जाते थे। बाद में वे पैसे पूना के फीस के काम आए। पूना कब गए आप?उसी साल मैंने पूना में एडमिशन लिया। एडीटिंग का कोर्स मिला। मेरे साथा डेविड धवन और रेणु सलूजा थे। उस साल डायरेक्शन में केतन मेहता, कुंदन शाह, विधु विनोद चोपड़ा और सईद मिर्जा थे। उन दिनों नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी भी वहां थे। वैसा बैच फिर नहीं निकला। केतन डायरेक्शन कोर्स में थे। उन्होंने एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसे मैंने सबसे पहले एडिट किया। साल बीतते-बीतते इंस्टीट्यूट में गड़बड़ियां होने लगीं। मैं वहां 1973 में गया था। 1974 की बात कर रहा हूं। गिरीश कर्नाड डायरेक्टर थे तब और इंस्टीट्यूट में स्ट्राइक हो गया। स्टूडेंट औ गिरीश कर्नाड के बीच टकराव हो गया था। इंस्टीट्यूट बंद कर दिया गया।
फिर ...हम लोग लौटकर मुंबई आ गए। मुंबई में शिवेंद्र सिन्हा के यहां ठिकाना बना। उनके भतीजे मंजुल सिन्हा मेंरे दोस्त थे। मंजुल एफटीआईआई में डायरेक्शन में थे। हम लो दिन भर इधर-उधर घूमते और रात में शिवेंद्र जी के यहां जाकर फर्श पर सो जाते थे। वहीं अजीत सिन्हा भी थे। बाद में उन्होंने मेरे साथ काम किया। आजीविका के लिए हम लोग स्किप्ट वगैरह लिखते थे। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी, फिल्म्स डिवीजन और इधर-उधर हाथ मारकर कुछ जुगाड़ कर लेते थे। पता चला कि गोवा की सरकार वहां की संस्कृति पर डॉक्यूमेंट्री बनवाना चाहती है। वहां की मुख्यमंत्री शशिकला जी को एक मित्र जानता था। उनसे मिलने गोवा गया पहुंच गए। वह फिल्म मिल गई। छावड़ा साहब - इन दिनों प्रकाश झा प्रोडक्शन में कार्यरत - की विज्ञापन एजेंसी थी। वहां भी जाकर कुछ काम कर देते थे। फिल्म मेकिंग का जुनून सवार था। आखिरकार 1975 में गोवा सरकार की डॉक्यूमंट्री 'अंडर द ब्लू' पूरी हो गई। 1975 में मेरा पहला काम सामने आया।
डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का यह रुझान तात्कालिक ही लगता है, क्योंकि आप फीचर फिल्मों की तरफ उन्मुख थे? उन दिनों फीचर फिल्म कोई दे नहीं रहा था। डॉक्यूमेंट्री में कम लागत और कम समय में कुछ कर दिखाने का मौका मिल जाता था। 1975 से 1980.81 तक मैं डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाता रहा और सैर करता रहा। यहां फिल्में बनाता था। और पैसे जमा कर कभी इंग्लैंड, कभी जर्मनी तो कभी फ्रांस घूम आता था। विदेशों में जाकर थोड़ा काम कर आता था। कह सकते हैं कि छुटपुटिया काम ही करता रहा। 1979 में बैले डांसर फिरोजा लाली ... । उनके साथ वाक्या ये हुआ था कि वे बोलशेवे तक चली गई थीं। रॉयल एकेडमी में सीखा उन्होंने सिंगापुर में भी रहीं, लेकिन कभी लाइमलाइट में नहीं रहीं। उनके पिता पूरी तरह समर्पित थे बेटी के प्रति। मुझे बाप-बेटी की एक अच्छी कहानी हाथ लगी। मैंने उन पर डॉक्यूमेट्री शुरू कर दी। उसी सिलसिले में मुझे रूस जाना पड़ा। रूस में बोलवेशे से उनके कुछ फुटेज निकालने थे। फिर लंदन चला गया। उनकी फिल्म पूरी करने के लिए। उसमें मुझे काफी लंबा समय लग गया। थोड़ी लंबी डॉक्यूमेंट्री थी। पैसों की दिक्कत थी। इधर-उधर से पैसे जमा किए थे। रूस और लंदन का वह प्रवास मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। उन चार-पांच सालों में लंदन में मीडिया का एक्सपोजर मिला। डॉक्यूमेंट्री और यथार्थवादी सिनेमा के प्रति अप्रोच मिला। अचानक लगा कि किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो। मुझे लगा कि मैं कुछ खास नहीं कर रहा हूं। फिल्में तो ऐसे बननी चाहिए। 1980 का साल मेरे लिए आत्ममंथन का साल रहा। मेंने खुद को खोजा। फिल्ममेकर के तौर पर मेरे अंदर बड़ा परिवर्तन आ गया। बाद के वर्षों में मेरी फिल्मों में यथार्थ का जो नाटकीय चित्रण दिखता है, वह वहीं से आया। 1980 के अंत या 81 के आरंभ में वह डॉक्यूमेंट्री पूरी हो गई थी। 50 मिनट की बनी थी वह फिल्म। उसका शीर्षक रखा मैंने 'बा द दा' यानी 'डांस बाई टू' बाप- बेटी की कहानी। 'बा द दा' बैले डांस का एक आयटम भी होता है। और बिहारशरीफ के दंगों पर आपने कब फिल्म बनाई? वहीं आ रहा हूं। जब मैं लंदन से लौटने की तैयारी कर रहा था उन्हीं दिनों बिहारशरीफ में दंगे भड़के। दंगों की खबर मुझे लंदन में ही मिल गई थीं। मार्च का महीना था। मैं वहां से चलने ही वाला था। बीबीसी पर न्यूज दिखा कि 'इन द हिंदू स्टेट ऑफ बिहार मुस्लिम आर बूचर्ड'। मुझे उस खबर से धक्का लगा। दंगा काफी जोर फैला था। बहुत सारे मुसलमान मारे भी गए थे। चार दिनों तक नरसंहार चला था। मंबई में लैंड करते ही मैं सीधे फिल्म्स डिवीजन गया। उस समय थापा साहब चीफ प्रोड्यूसर होते थे... एन एस थापा। थापा साहब देख कर बड़े खुश हुए। मैंने उनसे कहा कि अभी-अभी लंदन से लौटा हूं। मुझे एक यूनिट दे दीजिए, मैं फौरन बिहारशरीफ जाना चाहता हूं। यूनिट का मतलब होता है कैमरा, साउंड रिकॉर्डिस्ट आदि। मैं ट्रेन में बैठकर बिहारशरीफ जाना चाहता हूं। इस बीच परिवार से संपर्क रहा कि नहीं।। क्या परिवार के समर्थन के अभाव में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई? मेरी डॉक्यूमेंट्री 1975 में आ गई थी। उन दिनों मेरे पिताजी मोतिहारी में रहते थे। मां और पिताजी वहीं सिनेमा देखने गए और उन्होंने मेरी फिल्म देखी। पहले फिल्म शुरू होने के पहले फिल्म्स डिवीजन की फिल्में दिखाई जाती थीं। उन्होने फिल्म देखी तो सन्नाटे में आ गए। मां तो रोने लगी। उसने पिताजी से कहा कि अभी मुंबई चलिए। मैंने 1975 के अंत 1976 की शुरुआत की है। जुहू में पेइंग गेस्ट रहता था। मां से मेरा प़त्राचार था। पिताजी से कोई बात नहीं होती थी। दोनों अचानक आ गए। उनके यहां आने के बाद पिताजी से बातें हुईं बराबरी के स्तर पर ... आज तक वैसी ही है। दोनों हफ्ते भर यहां रहे। बड़ा अच्छा रहा। मैंने उन्हें मुंबई दर्शन कराया। उन दिनों के बारे में सोचने पर आज भी इमोशनल हो जाता हूं। मां और पिता जी के साथ उस एक हफ्ते की बातचीत और फिर मेरे प्रति उनका वास्तविक कंसर्न समझ कर अने पर गुस्सा भी आया। डायरेक्टर प्रकाश झा का निर्माण काल या तैयारी में लगभग आठ-नौ साल लगे? मैं 1975 से 1981 तक के समय को ज्यादा महत्वपूर्ण समझता हूं। इस पीरियड में लगातार घूमता और सीखता रहा। फिल्ममेकिंग सीखने के बाद एक स्वतंत्र नजरिया बना। हर चीज को एक खास ढंग से देखने का सलीका आया। इस पीरियड ने मुझे ठोस जमीन दी। फर्म किया। इसकी वजह से मैं जीवन और काम में निर्भयी बना। बिहारशरीफ के दंगों पर बनाई डॉक्यूमेंट्री फिल्म ने मुझे एक रियलिस्ट अप्रोच दिया। 1975 के पहले का काम अनगढ़ है और उसे मैं 'मेक टू ऑर्डर' फिल्में कहूंगा। उनमें कोई खास बात नहीं थी। कह सकते हैं कि बिहारशरीफ के दंगों पर बनी फिल्म ने आपकी दिशा बदल दी। रियलिस्ट फिल्मांकन के प्रभाव को आपने समझा और शायद वहीं से फिल्म के लिए प्ररित हुए हों? 1975 से पहले मैंने जो सीखा था... उसका मैंने इस्तेमाल किया। वह फिल्म डायरेक्ट और हार्ड हिटिंग थी। आप अभी उस फिल्म को देखें तो पता चलेगा, तब तब दंगे समाप्त हो गए थे। तनाव बना हुआ था। मैंने दंगे से प्रभावित लोगों से बातें की... जहां दंगा हुआ था वहां। मतलब दंगे के बाद के सन्नाटे में डरे हुए चेहरे... उनकी बोलती आंखें। जेल में जाकर बातें की। रिफ्यूजी कैंप में लोगों से मिला। उन सभी के साथ क्या हुआ, कैसे हुआ... सब कुछ रिकॉर्ड किया। वहां स्पेशल मजिस्ट्रेट वी एस दूबे थे। वे झारखंड के चीफ सेक्रेटरी होकर रिटायर किए। उनसे मिला। उन्होंने पूरी इजाजत दी कि जिससे मर्जी हो... जाकर मिलें। कुछ नहीं छिपाना है। उन से काफी बल मिला। उस फिल्म को मैंने शैवाल की की एक कविता से खत्म किया थां धर्मयुग में छपी उनकी कविता का उपयोग उनकी अनुमित से किया। बाद में उनकी कहानी पर ही मैंने 'दामुल' बनाई। बहरहाल, फिल्म जमा हुई। फिल्म्स डिवीजन के एडवाइजरी बोर्ड ने फिल्म देखी। उस बोर्ड के चैयरमैन हृषीकेष मुखर्जी थे। फिल्म देखकर वे तमसाए हुए बाहर निकले और पूछा, 'किसने बनाई है यह फिल्म?' लोगों ने मेरी तरफ इंगित किया तो वे मुझे पकड़कर रोने लगे। उन्होंने बहुत तारीफ की। उस फिल्म का प्रदर्शित किया गया, लेकिन चार दिनों में प्रतिबंधित हो गई। चार दिनो में सारे प्रिंट वापस ले लिए गए। बाद में उस साल उस फिल्म को सर्वोत्तम डॉक्यूमेंट्री का नेशनल अवार्ड मिला।
डॉक्यूमेंट्री तो आप अब भी बनाते रहते हैं, लेकिन अगर फीचर फिल्मों की बात करें तो उसकी शुरूआत कैसे हुई और क्यों आपने जरूरी समझा कि फीचर फिल्म बनानी चाहिए?
फिल्म और फीचर फिल्म बनाने का विचार कर रहा था मै। मैंने शैवाल की कहानी 'कालसूत्र' और 'दामुल' की पटकथा लिखी। उसके लिए प्रोड्यूसर खोज रहा था। मनमोहन शेट्टी उन दिनों मेरे दोस्त हो गए थे। उन्होंने कहा चलो बनाते हैं। लेकिन बैलेंस करने के लिए एक कमर्शियल फिल्म भी सोचो। चाय पीते- पीते हमने उन्हें स्कूल की एक कहानी सुनाई। इस तरह 'हिप हिप हुर्रे' का आइडिया आया। गुलजार साहब ने उसकी पटकथा लिखी। योजना थी कि 'हिप हिप हुर्रे' और 'दामुल' दोनों साथ में बनाई जाए। बिहार में ही दोनों फिल्म की शूटिंग होनी थी। 'हिप हिप हुर्रे' करते-करते थक गए तो सोचा कि पहले उसी को एडिट कर रिलीज करते हैं। इस तरह 'दामुल' में छह महीने की देर हो गई। इस बीच 'दामुल' की पटकथा एनएफडीसी में जमा कर दी थी। वहां से मंजूरी मिल गई। इस तरह 'हिप हिप हुर्रे' पहली फिल्म हो गई और 'दामुल' दूसरी फिल्म हो गई, जबकि 'दामुल' की योजना पहले बनी थी।
'दामुल' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और आप की एक पहचान बनी। आप उन फिल्मकारों में शामिल हो गए, जिन्हें समांतर सिनेमा का पैरोकार माना जाता था।
मैं इतने सरल तरीके से अपनी पहचान को नहीं देख पाता। 'दामुल' फिल्म इसलिए बन पाई कि मैं मूलतः गांव का हूं और गांव की सामाजिक व्यवस्था और उसके पीछे की राजनीति को समझ सकता हूं। अपनी लंबी कहानी को छोटा करूं तो मैंने 1987 में 'परिणति' बनाई। विजय दान देथा की कहानी पर फिल्म बनी थी। मैंने ढेर सारा काम किया। 'क्लासिकल डांस फ्रॉम इंडिया' सीरिज के अंतर्गत 13 फिल्में बना दीं। बीच में मेरी शादी हो गई। पर्सनल लाइफ थोड़ा डिस्टर्ब रहा। 1988 तक आते-आते मुझे लगा कि अपने आप को रिवाइव करने की जरूरत है। मैंने गांव लौटने के बारे में सोचा। 1989 में यहां सब कुछ पैक कर के पटना चला गया। चार सालों तक बिहार में रहा। एक-दो संस्थाओं के साथ मिलकर काम करने लगा। मंडल कमीशन, लालू राज और ओपन मार्केट इकॉनोमी का असर दीखने लगा था।
उस दौर में आपने बिहार में और क्या किया। सुना है कि आपकी सांस्कृतिक गतिविधियां काफी बढ़ गई थीं और आप के साथ बिहार के अनेक युवक जुड़े थे।
वहां अनुभूति नाम संस्था का गठन किया। उसके जरिए मैंने बहुत सारे युवकों को प्रशिक्षित किया। मेरे अनेक एसिस्टैंट और कैमरामैन आपको इंडस्ट्री में मिल जाएंगे। एफटीआईआई से सतीश बहादुर को बुलाकर फिल्म एप्रीशिएन कोर्स चलाता था। सिनेमा की शिक्षा पर भी मैंने ध्यान दिया। विजयकांत, संजीव और शैवाल जैसे लेखकों के संपर्क में रहा। चंपारण जाकर 'संवेदन' नाम संस्था बनाई, जिसके तहत लोगों को छोटे- मोटे उद्योग करने के लिए प्रेरित किया। बिहार में चार-पांच साल बिताने के बाद फिर एक टर्न आया। एक सैचुरेशन आ गया। जमा पूंजी समाप्त हो गई। दूसरी समस्या थी कि मैंने बेटी गोद ली थी। वह चार- पांच साल की हो गई थी। सन् 1993 में मां का देहांत हो गया। मां के गुजरते ही मेरे छोटे परिवार में बिखराव आ गया। पहले कभी सोचा ही नहीं था कि मां ने कैसे सभी को जोड़ रखा है। पिताजी उदास होकर गांव चले गए और मैं अपनी बेटी दिशा को लेकर मुंबई आ गया।
सन् 1993 के बाद आपकी दूसरी पारी आरंभा होती है, जब आपने 'बंदिश', 'मृत्युदंड' आदि फिल्में की। नए सिरे से शरूआत करने में दिक्कत तो हुई होगी?
मैं साढ़े चार-पांच साल की दिशा को लेकर मुंबई आ गया। यहां कोई घर नहीं था। कुछ महीने तक जुहू के एक होटल में रहे। 'मृत्युदंड' की कहानी लिखी थी। सोचा कि इसे बनाएंगे। एनएफडीसी में स्क्रिप्ट जमा की थी। अचानक महसूस किया मैंने कि जमीन आसमान का फर्क आ गया है। पहले दस-बारह लाख में फिल्में बन जाती थी। अब लोगों ने बताया कि सत्तर-अस्सी लाख से कम में कुछ भी नहीं होगा। मैंने मनमोहन शेट्टी से बात की। उन्होंने कहा कि बनानी तो तुम्हें ही होगी, देखो कि कैसे जोड़-तोड़ करते हो। उनके एक मकान में मैं अंधेरी में शिफ्ट हो गया। दिशा को पंचगनी के स्कूल में डाला और फिर से तिनका-तिनका जोड़ना शुरू किया।
लौटने के बाद दीप्ति नवल से भेंट-मुलाकात हुई?
हमारे संपर्क हमेशा बने रहे। बातचीत होती रहती थी। हम लोगों के बीच ऐसा कोई झगड़ा नहीं हुआ था। हमारे बीच नकारत्मक भाव कभी नहीं रहा। आरंभ में ही थोड़ी-बहुत टेंशन हुई थी। यहां आया तो दिशा की देखभाल में उन्होंने मेरी मदद की। बीच में विनोद पंडित से उनके संबंध हो गए तो वे दोनों साथ रहने लगे थे। हम लोगों की बातचीत थी। मेल-मिलाप भी रहा।
लौटने के बाद आपकी पहली फिल्म तो 'बंदिश' रही न? जिसमें जैकी श्रॉफ और जूही चावला थे?
जावेद सिद्दकी, रॉबिन भट्ट और सुरजीत सेन मिलकर स्क्रिप्ट लिखते थे। किसी ने उनसे हमारा परिचय करा दिया। जैकी श्रॉफ फिल्म में आ गए तो एक फायनेंसर भी मिल गया। सबने कहा कि कमर्शियल बनानी चाहिए। उस सेटअप में काम आरंभ किया तो कमर्शियल जान-पहचान शुरू हुई। 'बंदिश' शुरू तो हो गई, लेकिन मेरा कभी इंटरेस्ट नहीं रहा। मन लगाकर मैं उसे नहीं बना सका। वह विषय भी मेरे अनुकूल नहीं था। उस फिल्म से यह बात समझ में आ गई कि कमर्शियल फिल्म में किस तरह से काम होता है। फिल्म इंडस्ट्री में बढ़ रहा कमर्शियल दबाव भी मैंने महसूस किया। संयोग अच्छा रहा कि 'बंदिश' के बनते- बनते 'मृत्युदंड' पर भी काम शरू हो गया। एक बात समझ में आ गई थी कि 'मृत्युदंड' में किसी पॉपुलर हीरोइन को लेना होगा। उसके बगैर फिल्म धारदार नहीं होगी और शायद सफल भी नहीं होगी।
'मृत्युदंड' के लिए माधुरी दीक्षित को राजी कैसे किया। माधुरी दीक्षित तो घोर कमर्शियल फिल्म की हीरोइन थीं और उन दिनों काफी पॉपुलर थीं। क्या वह 'मृत्युदंड' के लिए आसानी से राजी हो गईं?
उन दिनों सुभाष घई से दो-चार बार मुलाकातें हुई थीं। उन्होंने पूछा था कि क्या कर रहे हो तो मैंने 'मृत्युदंड' की योजना के बारे में बताया था। उन्होंने एक दिन घर बुलाया और 'मृत्युदंड' की कहानी सुनी। कहानी सुनकर वे बहुत प्रभावित हुए पूछा कि किस हिरोइन के बारे में सोच रहे हो, तो मैंने माधुरी दीक्षित का नाम लिया। उन्होंने माधुरी को फोन कर दिया। मुलाकात तय हो गई। उन्होंने कहा कि कहानी सुना दो। अब माधुरी ही हां या ना करेगी। जिस दिन मैं माधुरी दीक्षित से मिलने सुभाष घई की 'खलनायक' के सेट पर गया, उस दिन 'चोली के पीछे' गाने की शूटिंग चल रही थी। फिल्मिस्तान स्टूडियो के मेकअप रूम में शॉट के बीच में उन्होने कहानी सुननी शरू की। मैंने देखा कि कुछ देर बाद वह अटक गई। उन्हें कुछ पसंद आया। उन्होंने शॉट रोक दिया और अगले पौने घंटे में कहानी सुनी। तब तक मुझे आशा नहीं थी कि वो हां करेंगी। कहां 'चोली के पीछे ...' और कहां 'मृत्युदंड'? लेकिन उन्होने कहानी खत्म होते ही हां कहा। उसके बाद शबाना आजमी आईं। बाकी कलाकार आए। मायावाला साहब आए। उन्होंने फायनेंस किया। उस फिल्म को पूरा करने के दरम्यान मेरी यूनिट फिर से खड़ी हो गई। फिर से लोग जुड़े, एक सिस्टम बना और हम वापस अपने पैरों पर खड़े हो गए। फिल्म सफल भी हुई। हालांकि हमें ज्यादा लाभ नहीं हुआ, लेकिन 'मृत्युदंड' से एक स्टैंडिंग बन गई। मेरी भी समझदारी विकसित हुई कि किस तरह की फिल्म बनानी है। उसके आगे की कहानी सब जानते हैं।
'हिप हिप हुर्रे' और 'दामुल' के निर्देशन के समय आपके समकालीनों में कौन से डायरेक्टर एक्टिव थे। किन लोगों के साथ आपका ज्यादा मिलना-जुलना था?
दोनों ही फिल्मों की शूटिंग मैंने बिहार में की थी। मुंबई में बहुत कम लोगों को जानता था। एफटीआईआई के लोग थे। कुंदन शाह, केतन मेहता आदि। उन लोगों से मिलना-जुलना होता था। हिंदी फिल्मों के कमर्शियल वर्ल्ड से मेरी कोई जान-पहचान नहीं थी कभी कोई इच्छा भी नहीं रही थी उधर घुसने की। 'दामुल' को नेशनल अवार्ड मिला तो चर्चा जरूर हुई। उस समय हम नेशनल अवार्ड का महत्व नहीं समझ पाए थे। उस समय हम लोग खुद को अलग जाति का फिल्ममेकर समझते थे। आज तो सब गड्डमड्ड हो गया है और अभी कमर्शियल फिल्मों को भी नेशनल अवार्ड मिल जाता है।
एक साथ आरंभ हुई आपकी दोनों फिल्में 'हिप हिप हुर्रे' और 'दामुल' बिल्कुल अलग स्वभाव की थीं। ऐसा लगता है कि 'हिप हिप हुर्रे' की शैली आपने मजबूती से नहीं पकड़ी?
उसमें मेरी रुचि थी ही नहीं। वह तो हंसते खेलते और चाय पीते-पीते मैंने बना दी थी।
'दामुल' के समय किस तरह के प्रभाव में थे आप?
यथार्थवादी सिनेमा का प्रभाव जरूर था। अपनी सोच और समझ भी विकसित हुई थी। डायरेक्टर फिल्म के लिए जरूरी शिल्प पर मैंने काम किया। कैरेक्टर भी उसी हिसाब से सोचे। सच कहूं तो मेरी अपनी शैली और पसंद की पहली फिल्म 'दामुल' ही थी। ये जो चार फिल्में मैंने बनाई हैं। सामाजिक कलह को लेकर बनी 'दामुल', 'मृत्युदंड', 'गंगाजल' और 'अपहरण...' ये चारों पॉलिटिकल फिल्में हैं। चारों सामाजिक दृष्टि से प्रासंगिक फिल्में हैं। इसी क्रम में अब राजनीति आएगी।
क्या कारण है कि हिंदी प्रदेशों से डायरेक्टर नहीं आ पाते। सब के पास बड़े सपने होते हैं, लेकिन क्या कमी रह जाती है कि उनकी फिल्में बन नहीं पातीं।
फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाने और पाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है। हम लोगों की तरफ से आए युवक या तो भटक जाते हैं या उनका धैर्य टूट जाता है। छोटे लाभों में भी कई लोग फंस जाते हैं। अगर आप फिल्म निर्देशन में आ रहे हैं तो एक बात न भूलें कि यह लोगों का माध्यम है। आप उनकी भाषा में अपनी बात कहिए। उनकी समझ में आने के हिसाब से ड्रामैटाइज कीजिए। आप देखें कि मेरी 'मृत्युदंड' से बेहतर 'गंगाजल' रही और 'गंगाजल' से भी बेहतर 'अपहरण' रही। हम भी सीखते- समझते जा रहे हैं। मेरी फिल्मों के भी दर्शक हैं। उन्हें मेरी फिल्मों का इंतजार रहता है।
अपने अनुभवों से युवा निर्देशकों को क्या सलाह देंगे?
स्टडी कीजिए। आप जो कहना या बनाना चाह रहे हैं, उसे अच्छी तरह स्टडी कीजिए। इस माध्यम को समझिए और अपने विषय को पहले एक दर्शक के तौर पर देखिए। एक आम दर्शक की तरह अपनी फिल्म को देखिए और समझिए। यह संप्रेषणा का माध्यम है। हम बहुत बड़ी बात कह रहे हों और अगले की समझ में ही न आए तो क्या फायदा? बात इस ढंग से कही जाए कि सामान्य से सामान्य दर्शक की भी समझ में आए।
आपने अपनी फिल्मों में राजनीति से परहेज नहीं किया। कमर्शियल सिनेमा में आपकी फिल्मों का एक राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण रहता है। खासकर बिहार में जाति व्यवस्था और उनके अंतर्संबंधों के बीच पल और चल रही राजनीति को आपने छुआ है।
मैं मूलतः गांव का व्यक्ति हूं, और फिर बिहार से हूं। बिहार का समाज एक ऐसा समाज है, जो सामाजिक और राजनीति समझता है और राजनीतिक बातें करता है। मुझे समाज के अंदर सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से जो परिवर्तिल दिखे, उन्हें समय-समय पर मैंने अपनी फिल्मों का विषय बनाया। 'दामुल' पारंपिरक सामंतवादी परिवेश की फिल्म है। राजनीतिज्ञ, प्रशासन और सामंत के बीच किस तरह के संबंध थे और वे कैसे ग्रास रूट लेवल पर काम कर रहे थे। 1990 में मंडल कमीशन की और मुक्त बाजार की नीति से समाज में ठेकेदार बढ़े और धार्मिक कट्टरता भी बढ़ी। पारंपरिक सामंतवादी समीकरण में बदलाव आया। इस परिवर्तन को मैंने 'मृत्युदंड' में रखा। 'मृत्युदंड' के सात-आठ साल बाद जिन्हें बैकवॉर्ड समझा जाता था, वे पॉलिटिकली आगे बढ़े। उनको सत्ता मिली तो समाज में फिर परिवर्तन दिखा। यह सब एक सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया और विकास है, अगर उसे ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में रख कर देखें तो समझ में आता है। पिछड़ी जाति के लोगों के सत्ता में आने के बाद उनके बीच मतभेद बढ़े। आप देखते हैं कि कैसे एक यादव दूसरे यादव को मार सकता है। इसे हमने 'गंगाजल' के बैकड्रॉप में डील किया। मेरी फिल्मों में राजनीतिक गतिविधियां दिखती हैं।
हां, लेकिन किसी राजनीतिक स्टैंड या टिप्पणी से आप बचते हैं?
मैं किसी राजनीतिक टिप्पणी या विचारधारा की बात नहीं करता। मैं बचता नहीं हूं। यह मेरा काम नहीं है। एक फिल्ममेकर के तौर पर मैं अपने समाज की गतिविधियों को चित्रांकित करता हूं। मैं राजनीति को समाज और व्यक्तियों के स्तर पर डील करता हूं। यही कारण है कि मेरी फिल्में राजनीतिक मानी जाती हैं। फिल्मों के राजनीतिक होने का मतलब यह नहीं हो सकता कि उसमें नारेबाजी हो या आइडियोलॉजी हो। कभी कथ्य की जरूरत होने पर वैसी फिल्म भी बन सकती है, लेकिन वह कोई शर्त नहीं है।
क्या वजह है कि हिंदी फिल्में राजनीति से इस कदर बचती रही हैं कि अराजनीतिक हो जाती हैं। अगर कुछ फिल्मों में राजनीति आती भी है तो वह शहरी और एकेडमिक होती है या फिर पूरी तरह से काल्पनिक और फिल्मी होती है?
मुझे ऐसा लगता है कि आम तौर पर हिंदी फिल्मों के फिल्ममेकर राजनीति से ज्यादा परिचित नहीं हैं। उनकी कोई राजनीतिक पढ़ाई-लिखाई नहीं है। उनका राजनीतिक आधार नहीं है। उन्हें संदर्भ नहीं मिल पाता। दूसरे राजनीति से प्रेरित फिल्मों को कमर्शियल नहीं माना जाता। बहुत तरह की बातें हो सकती हैं। मैं खुद जब स्क्रिप्ट लिख रहा होता हूं तो इसके लिए चिंतित रहता हूं कि मेरी फिल्म का कमर्शियल भविष्य क्या होगा? क्या कोई मेरी फिल्म देखने आएगा? संयोग की बात कहें या दर्शकों की जागरूकता कहें... मेरी फिल्में चल जाती हैं। यह जोखिम का मामला है, इसलिए लोग फिल्में नहीं बनाते।
ऐसी भी धारणा है कि दर्शक राजनीतिक फिल्में नहीं देखना चाहते?
दर्शकों की मानसिकता समझने की जरूरत है। दर्शक पॉलिटिकल या हिस्टोरिकल या एक्शन फिल्म देखने नहीं जाता। वह ड्रामा देखने जाता है। उसे कंपलीट एंटरटेनमेंट चाहिए। हर तरह की फिल्म एंटरटेन करती है। अब यह डायरेक्टर पर निर्भर करता है कि वह कैसे एंटरटेन करता है। बौद्धिक मनोरंजन भी होता है। मैं इसमें यकीन करता हूं। अगर मेरी फिल्में आपको मानसिक तौर पर झकझोरती हैं तो वे आपको एंटरटेन करती हैं।
आपकी अगली फिल्म का नाम ही 'राजनीति' है? उसमें राजनीति के कौन से पहलू और पक्ष होंगे?
'राजनीति' में मैं लोकतंत्र की बातें करूंगा। लोकतंत्र का इन दिनों क्या उपयोग-दुरूपयोग हो रहा है। उसे कैसे निहित स्वार्थ के तहत इस्तेमाल किया जा रहा है। अपने यहां लोकतंत्र को बरगलाने की पुरानी परंपरा है। महाभारत के दिनों से देश में राजनीति और चालबाजी चल रही है। मुझे लोकतंत्र छल-कपट से भरा टर्म लगता है। लोकतंत्र जैसा कुछ रह नहीं जाता। मुट्ठी भर लोग लोकतंत्र का जामा पहन कर उसका इस्तेमाल करते हैं। इसका भरपूर दुरुपयोग हो रहा है हमारे देश और समाज में।
अपने यहां संसदीय लोकतंत्र है। इस अवधारणा में आप कितना विश्वास रखते हैं?
आप इंदिरा गांधी के जमाने से ही देख लें कि कैसे सरकारें बनती हैं। कैसे प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों का चुनाव होता है। क्या यही लोकतंत्र है? आपने कर्नाटक में देखा, बिहार में देखा, उत्तरप्रदेश में देखा...हर प्रदेश और केंद्र की वही हालत है।
क्या हमारी फिल्में संसदीय लोकतंत्र का समर्थन करती हैं?
मेरी अगली फिल्म में देखिए।
मैं हिंदी की अन्य फिल्मों को समेटते हुए पूछ रहा हूं?
मुझे नहीं लगता। हिंदी फिल्मों में गहरा विश्लेषण नहीं रहता। मैं अपनी फिल्मों में बनते-बदलते राजनीतिक समीकरण की बातें करता हूं। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' को मैं राजनीतिक फिल्म मानता हूं। श्याम बेनेगल की फिल्मों में राजनीति का वस्तुगत चित्रण है। कुछ और फिल्मकारों की फिल्मों के उदाहरण दिए जा सकते हैं। लेकिन यह हिंदी फिल्मों की उल्लेखनीय प्रवृत्ति नहीं है। ना ही ऐसी कोई ठोस परंपरा है।
कई बार कमर्शियल फिल्मों में राजनीति का ऐसा नकार होता है कि सारे राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं और इन सभी को भून देना चाहिए... संसद को उड़ा देना चाहिए... आदि आदि।
यह अपभ्रंश है। सारे राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं या पूरा पुलिस महकमा करप्ट है। ऐसी धारणा घातक है। इसी धारणा के तहत लोग ये भी कहते हैं कि सारे फिल्मकार व्यभिचारी हैं। लोग कहते हैं कि तुम फिल्मवालों का क्या? कुछ भी चलता है वहां।
क्या किसी फिल्मकार का अपना राजनीतिक मत या पक्ष होना चाहिए?
यह तो फिल्मकार पर निर्भर करता है।
मैं आप से पूछ रहा हूं।
मेरा कोई राजनीतिक पक्ष नहीं है। मैं सामाजिक नीति और विकास की नीति का पक्षधर हूं। मुझे लगता है कि सभी को विकास का अवसर मिलना चाहिए। तभी बराबरी के समाज का निर्माण हो सकेगा। बाजार बढ़े, लेकिन वह इस हिसाब से बढ़े कि सब की जरूरतों को साथ लेकर बढ़े।
Comments
behad achcha sakshatkar hai. Badhai
aur shubhkamnayen is puri shrankhala " pehli seedhi" ke liye.
asha hai bhaivishya mein bhee aisee hee rochak samagree parhne ko milegee.
kripaya apna mail check karein.
Rk
इसके लिए बधाई के पात्र हैं.
पत्रकारिता में बाज़ार और संपादकों के दबाव में जो पढ़ने को नहीं मिल रहा था -वो तुम परोस रहे हो. साथ ही - सारी बातें एक किताब की तरह संग्रहित होती जा रही हैं. मज़ा आ रहा है!
dipankar