बया में 'पहली सीढ़ी' सीरिज़ में प्रकाश झा का इंटरव्यू

पहली सीढ़ी
मैं प्रवेश भारद्वाज का कृतज्ञ हूं। उन्होंने मुझे ऐसे लंबे, प्रेरक और महत्वपूर्ण इंटरव्यू के लिए प्रेरित किया। फिल्मों में डायरेक्टर का वही महत्व होता है, जो किसी लोकतांत्रिक देश में प्रधानमंत्री का होता है। अगर प्रधानमंत्री सचमुच राजनीतिज्ञ हो तो वह देश को दिशा देता है। निर्देशक फिल्मों का दिशा निर्धारक, मार्ग निर्देशक, संचालक, सूत्रधार, संवाहक और समीक्षक होता है। एक फिल्म के दरम्यान ही वह अनेक भूमिकाओं और स्थितियों से गुजरता है। फिल्म देखते समय हम सब कुछ देखते हैं, बस निर्देशक का काम नहीं देख पाते। हमें अभिनेता का अभिनय दिखता है। संगीत निर्देशक का संगीत सुनाई पड़ता है। गीतकार का शब्द आदोलित और आलोड़ित करते हैं। संवाद लेखक के संवाद जोश भरते हैं, रोमांटिक बनाते हैं। कैमरामैन का छायांकन दिखता है। बस, निर्देशक ही नहीं दिखता। निर्देशक एक किस्म की अमूर्त और निराकार रचना-प्रक्रिया है, जो फिल्म निर्माण \सृजन की सभी प्रक्रियाओं में मौजूद रहता है। इस लिहाज से निर्देशक का काम अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। श्याम बेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि आप ईश्वर की धारणा में यकीन करते हों और उसे महसूस करना चाहते हों या साक्षात देखना चाहते हों तो किसी निर्देशक से मिल लें। फिल्म निर्देशक धरती पर चलता-फिरता साक्षात ईश्वर होता है। अगर यह संसार ईश्वर की मर्जी से चलता है तो फिल्मों का तीन घंटों का यह माया संसार निर्देशक की मर्जी पर टिका रहता है। वह पूरी फिल्म के एक-एक दृश्य का सृजनहार होता है। अफ़सोस की बात है कि हिंदी फिल्मों में स्टार को महत्वपूर्ण स्थान मिल गया है। लेकिन निर्देशक आज भी पहचान के मोहताज हैं। इन दिनों निर्देशक अपनी गरिमा भी खो बैठे हैं। अब ये केवल किसी विचार, धारणा या प्रस्ताव को 'एक्सक्यूट' करते हैं। उसे बिकाऊ वस्तु बना देते हैं।

प्रवेश भारद्वाज ने मुझे बार-बार उकसाया और अखबारों की नौकरी की सुविधाओं और प्रमाद से बार-बार झकझोरा। मुझे निर्देशक हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं, इसलिए कहीं न कहीं मैं प्रवेश को सुनता और समझता रहा। इस सीरिज में कोशिश है कि हम निर्देशकों की तैयारी, मानसिकता और उस परिवेश को समझें, जिसमें उन्होंने निर्देशक बनने का ही फैसला किया। पहली फिल्म बन जाने और उसके बाद मिली पहचान के पश्चात की यात्रा से हम सभी कमोबेश परिचित होते हैं, लेकिन पहली फिल्म मिलने के पहले के अनिश्चय, आशंका, आत्मविश्वास और आत्मसंघर्ष से हम परिचित नहीं हो पाते। हर इंटरव्यू के पहले मैंने निर्देशकों से आग्रह किया कि वे अपने आरंभिक जीवन के प्रति नॉस्टेलजिक एटीट्यूड न रखते हुए सब कुछ बताएं।

इस सीरिज की शुरुआत प्रकाश झा से हुई। उन्होंने इसे 'पहली सीढ़ी' नाम दिया। इसे संयोग ही कहें कि 'बया' के संपादक गौरीनाथ ने इस सीरिज के लिए पहला इंटरव्यू प्रकाश झा का ही मांगा। प्रकाश झा मेरे अग्रज और मार्गदर्शक हैं। विवादों और शंकाओं से जूझते हुए अपनी क्रिएटिव अस्मिता की धुरी पर टिके प्रकाश झा के योगदान का मूल्यांकन अभी नहीं किया जा सकता। उन्होंने हिंदी सिनेमा को नई भाषा दी है।

प्रकाश झा से मेरी मुलाकात अग्रज सुमंत मिश्र के साथ हुई थी। वे बिहार से लौटकर आए थे और मुंबई में खुद को फिर को फिर से संजो रहे थे। उन्होंने 'बंदिश' की तैयारी शुरु कर दी थी। पहली मुलाकात बेहद औपचारिक थी। तब तक मैंने तय नहीं किया था कि फिल्मों पर ही लिखना है। हां, फ्रीलांसिंग के दबाव में फिल्मी हस्तियों से मिलने का क्रम आरंभ हो चुका था। 'मुंगेरी के भाई नौरंगीलाल' के समय प्रकाश झा से विस्तृत बातें हुईं। तब तक मैं श्याम बेनेगल के संपर्क में आ चुका था और दो-तीन निर्देशकों के साक्षात्कार कर चुका था। प्रकाश झा का रहस्यमय व्यक्तित्व मुझे अपनी ओर खींच रहा था। खासकर उनकी तीक्ष्ण मुस्कुराहट ... ऐसा लगता है कि कोई राज होंठों के कोनें में छिपा है। बस, वे बताने ही जा रहे हैं। ऐसी मुस्कुराहट के समय प्रकाश झा की आंखें सजल हो जाती हैं। बहरहाल, औपचारिकता टूटी और मैंने थोड़ा करीब से उन्हें देखा। हां, 'मृत्युदंड' के समय प्रकाश जी से गाढ़ा परिचय हुआ और उसके बाद से संपर्क और परिचय की सांद्रता में कभी कमी नहीं आई। मैंने जब इस इंटरव्यू की बात की तो उन्होंने झट से कहा, शुरू करो ... बोलो कब इंटरव्यू करना है। और इस तरह 'पहली सीढ़ी' की नींव पड़ी।
कल पढ़ें इस इंटरव्यू का पहला हिस्सा....

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